Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन

Late Nirmal Kumar Joshi (Pandit) - क्रांतिवीर निर्मल कुमार जोशी (पंडित)

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

It is unfortunate that UK Govt has forgotten people like Nirmal Kumar Joshi (Pandit) who sacrified his life for public interest.

पंकज सिंह महर:


उत्तराखण्ड के जनसरोकारों से जुडे क्रान्तिकारी छात्र नेता स्वर्गीय निर्मल जोशी "पण्डित" छोटी उम्र में ही जन-आन्दोलनों की बुलन्द आवाज बन कर उभरे थे. शराब माफिया,खनन माफिया के खिलाफ संघर्ष तो वह पहले से ही कर रहे थे लेकिन 1994 के राज्य आन्दोलन में जब वह सिर पर कफन बांधकर कूदे तो आन्दोलन में नयी क्रान्ति का संचार होने लगा.

गंगोलीहाट, पिथौरागढ के पोखरी गांव में श्री ईश्वरी प्रसाद जोशी व श्रीमती प्रेमा जोशी के घर 1970 में जन्मे निर्मल 1991-92 में पहली बार पिथौरागढ महाविद्यालय में छात्रसंघ महासचिव चुने गये. छात्रहितों के प्रति उनके समर्पण का ही परिणाम था कि वह लगातार 3 बार इस पद पर चुनाव जीते. इसके बाद वह पिथौरागढ महाविद्यालय में छात्रसंघ के  अध्यक्ष भी चुने गये. 1993 में नशामुक्ति अभियान के तहत उन्होने एक सेमिनार का आयोजन किया. 1994 में उन्हें मिले जनसमर्थन को देखकर प्रशासन व राजनीतिक दल सन्न रह गये. उनके आह्वान पर पिथौरागढ के ही नहीं उत्तराखण्ड के अन्य जिलों की छात्रशक्ति व आम जनता आन्दोलन में कूद पङे. मैने पण्डित को इस दौर में स्वयं देखा है. छोटी कद काठी व सामान्य डील-डौल के निर्मल दा का पिथौरागढ में इतना प्रभाव था कि प्रशासन के आला अधिकारी उनके सामने आने को कतराते थे. कई बार तो आम जनता की उपेक्षा करने पर सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर निर्मल दा के क्रोध का सामना भी करना पङा था.

राज्य आन्दोलन के समय पिथौरागढ में भी उत्तराखण्ड के अन्य भागों की तरह एक समानान्तर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल दा के हाथों मे था. उस समय पिथौरागढ के हर हिस्से में निर्मल दा को कफन के रंग के वस्त्र पहने देखकर बच्चों से लेकर वृद्धों को आन्दोलन में कूदने का नया जोश मिला. इस दौरान उन्हें गिरफ्तार करके फतेहपुर जेल भी भेजा गया.

आन्दोलन समाप्त होने पर भी आम लोगों के हितों के लिये पण्डित का यह जुनून कम नहीं हुआ. अगले जिला पंचायत चुनावों में वह जिला पंचायत सदस्य चुने गये. शराब माफिया और खनन माफिया के खिलाफ उन्होने अपनी मुहिम को ढीला नहीं पडने दिया.27 मार्च 1998 को शराब के ठेकों के खिलाफ अपने पूर्व घोषित आन्दोलन के अनुसार उन्होने आत्मदाह किया. बुरी तरह झुलसने पर पिथौरागढ में कुछ दिनों के इलाज के बाद उन्हें दिल्ली लाया गया.16 मई 1998 को जिन्दगी मौत के बीच झूलते हुए अन्ततः उनकी मृत्यु हो गयी.

निर्भीकता और जुझारुपन निर्मल दा की पहचान थी. उन्होने अपना जीवन माफिया के खिलाफ पूर्णरूप से समर्पित कर दिया और इनकी धमकियों के आगे कभी भी झुकने को तैयार नहीं हुए. अन्ततः उनका यही स्वभाव उनकी शहीद होने का कारण बना.

