Author Topic: उत्तराखंडी नाटकों की शुरुआत (गढ़वाली, कुमाऊंनी) - UTTARAKHANDI PLAYS !!  (Read 50002 times)

Parashar Gaur

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    श्री चटान सिंह जी व बिज्ल्वान के नाटको के बारे में इस थ्रिड में पडा तो मै अपने को रोक नही पाया  इसीलिए मेरे अन्दर का लेखक व कलाकार जाग उठा |  मान्यबर चट्टान सिंह जी ने मेरे बारे में शायद ज्याद ही लिख डाला फिर भी मै कोशिश करूंगा की मुझे से पहेले भी नाटक होती रहे और उसके बाद नई पौध भी पैदा हुई .. जो अच्हा कम कर रहे है |

     सन १९०६१- ६२ मैंने पर स्टेज कदम रखा और सन १९८४ में स्टेज को अलविदा कहा क्यूंकि तब मै फिल्मो के और निकल गया था और साथ में विदेश जाने की तयारी मै भी लग चुका था |
 
     " पंदैरा"  के बारे में मैन तब सुना जब मै सन २००७ में भारत आया था मुम्बे में प्रोफसर डोभाल जी के घर पर जोगेश्वरी में पहाड़ की गतिबिध्यो पर चर्चा कर रहे थे |  मुझे से कहा गया था की बही भीषम कुकरेती जी की आने के भी संभावना है लकिन वो नही आ पाए थे  तब पत्ता चाल की अर्धग्रामेषर जैसा एक नाटक हाल ही खेला गया साथ में ये कहा गया की यहाँ नाटक एन एस डी ने स्टेज किया  |  सुनकर अच्हा लगा था !

     सन ७० के दशक राजेंदर धस्मान जी द्वार लिखा अर्धग्रामेषर नाटक बहुत चेर्चित नाटक था मै भी इस नाटक  एक अहम् हिसा था | सबसे पाहिले मैंने  ही इस नाटक में मतबार की वो भूमिका निभाई थी | आज भी लोग उसे भुला पाए होंगे और नही मै..|  प्रतेक अखबार ने उसे कवर किया था |  हम इसे मुम्बे भी लेकर गए थे | सनमुखानंद हाल में प्रस्तुत किया गया था |  खैर ये तो रही एक बात .. तो बात आते है गढ़वाली नाटक को की कब कहा से सुरु हुये ,  एक लंबा इतिहाश है  | इस बिषय मे मै  पहले सुरवाती दौर का जिक्र करूंगा फिर देहली में हुये  गढ़वाली नाटक को की ......

  गढ़वाली नाटको की शुरुवात  ... 

      शुरू शरू  में पहाडो में मनोरंजन के नाम पर अक्षर रामलीलाए ही हुआ करती थी |  रात रात भर गाऊं में  लोग जाग जाग कर रामलीलाए लीला का आनद लिया करते थे |  या फिर जगराते जिसे हम जागर कहते है. या फिर पंडो निरत्या |  हा नाटको के नाम पर कभी कभार धार्मिक नाटक जैसे राजा हरिशचंदर या भगत प्रह्लाद का मंचन अवशय देखने को मिलता था | तब ना तो गौ में बिजली हुआ करती थी |   रामलीला भी गैस को जलाकर देखा जाती थी |  गौ में  तब ना  तो टेलीविजन था ना ही कोई सनीमा हाल , बस रामलीला ही मनोरंजन का एक मात्र साधन हुआ करता था |

   पहला दौर    
 
      जहा तक पहला गढ़वाली नाटक के मंचन का सवाल है तो सन १९१३-१४ में शिमला में श्री भवानी दत्त थपलियाल "सती" के द्वार लिखित नाटक भगत प्रहलाद ही अब तक का पहला मंचित गढ़वाली नाटक माना जायेगा जबतक और कोई नाटक तत्यों को लेकर सामने नही आता
                                                       

अरुण/Sajwan

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Dhanyabad Parashar Ji
Aaj mujhe bahut khushi ho rhi hai ki main aap jaisi Hasti se juda hua hun.....
Uttarakhand me hone vale sanskritik Karyakaram jo kabhi har gaon me hote the jaise Ramlila, jhoda aadi dheere dheere vilupt hote ja rhe hain. Aur hamari sanskri
aadhunikta me khi kho si gyi hai. Aise me aap logon ka prayas avashya hi kuch rang layega.

