Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन

Give Employment Not Ebriety 1984 - "नशा नहीं, रोजगार दो" आन्दोलन 1984

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पंकज सिंह महर:
साथियो,
      ८० के दशक में शराब जैसे कुरीति ने हमारे पहाड़ को बुरी तरह से जकड़ लिया था, इसका प्रभाव यहां तक पड़ा कि लोग नशे के आदी हो गये और नशे के माफिया शराब के विकल्प के रुप में सस्ते नशे, यथा- पुदीन हरा, महिलाओं की दवाईयां सुरा और अशोका तथा अन्य चीजों को नशेडियों को बेचने लगे। तब इस सामाजिक कुरीति को जड़ से उखाड़ने के लिये पहाड़ के युवाओं ने १९८१ से ही आन्दोलन शुरु कर दिया। युवा टोलियां बनाकर शराब पकड़ कर नष्ट करने लगे। इस आन्दोलन को जन आंदोलन में परिवर्तित किया उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने, २ फरवरी, १९८४ को चौखुटिया के बसभीड़ा गांव से विधिवत "नशा नहीं, रोजगार दो" आन्दोलन की शुरुआत की, जो आगे चलकर उत्तराखण्ड में एक व्यापक जन आन्दोलन के रुप में परिणित हुआ।
     इस टोपिक के अन्तर्गत हम इस आन्दोलन पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

पंकज सिंह महर:
इस आंदोलन पर नैनीताल समाचार ने दिनांक १ सितम्बर, 1984 को "पहाड़ आंदोलित है" शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी, इसमें इस आंदोलन का सम्पूर्ण विवरण भी है।
उसी से साभार टंकित


उत्तराखण्ड का इतिहास बताता है कि राजशाही (1815) काल तक इस क्षेत्र में शराब का आम जनता के बीच प्रचार-प्रसार लगभग नहीं के बराबर था। इस क्षेत्र में शौक, जोहारी, जाड़, मार्छा, जौनसारी, थारु, बिक्सा जनजातियों में ही शराब परम्परागत रुप से जुड़ी होने के बावजूद अंग्रेज काल से पूर्व यहां शराब का चलन बहुत कम था। ब्रिटिश काल में 1880 के बाद सरकारी शराब की दुकानें खुलने के साथ ही यहां पर शराब का प्रचलन शुरु हुआ।
       पहाड़ों में छावनियों, हिल स्टेशनों की स्थापना के बाद इस प्रक्रिया को गति मिली, फिर भी उत्तराखण्ड के तीन-चार शहरों-कस्बों को छोड़कर शराब का प्रचलन नहीं बढ़ा। 1822-23 में कुमाऊं(तत्कालीन सम्पूर्ण उत्तराखण्ड) से शराब, दवाओं और अफीम का सम्मिलित राजस्व 534 रुपया था, 1837  में 1300 रुपया, 1872 में 18,673 रुपया और 1882 में 29,013  रुपया तक गया। 1882 में जब यह कहा जाने कि यहां पर शराब का प्रचलन बढ़ने लगा है तो तत्कालीन कमिश्नर रामजे ने लिखा था कि "ग्रामीण क्षेत्रों में शराब का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है और मुझे आशा है कि यह कभी नहीं होगा, मुख्य स्टेशनों के अलावा शराब की दुकानें अन्यत्र खुलने नहीं दी जायेंगी"। इससे पहले 1863-73  की अपनी रिपोर्ट में बैकेट ने लिखा था कि कुमाऊं में शराब पीने का प्रचलन नहीं है।
       ब्रिटिश काल में शराब का प्रचलन बढ़ने के साथ ही शराब को एक आवश्यक बुराई मान कर इस क्षेत्र में शराब के खिलाफ बराबर प्रतिरोध भी होता रहा। जिला समाचार, अल्मोड़ा नें 1 जून, 1925 के अपने सम्पादकीय में लिखा कि "हमें बड़े शोक के साथ लिखना पड़ता है कि कुमाऊं प्रान्त में दिन पर दिन शराब का प्रचार बढ़ता जाता है, ९० प्रतिशत लोग इसके दास बन गये हैं, सरकार अपनी आमदनी नहीं छोड़ सकती है और दुकानदार अपनी रोजी नहीं छोड़ सकते, तो क्या लोग अपनी आदत नहीं छोड़ सकते? छोड़ सकते हैं, छुड़वाये जा सकते हैं।

