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Historical information of Uttarakhand,उत्तराखंड की ऐतिहासिक जानकारी

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Hisalu:
Badiya information hai Vinod bhaai..

--- Quote from: विनोद गड़िया on February 08, 2012, 02:35:46 AM ---अस्कोट : चमक खो चुके अतीत में छुपी वैभव की कहानी
राजशाही खत्म होने के बाद अब 21वीं सदी में बेशक पाल राजवंश की राजधानी अस्कोट में पहले वाली चमक नहीं दिखती, मगर पाल राजाओं का महल और इसमें सहेज कर रखी गईं विरासतें आज भी इसके वैभवशाली अतीत की गवाह हैं। अस्कोट में पाल राजाओं के शासन की शुरुआत 1279 में हुई थी और आज इस राजवंश के 108वें राजा कुंवर भानुराज पाल हैं। 108 राजाओं के नाम का दुर्लभ भोजपत्र आज भी उस महल की शोभा बढ़ा रहा है।
1279 में अभय पाल देव पहले ऐसे शख्स थे जिनके सिर पर राजा का मुकुट सुशोभित हुआ। पाल राजाओं का उस दौर में वर्चस्व था। वक्त गुजरने के साथ अस्कोट राजमहल की चमक भी फीकी पड़नी शुरू हो गई। राजशाही खत्म होते ही राजमहल की रौनक एक तरह से अस्त हो चली। इस वक्त पाल वंश के 108वें राजा कुंवर भानुराज पाल हैं। उनका नाम उस दुर्लभ भोजपत्र में दर्ज है, जिसमें भानुराज समेत पहले के 107 राजाओं के नाम लिखे हुए हैं। एक राजसी तलवार के अलावा 108 राजाओं की 108 तलवारें भी महल की शोभा बढ़ा रही हैं। 12वीं सदी में प्रचलित पीतल की अशर्फियां, महारानी का सोने जड़ा ब्लाउज तथा ऐसी कई अन्य दुर्लभ वस्तुएं महल में हैं, जिन्हें सहेजकर रखा गया है। राजवंश पर शोध करने के लिए आज भी शोधार्थी महल में आते हैं। वर्तमान राजा कुंवर भानुराज पाल का कहना है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी से अब तक सैकड़ों छात्र महल आकर जानकारियां ले चुके हैं। महल की दुर्लभ वस्तुओं की सूची में भोजपत्र सबसे पहले नंबर पर है। उनका कहना है कि यह भोजपत्र पाल राजाओं के शासन की हकीकत का लेखाजोखा है।

राजस्थान के रजवाड़ों से पुराना संबंध

पाल राजवंश का राजस्थान के रजवाड़ों के साथ पुराना संबंध है। इस राजवंश में अब तक जितने भी विवाह हुए हैं, वह राजस्थान से ही हुए। 18 अक्तूबर 2010 को अस्कोट राजमहल के 108वें राजा कुंवर भानुराज पाल की बेटी गायत्री पाल जोधपुर राजघराने के राजा गज सिंह के बेटे शिवराज सिंह के साथ परिणय सूत्र में बंधी थीं। भानुराज बताते हैं कि राजस्थान के रजवाड़ों से पुराने संबंधों के चलते ही उनके राजवंश में वैवाहिक संबंध भी राजस्थान से ही जुड़ते रहे हैं।



