Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन

Historical information of Uttarakhand,उत्तराखंड की ऐतिहासिक जानकारी

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Devbhoomi,Uttarakhand:
अल्मोड़ा almoda

प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया।

 बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा १५६८ में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई।कल्याण चंद द्वारा।[तथ्य वांछित] चंद राजाओं के समय मे इसे राजपुर कहा जाता था। 'राजपुर' नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।

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उत्तरकाशी,Uttarkashi

भूकम्प के पश्चात शीघ्र ही गोरखाओं के गढ़वाल की तरफ बढ़ने का समाचार सारे देश में पैल गया। गढ़वालियों ने अपनी तरफ से पूर्ण विरोध किया और सीमा पर खूनी संघर्ष प्रारंभ हो गया। फरवरी 1803 ई. में गोरखाओं ने अमर सिंह थापा, हरीदत्त चैत्रीय और बरन शाह के नेतृत्व में श्रीनगर को जीतने के सिए निर्णायक धावा बोला।

 बेशक गढ़वालियों ने अद्वितीय साहस से युद्ध किया परंतु संख्या में कम होने के कारण वे श्रीनगर में अपना आधार खो बैठे। यही बरहत ( उत्तरकाशी), चमुआ (टेहरी) तथा ज्वालारम (1801) में भी हुआ।

 पराजित होने पर प्रदुमन शाह पहले देहरादून तथा फिर सहारनपुर भाग गया। मई (1805 ई.) में गढ़वाल पर पुनः अधिकार करने के लिए प्रदुमन सिंह ने लाधौंर के राजा राम दयाल सिंह गुर्जर की सहायता से खुरबूदा में निर्णायक आक्रमण किया। दुर्भाग्य से प्रदुमन शाह अपने विश्वासपात्रों के साथ इस युद्ध में मारा गया। गोरखाओं ने जैसा कि अपेक्षित था, पूर्ण राजकीय ढंग से उसका संस्कार किया।

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श्रीनगर का एतिहासिक वर्णन

राजा प्रदुमन सिंह पदासीन होने के समय से ही मुश्किलों में घिर गया था। उसके साम्राज्य के शुरूआत में ही अलकनंदा नदी में आई भयानक बाढ़ ने उसकी राजधानी श्रीनगर के लगभग एक तिहाई भाग को नष्ट कर दिया तथा उसके महल को भी बहुत क्षति पहुचाई। 1790 ई. में कुमाऊ पर अधिकार करने के पश्चात गोरखाओं ने लगूंर गढ़ी पर जो कि गढ़वाल राजा का सालन में एक महत्वपूर्ण किला था, असफल आक्रमण किया। परंतु 1791 ई. में चीनी आक्रमण के समाचार के कारण उन्हें मजबूरी में अपने पैर वापिस खींचने पड़े।

 गढ़वाल नरेश गोरखाओं की बहादुरी तथा आक्रमकता से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने 25,000 प्रति वर्ष नजराना तथा एक नेपाली दूत को अपनी श्रीनगर सभा में नियुक्त करना मान लिया। गोरखाओं ने चीन के साथ अपना झगड़ा निपटाने तथा गढ़वाल के साथ विवाद सुलझाने के पश्चात पुनः अलमोड़ा का रूख किया तथा वहां अपना प्रशासन स्थापित किया।

 उनकी इस कार्यवाही से विवश होकर हर्ष देव जोशी को श्रीनगर जाकर प्रदमन शाह को हस्तक्षेप करने के लिए विनती करनी पड़ी 1810 ई. में एक भयंकर भूकम्प ने गढ़वाल में बहुत उत्पात तथा विनाश उत्पन्न किया और अनेकों घरों को, महल को मिट्टी में मिला दिया और सैकड़ों व्यक्ति एवं पशुओं को मार दिया।

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उत्तराखंड पर गोरखाओं का आक्रमण

प्रदुमन शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेज राज्य बरेली में शरण ली और अपना खोया राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उसने अंग्रेज सरकार को वचन दिया कि अगर वे उसका राज्य वापिस दिलवाने में सहायता करेंगे तो वह गढ़वाल उनके साथ आधा बांटने को तैयार है।

 दूसरी तरफ गोरखाओं ने अंग्रेजों के अधीन आती गंगा घाटी भर आक्रमण करना शुरू कर दिया। जब अंग्रेजों ने इस पर आपत्ति प्रकट की तो वे और भी दुस्साहस करने लगे।यह जाहिर था कि केवल युद्ध से ही गोरखा, बाज आ सकते हैं।

 परिणाम स्वरूप 1815 ई. में कर्नल निकोलस के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने कुमाऊं तथा गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया तथा अल्मोड़ा में सितौली के पास निर्णायक युद्ध हुआ जो कि 25 अप्रैल 1815 ई. को सम्पूर्ण कुमाऊं क्षेत्र पर अंग्रेजों के अधिकार के साथ समाप्त हुआ।

इस युद्ध में केवल 211 व्यक्ति ही घायल अथवा मारे गए। सुदर्शन शाह को पुनः आधे गढ़वाल का राजा स्थापित कर दिया गया तथा आधा गढ़वाल 1815 ई. में अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।

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आदरणीय ई. गार्डनर कुमाऊं डिवीजन के प्रथम कमिश्नर 3 मई 1815 ई. को नियुक्त हुए। गोरखाओं का  गोरख्यानी  नाम से जाना जाने वाला बारह वर्षीय राक्षसीय साम्राज्य समाप्त हुआ।

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