पंकज सिंह महर:
अल्मोड़ा अखबार 2 जनवरी, 1893 ने लिखा "जो लोग शराब के लती हैं, वे तुरन्त ही अपना स्वास्थ्य व सम्पत्ति खोने लगते हैं, यहां तक कि वे चोरी, हत्या तथा अन्य अपराध भी करते हैं, सरकार को लानत है कि वह सिर्फ आबकारी रेवेन्यू की प्राप्ति के लिये इस तरह की स्थिति को शह दे रही है। यह सिफारिश की जाती है कि सभी नशीले पेय और दवाओं पर पूरी तरह रोक लगे"।
       स्वतंत्रता संग्राम में देश के अन्य भागों की तरह यहां पर भी शराब के खिलाफ आन्दोलन चलते रहे, 1965-67 में सर्वोदय कार्यकर्ताओं द्वारा टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ तक शराब के विरोध में आन्दोलन चलाया, परिणाम स्वरुप कई शराब की भट्टियां बंद कर दी गईं।
       1 अप्रैल, 1969 को सरकार ने सीमान्त जनपद उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ में शराबबंदी लागू कर दी गई। 1970 में टिहरी और पौड़ी गढ़वाल में भी शराबबंदी कर दी गई, पर 14 अप्रैल, 1971 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस शराबबंदी को अवैध घोषित कर दिया और उत्तर प्रदेश सरकार मे उच्च्तम न्यायाल्य में इसके विरुद्ध कुछ करने के बजाय या आबकारी कानून में यथोचित परिवर्तन करने के फौरन शराब के नये लाइसेंस जारी कर दिये। जनता ने इसका तुरन्त विरोध किया, सरला बहन जैसे लोग आगे आये। 20 नवम्बर, 1971 को टिहरी में विराट प्रदर्शन हुआ, गिरफ्तारियां हुई। अन्ततः सरकार ने झुक कर अप्रैल, 1972 से पहाड के पांच जिलों में फिर से शराबबंदी कर दी।

जारी......

