Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन
History of Kumaon (1000-1790AD) -कुमाऊं का इतिहास (1000 - 1790 ई. )
Bhishma Kukreti:
Relationship of Garhwal Kingdom with Gorkhas (Nepal)
Foreign Policy of Garhwal Kings in Pal /Shah Period -8
Administration, Social and Cultural Characteristics History of Garhwal in Shah Dynasty -37
History of Garhwal including Haridwar (1223- 1804 AD) –part -226
History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) -474
By: Bhishma Kukreti (A History Research Student)
Gorkhas (Nepal) captured Kumaon in 1790. Gorkhas were stronger than all Hill states as Garhwal and Himachal. Gorkhas were eager to spread their rule to North India. Garhwal King Pradyuma Shah could not take help of East India Company or East India Company could not help to Garhwal against Gorkha because it was engaged in conflict with Maratha and Tipu Sultan. Might be, Garhwal King was aware about repressive methods of East India Company in Awadh.
East India Company had a business treaty with Nepal in 1801 and East India Company had two representatives in Kathmandu, Nepal.
Garhwal tried to capture Garhwal through south Garhwal but could not win. Gorkha sent their representatives in Garhwal. Those representatives used to exploit Garhwal Kingdom. In September –October 1803, Gorkhas captured Garhwal.
Copyright@ Bhishma Kukreti Mumbai, India, bckukreti@gmail.com 6/11/2014
History of Garhwal – Kumaon-Haridwar (Uttarakhand, India) to be continued… Part -475
(The History of Garhwal, Kumaon, Haridwar write up is aimed for general readers)
History of Garhwal from 1223-1804 to be continued in next chapter ….
History of Characteristics of Garhwal Kings Shah dynasty, to be continued
XX
Notes on South Asian Modern Period History of Garhwal; South Asian Modern Period History of Pauri Garhwal; South Asian Modern Period History of Chamoli Garhwal; South Asian Modern Period History of Rudraprayag Garhwal; South Asian Modern History of Tehri Garhwal; South Asian Modern History of Uttarkashi Garhwal; South Asian Modern Period History of Dehradun, Garhwal; Modern History of Haridwar ; South Asian Modern Period History of Manglaur, Haridwar; South Asian Modern Period History of Rurkee Haridwar ; South Asian Modern Period History of Bahadarpur Haridwar ; South Asian Modern Period History of Haridwar district, South Asian History of Bijnor old Garhwal
XX
Swacch Bharat ! स्वच्छ भारत !
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कुमाऊ का संक्षिप्त इतिहास
=========================================
कुमाँऊ शब्द की उत्पत्ति कुर्मांचल से हुई है जिसका मतलब है कुर्मावतार (भगवान विष्णु का कछुआ रूपी अवतार) की धरती। कुमाँऊ मध्य हिमालय में स्थित है, इसके उत्तर में हिमालय, पूर्व में काली नदी, पश्चिम में गढवाल और दक्षिण में मैदानी भाग। इस क्षेत्र में मुख्यतया ‘कत्यूरी’ और ‘चंद’ राजवंश के वंशजों द्धारा राज्य किया गया। उन्होंने इस क्षेत्र में कई मंदिरों का भी निर्माण किया जो आजकल सैलानियों (टूरिस्ट) के आकर्षण का केन्द्र भी हैं।
कुमाँऊ का पूर्व मध्ययुगीन इतिहास ‘कत्यूरी’ राजवंश का इतिहास ही है, जिन्होंने 7 वीं से 11 वीं शताब्दी तक राज्य किया। इनका राज्य कुमाँऊ, गढवाल और पश्चिम नेपाल तक फैला हुआ था। अल्मोडाऊ शहर के नजदीक स्थित खुबसूरत जगह बैजनाथ इनकी राजधानी और कला का मुख्य केन्द्र था। इनके द्धारा भारी पत्थरों से निर्माण करवाये गये मंदिर वास्तुशिल्पीय कारीगरी की बेजोड मिसाल थे। इन मंदिरों में से प्रमुख है ‘कटारमल का सूर्य मंदिर’ (अल्मोडा शहर के ठीक सामने, पूर्व के ओर की पहाडी पर स्थित)। 900 साल पूराना ये मंदिर अस्त होते ‘कत्यूरी’ साम्राज्य के वक्त बनवाया गया था।