इस समय जब शराब और खनन माफिया उत्तराखण्ड सरकार पर हावी होकर पहाङ को लूट रहे हैं, तो पण्डित की कमी खलती है.उनका जीवन उन युवाओं के लिये प्रेरणा स्रोत है जो निस्वार्थ भाव से उत्तराखण्ड के हित के लिये काम कर रहे हैं.
उत्तराखण्ड के लोग क्रान्तिकारी निर्मल पण्डित को अभी भूले नही हैं. उनके समान निर्भीक व संघर्षशील क्रान्तिकारी की इस दौर में फिर से जरूरत है....।

मूल आलेख- श्री हेम पन्त

पंकज सिंह महर:
निर्मल दा मूलतः पिथौरागढ़ जिले की छात्र राजनीति के केन्द्र थे। मुझे उनसे मिलने और समाजिक मुद्दों पर चर्चा का काफी अवसर मिला। छात्र संघ के महामंत्री रहते हुये अपनी स्पष्टवादिता के कारण जिले के सभी हुक्मरान उनसे मिलने से कतराते थे। आरक्षण आन्दोलन के दौरान उन्होंने तत्कालीन ए०डी०एम० को शहर की बीचोबीच गांधी चौक पर अपशब्द कहने पर झापड़ भी रसीद कर दिया था।
    उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान कफन पहने निर्मल दा ने सबसे पहले पिथौरागढ़ में समानान्तर सरकार की घोषणा कर स्वयं को मुख्यमंत्री तक घोषित कर दिया। उन दिनों वह दिन भर आन्दोलन करते थे और रात-रात पैदल चलकर लोगों में उत्तराखण्ड आन्दोलन के लिये वे समर्थन मांगते थे। उनकी जनप्रियता और उनके नेतृत्व में धधक रहा पृथक राज्य आन्दोलन की तपिश जब लखनऊ तक पहुंची तो उनके एनकांउटर के आदेश दे दिये गये थे] लेकिन उन्हें इसका भान हो गया और सरकार को उन्हें गिरफ्तार करके ही संतोष करना पड़ा।
उन्होंने छात्रों की और जनता की मांग के लिये कई बार आत्मदाह किया और अंतिम आत्मदाह में जिला प्रशासन की लापरवाही के कारण एक गंभीर राजनीतिग्य को हमने खो दिया।
    लेकिन जो लौ निर्मल दा ने जलाई है, उसका अनुसरण सभी को करना चाहिये, तभी हम अपने सपनों के उत्तराखण्ड को पा सकेंगे।

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी:
great pankaj da

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
उत्तराखंड आन्दोलन का अमर सपूत निर्मल पंडित

