टिहरी रियासत की बादशाहत का आखिरी दिन साबित हुआ था ११ जनवरी १९४८
टिहरी अपनी अल्पायु के बाद अब भले ही अपने भूगोल के साथ उन तमाम किस्सों को भी जलमग्न कर समाधिस्थ हो चुकी है। जिनमें एक सभ्यता सूर्योदय से सूर्यास्त तक और स्याह रातों के अन्धेरों में जीवन समग्रता में जीती रही। वहीं कई ज्वलंत प्रश्नों को भी सुलझाती रही। इन्हीं में शामिल है, टिहरी रियासत की उस क्रुर सत्ता की दास्तान भी जिसमें ‘राजा’ को जिंदा रखने के लिए दमन की कई कहानियां बुनी और गढ़ी गई। आज भी जिनसे सामन्ती सड़ांध बखुबी आती है। तो, दूसरी तरफ रियासत की जिंदादिल अवाम का वह संघर्ष भी कि, जिसने इस बेदिल बादशाहत को भारतीय आजादी के १४८ दिन बाद ही टिहरी से खदेड़ दिया था। यहां से शुरू होता है उन रणबांकुरों का इतिहास जिन्होंने सामन्ती बेड़ियों को तोड़ते हुए प्रमाण दिया था कि, भड़ इसी धरती पर जन्में थे।
१५ अगस्त १९४७ के दिन जब भारतीय क्षितिज पर उगा सूर्य ब्रिटिश हकूमत के सूर्यास्त का पैगाम लेकर आया और हवाओं के जोर पर तिरंगा आजादी का ध्वजवाहक बनकर लहराया। मगर, उत्तराखण्ड के इस हिस्से में राजनरेशों की ठसक तब भी जारी थी, और जमीन पर जनता पंवार वंशीय राजतंत्र के अमानवीय जख्मों की टीस से कराह रही थी। ३० मई १९३० का दिन राजा के दमन की पराकाष्ठा थी। जब अपनी हदों को पार करते हुए उत्तरकाशी (तब टिहरी में शामिल) में बड़कोट के समीप तिलाड़ी के मैदान में वनों से जुड़े हकूकों के लिए संघर्षरत हजारों किसानों व ग्रामीणों पर गोलियां बरसा दी गई। उस दिन तिलाड़ी के मैदान में जलियांवाला बाग की याद ताजा हो गई थी। यही वह क्षण था, जहां से टिहरी की बेकसूर और मासूम जनता में तीखा आक्रोश फैला और यही घटना टिहरी राज्य में सत्याग्रही संघर्ष के अभ्युदय का कारण भी बनी।
तब टिहरी रियासत में जनान्दोलन की पैनी और कौंधती आवाज को दफन करने के लिए राजतंत्र का जुल्म ही अकेला नहीं था। बल्कि अंग्रेज सरकार ने भी राजसत्ता के विरूद्ध खड़ी ताकतों के उत्पीड़न में राजा की हमकदमी की। हालांकि जुल्मोगारत की अन्तहीनता की स्थिति में अवाम ने संघर्ष का आखिरी हथियार थाम लिया था। रियासत के आन्दोलनकारियों ने बगैर झुके-टुटे अपनी मंजिल तक बगावत का झण्डा बुलंद रखा। जिसकी बदौलत जनतांत्रिक मूल्यों की नींव पर प्रजामण्डल की स्थापना हुई। जिसका पहला नेतृत्व जनसंघर्ष की अग्रिमपांत के युवा क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन को मिला। इसे जनक्रांति की पहली उपलब्धी भी माना गया। यह राजतंत्र के गहराते जुल्मों के खिलाफ़ समान्तर खड़े होने जैसा ही था। जिसने राजगद्दी के पायों में तब भूकम्प सा ला दिया था। कि, तभी अचानक इस आन्दोलन में एक शून्य उभरा और राजशाही क्रूरता की असह्य वेदनाओं के बीच चौरासी दिनों की ऐतिहासिक ‘भूख हड़ताल’ के बाद क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन जेल की बेड़ियों-सलाखों के बीच राजा के दमन से भी २५ जुलाई १९४४ के दिन हमेशा-हमेशा के लिए रिहा हो गये। जनान्दोलन यहां भी नहीं रुका। क्योंकि अवाम तब तक लोकशाही व राजशाही में फर्क जान चुके थी।
