Author Topic: गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" और उनकी कविताये: GIRDA & HIS POEMS  (Read 74376 times)

पंकज सिंह महर

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गिर्दा का चुनावी रंग

यह रंग चुनावी रंग ठेरा, इस ओर चला, उस ओर चला,
तुम पर भी चढ़ा, हम पर भी चढ़ा, जिस पर भी चढ़ा, घनघोर चढ़ा,
गालों पर चढ़ा, बालों पर चढ़ा, मूछों में चढ़ा, दाढ़ी में चढ़ा,
आंखों में चढ़ा, सांसों में चढ़ा, धमनी में चढ़ा, नाड़ी में चढ़ा,
हाथों में चढ़ा, पांवों में चढ़ा, घुटनों में चढ़ा, जोड़ों में चढ़ा,
खुजली में चढ़ा, खांसी में चढ़ा, फुंसी में चढ़ा, फोड़ों में चढ़ा,
आसन में चढ़ा, शासन में चढ़ा, भाषण में उदघाटन में चढ़ा,
न्यासों में-शिलान्यासों में चढ़ा, यशगान-गीत-कीर्तन में चढ़ा,
उल्फत में चढ़ा, हुज्जत में चढ़ा, फोकट में चढ़ा, कीमत में चढ़ा,
मंदिर में चढ़ा, मस्जिद में चढ़ा, पूजा में चढ़ा, मन्नत में चढ़ा,
पुडि़या में चढ़ा, गुड़िया में चढा़, पव्वे में चढ़ा, बोतल में चढ़ा,
कुल्हड़ में चढ़ा, हुल्लड़ में चढ़ा, कुल देखो तो टोटल में चढ़ा,
चहुं ओर चढ़ा, घनघोर चढा, झकझोर चढ़ा, पुरजोर चढ़ा,
यह रंग चुनावी रंग ठैरा, इस ओर चढ़ा, उस ओर चढ़ा॥

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश चन्द्र तिवाड़ी "गिर्दा" की नजर में ये चुनाव-

                        १- लोकतंत्र का महाकुंभ


लोकतंत्र का महाकुंभ कहते हैं इसको प्यारे,
जिसकी डुबकी सफल भई, फिर उसके वारे-न्यारे,
खड़े देखिये बड़े-बड़े दिग्गज हैं गंग किनारे,
जिसकी लहर चली उसको पहुंचा दे दिल्ली द्वारे,
अबकी पार लगेगी नय्या किसकी गंगा जाने,
पिण्डालू हैं एक खाड़ के सब जाने-पहचाने।


                        २- ये चुनाव की नौटंकी

ये चुनाव की नौटंकी है, अजब-गजब का खेला,
इसमें कौन पराया, अपना कौन, कौन गुरु का चेला,
इसमें जाने कौन कहां पर, किसकी पूंछ उठा दे,
इसमें जाने कौन कहां पर मार किसे जूतिया दे,
इसमें जाने कौन कहां पर, किससे हाथ मिला ले,
इसमें जाने कौन कहां पर, किसको बाप बना ले,
इसमें अपना कौन, पराया कौन, गुरु को चेला,
ये चुनाव की नौटंकी तो अजब-गजब का खेला॥


पंकज सिंह महर

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गिरीश तिवारी "गिर्दा" के अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हुये हैं, जिसमें से एक "उत्तराखण्ड काव्य" भी है।


Long poem related generally with social movements of Uttarakhand and specially with the Uttarakhand state movement.


Language: Hindi
Year: 2002
Pages: 96
Status: Print Copy Available
Price: Rs 80.00


www.pahar.org

पंकज सिंह महर

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"तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?"

(उत्तराखण्ड राज्य बनने की आठवीं वर्षगांठ पर जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता)


कैसे कह दूं, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहां रुकी,
गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आंखों से लहू रुलाते हैं।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आंखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आंखों का सपना बिखर गया।
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है।
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आंखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ।

पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

पंकज सिंह महर

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वर्ष २००८ में उत्तराखण्ड की नदियों के संरक्षण के लिये "नदी बचाओ आन्दोलन" चलाया गया। इस अभियान में भी गिर्दा ने अपनी दमदार और निर्णायक भूमिका अदा की, इस आन्दोलन को धार दी गिर्दा के गीतों ने। इस आन्दोलन के सदस्य गिर्दा की कविताओं को गुनगुनाते हुये प्रदर्शन करते रहे-

(प्रस्तुत गीत का सूत्र और शीर्षक प्रसिद्ध खड़ी होली "इस व्योपारी को प्यास लगी है" से जुड़ा है)

एक तरफ बर्बाद बस्तियां, एक तरफ हो तुम,
एक तर्फ डूबती किश्तियां-एक तरफ हो तुम,
एक तरफ हैं सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम,
एक तरफ है प्यासी दुनियां-एक तरफ हो तुम।
अजी वाह! क्या बात तुम्हारी,
तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई है बिसात तुम्हारी।

सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समुन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,
उफऽऽ! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी?
जिस दिन डोलेगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल-चौबारे बह जायेंगे,
खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूंद-बूंद को तरसोगे जब-बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
दिली-देहरादून में बैठे-योजनाकारी तब क्या होगा?
आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो,
लेकिन डोलेगी जब धरती-बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी-तब क्या होगा?
ओऽऽ योजनाकारी-तब क्या होगा?
नकद-उधारी-तब क्या होगा?
एक तरफ हैं सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया-एक तरफ हो तुम॥

पंकज सिंह महर

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नदी बचाओ आन्दोलन के दौरान का एक और गीत

