Author Topic: Historical information of Uttarakhand,उत्तराखंड की ऐतिहासिक जानकारी  (Read 43401 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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दोस्तों इस टोपिक के जरिये हम उत्तराखंड के अलग-अलग जगहों की ऐतिहासिक जानकारी देंगे,उत्तराखंड की जगहों के बारे मैं इतिहास मैं क्या कहा गया है और क्या लिखा गया है और क्या घटनाएं घटी है!

 इस टोपिक के जरिये केवल ऐतिगासिक घटनाओं का ही वर्णन दिया जाएगा! आप सभी सदस्यों से निवेदन हैं कि आपके पास जो भी उत्तराखंड के जगहों पर्यटन के स्थलों के बारे मैं कोई ऐतिहासिक जानकारी है तो इस टोपिक के जरिये लोगों तक पहुंचाने क़ी महान किर्पा करें !

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उत्तराखंड का इतिहास

अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग खश आदि जातियां भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। किन्तु पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है।

 इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है। मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊं नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ।कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण कर कुमाऊ राज्य को अपने आधीन कर दिया।

 गोरखाओं का कुमाऊं पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापिस चली गई किन्तु अंग्रजों ने कुमाऊं का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमाऊं को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर किया। इस प्रकार कुमाऊं पर अंग्रेजो का शासन 1815 से प्रारम्भ हुआ।

ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों( किले ) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढवाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढवाल राज्य पर आक्रमण कर गढवाल राज्य को अपने अधीन कर लिया ।महाराजा गढवाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रजो से सहायता मांगी ।

अग्रेज सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया । किन्तु गढवाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले ( वर्तमान उत्तरकाशी सहित ) का भू-भाग वापिस किया।गढवाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गॉव था, अपनी राजधानी स्थापित की।

कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की । सन1815 से देहरादून व पौडी गढवाल ( वर्तमान चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढवाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।

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गढ़वाल का एतिहासिक वर्णन

जैसे कि इतिहासकार मानते हैं कि ना तो पुरात्तव प्रमाण और न ही इतिहासिक उल्लेख पर्याप्त उपलब्ध हैं। गढ़वाल की प्रारंभिक इतिहास का क्रम हमें वेदों, पुराणों, ग्रन्थों एवं इसके अतिरिक्त एटकिंसन के गजट (1884), ड़ा डबरल तथा अन्य इतिहासकारों द्वारा लिखित "उत्तराखण्ड का इतिहास" के विभिन्न खण्डों इत्यादि से ही गढ़वाल के इतिहास का पता चलता है।

 विभिन्न अंग्रेज अफसरों जैसे कि बेटन (1851), रामसे (1861,1874), बैंकेट (1870) स्टोवैल, वाल्टन, ट्रेल (1928) इबोटसन (1929) तथा लेखक जैसे कि हरिकृष्ण रतौरी (1910,1918,1928), रायबहादुर पतिराम (1924), आधुनिक इतिहासकार जैसे कि सकलानी (1987), नेगी (1988) तथा तोलिया (1994-96) एवं पुरात्तविद जैसे कि के.पी. नैटियाल (1961,1969) इत्यादि गढ़वाल के इतिहास पर अंदरूनी दृष्टिपात करने में सहायता करते है। हालांकि श्री एस.एस.नेगी ने बड़ी बारीकी से कोशिश की है गढ़वाल के इतिहास को क्रमबद्ध करने की।

इस क्षेत्र के प्रारंभिक निवासियों के बारे में इतिहासकारों का मानना है कि गढ़वाल में आदिकाल तथा वैदिक सभ्यता के समय विभिन्न जनजातियों ने प्रवेश किया था।

 जिनमें से किरात, तंगना, खास, दारद कलिंद योद्धया, नागा तथा कतिरिस प्रमुख थी। इनमें से ज्यादातर जनजातियों का उल्लेख प्राचीन ग्रथों तथा पुराणों में भी मिलता है।