राजतंत्र के अमानवीय जुल्मों में जन्मी इस जनक्रांति की जिम्मेदारी को तब एक और योद्धा कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने संभाला। यह नागेन्द्र और उनके साथियों का ही मादा था कि, उन्होंने अपनी आखिरी सांसों तक बारह सौ साला पंवार वंशीय सत्ता की हकूमत से टिहरी राज्य को रिहाई दिलाई थी। तब नागेन्द्र महज २७ बसंत ही देख पाये थे।
१२०० वर्ष पुरानी सामन्ती जंक-जोड़ को पिघलाने वाले इस जांबाज का जन्म टिहरी जनपद की सकलाना पट्टी के पुजारगांव में हुआ था। काबिलेगौर कि १६ साला उम्र में ही नागेन्द्र का मन सामाजिक सरोकारों को समझने लगा। हाईस्कूल की शिक्षा के बाद वे सक्रिय साम्यवादी कार्यकर्त्ता बन गये थे। इसी बीच १९४४ में रियासत अकाल के दैवीय प्रकोप से गुजरी। कि, राजा ने कोष की रिक्तता को पोषित करने और आयस्रोतों की मजबूती के लिए भू-व्यवस्था व पुनरीक्षण के नाम पर जनता के ऊपर करों का अतरिक्त बोझ लाद दिया। इस घटना ने जनक्रांति में जैसे घी का काम किया, और इसी दौरान कामरेड नागेन्द्र ने तंगहाली के दौर से गुजर रहे किसानों, जनता में भड़की आग को पैना और धारदार नेतृत्व दिया। गांव-गांव अलख जगाने लगे। तो, दूसरी तरफ उन्हीं की कार्यशैली व वैचारिकता के इर्दगिर्द एक और आक्रामक योद्धा दादा दौलतराम भी उनके हमकदम हो गये। नतीजा, हकहकूकों के प्रति सचेत होते जनमानस में शोषण के विरूद्ध लामबंदी मुखर होने लगी। ऐसे में राजा का तय भू-बंदोबस्त कानून लागू होने के बाद भी प्रभावी नहीं हो सका।
राजा से एक कदम आगे राज्य कार्मिकों द्वारा लागू कानूनों की पेशबंदी में आमजन को बेतरह परेशान किया जाने लगा। विरोध की सूरत में अमानवीय यातनायें देना मानों उनका शगल सा बन गया था। फलत: राजशाही की इन्हीं अलोकतांत्रिक नीतियों ने जनक्रांति को एक नई दिशा दी। बगावत का श्रीगणेश हुआ पट्टी कड़ाकोट(डांगचौरा) से। जहां की जनता ने का. नागेन्द्र सकलानी और दादा दौलतराम के नेतृत्व में लामबद्ध होकर लादे गये करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। फिर दौर चला किसानों और राजा की सेना के बीच जुल्म-संघर्ष का। हालांकि तब एक बार तो सेना ने निहत्थे ग्रामीणों पर हथियार उठाने से ही इंकार कर दिया था। सैनिकों को भी इस बगावत का दण्ड भुगतना पड़ा। आंदोलनकारियों के साथ उन्हें भी राजद्रोह में निबद्ध किया गया। अब तक तो जुल्म ओ सितम आजादी के मतवालों की आदतों में शुमार हो चुके थे।
राजद्रोह के इलजाम में गिरफ़्तार नागेन्द्र सकलानी ने राज्य की ओर से बारह साल की सजा अवधि को ठुकराकर श्रीदेव सुमन के नक्शेकदम पर चलते हुए १० फ़रवरी १९४७ को आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूरन राजा को अपनी अनचाही हार स्वीकारनी पड़ी। आखिरकार का. नागेन्द्र सकलानी और उनके साथियों को रिहा किया गया। राजा जानता था कि, श्रीदेव सुमन के बाद उसी तरह सकलानी की शहादत खतरनाक साबित हो सकती है।
