Author Topic: Various Movements Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के विभिन्न जन आंदोलन  (Read 20799 times)

पंकज सिंह महर

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........एक बार पहले भी इसी प्रकार की समस्या सामने आयी थी, पंचायती जंगलों पर अधिक दबाव पड़ने से वह धरती घास रहित हो गई थी तथा वृक्ष ठूंठ भर रह गये थे। संरक्षित वनों में जाना उनके लिये सुविधाजनक था, उन्हें ज्ञात हुआ कि वनों की निर्मम कटाई नहीं होनी चाहिये, उन्होंने भूतकाल की क्षतिपूर्ति के लिये सैकड़ों ईधन चारे के वृक्ष रोपे। लेकिन उछ धूर्त लोगों के कारण कम्पनी को अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल गया, फलतः उन्हें अपने लगाये शिशुओं ई तरह पोषित वन की दुर्गति देखनी पड़ी।
कटियार कम्पनी ने कुछ पुरुषों की रोजगार दिया और रामलीला में ४०० रुपये चन्दा देकर पुरुषों को अपने पक्ष में कर लिया। पुरुषों की मौन स्वीकृति पाकर अब खड़िया ढुलाई हेतु बाहर से खच्चर और बन्जाने आकर खेतों को रोंदने लगे। गांव के मार्ग खच्चरों से भर गये, असुविधा बड़्ही, खच्चरों को रास्ता देन के लिये महिलाओं को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती, उनके कष्ट बढ़ते चले गये, ग्राम व्यवस्था गड़बड़ा गई और गांव की सुरक्षा व्यवस्था भी टूट गई। खेतों को खच्चर रौंदने लगे और उनके मालिक लोगों से गाली-गलौज करने लगे। जब इस बात को महिलाओं ने गांव के पुरुषों को बताया तो उन्होंने मालिक से बात करने के बजाय चुप रहना ही बेहतर समझा। जब कुछ युवकों और महिलाओं ने रास्ते संकरे कर चहारदीवारी ठीक की तो रुकावट जानकर खानवालों ने मारपीट, झगड़ा किया और गांव वालों पर मुकदमा किया। मुख्य अभियुक्त (सभापति० की गवाही बदलने पर गांव वाले मुकदमा हार गये।गांव की महिलाओं ने वयोवृद्ध स्वतन्त्रता सेनानी श्री हिम्मत सिंन को अध्यक्ष बनाकर  संघर्ष समिति का गठन किया। इस बीच अवैज्ञानिक खनन के कारण जलस्रोत दूषित हो गया। छांछ के रंग का पानी आने लगा। फलतः बच्चों के पेट खराब होने लगे। नियम ताक पर रखकर खदान वालों ने ५००-५०० फीट की गहरी खदानें खोदकर उन्हें बिना पाटे छोड़ दिया। नियमानुसार वहां पर वृक्षारोपण नहीं किया गया। दो युवकों की मौत खदान में काम करते समय हो गई, एक का नाम मुआवजा देने के डर से रजिस्टर से गायब कर दिया गया, दूसरे के घर वालों को ४-५ हजार रुपये देकर मामला रफा-दफा कर दिया गया। लेकिन खदान मालिकों की अनियमिततायें लगातार बढ़ने के कारण सारा गांव क्षुब्ध हो गया।.......जारी