अस्कोट की रानी का स्वर्णजड़ित ब्लाउज।




पाल राजवंश के ऐतिहासिक हथियार।

साभार : अमर उजाला

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
उत्तराखण्ड का इतिहास   उत्तराखण्ड या उत्तराखंड भारत के उत्तर में स्थित एक राज्य है। 2000 और 2006 के बीच यहउत्तरांचल के नाम से जाना जाता था, 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड भारत गणराज्य के 27 वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। राज्य का निर्माण कई वर्ष के आन्दोलन के पश्चात हुआ। इस प्रान्त में वैदिक संस्कृति के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान हैं।उत्तर प्रदेश से अलग किये गये नए प्रांत उत्तरांचल 8 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया। इस राज्य की राजधानी देहरादून है। उत्तरांचल अपनी भौगोलिक स्थिता, जलवायु, नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्यों एवं संसाधनों की प्रचुरता के कारण देश में प्रमुख स्थान रखता है। उत्तरांचल राज्य तीर्थ यात्रा और पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। यहाँ चारों धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री हैं।[/size]पौराणिक इतिहास[/font][/size]प्राचीन धर्मग्रंथों में उत्तराखंड का उल्लेख केदारखंड, मानसखंड और हिमवंत के रूप में मिलता है। लोककथा के अनुसार पांडव यहाँ पर आए थे और विश्व के सबसे बड़े महाकाव्यों महाभारत व रामायण की रचना यहीं पर हुई थी। इस क्षेत्र विशेष के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है, लेकिन प्राचीन काल में यहाँ मानव निवास के प्रमाण मिलने के बावजूद इस इलाक़े के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है।[/size]भारत के इतिहास में इस क्षेत्र के बारे में सरसरी तौर पर कुछ जानकारी मिलती है। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक आदि शंकराचार्य के द्वारा हिमालय में बद्रीनाथ मन्दिर की स्थापना का उल्लेख आता है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित इस मन्दिर को हिन्दू चौथा और आख़िरी मठ मानते हैं।[/size]देवभूमि[/font][/size]यहाँ पर कुषाणों, कुनिंदों, कनिष्क, समुद्रगुप्त, पौरवों, कत्यूरियों, पालों, चंद्रों, पंवारों और ब्रिटिश शासकों ने शासन किया है। इसके पवित्र तीर्थस्थलों के कारण इसे देवताओं की धरती ‘देवभूमि’ कहा जाता है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को निर्मल प्राकृतिक दृश्य प्रदान करते हैं। वर्तमान उत्तराखंड राज्य 'आगरा और अवध संयुक्त प्रांत' का हिस्सा था। यह प्रांत 1902 में बनाया गया। सन 1935 में इसे 'संयुक्त प्रांत' कहा जाता था। जनवरी 1950 में 'संयुक्त प्रांत' का नाम 'उत्तर प्रदेश' हो गया। 9 नंवबर, 2000 तक भारत का 27वां राज्य बनने से पहले तक उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा बना रहा।[/size]स्वातंत्र्योत्तर इतिहास[/font][/size]स्वातंत्र्योत्तर भारत में 1949 में इसका एक बार फिर उल्लेख मिलता है, जब टिहरी गढ़वाल और रामपुर के दो स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में मिलाया गया। 1950 में नया संविधान अंगीकार किये जाने के साथ ही संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह नए भारतीय संघ का संविधान-सम्मत राज्य बन गया। उत्तर प्रदेश के गठन के फ़ौरन बाद ही इस क्षेत्र में गड़बड़ी शुरू हो गई। यह महसूस किया गया कि राज्य की बहुत विशाल जनसंख्या और भौगोलिक आयामों के कारण लखनऊ में बैठी सरकार के लिए उत्तराखण्ड के लोगों के हितों का ध्यान रखना असम्भव है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, पेयजल और उपयुक्त आधारभूत ढांचे जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव और क्षेत्र का विकास न होने के कारण उत्तराखण्ड की जनता को आन्दोलन करना पड़ा। शुरुआत में आन्दोलन कुछ कमज़ोर रहा, लेकिन 1990 के दशक में यह ज़ोर पकड़ गया और 1994 के मुज़फ़्फ़रनगर में इसकी परिणति चरम पर पहुँची। उत्तराखण्ड की सीमा से 20 किमी. दूर उत्तर प्रदेश राज्य के मुज़फ़्फ़नगर ज़िले में रामपुर तिराहे पर स्थित शहीद स्मारक उस आन्दोलन का मूक गवाह है, जहाँ 2 अक्टूबर, 1994 को लगभग 40 आन्दोलनकारी पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे।[/size]लगभग एक दशक के दीर्घकालिक संघर्ष की पराकाष्ठा के रूप में पहाड़ी क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान और बेहतर प्रशासन के लिए राजनीतिक स्वायत्तता हेतु उत्तरांचल राज्य का जन्म हुआ।[/color]

Devbhoomi,Uttarakhand:





