Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन

Various Movements Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के विभिन्न जन आंदोलन

(1/5) > >>

पंकज सिंह महर:
साथियो,
        उत्तराखण्ड आज से ही नहीं बल्कि प्राचीनकाल से आंदोलनों की भूमि रही है, विभिन्न अवसरों पर विभिन्न मांगों को लेकर उत्तराखण्ड की जनता ने कई आंदोलन किये हैं। आंदोलन वहां होते हैं, जहां अभाव हो, शोषण हो और इन सबसे उत्तराखण्ड पीड़ित रहा है।
      इस टोपिक के अन्तर्गत हम उन विभिन्न जनांदोलनों के बारे में जानकारी देंगे, जिनका फैलाव सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में तो नहीं रहा, लेकिन क्षेत्र विशेष के लोगों ने अपने हक-हकूकों के लिये यह आंदोलन किये।

सादर,
पंकज सिंह महर

पंकज सिंह महर:
[justify]तिलाड़ी का जनांदोलन- 1930

१९२७-२८ में टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गई उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई, इससे वनों के निकट के ग्रामों में गहरा रोष फैल गया। रवांई परगने में वनों की जो सीमा निर्धारित की गई उसमें ग्रामीणॊ ने आने-जाने के रास्ते, खलिहान और पशुओं के बांधने के स्थान भी वन सीमा में चले गये। जिससे ग्रामीणॊं के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बंद हो गये। वन विभाग की ओर से आदेश दिये गये कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिये जा सकते।
   टिहरी रियासत की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती थी, इसलिये कोई भी व्यक्ति किसी भी वन्य जन्तु को अपने अधिकार के रुप में बिना मूल्य के प्राप्त नहीं कर सकता। यदि राज्य की ओर से किसी वस्तु को निःशुल्क प्राप्त करने में छूट दी जायेगी तो वह महाराजा की विशेष कृपा पर दी जायेगी। जो सुविधायें वनों में जनता को दी गई है, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकेंगे।

      उस समय आज की जैसी सुविधायें नहीं थी, पशुओं से चारे से लेकर कृषि उपकरणॊं से लेकर बर्तनों तक के लिये भी लोग जंगलों पर ही आश्रित थे, लेकिन जब जनता शासन तंत्र से पूछती कि जंगल बंद होने से हमारे पशु कहां चरेंगे? तो जबाब आता था कि ढंगार (खाई) में फेंक दो। यह बेपरवाह उत्तर ही वहां के लोगों के विद्रोह की चिंगारी बनी। टिहरी रियासत के कठोर वन नियमों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिये रवांई के साहसी लोगों नें "आजाद पंचायत" की स्थापना की और यह घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे बड़ा अधिकार है। उन्होंने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा वनों से अपएन उपभोग की वस्तुयें जबरन लाने लगे।
        इस प्रकार से रंवाई तथा जौनपुर में ग्रामीणों का संगठन प्रबल हो गया, आजाद पंचायत की बैठक करने के लिये तिलाड़ी के थापले में चन्द्राडोखरी नामक स्थान को चुना गया। इस प्रकार वन अधिकारों के लिये आन्दोलन चरम बिन्दु पर 30 मई, 1930 को पहुंचा, तिलाड़ी के मैदान में हजारों की संख्या में स्थानीय जनता इसका विरोध करने के लिये एकत्रित हुई और इस विरोध का दमन करने के लिये टिहरी रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर दीवान के नेतृत्व में सेना भी तैयार थी। आजाद पंचायत को मिल रहे जन समर्थन की पुष्टि हजारों लोगों का जनस्मूह कर रहा था, इससे बौखलाये रियासत के दीवान ने जनता पर गोली चलाने का हुक्म दिया। जिसमें अनेक लोगों की जानें चली गई और सैकड़ों घायल हो गये। 28 जून, 1930 को "गढ़वाली" पत्र ने मरने वालों की संख्या १०० से अधिक बताई।
       इस प्रकार से वन अधिकारों के लिये संघार्ष कर रही जनता के आंदोलन को बर्बरतापूर्वक दबा दिया गया।

पंकज सिंह महर:
30 मई को तिलाड़ी कांड की बरसी मनाई जाती है, वर्ष १९३० में राजा ने यहां पर सैकड़ो निर्दोष लोगों की हत्या करवा दी थी।