Thanx and regards


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Sir,

We met Rajendra Dhasmana during a Seminar organized Myor Pahad where he mentioned about his plays. He further mentioned that he was the first person from Garwal region of UK who started conducting several Uttarkahandi plays in Delhi.

Parashar Gaur

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मेहताजी

बिल्कुल सही कह रहे है..  धस्मानाजी | उनका योगदान कभी नही भूल्या जायेगा.. ये तो अभी बचे है.. उनके आगे ..

धन्यबाद अरुणजी आपके इन सबदौ  के लिए 

पराशर गौर










Parashar Gaur

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Re: गढ़वाली नाटक की .... शुरुवात
« Reply #4 on: January 20, 2009, 06:54:43 AM »
आगे  ....


 उन्होने सन १९११ में "जय विजय नमक नाटक भी लिखा था ! १९३० में घनानंद बहुगुणा जी ने "समाज" लिखा !
सन १९३२ में विशम्बर दत्त उनियाल जी ने "बसंती"  की रचना की ! " परिवर्तन को श्री इश्वरी दत्त ने १९३४ में लिखा ! सन १९३६ में प्रेम भूसन का "प्रेम सुमन " चाप गया था !  भगवत पंथारी जी ने "आधोपतन" लिखा !

दूसरा दौर 

    सन १९५० का दौर था !  भारत की राजधानी देहली में गढ़वली का एक तपका जो बाबु बनगया था उसमे यदपि बाबुपन की और भी बू आ जाने के बाद भी कुछ लोगो में गढ़वाली / गह्र्वाली  बोली के प्रती उनके  दिल के किसी कोने में एक जगह अभी भी बरकरार थी यदपि वो और उनके बचे अपने को गढ़वली या पहाडी बतलाने में संकोच महशूस करते थे या यू कहना श्रीयाकर होगा , की वो , हीन भावना से ग्रहस्त होने के कारण अपने को गढ़वली बताना नही चाहते थे !    क्यूँ की उस समय पहाडीयो में अपनी बोली/बाशा के प्रती हीन भवान का प्रभाऊ था  फिर भी इस दौर में  नाटक लिखे जाते रहे और मंचित भी होती रहे !  इस विधा पर विशेष कर लेखक वर्ग की रुची बनती चली गयी लेकिन दर्शककौ का अभाऊ बना रहा फिर भी गढ़वाली नाटक अपनी दुर्गम गति से चलता रहा ! नाटकको की मंथर गति पर अपनी पैनी नजार रखते हुए उसको संबल देने आ गए थे तब दो नाटकार , ललित मोहन थपलियाल और जीत सिंह नेगी जी.. !  इस दौर की विशषता यहे थी की स्त्री पात्रो के अभाऊ के कारण आदमी स्त्री का रोल अदा करते थे !  नाटक तब सरकारी कालोनी के बने काम्नेटी हाल में यदा कदा खले जाते रहे ! नाटको परती जागरूगता अपने अशर देखने लगी थी !   
 सन १९५० में जीत सिंह नेगीजी ने "भारी भूला " नाटक लिखा और मंचित भी किया ! इस नाटक की खासियत ये थी की इस में थपलियाल बहनों  ने भाग लिया. लोकिन बार्तालाप हिन्दी में होने के कारन उनको पहिली नायका का खिताब नही मिल सका ! ये खिताब गया कुमारी लीला नेगी को जिन्होंने मेरे लिखे नाटक "औंसी की रात " में नायका की भूमिका निभायी थी !   मैंने भी देखा था यहाँ नाटक राजा बाज़ार के एक स्कूल में खेला गया था  बही तब मोहन उप्रेतीजी से पहली बार मुलाक़ात हुई थी !
    सन १९५८ में ललित मोहन थपलियाल जी ने एकांकी ने "दुर्जन की कछडी"   साहित्य कला समाज  के  तत्वाधान में सरोजनी नगर के काम्नेटी हाल मे  खेला गया !  लोगा का रुझान थोडा थोडा नाटक को के प्रती बनने लगा था ! ये नाटक भगत प्रह्लाद का रूपांतर था ! उसको बाद इसी संस्था ने एकीकरण  अछिरयू को ताल
खेला !  १९५९ ललित जी का "एकी करण'  ! १९६६ मे  किशोर घिडियाल जी क" दुनो जनम " , ललित जी का   नाटक " घर जवाई "  गिरधर कंकाल का "इन भी चलद" का मंचन हुआ !  ये सब एकाकी नाटक थे ! स्त्री पत्रों के अभाव मे इसे नाटक रचे गए जिनमे स्त्री पात्र ना हो ! जैसा मैंने कहा की अगर गलते से स्त्री पत्र रखा गया तो पुरूष ही उसे निभाता था ! हालत जस की तस बनी हुई थी ! फूल लेंथ नाटक का अभाव साथ मे सत्तर पत्रों की कमी ये सब एक समस्या बनी हुई थी  इस का  निवारण किया " पुष्पांजली रंगशाल " व उसके युवा रंह कर्मी पराशर गौर व साथीयेओ ने जब पहली बार मंच पर स्त्री पात्र के साथ साथ फूल लेंथ नाटक हुआ  !       