पंकज सिंह महर

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फलस्वरुप अल्मोड़ा बाजार में महिलाओं का मौन जुलूस हाथ में तख्तियां लेकर निकला "खड़िया खदान से हमारे खेत बर्बाद मत करो" "हमारे रास्ते मत रोको"पीने के पानी के स्रोत खत्म न करो"। कंपनी मालिक ने झूठा अभियोग लगाया कि हथियारबन्द लोग मुझपर हमला करने आये। उसने ६-७ निर्धन युवकों को फसाया, वे युवक घबयाये, मगर महिलायें आगे आई, उन्होंने गांव से चंदा एकत्र कर तारीख लगने पर पुरुषों को भेजा। इस बीच कटियार मिनरल्स के स्वामी ने गांव के ही एक पुरुष प्रताप सिंह को अपनी ओर से ढुलाई, अवैध खनन के लिये अधिकार देकर एक रिवाल्वर भी दी। गांव की एक कृषक मोहिनी देवी बताती हैं कि वह युवक रिवाल्वर दिखाकर चट्टान पर चढ़कर महिलाओं को डराता था। पर निर्भीक महिलाओं ने अवैध खनन न होने दिया और न ही ढुलाई होने दी। ढाई साल मुकदमा चला, स्त्रियां अडिग रहीं, पुरुष न्यायालय जाते रहे और महिलायें सहारा देतीं रहीं।
कटियार मिनरल्स ने अन्य नाम से १९८२ में पुनः ठेका लेने की कोशिश की लेकिन महिलाओं के प्रयास से वह असफल रहे। अब वहां खनन के सारे ठेके निरस्त कर दिये गये हैं। एक वृद्धा ने गुस्से से एस०डी०एम० से उग्र स्वर में कहा "साहब अगर हम इस वजह से मर गये तो भूत बनकर आप लोगों पर लगेंगे। यदि सरकार ने सहानुभूति नहीं दिखाई तो हम मविशियों सहित खान पर धरना देंगे।" महिलाओं और जनता के दबाव के आगे अंततः जिलाधीश के निर्देश पर एस०डी०एम० ने फैसला होने तक खनन कार्य बन्द करा दिया।
अब प्रश्न था कि गांव की खनन क्षति कैसे पूर्ण हो, खडिया खनन के कारण गांव की मिट्टी जगह-जगह उधड़ी हुई थी, हर जगह गढ़्ढे थे। राधा बहन ने पहल की, एक वृहत पर्यावरण शिविर का आयोजन किया गया। स्त्रे पुरुष बच्चे सब जुटे, एक सप्ताह में ही सारे गढ़ढे भर दिये गये और उस परीधन-चारे के वृक्ष लगाये गये।
आज खीराकोट पुनः हरा-भरा हो गया है, स्वस्थ वन और पर्यावरण महिलाओं के संघर्ष और विजय की स्मृति बन गया है। संघर्ष की याद दिलाए पर वहां की महिलायें कहती हैं कि "यह हमारे जीवन का प्रश्न था, खेत, पशु, बच्चे सबके लिये लड़ना जरुरी था" एक किशोरी का कहना था कि "मैं तो कटियार मिनरल्स की बड़ी आभारी हूं, उन्होंने हमें दिखा दिया कि औरतें संघार्ष शक्ति में किसी से कम नहीं हैं और वे जीत सकती हैं अब हम पर्यावरण के बारे में जान गई हैं।"

यह आन्दोलन उत्तराखण्ड की महिलाओं की दृढ़ इच्छाशक्ति और अपने हक-हकूक के लिये किसी भी सीमा तक जाने के जज्बे को दिखाता है। कई जन आन्दोलनों को हमारी मातृ शक्ति के इसी जज्बे से जीत मिली है और मिलती रहेगी, उत्तराखण्ड की मां-बहनों के इस जज्बे को मेरा पहाड़ का कोटिशः नमन।