तिलाड़ी का मैदान



यह मैदान बड़कोट से 2.5 किलोमीटर दूर है तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड को छोड़कर, भारतीय इतिहास के सर्वाधिक निर्दय हत्याकांडों में से एक है। इसे तिलारी कांड कहा जाता है। 30 मई, 1930 को किसानों की एक बड़ी संख्या यहां जुटी एवं गढ़वाल के राजा नरेन्द्र शाह से अपने अधिकारों की मांग की। इनमें से सैकड़ों की निर्मम हत्या राजा के दीवान चक्रधर जुवाल द्वारा कराकर उनके शव को यमुना में फेंक दिया गया।

      तिलारी कांड की जड़ वर्ष 1927-28 के वन बन्दोबस्ती से है जिसके अनुसार वन की सीमाओं का पुननिर्धारण हुआ। नयी सीमाओं से परंपरागत पशु चारागाहों पर अतिक्रमण हुआ जिसके कारण लोगों का आक्रोश बढ़ा। 20 मई, को उन्होंने जंगल में आग लगा दी जिसके कारण वन पदाधिकारियों ने आंदोलन के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। परंतु लोगों ने नेताओं को छुड़ा लिया और वे राजा से मिलने टिहरी की ओर चल पड़े। तभी राजा की सेना ने गोली चलाकर कई विरोधियों को मार डाला और इसीलिये प्रत्येक वर्ष मई में इस दिन को तिलारी शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

पंकज सिंह महर:
कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय बनाओ आन्दोलन-1972-73


वर्ष १९७३ से पहले तक उत्तराखण्ड में कोई विश्वविद्यालय नहीं था, उत्तराखण्ड के सभी डिग्री कालेज और महाविद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से संचालित होते थे, जिससे छात्रों को कई असुविधाओं का सामना करना पड़्ता था, मार्कशीट में सुधार से लेकर बैक पेपर, डिग्री लाने तक के लिये छात्रों को चमोली, पिथौरागढ़ से आगरा जाना पड़ता था। उन दिनों यातायात के सुगम साधन भी नहीं थे, इस असमानता ने धीरे-धीरे एक आन्दोलन को जन्म दिया, जिसका नाम था "कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय बनाओ आन्दोलन"। उत्तराखण्ड के विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र संगठित होकर सड़को पर उतर आये और कुमाऊं और गढ़वाल के लिये अलग-अलग विश्वविद्यालय की मांग उठाने लगे, इस आन्दोलन को इण्टर कालेजों में पढ़ रहे छात्रों ने भी समर्थन दिया था, क्योंकि कल उन्हें भी इन्हीं डिग्री कालेजों में एडमीशन लेना था।
        इस आन्दोलन की धधक पूरे उत्तराखण्ड में फैल गई, सारा उत्तराखण्ड आन्दोलन मय हो गया, डिग्री कालेज के इन छात्रों को बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों का भी सहयोग और समर्थन मिला। तत्कालीन प्रशासन ने इसका कठोर दमन भी किया, छात्र नेताओं को जेल में डाला जाने लगा, लाठी चार्ज किया जाने लगा और दमन की पराकाष्ठा यहां तक पहुंची कि प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर गोलियां भी चलाई गई।
        दिनांक 15 दिसम्बर, 1972 को जब पिथौरागढ़ राजकीय महाविद्यालय के छात्र प्रदर्शन कर रहे थे और उनके साथ जुलूस में इण्टर कालेजों के छात्र, विभिन्न सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता थे, तो पुलिस ने इन पर गोलियां बरसा दीं, जिस कारण एक स्कूली छात्र और एक नेपाली मजदूर की मौत हो गई और वर्तमान में उक्रांद के शीर्ष नेता श्री काशी सिंह ऎरी समेत सैकड़ों छात्र घायल हो गये।

इस आन्दोलन में शहीदों के नाम-

१- स्व० श्री सज्जन लाल शाह
२- स्व० श्री शोबन सिंह (नेपाली मजदूर)

     इस गोलीकांड के बाद यह आन्दोलन और प्रचण्ड हो गया, जगह-जगह आन्दोलन की आग और तेज हो गई, अंततः परिणाम यह हुआ कि 1 मार्च, 1973 को कुमाऊं और गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। यह ७० के दशक का सबसे प्रभावी छात्र और जनांदोलन था, जो दो बलियां देने के बाद सफल हुआ।

पंकज सिंह महर:
कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय बनाओ आन्दोलन में शहीद हुये स्व० श्री सज्जन लाल शाह के बलिदान को अक्षुण्ण रखने के लिये उनके पिता और पिथौरागढ़ के लोगों द्वारा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़ के कैम्पस में एक छात्रावास का निर्माण किया गया, जिसका नाम उनके नाम पर "सज्जन छात्रावास" रखा गया।
     

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version