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बहुत से इतिहासकार बारहवीं शताब्दी से चौहदवीं शताब्दी तक के समय को गढ़वाल के इतिहास का अंधा युग कहते हैं क्योंकि इस समय का कोई भी प्रमाणिक अथवा लिखित इतिहास नहीं मिलता।

 फिर भी बहुत से पौराणिक तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि उस समय विभिन्न राजाओं ने अलग-अलग गढ़वाली राज्यों में शासन किया। गढ़वाली लोकगाथाएं जो कि पनवारा के नाम से जानी जाती हैं, में ऐते बहुत से शासकों का गुणगान इस बात का प्रमाण है।


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कुमाऊँ का एतिहासिक वर्णन

अक्तूबर 1815 में डब्ल्यू जी ट्रेल ने गढ़वाल तथा कुमाऊं कमिश्नर का पदभार संभाला। उनके पश्चात क्रमशः बैटन, बैफेट, हैनरी, रामसे, कर्नल फिशर, काम्बेट, पॉ इस डिवीजन के कमिश्नर आये तथा उन्होंने भूमि सुधारो, निपटारो, कर, डाक व तार विभाग, जन सेहत, कानून की पालना तथा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार आदि जनहित कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

अंग्रेजों के शासन के समय हरिद्वार से बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा वहां से कुमाऊं के रामनगर क्षेत्र की तीर्थ यात्रा के लिये सड़क का निर्माण हुआ और मि. ट्रैल ने 1827-28 में इसका उदघाटन कर इस दुर्गम व शारीरिक कष्टों को आमंत्रित करते पथ को सुगम और आसान बनाया।

कुछ ही दशकों में गढ़वाल ने भारत में एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया तथा शूरवीर जातियों की धरती के रूप में अपनी पहचान बनाई। लैंडसडाउन नामक स्थान पर गढ़वाल सैनिकों की 'गढ़वाल राइफल्स' के नाम से दो रेजीमेंटस स्थापित की गईं।

 निःसंदेह आधुनिक शिक्षा तथा जागरूकता ने गढ़वालियों को भारत की मुख्यधारा में अपना योगदान देने में बहुत सहायता की। उन्होंने आजादी के संघर्ष तथा अन्य सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया। आजादी के पश्चात 1947 ई. में गढ़वाल उत्तर प्रदेश का एक जिला बना तथा 2001 में उत्तराखण्ड राज्य का जिला बना।

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अल्मोड़ा almoda

प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया।

 बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा १५६८ में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई।कल्याण चंद द्वारा।[तथ्य वांछित] चंद राजाओं के समय मे इसे राजपुर कहा जाता था। 'राजपुर' नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।

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उत्तरकाशी,Uttarkashi

भूकम्प के पश्चात शीघ्र ही गोरखाओं के गढ़वाल की तरफ बढ़ने का समाचार सारे देश में पैल गया। गढ़वालियों ने अपनी तरफ से पूर्ण विरोध किया और सीमा पर खूनी संघर्ष प्रारंभ हो गया। फरवरी 1803 ई. में गोरखाओं ने अमर सिंह थापा, हरीदत्त चैत्रीय और बरन शाह के नेतृत्व में श्रीनगर को जीतने के सिए निर्णायक धावा बोला।

 बेशक गढ़वालियों ने अद्वितीय साहस से युद्ध किया परंतु संख्या में कम होने के कारण वे श्रीनगर में अपना आधार खो बैठे। यही बरहत ( उत्तरकाशी), चमुआ (टेहरी) तथा ज्वालारम (1801) में भी हुआ।