’धाद’ संस्था द्वारा प्रकाशित "ग्रन्थ आयोजन-भाग एक" से साभार टंकित

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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समलौण आंदोलन है ग्रीन हाउस गैसों की समस्या का समाधान
वृक्षारोपण का आंदोलन है समलौण
----पौड़ी से आशीष गोदियाल
   समलौण का अर्थ है यादगार चीज। ऐसी चीज जो किसी की याद में स्थापित की गई हो। उत्तराखंड में इस आंदोलन के तहत मनुष्य के जन्म से लेकर अंतिम यात्रा तक के सफर तक के सभी संस्कारों के मौके पर पौधे लगाए जाते हैं और यह काम बलिकाओं के नेतृत्व में किया जाता है।
उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कोटी गांव से शुरु हुआ यह आंदोलन मैती आंदोलन की तरह देश-दुनिया में फैलता जा रहा है। इस आंदोलन के प्रणेता हैं बीडी गोदियाल। आंदोलन की शुरुआत कुछ साल पहले एक कन्या के विवाह के मौके पर पेड़ लगाने से हुई थी और आज यह लगातार फैलता जा रहा है। समलौण से लगेपौधे आज पेड़ों का रूप ले चुके हैं। इस आंदोलन के तहत गांव-गांव में समलौण संगठन बने हैं। गांव में संगठन की कमान लड़कियों के हाथ में रहती है। जब भी किसी घर में बच्चे का जन्म होता है उस मौके पर उनका परिवार एक पौधा लगाता है। इसके बाद नामकरण संस्कार, मुंडन, सगाई, शादी, से लेकर हर कार्यक्रम के मौके पर पौधे लगाए जाते हैं। जीवन की अंतिम यात्रा यानी अंतिम संस्कार के मौके पर भी पौधा लगाया जाता है। परिवार वाले संस्था को कुछ अनुदान भी देते हैं। इस पैसे को गांव के विकास पर खर्च किया जाता है।
आज जब देश-दुनिया ग्रीन हाउस गैसों के कहर से बेहाल है,जलवायु परिवर्तन के खतरों से हिमालय समेत पूरी दुनिया के ग्लेशियर संकट में है। समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है।  भारत को भी अपने मौजूदा २१ फीसदी वन क्षेत्र को बढ़ाकर २० फीसदी तक बढ़ाना है। ऐसे में सिर्फ पेड़ों से ही दुनिया बच सकती है। समलौण आंदोलन दुनिया के लिए एक उदाहरण है। यदि सभी लोग अपने परिवार में होने वाले हर कार्यक्रम की याद में एक पौधा लगा दें तो समस्या का समाधन हो जाएगा।
(आपके पास भी इस तरह की जानकारी है तो आशीष गोदियाल की तरह हमें भेजिये। हम उसे पोर्टल में देंगे। ई मेल- himalayilog@gmail.com  )

(Source-himalayilog.com)

विनोद सिंह गढ़िया

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चिपका यों पेडों सी न कटण द्या
« Reply #23 on: March 26, 2012, 02:31:17 AM »
चिपका यों पेडों सी न कटण द्या
...और महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं


उत्तराखंड में वनों पर हक-हकूक का पहला ज्ञात आंदोलन टिहरी जिले की खासपट्टी में 1906-07 में हुआ। उसके बाद दूसरे दशक में रवाईं का वनांदोलन खासा चर्चित रहा। इसे कुचलने के लिए रियासत की फौज ने 30 मई 1930 को तिलाड़ी में सभा करते हुए निहत्थी जनता पर गोलियों की बौछार की गई थी। सत्तर के दशक के चिपको आंदोलन ने तो वनों को लेकर नया दर्शन दिया।
वर्ष 1886 में टिहरी रियासत के तत्कालीन महाराजा ने वनों की पैमाइश कराते हुए तीन श्रेणियों में बांट दिया। पहले श्रेणी के जंगल पर जनता का अधिकार नहीं था। दूसरी श्रेणी के जंगल पर सीमित अधिकार दिए गए। जिससे वह चारापत्ती, जलावनी और इमारती लकड़ी कुछ हद तक ले सकते थे। तीसरी श्रेणी के जंगल में किसी भी गतिविधि के लिए राजा की अनुमति अनिवार्य थी। जनता के वनाें पर अधिकार सीमित होने से उनमें गुस्सा पनपने लगा। वर्ष 1906-07 में टिहरी शहर से सटी खास पट्टी के लिवाणा, जुराना, करास, कफलना, कैंथोली जैसे गांवों के लोगों ने राजा के फरमान का विरोध कर दिया। बगावत रोकने के लिए राजा ने वन संरक्षक सदानंद गैराला को भेजा, लेकिन ग्रामीणों ने उसके माथे को गर्म लोहे से दाग दिया। राजा ने आंदोलनकारियों की पहचान कराई और उन्हें जेलाें में ठूंस दिया। उसके बाद ग्रामीणों को जंगल में कुछ और अधिकार दिए गए। दूसरे दशक में फिर से मुनाराबंदी की गई। जिससे ग्रामीणों के जंगलों पर अधिकार फिर प्रभावित हो गए। यमुना घाटी में तो स्थिति ज्यादा खराब हो गई। लोग जंगल में पशुओं का चुगान भी नहीं करा सकते थे। विरोध में रवांई के लोगों ने बड़कोट के समीप तिलाड़ी के मैदान में एकत्रित होकर आजाद पंचायत की। इसे कुचलने के लिए राजा की फौज ने लोगों को तीन तरफ से घेर लिया। चौथी ओर यमुना बहती थी। जंगलों पर अपने अधिकारों को लेकर एकत्रित हुए निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाई गईं। इसमें दर्जनों लोग शहीद हुए। कुछ यमुना में बह गए। बड़ी संख्या में लोगों को जेल में ठूंसा गया। तीसरा और बड़ा वन आंदोलन 70 के दशक में सामने आया। शुरूआती दौर में यह भी वनों पर लोगों को अधिक हक-हकूक देने के साथ शुरू हुआ। बाद में बड़ी कंपनियों को ठेके देने से आंदोलन भड़क गया। उत्तरकाशी जिले के वयाली के जंगलों में कामरेड कमला राम नौटियाल के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने जंगल नहीं कटने दिए। उन्हाेंने करीब दस माह तक वहां डेरा डाले रखा। यही काम चमोली जिले में कम्युनिस्ट नेता गोविंद सिंह रावत कर रहे थे। सर्वोदयी नेता सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट भी गांधीवादी तरीके से आंदोलन को गति दे रहे थे। तबके युवा तुर्क डा.शेखर पाठक, डा.शमशेर सिंह बिष्ट, कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी जैसे युवा आंदोलन को ऊर्जा दे रहे थे। इस बीच चमोली में अंगू के पेड़ काटने का ठेका इलाहाबाद की खेल सामान बनाने वाली कंपनी साइमन को देने से आंदोलन भड़क गया। 26 मार्च 1974 को चमोली के तत्कालीन डीएम ने तमाम पुरुष आंदोलनकारियों को वार्ता के लिए गोपेश्वर बुलाया। इस बीच कंपनी के आदमी जंगल काटने रैंणी पहुंच गए। भले कहीं चिपको आंदोलन में उस छोटी लड़की का जिक्र नहीं जिसने सबसे पहले ठेकेदार के आदमियों कोे जंगल जाते देखने की सूचना गांव में दी, लेकिन इसी सूचना पर गांव में महिलाएं एकत्रित हुई। तब महिला मंगल दल की तत्कालीन अध्यक्ष गौरा देवी की अध्यक्षता में बैठक हुई। सुझाव आया कि सब पेड़ों से चिपक जाएंगी, लेकिन पेड़ नहीं कटने देंगी। सभी महिलाएं जंगल पहुंची और पेड़ों से चिपक गईं। इस पर ठेकेदार के आदमियों को हथियार डालने पड़े। यही घटना बाद में चिपको आंदोलन के नए स्वरूप में सामने आई। तब भले ही इस आंदोलन का कोई नाम नहीं था। बाद में प्रख्यात लोक कवि घनश्याम सैलानी ने पेड़ों को बचाने के लिए अपने गीत में लिखा कि चिपका यों पेडों सी अब न कटण द्या। यहीं से वन आंदोलन को एक नया शब्द चिपको मिल गया। जिससे यह विश्वविख्यात हो गया।

स्रोत : अमर उजाला

 

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