तभी रियासत की जनता ने राजा के सामने वनाधिकार कानून में संसोधन, बरा-बेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग उठायी। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। राजा ने आन्दोलन को कमजोर करने के लिए एक बार फिर नागेन्द्र सकलानी के साथी दादा दौलतराम को गिरफ्तार किया। तो आन्दोलन का समूचा भार उन्हीं के कन्धों पर आ गया। जिसे नागेन्द्र ने अपनी काबलियत के बूते बखुबी पूरा भी किया। मुकाबले के इस दौर में ही प्रजामण्डल को राज्य से मान्यता मिली। २६-२७ मई १९४७ को प्रजामण्डल का पहला अधिवेशन आहूत हुआ, जिसमें कम्यूनिस्टों के साथ ही अन्य वैचारिक धाराओं ने भी शिरकत की। यह अधिवेशन आजादी के मतवालों के लिए संजीवनी साबित हुआ।
१५ अगस्त १९४७ को देश में स्वाधीनता के सूर्य ने इतिहास के हरफ़ों में इस दिन को अमर कर डाला। किंतु टिहरी का इतिहास तब भी बादशाही हकूमत की तंग गलियों में छटपटा रहा था। ठीक इस वक्त सकलाना की जनता ने तत्कालीन शासन से स्कूलों, सड़कों और चिकित्सालयों जैसी मौलिक सुविधाओं की मांग की, तो साथ ही उधर राजस्व की अदायगी को भी रोक दिया। तब इस आवाज को दबाने के लिए राजा ने फौज के साथ एक विशेष जज सकलाना भेजा। सकलाना में आम लोगों को उत्पीड़त किया जाने लगा। कई घरों को नीलामी की भेंट चढ़ा दिया गया। निर्दोंषों को भी जेलों में ठूंस दिया गया। ऐसे में राजतंत्र के दमन की ढाल के लिए प्रजामण्डल ने सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू की। रियासत की सीमा में ही कई जगहों पर शिविर लगाये गये। इसी दौरान सकलाना के मुआफ़ीदारों ने नागेन्द्र के नेतृत्व में आजाद पंचायत की स्थापना कर डाली। इसका असर कीर्तिनगर परगना तक हुआ। जिससे आन्दोलन में बढ़ती जन भागीदारी से भयभीत राज्यकर्मी टिहरी की राजधानी नरेन्द्रनगर कूच करने लगे। क्रांति का यह दौर कामयाबी के कदम बढ़ाता हुआ बडियार की तरफ बढ़ा। वहां भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
१० जनवरी १९४८ को कीर्तिनगर में राजतंत्र के बंधनों से मुक्ति के लिए जनसैलाब उमड़ आया। दूसरी ओर वहां राजा के चंद सिपाही ही आन्दोलनकारियों से मुकाबिल सामने थे। मौजुद सिपाही यहां भी जनाक्रोश के डर से कांप उठे। उन्होंने अपनी हिफ़ाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इस बीच सभा का आयोजन हुआ। जिसमें कमेटी का गठन करते हुए कचहरी पर कब्जा करने का फैसला किया गया। कमेटी ने अपने पहले ही एक्शन में कचहरी पर ‘तिरंगा’ गाड़ दिया। यह खबर जैसे ही राजधानी नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद और स्पेशल मजिस्ट्रेट बलदेव सिंह ११ जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। कीर्तिनगर में अब भी आन्दोलनकारियों का सैलाब खिलाफ डटा हुआ था। ११ जनवरी को फौज के साथ राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के समन्दर में वे ऐसा कर नहीं पाये। फौज ने भीड़ में डर पैदा करने की नीयत से आंसू गैस के गोले भी फेंके। मगर आग और भड़की और भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