By :Praveen Kumar bhatt

अलग उत्तराखंड राज्य के लिए पाँच दशक तक चले संघर्ष के यू तो हजारो सिपाही रहे है, जो समय- समय पर किसी न किसी रूप में अलग राज्य के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। लेकिन इनमे से कुछ नाम ऐसे है जिनके बिना इस लडाई की कहाणी कह पाना संभव नही है।निर्मल कुमार जोशी 'पंडित' एक ऐसा ही नाम है। निर्मल का जन्म सीमांत जनपद पिथोरागढ़ की गंगोलीहाट तहसील के पोखरी गाव में श्री इश्वरी दत्त जोशी व श्रीमती प्रेमा देवी के घर १९७० में हुआ था।
जैसा कि कहा जाता है पूत के पाव पालने में ही दिख जाते है, वैसा ही कुछ निर्मल के साथ भी था। उन्होंने छुटपन से ही जनान्दोलनों में भागीदारी शुरू कर दी थी। १९९४ में राज्य आन्दोलन में कूदने से पहले निर्मल शराब माफिया व भू माफिया के खिलाफ निरंतर संघर्ष कर रहे थे। लेकिन १९९४ में वे राज्य आन्दोलन के लिए सर पर कफ़न बांधकर निकल पड़े। राज्य आन्दोलन के दौरान निर्मल के सर पर बंधे लाल कपड़े को लोग कफ़न ही कहा करते थे। आंदोलनों में पले बड़े निर्मल ने १९९१-९२ में पहली बार पिथोरागढ़ महाविद्यालय में महासचिव का चुमाव लड़ा और विजयी हुए। इसके बाद निर्मल ने पीछे मूड कर नही देखा और लगातार तीन बार इसी पद पर जीत दर्ज की। तीन बार लगातार महासचिव चुने जाने वाले निर्मल संभवतः अकेले छात्र नेता है। छात्र हितों के प्रति उनके समर्पण का यही सबसे बड़ा सबूत है। इसके बाद वे पिथोरागढ़ महाविद्यालय के अध्यक्स भी चुने गए।
निर्मल ने १९९३ में नशामुक्ति के समर्थन में पिथोरागढ़ में एक एतिहासिक सम्मलेन करवाया था, यह सम्मलेन इतना सफल रहा था कि आज भी नशा मुक्ति आन्दोलन को आगे बड़ा रहे लोग इस सम्मलन कि नजीरेदेते है। १९९४ में निर्मल को मिले जनसमर्थन को देखकर शासन सत्ता भी सन्न रह गई थी, इस दुबली पतली साधारण काया से ढके असाधारण व्यक्तित्व के आह्वान पर पिथोरागढ़ ही नही पुरे राज्य के युवा आन्दोलन में कूद पड़े थे। पिथोरागढ़ में निर्मल पंडित का इतना प्रभाव था कि प्रशासनिक अधिकारी भी उनके सामने आने से कतराते थे। जनमुद्दों कि उपेक्षा करने वाले अधिकारी सार्वजनिक रूप से पंडित का कोपभाजन बनते थे।
राज्य आन्दोलन के दौरान उत्तराखंड के अन्य भागो कि तरह ही पिथोरागढ़ में भी एक सामानांतर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल ही कर रहे थे। कफ़न के रंग का वस्त्र पहने पंडित पुरे जिले में घूम घूम कर युवाओ में जोश भर रहे थे। राज्य आन्दोलन के प्रति निर्मल के संघर्ष से प्रभावित होकर केवल नौजवान ही नही बल्कि हजारो बुजुर्ग और महिलाए भी आन्दोलन में कुढ़ पड़ी, यहाँ तक कि रामलीला मंचो में जाकर भी वे लोगो को राज्य और आन्दोलन कि जरुरत समझाते थे। पिथोरागढ़ के थल, मुवानी, गंगोलीहाट, बेरीनाग, मुनस्यारी, मदकोट, कनालीछीना, धारचुला जैसे इलाके जो अक्सर जनान्दोलनों से अनजान रहते थे, राज्य आन्दोलन के दौरान यहाँ भी धरना प्रदर्शन और मशाल जुलूस निकलने लगे। इस विशाल होते आन्दोलन से घबराई सरकार ने निर्मल को गिरफ्तार कर फतेहपुर जेल भेज दिया। राज्य प्राप्ति के लिए चल रहा तीव्र आन्दोलन तो धीरे-धीरे ठंडा हो गया लेकिन जनता के लिए लड़ने की निर्मल कि आरजू कम नही हुई। इसी दौरान हुए जिला पंचायत चुनावों में निर्मल भी जिला पंचायत सदस्य चुने गए, राज्य आन्दोलन के लिए चल रहा जुझारू संघर्ष भले ही थोड़ा कम हो गया था लेकिन खनन और शराब माफिया के खिलाफ उनका संघर्ष निरंतर जारी था। २७ मार्च १९९८ को शराब की दुकानों के ख़िलाफ़ अपने पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने पिथोरागढ़ जिलाधिकारी कार्यालय के सामने आत्मदाह किया। बुरी तरह झुलसने पर कुछ दिनों पिथोरागढ़ में इलाज के बाद उन्हें दिल्ली ले जाया गया। लगभग दो महीने जिंदगी की ज़ंग लड़ने के बाद आख़िर निर्मल को हारना पड़ा, १६ माय १९९८ को उत्तराखंड का यह वीर सपूत हमारे बीच से विदा हो गया। निर्मल कि शहादत के बाद हालाँकि यह सवाल अभी जिन्दा है कि क्या उसे बचाया जाती सकता था। सवाल इसलिए भी कि क्योकि यह आत्मदाह पूर्व घोषित था।
निर्भीकता और जुझारूपन निर्मल पंडित के बुनियादी तत्व थे, उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन माफिया के ख़िलाफ़ समर्पित कर दिया, वे कभी जुकने को राजी नही हुए, यही जुझारूपन अंत में उनकी शहीदी का भी कारण बना। अब जबकि ९ नवम्बर २००० को अलग राज्य उत्तराखंड का गठन भी हो चुका है। जिस राज्य के गठन का सपना लेकर निर्मल शहीद हो गए वही राज्य अब माफिया के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है। शराब और खननं माफिया तो पहले से ही पहाढ़ को लूट रहे थे अब जमीन माफिया नाम का नया अवतार राज्य को खोखला कर रहा है। इसे में भला निर्मल की याद नही आएगी तो कौन याद आएगा। निर्मल का जीवन उत्तराखंड के युवाओं के लिए हमेशा ही प्रेरणा स्रोत रहेगा।

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