कुमाँऊ में ‘कत्यूरी’ साम्राज्य के बाद पिथौरागढ के ‘चंद’ राजवंश का प्रभाव रहा। जागेश्वर का प्रसिद्ध शिव मंदिर इन्ही के द्धारा बनवाया गया था, इसकी परिधि में छोटे बडेत कुल मिलाकर 164 मंदिर हैं।
ऐसा माना गया है कि ‘कोल’ शायद कुमाँऊ के मूल निवासी थे, द्रविडों से हारे जाने पर उनका कोई एक समुदाय बहुत पहले कुमाँऊ आकर बस गया। आज भी कुमाँऊ के शिल्पकार उन्हीं ‘कोल’ समुदाय के वंशज माने जाते हैं। बाद में ‘खस’ समुदाय के काफी लोग मध्य एशिया से आकर यहाँ के बहुत हिस्सों में बस गये। कुमाँऊ की ज्यादातर जनसंख्या इन्हीं ‘खस’ समुदाय की वंशज मानी जाती है। ऐसी कहावत है कि बाद में ‘कोल’ समुदाय के लोगों ने ‘खस’ समुदाय के सामने आत्मसमर्फण कर इनकी संस्कृति और रिवाज अपनाना शुरू कर दिया होगा। ‘खस’ समुदाय के बाद कुमाँऊ में ‘वैदिक आर्य’ समुदाय का आगमन हुआ। स्थानीय राजवंशों के इतिहास की शुरूआत के साथ ही यहाँ के ज्यादातर निवासी भारत के तमाम अलग अलग हिस्सों से आये ‘सवर्ण या ऊंची जात’ से प्रभावित होने लगे। आज के कुमाँऊ में ब्राह्मण, राजपूत, शिल्पकार, शाह (कभी अलग वर्ण माना जाता था) सभी जाति या वर्ण के लोग इसका हिस्सा हैं।
संक्षेप में, कुमाँऊ को जानने के लिये हमेशा निम्न जातियों या समुदाय का उल्लेख किया जायेगा – शोक्य या शोक, बंराजिस, थारू, बोक्स, शिल्पकार, सवर्ण, गोरखा, मुस्लिम, यूरोपियन (औपनिवेशिक युग के समय), बंगाली, पंजाबी (विभाजन के बाद आये) और तिब्बती (सन् 1960 के बाद)।
6वीं शताब्दी (ए.डी) से पहले - क्यूनीनदास या कूनीनदास
6वीं शताब्दी (ए.डी) के दौरान - खस, नंद और मौर्य। ऐसी मान्यता है बिंदुसार के शासन के वक्त खस समुदाय द्धारा की गई बगावत अशोक द्धारा दबा दी गई। उस वक्त पुरूष प्रधान शासन माना जाता है। 633-643 ए.डी के दौरान यूवान च्वांग (ह्वेन-टीसेंग) के कुमाँऊ के कुछ हिस्सों का भ्रमण किया और उसने स्त्री राज्य का भी उल्लेख किया। ऐसा माना जाता है कि यह गोविशाण (आज का काशीपूर) क्षेत्र रहा होगा। कुमाँऊ के कुछ हिस्सों में उस वक्त ‘पौरवों’ ने भी शासन किया होगा।
6वी से 12वी शताब्दी (ए.डी) - इस दौरान कत्यूरी वंश ने सारे कुमाँऊ में शासन किया। 1191 और 1223 के दौरान दोती (पश्चिम नेपाल) के मल्ल राजवंश के अशोका मल्ल और क्रचल्ला देव ने कुमाँऊ में आक्रमण किया। कत्यूरी वंश छोटी छोटी रियासतों में सीमित होकर रह गया।
12वी शताब्दी (ए.डी) से - चंद वंश के शासन की शुरूआत। चंद राजवंश ने पाली, अस्कोट, बारामंडल, सुई, दोती, कत्यूर द्धवाराहाट, गंगोलीहाट, लाखनपुर रियासतों में अधिकार कर अपने राज्य में मिला ली।
1261 – 1275 - थोहर चंद
1344 – 1374 या 1360 – 1378 - अभय चंद। कुछ ताम्रपत्र मिले जो चंद वंश के अलग अलग शासकों से संबन्धित थे लेकिन शासकों के नाम का पता नही चल पाया।
1374 – 1419 (ए.डी) - गरूड़ ज्ञानचंद
1437 – 1450 (ए.डी) - भारती चंद
1565 – 1597 (ए.डी) - रूद्र चंद
1597 – 1621 (ए.डी) - लक्ष्मी चंद। चंद शासकों के दौरान नये शहरों की स्थापना और इनका विकास भी हुआ जैसे रूद्रपुर, बाजपुर, काशीपुर।
1779 – 1786 (ए.डी) - कुमाँऊ के परमार राजकुमार, प्रद्धयुमन शाह ने प्रद्धयुमन चंद के नाम से राज्य किया और अंततः गोरखाओं के साथ खुरबुरा (देहरादून) के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।
1788 – 1790 (ए.डी) - महेन्द्र सिंह चंद, ऐसा माना जाता है कि यह चंद वंश का अंतिम शासक था। जिसने राजबुंगा (चंपावत) से शासन किया लेकिन बाद में अल्मोडा। से किया।
1790 – 1815 (ए.डी) - कुमाँउ में गोरखाओं का राज्य रहा। गोरखाओं के निर्दयता और जुल्म से भरपूर शासन में चंद वंश के शासकों का पूरा ही नाश हो गया।
1814 – 1815 (ए.डी) - नेपाल युद्ध। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने गोरखाओं को पराजित कर कुमाऊँ में राज्य करना शुरू किया।
यदपि ब्रिटिश राज्य गोरखाओं (जिसको गोरख्योल कहा जाता था) से कम निर्दयता पूर्ण और बेहतर था लेकिन फिर भी ये विदेशी राज्य था। लेकिन फिर भी ब्रिटिश राज्य के दौरान ही कुमाँऊ में प्रगति की शुरूआत भी हुई। इसके बाद, कुमाँऊ में भी लोग विदेशी राज्य के खिलाफ उठ खडे हुए।
जानकारी शेयर भी करें
By Manoj Bhatt Bageshwar.