Ved Bhadola



कैलास-मानसरोवर यात्रा और भारत-चीन व्यापार के दौरान पांच माह तक गुलजार रहने वाली भारतीय व्यापारिक मंडी गुंजी में अब सन्नाटा पसरने लगा है। भारत-चीन व्यापार समाप्त होते ही यहां पर सीमा की रक्षा करने वाले हिमवीर ही रह जायेंगे। लगभग साढ़े दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित गुंजी कैलास-मानसरोवर यात्रा मार्ग का प्रमुख पड़ाव है। यह भारत-चीन व्यापार की भारतीय मंडी भी है। जिस कारण एक जून से गुंजी गुंजायमान हो जाती है। इस दौरान गुंजी गांव के ग्रामीण भी ग्रीष्मकालीन प्रवास में गुंजी में रहते हैं। नवंबर माह के बाद गुंजी बर्फ की चादर से ढक जाती है। जिस कारण सात माह तक यहां जन जीवन ठहरा रहता है।


Devbhoomi,Uttarakhand:
चंपावत। जिले में ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व के स्थलों की भरमार है, जिसमें उत्तर भारत का प्रमुख देवी शक्तिपीठ मां पूर्णागिरि दरबार के अलावा स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से स्थापित अद्वैत आश्रम मायावती एवं श्यामलताल आश्रम, मीठे रीठे के लिए प्रसिद्ध गुरुद्वारा श्रीरीठासाहिब, पाषाण युद्ध (पत्थर मार युद्ध) के लिए विख्यात देवीधुरा वाराही मंदिर, न्याय के देवता गोरलदेव का मूल मंदिर, लोहाघाट में वाणासुर का किला, गुमदेश का ऐतिहासिक चमू मंदिर के अलावा अंग्रेजों की ओर से बसाया गया एबटमाउंट, मानेश्वर के समीप एकहथिया नौला, राजा बुंगा का किला तथा शिल्पकला के लिए विख्यात बालेश्वर मदिर समूह चंपावत की विशिष्टता को चार चांद लगाते प्रतीत होते हैं।

Devbhoomi,Uttarakhand:
कालू सिद्ध करते है हर मन्नत पूरी

आचार्य द्रोण की कर्मस्थली देहरादून चार सिद्ध पीठों की स्थली रही है। दून घाटी में चार दिशाओं में बनी सिद्ध पीठों के प्रति स्थानीय लोगों में अपार श्रद्धा व विश्वास है। यहां आज भी पूजा अर्चना के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। दून के इन धर्मस्थलों में रविवार को पूजा का विशेष महत्व है।

बताया जाता है कि स्वामी दत्तात्रेय के 84 सिद्ध शिष्यों में से चार सिद्ध शिष्य दून घाटी में तपस्या करते हुए यहां पर ही बस गए। इसमें माणक सिद्ध, लक्ष्मण सिद्ध, माणू सिद्ध और कालू सिद्ध पीठ भक्तों की सभी मनोकामनाओं को पूरा करते हैं, ऐसा लोगों का विश्वास है।

श्रद्धालु बाबा को गुड़ की भेली, बतासे व दूध चढ़ाते हैं। इन्हीं चार सिद्ध पीठों में से एक कालू सिद्ध में प्रत्येक वर्ष वार्षिक भडारे का आयोजन किया जाता है।


जिससे दूर-दराज से लोग मन्नत मांगने आते हैं। कालू सिद्ध मंदिर देहरादून-ऋषिकेश मार्ग पर भानियावाला से करीब चार किलोमीटर की दूरी में जंगल के किनारे कालूवाला गांव में स्थित हैं। जंगल के एक किनारे ऊंचे टीले पर बाबा का मंदिर बना है। मान्यता है कि बाबा की आराधना से संतान की प्राप्ति होती है।


नशे से छुटकारा पाने के लिए भी लोग बाबा की शरण में पहुंचते हैं। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में कालूवाला में लिंग की स्थापना हुई जो खुले आसमान के नीचे है। इस पर छत बनाने के प्रयास हर बार असफल होते रहे है। मंदिर के महंत व व्यवस्थापक पं. उमेश शर्मा ने बताया कि मंदिर में वर्ष भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

यहां पर सच्चे मन से मांगी गई मुराद पूरी होती है। उन्होने बताया कि नौ जून को मंदिर में रामचरित मानस के पाठ के बाद दस जून को विशाल भोग का आयोजन किया गया है। जिसके लिए दूर दराज से हजारों भक्तजन मंदिर में पहुंचते हैं।



Source dainik jagran

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