1897- अल्मोड़ा के राजकीय हाईस्कूल में हुई बैठक में लिये गये निर्णय के बाद महारानी विक्टोरिया को भेजे पत्र से पर्वतीय क्षेत्र की पृथक राजनैतिक व सांस्कृतिक पहचान को मान्यता दिलाने का पहला प्रयास हुआ। इस बैठक में पं० गोपाल दत्त जोशी, राय बहादुर दुर्गा दत्त जोशी, पं० हरिराम पांडे व राय बहादुर बद्रीदत्त जोशी मौजूद थे।
१९२३- 27 नवम्बर, धार्मिक, सांस्कृतिक, ऎतिहासिक और राजनैतिक आधार पर उत्तराखण्ड को संयुक्त प्रांत से अलग करवाने की मंशा से राजा आनन्द सिंह, जिम कार्बेट, भैरव द्त्त, जंगबहादुर विष्ट, लच्छी राम शाह, ऎनी बिल्कनसन, हाजी नियाज अहमद, गंगाधर पांडे, आदि लोगों ने संयुक्त प्रांत के गवर्नर को एक ग्यापन भेजा गया, जिसमें मांग की गयी कि "सरकार को चाहिये कि कुमाऊं को शेष भारत से पृथक करने के लिये जल्द कदम उठाये।" {कुमाऊं से अभिप्राय टिहरी रियासत को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तराखण्ड से था, जो तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नरी थी}
१९२८- साइमन कमीशन के भारत आने की खबर से पहाड़ के लोगों ने उत्तराखण्ड को विशेष दर्जा दिये जाने की मांग के आशय से "कुमाऊं एक पृथक प्रांत" शीर्षक से लिखा स्मृति पत्र आगरा, अवध के गवर्नर के मार्फत ब्रिटिश सरकार को दिया।
१९२९- पहाड़ के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने गवर्नर से मुलाकात कर कुमाऊं के लिये अलग से संविधान निर्धारण के कार्य हेतु एक संसदीय समिति के गठन की मांग के आशय से उन्हें ग्यापन दिया।
१९३८ से पहले गोरखो के आक्रमण व उनके द्वारा किये अत्याचरो से अन्ग्रेजी शासन द्वारा मुक्ति देने व बाद मे अन्ग्रेजो द्वारा भी किये गये शोषण से आहत हो कर उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवियो मे इस क्षेत्र के लिये एक प्रथक राजनैतिक व प्रशासनिक इकाई गठित करने पर गम्भीरता से सहमति घर बना रही थी. समय-समय पर वे इसकी मांग भी प्रशासन से करते रहे.
१९३८ = ५-६ मई, को कांग्रेस के श्रीनगर गढ्वाल सम्मेलन मे क्षेत्र के पिछडेपन को दूर करने के लिये एक प्रथक प्रशासनिक व्यवस्था की भी मांग की गई. इस सम्मेलन मे माननीय प्रताप सिह नेगी, जवाहर लाल नेहरू व विजयलक्षमी पन्डित भी उपस्थित थे.