Pawan Pathak:
बधाणगढ़ से नंदादेवी की प्रतिमा लाए थे चंद राजा
उत्तराखंड के हर क्षेत्र में पूजी जाती हैं
जब कमिश्नर ट्रेल की आंखों की रोशनी घटी
मल्ला महल (वर्तमान कचहरी) में जो नंदादेवी की मूर्तियां प्रतिष्ठित थीं उन्हें अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान 1815 ई. के कुछ साल बाद में तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने उद्योत चंद्रेश्वर मंदिर में रखवा दिया। किंवदंती यह भी है कि तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल जब हिमालय के नंदादेवी चोटी की तरफ गए तो उनकी आंखों की रोशनी अचानक काफी कम हो गई। बताया जाता है कि इसके बाद कुछ लोगों की सलाह पर उन्होंने अल्मोड़ा आकर नंदादेवी को वर्तमान मंदिर में स्थापित करवाया।
एक सूत्र में पिरोती है मां
उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोने मां नंदा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
पुराणों में हिमालय की पुत्री को नंदा बताया गया है, जिनका विवाह शिव से होता है। देवी भागवत में नंदा को शैलपुत्री के रूप में नौ दुर्गाओं में एक बताया गया है, जबकि भविष्य पुराण में उन्हें सीधे तौर पर दुर्गा कहा गया है। नंदादेवी के नाम से हिमालय की अनेक चोटियां हैं। इनमें नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाघुंटी, नंदाखाट आदि चोटियां हैं। इसके अलावा नंदाकिनी, नंद केसरी आदि नदियों के नाम भी नंदा देवी के नाम से हैं।
चंद राजवंश तांत्रिक विधि से करते हैं पूजा
दीप जोशी
अल्मोड़ा। कुमाऊं अंचल में मां नंदा देवी की पूजा सैकड़ों सालों से की जाती रही है, लेकिन चंद शासकों के शासनकाल में इसे व्यापक स्वरूप मिला। 1670 ई. में कुमाऊं के चंद वंशीय शासक बाज बहादुर चंद बधाणगढ़ के किले से नंदादेवी की प्रतिमा को अल्मोड़ा लाए। इस प्रतिमा को उन्होंने अपने मल्ला महल (वर्तमान कलक्ट्रेट) में प्रतिष्ठित करके अपनी कुलदेवी के रूप में पूजना शुरू किया।
कत्यूरी, चंद और गढ़वाल के नरेश नंदा को कुल देवी के रूप में पूजते रहे। नंदा गढ़वाल और चंद राजाओं के राजकुल की बहन-बेटी के रूप में भी मानी जाती थी। एडकिंशन गजेटियर के मुताबिक 1670 ई. में बाज बहादुर चंद बधाणगढ़ से नंदादेवी की प्रतिमा अल्मोड़ा लाए और अपने मल्ला महल में प्रतिष्ठित की। जिस परिसर में वर्तमान नंदादेवी मंदिर स्थित है उस स्थान पर 1690-91 में तत्कालीन नरेश उद्योत चंद ने दो शिव मंदिर उद्योत चंद्रेश्वर और पार्वतेश्वर बनवाए। बाद में इन्हीं मूर्तियों को इन मंदिरों में प्रतिष्ठित कराया गया। चंद शासकों के काल की मूर्तियां अब कहां हैं इसके बारे में भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है।
•1815 में मल्ला महल से नंदादेवी मंदिर में प्रतिष्ठित की थी मूर्ति
•कुल देवी के रूप में पूजते रहे चंद और कत्यूरी राजा मां नंदा को
गढ़वाल और चंद राजाओं के कुल की बहन बेटी के रूप में भी मानी जाती थी नंदा
नंदाष्टमी के अवसर पर अल्मोड़ा में नंदादेवी की पूजा तारा शक्ति के रूप में होती है। यह पूजा तांत्रिक विधि से होती है और चंद शासकों के वंशज ही इस पूजा को कराते हैं। स्व. राजा आनंद सिंह तंत्र विद्या में काफी पारंगत माने जाते थे। उनके निधन के बाद नंदादेवी की पूजा पद्धति में काफी परिवर्तन आ चुका है। आज भी चंद शासकों के वंशज नैनीताल के सांसद केसी सिंह बाबा और उनके परिवारजन नंदाष्टमी के मौके पर परंपरा के मुताबिक तांत्रिक पूजा करवाते हैं। यह पूजा तारा यंत्र के सामने होती है। तारा यंत्र राज परिवार अपने साथ लेकर आता है।
Source- http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20150914a_005115011&ileft=110&itop=76&zoomRatio=130&AN=20150914a_005115011
Navigation
[0] Message Index
[*] Previous page
Go to full version