 पराजित होने पर प्रदुमन शाह पहले देहरादून तथा फिर सहारनपुर भाग गया। मई (1805 ई.) में गढ़वाल पर पुनः अधिकार करने के लिए प्रदुमन सिंह ने लाधौंर के राजा राम दयाल सिंह गुर्जर की सहायता से खुरबूदा में निर्णायक आक्रमण किया। दुर्भाग्य से प्रदुमन शाह अपने विश्वासपात्रों के साथ इस युद्ध में मारा गया। गोरखाओं ने जैसा कि अपेक्षित था, पूर्ण राजकीय ढंग से उसका संस्कार किया।

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श्रीनगर का एतिहासिक वर्णन

राजा प्रदुमन सिंह पदासीन होने के समय से ही मुश्किलों में घिर गया था। उसके साम्राज्य के शुरूआत में ही अलकनंदा नदी में आई भयानक बाढ़ ने उसकी राजधानी श्रीनगर के लगभग एक तिहाई भाग को नष्ट कर दिया तथा उसके महल को भी बहुत क्षति पहुचाई। 1790 ई. में कुमाऊ पर अधिकार करने के पश्चात गोरखाओं ने लगूंर गढ़ी पर जो कि गढ़वाल राजा का सालन में एक महत्वपूर्ण किला था, असफल आक्रमण किया। परंतु 1791 ई. में चीनी आक्रमण के समाचार के कारण उन्हें मजबूरी में अपने पैर वापिस खींचने पड़े।

 गढ़वाल नरेश गोरखाओं की बहादुरी तथा आक्रमकता से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने 25,000 प्रति वर्ष नजराना तथा एक नेपाली दूत को अपनी श्रीनगर सभा में नियुक्त करना मान लिया। गोरखाओं ने चीन के साथ अपना झगड़ा निपटाने तथा गढ़वाल के साथ विवाद सुलझाने के पश्चात पुनः अलमोड़ा का रूख किया तथा वहां अपना प्रशासन स्थापित किया।

 उनकी इस कार्यवाही से विवश होकर हर्ष देव जोशी को श्रीनगर जाकर प्रदमन शाह को हस्तक्षेप करने के लिए विनती करनी पड़ी 1810 ई. में एक भयंकर भूकम्प ने गढ़वाल में बहुत उत्पात तथा विनाश उत्पन्न किया और अनेकों घरों को, महल को मिट्टी में मिला दिया और सैकड़ों व्यक्ति एवं पशुओं को मार दिया।

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उत्तराखंड पर गोरखाओं का आक्रमण

प्रदुमन शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेज राज्य बरेली में शरण ली और अपना खोया राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उसने अंग्रेज सरकार को वचन दिया कि अगर वे उसका राज्य वापिस दिलवाने में सहायता करेंगे तो वह गढ़वाल उनके साथ आधा बांटने को तैयार है।

 दूसरी तरफ गोरखाओं ने अंग्रेजों के अधीन आती गंगा घाटी भर आक्रमण करना शुरू कर दिया। जब अंग्रेजों ने इस पर आपत्ति प्रकट की तो वे और भी दुस्साहस करने लगे।यह जाहिर था कि केवल युद्ध से ही गोरखा, बाज आ सकते हैं।

 परिणाम स्वरूप 1815 ई. में कर्नल निकोलस के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने कुमाऊं तथा गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया तथा अल्मोड़ा में सितौली के पास निर्णायक युद्ध हुआ जो कि 25 अप्रैल 1815 ई. को सम्पूर्ण कुमाऊं क्षेत्र पर अंग्रेजों के अधिकार के साथ समाप्त हुआ।

इस युद्ध में केवल 211 व्यक्ति ही घायल अथवा मारे गए। सुदर्शन शाह को पुनः आधे गढ़वाल का राजा स्थापित कर दिया गया तथा आधा गढ़वाल 1815 ई. में अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।

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आदरणीय ई. गार्डनर कुमाऊं डिवीजन के प्रथम कमिश्नर 3 मई 1815 ई. को नियुक्त हुए। गोरखाओं का  गोरख्यानी  नाम से जाना जाने वाला बारह वर्षीय राक्षसीय साम्राज्य समाप्त हुआ।

 

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