नदी पर किसका अधिकार

चलो नदी तट वार चलो रे!
चलो नदी तट पार चलो रे!
करें यात्रा नदियों की!
इन नदियों के अगल-बगल ही,
जीवन का विस्तार चलो रे!  करें यात्रा नदियों की,
आज इन्हीं नदियों के ऊपर,
पड़ी है मारा-मार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
टुकड़ा-टुकड़ा नदी बिक रही,
बूंद-बूंद जलधार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
गांव हमारे, नदी किनारे,
सूखा कंठ हमार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
जल में बोतल, बोतल में जल,
प्यासा पर संसार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
सूखा-गीला बादर-बिजुरी,
सब की हम पर मार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
प्रश्न यही कि नदी पर पहला,
है किसका अधिकार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
नहीं किसी की नदी मौरुसी,
हम पहले हकदार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।
बहता पानी, चलता जीवन,
थमा-कि हाहाकार चलो रे! करें यात्रा नदियों की।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गिर्दा की एक कुमाऊंनी कविता 

जैंता एक दिन तो आयेगा

इतनी उदास मत हो
सर घुटने मे मत टेक जैंता
आयेगा, वो दिन अवश्य आयेगा एक दिन

जब यह काली रात ढलेगी
पो फटेगी, चिडिया चह्केगी
वो दिन आयेगा, जरूर आयेगा

जब चौर नही फलेंगे
नही चलेगा जबरन किसी का ज़ोर
वो दिन आयेगा, जरूर आयेगा

जब छोटा- बड़ा नही रहेगा
तेरा-मेरा नही रहेगा
वो दिन आयेगा

चाहे हम न ला सके
चाहे तुम न ला सको
मगर लायेगा, कोई न कोई तो लायेगा
वो दिन आयेगा

उस दिन हम होंगे तो नही
पर हम होंगे ही उसी दिन
जैंता ! वो जो दिन आयेगा एक दिन इस दुनिया मे ,
जरूर आयेगा,


गिर्दा द्वारा लिखित उत्तराखण्ड काव्य से साभार, इस पुस्तक के लिए सम्पर्क है-

प्रकाशक
पहाड
परिक्रमा, तल्ला डांडा, नैनीताल-२६३००२
फ़ोन-(०५९४२) ३९१६२

पंकज सिंह महर

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कोसि हरै गै कोसि

(इस गीत के टेक की मूल धुन है-’ऎल द्याते बिखौती मेरी दुर्गा हरै गै’ इसमें अलग-अलग क्षेत्रों की स्थितियों का गद्य में भी वर्णन किया गया है। इस गीत को नदी यात्रा-२००८ के दौरान यात्रा जत्थों ने खूब गाया)

जोड़
आम-बूबू कुंछी, गदगदानी ऊंछी,
रामनगर पुजछीं, कौसिकैकि बतूं छी,
स्थाई धुन
पिनाथ बै ऊंछी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
कौसिकैकि कूं छी-मेरि कोसि हरै गै कोसि॥
क्याकि रौपा लगूं छी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
क्या स्यारा छजूं छी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
घट-गूला रिंगोछी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
कस माच्छा खऊंछी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
जतकाला नऊंछी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
पितर तरुं छी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
पिनाथ बै ऊंछी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
रामनगर पूजूंछी-मेरि कोसि हरै गै कोसि।।
जोड़-
रामनगर पूजूं छी,
आंचुई भरयूं-भरय़ू छी...............
(ऎछी बात समझ में? जो चेलीऽऽ पहाड़ बै रामनगर बिवैई भै, उ कूणें यो बात)
पिनाथ बै ऊंछी, रामनगर पूजूं छी,
आचुंई भरयूं छी, मैं मुखडि़ देखूं छी,
छैल छुटी ऊं छी, भै मुखड़ि देखूंछी,
स्थाई धुन
आब कचुई है गे,मेरि कोसि हरै गै कोसि।
तिरंगुली जै रै गे-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
हांई पांणी-पांणी है गे-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
तिरंगुली जस रै गे-मेरि कोसि हरै गै कोसि।
मेरि कोसि हरै गै कोसि।।

पंकज सिंह महर

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कोसि हरै गै कोसि का हिन्दी भावार्थ-

दादा-दादी सुनाते थे कि किस तरह से इठलाती हुई आती थी कोसी। रामनगर पहुंचाती थी, कौशिक ऋषि की कहलाती थी। अब जाने कहां खो गई मेरी वह कोसी, क्या रोपाई लगाती थी, सेरे (तलाऊं खेत) सजाती थी,पनचक्की और गूलें चलाती थी, क्या मछलियां खिलाती थी, वाह....! ......आह! वह कोसी कहां खो गई? जतकालों (जच्चा-प्रसूति वाली महिलायें) को नहलाती थी-अभिप्राय शुद्धि से है। पितरों को तारती थी, पिनाथ से आती थी, रामनगर पहुंचती थी।
      रामनगर ब्याही पहाड़ की बेटी कह रही है कि - कोसी का पानी हाथ में लेते ही छाया उतर आती थी, अंजुरि में मां-भाई के स्नेहिल चेहरों की। कहां खो गया कोसी का यह निर्मल स्वच्छ स्वरुप? अब तो मैली-कुचैली, तिरंगुली (छोटी अंगुली) की तरह रह गई है, एक रेखा मात्र। हाय! पानी-पानी हो गई है, मेरी कोसी खो गई है।

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड की कला और संस्कृति को बताते गिर्दा

http://www.youtube.com/watch?v=e4wOOW1XA8Q

पिथौरागढ़ जनपद के लोक गीतों और नृत्यों के बारे में बताते गिर्दा

http://www.youtube.com/watch?v=Y6gfqY32JZo

 

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