पंकज सिंह महर:
प्रमुख रुप से इस क्षेत्र में तीन तरह के एल्कोहालिक नशे प्रचलित हैं- देशी-अंग्रेजी शराब व मिलिट्री रम, छंग, चकती आदि कच्ची शराब व सुरा लिक्विड़, बायो टानिक, टिंचर, पुदीन हरा, एवोफास आदि एल्कोहालिक आयुर्वेदिक और एलोपैठिक दवाइयां। फरवरी, १९८४ में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार अकेले अल्मोड़ा जनपद (पुरुष जनसंख्या लगभग चार लाख) में प्रति माह मिलिट्री रम की ३० हजार बोतलों की खपत है। साथ ही अंग्रेजी व देशी शराब की दुकानों से प्रतिमाह ५० लाख रुपये की अंग्रेजी और देशी शराब बेची जाती है।
       कच्ची शराब कुटीर उद्योग के रुप में फैल चुकी है, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, चमोली आदि जनपदों में भोटान्तिक जनजातियों के अधिकांश लोगों ने तिब्बत से व्यापार बन्द होने के बाद कच्ची शराब के धन्धे को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया है। इस धन्धे को बखूबी चलने देने के लिये वे पुलिस व आबकारी वालों की इच्छानुसार पैसा खिलाते हैं। कच्ची के धन्धे को नेपाल से भारत में आकर जंगलों, बगीचों आदि में काम करने वाले नेपाली मजदूर भी खूब चलाते हैं।
      लेकिन इन दोनों किस्मों की शराब से कहीं अधिक घातक और विनाशकारी है, दवाइयों के नाम पर बिक रही शराब, उदाहरणॊं के लिये डाबर कम्पनी का पुदीन हरा, जो मैदानी भागों में गर्मी के मौसम हेतु जरुरी औषधि है। सुरा, जो गर्भवती महिलाओं की दवा है और अशोका लिक्विड, जो महिलाओं के मासिक स्राव को नियंत्रित करने की एलोपैथिक दवा है, यहां पर शराब की तरह बेची जा रही है। आश्चर्य का विषय है कि इसमें ४० से ९० प्रतिशत तक एल्कोहल मौजूद रहता है। सरकार को राजस्व के रुप में इस व्यापार से एक धेला भी नहीं मिलता पर अधिक मुनाफे के लालच में हर छोटा-बड़ा दुकानदार इसमें लिप्त होता जा रहा है। जहां एक ओर इस जहरीले व्यापार से जुड़ी आतंक व हिंसा की संस्कृति पहाड़ों में फैल रही है, वहीं दूसरी ओर इसके पीने वाले आर्थिक, सामाजिक रुप से खोखले होने के साथ-साथ सिरोसिस, नपुंसकता, अंधापन, गुर्दे व फेफड़े की बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं।
       

पंकज सिंह महर:
१९७८ में जनता पार्टी का शासन होने पर उ०प्र० ने आठों पर्वतीय जनपदों में पूर्ण मद्यनिषेध लागू कर दिया था, पर सरकारी तंत्र में शराब बंदी के प्रति कोई आस्था न होने के परिणामस्वरुप शराब बंदी के स्थान पर पहाड़ के गांवों में सुरा, लिक्विड आदि मादक द्रव्य फैल गये और पहाड़ की बर्बादी का एक नया व्यापार शुरु हो गया। १९८० में इंका० सरकार द्वारा नैनीताल, अल्मोड़ा, देहरादून में शराब पूरी तरह खोल दी गयी, टिहरी, पिथौरागढ़ और पौड़ी में परमिट के आधार पर अंग्रेजी शराब उपलब्ध कराये जाने के बावजूद गांव-गांव तक फैला सुरा का व्यापार बंद नहीं हुआ।
       नवां दशक शुरु होने तक हालात बहुत खराब हो चुके थे, सुरा जैसे व्यापक जहरीले द्रव्यों का पहाड़ों में व्यापक प्रसार हो गया और साथ ही सैकड़ों परिवार तबाह हो गये। एक ही परिवार की तीन-तीन पीढियां एक साथ सुरा-शराब की लती हो गई। परिवारों की आमदनी का बड़ा हिस्सा इन नशों के लिये अधिक खर्च होने लगा। पेंशन, मनीआर्डर, सरकारी अनुदान, यहां तक किऔरतों के गहने, जेवर, व घर के भांडे-बर्तन बेचकर भी सुरा-शराब पीने की घटनायें सामने आने लगीं। आसन्न मृत्यु की छाया पहाड़ के स्वस्थ समझे जाने वाले युवकों के चेहरों पर प्रत्यक्ष दिखाई देने लगी, ऎसी अनेकों मौतें भी हुई।
        शादी-विवाह, अन्य पर्व-त्योहारों में शराब पीकर धुत्त होना, एक सामान्य सी घटना बन गया और इसके साथ मारपीट और औरतों के साथ बदतमीजी करना भी शुरु होता चला गया। पहाड़ सी सामाजिक जिंदगी से औरतों का आतंकित होकर कटना शुरु हो गया। ड्राइवरों का नशे में धुत्त होकर कई मोटर दुर्घटनाओं से होने से भी आक्रोश जगा।.......

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