उधर प्रजामण्डल ने शासन के अधीन राज्यकर्मियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर सत्याग्रहियों को इन्हें पकड़ने का जिम्मा सौंपा। जनता ने तैनात सिपाहियों को घेरकर अपनी गिरफ्त में ले लिया। हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आन्दोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र सकलानी को लगी तो उन्होंने अपने एक साथी भोलू भरदारी के साथ अधिकारियों का पीछा करके दो को पकड़ लिया। आक्रोश में सकलानी जब स्पेशल मजिस्ट्रेट बलदेव सिंह के सीने पर चढ़ गये तो बलदेव को खतरे में भांपकर मेजर जगदीश ने मातहतों को फायरिंग का आदेश दे दिया। फायरिंग में दो गोलियां नागेन्द्र और भरदारी को लगी और संघर्ष के बूते दोनों क्रांतिकारियों ने मौत को अपने सीने से लगा लिया। शहादत के इस गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि, तब ही पेशावर कांड के वीर योद्धा चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व को अपने हाथ में ले लिया था।
१२ जनवरी १९४८ के दिन अमर शहीद कामरेड नागेन्द्र सकलानी और भोलू भरदारी की पार्थिव देहों को लेकर आंदोलनकारी अश्रुपुरित आंखों के साथ टिहरी के लिए रवाना हुए। पूरे रास्ते रियासत की जनता ने दोनों अमर बलिदानियों को फूलों की वर्षा करके भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। इस गमगीन माहौल के साथ शहीद यात्रा १५ जनवरी को टिहरी पहुंची। टिहरी में इससे पहले ही भारी जनाक्रोश फैल चुका था। जिसे भांपकर राजा मय लाव-लश्कर १४ जनवरी को ही नरेन्द्रनगर भाग खड़े हुए। तब सत्ता के तमाम हथियार जनता के हाथ आ चुके थे।
टिहरी में सुमन चौक स्थित आजाद मैदान में अमर बलिदानी नागेन्द्र व भोलू भरदारी को अंतिम विदाई दी गई। साथ ही वहां मौजुद जनसमूह ने शपथ ली कि, अब राजशाही के अधीन नहीं रहा जायेगा। सकलानी व भरदारी के शरीरों के पंचतत्व में विलीन होते ही आंदोलनकारियों ने टिहरी में भी आजाद पंचायत की घोषणा की। देखते ही देखते टिहरी के राज कार्यालयों, न्यायालय और थाने पर आजाद पंचायत का झण्डा फहराने लगा। १६ जनवरी को एक बार फिर आमसभा हुई, जिसमें भारत सरकार को राज्य की संपति सौंपने का निर्णय लिया गया। तदुपरांत माह फरवरी में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और फिर लम्बे संघर्षों के बाद १ अगस्त १९४९ को टिहरी के इतिहास में वह दिन आ पहुंचा जब भारत सरकार की एक विज्ञप्ति के जरिये उसे उत्तर प्रदेश में शामिल कर पृथक जिला घोषित कर दिया गया।
इतिहास के संदर्भों में देखें तो टिहरी जनपद उत्तराखण्ड में पहली जनक्रांति का प्रतिनिधि रहा है। जहां वीर भड़ माधो सिंह ने ही नहीं बल्कि श्रीदेव सुमन, कामरेड नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी सरीखे कई वीर योद्धाओं ने सामाजिक प्रगतिशीलता के लिए अमर बलिदान किया। निश्चित ही आज नया राज्य इसी अवधारणा का फलित है, और ‘एक बेहतर आदमी की सुनिश्चितता’ के बाद ही हम शहीदों की ‘मनसा’ को पूरा कर पायेंगे।
धनेश कोठारी
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