Parashar Gaur

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Re: गढ़वाली नाटक की .... शुरुवात
« Reply #5 on: January 20, 2009, 01:47:23 PM »
तीसरा दौर
   
  सन १९६२ में " पुष्पांजली रंगशाल " का गठन किया गया जिसमे मै, दिनेश पहाडी, ब्र्माह्नंद कोटनाला शामिल थे मुझे नाटक का सौक लग चुका था  ! हम सब बैठे ये निर्णय लिया गया की मै नाटक लिखू  !  मैंने रात दिन करके अपना पहला नाटक 'औंसी की रात " लिख डाला  उस में एक नही , दो नही , तीन  स्त्री पात्र रख डाले  अब समस्या कहदी होगी की कौन खेलेगा  इधेर  उधर हाथ मरे गए..  हेरोइन लीला नेगी को आप्रोच किया गया ! लीला आल इन्ड्या रेडियो से गढ़वाली में गाना गाते थी ,! माँ के रोल के लिए गौं  से श्रीमती रामभगति जी को बुलाया गया  ! रिहर्शल सुरु होई .. २ फरबरी   १९६9 का  गढ़वाली नाटक काम्नाते हाल से उठकर थिएटर में आया.. आए आई एम् ऐ हाल में पहली बार लोग घरो से बाहर आकर हाल तक आए  और टिकेट में नाटक देखा..
कहना होगा की "औंसी की रात" कई मायने में मील का पत्थर बनी ...
१.. पहली बार थिएटर में प्रस्तुती हुयी
२ पहली बार स्त्री पात्रो ने हिशा लिया
३ लोगोने टिकेट लाकर नाटक देखा
४ एक फुल लेंथ प्ले देखने को मिला


    यह नाटक देहली  के बिभिन संस्थोओ द्बारा 1o  १२ बार खेला गया चंडीगढ़ में भी इसके शो हुए  ! नायक की भूमिका मै ,नायका लीला नेगी ने की  और माँ की भूमिका राम भागती की ! सन १९६३ मे दिनेश पहाडी द्बारा लिखा नाटक "जुन्ख्याली  रात " का मचान किया !  मेरे द्वार कई  कलाकारों को स्टेज मे आने का मौका मिला जिनमे  प्यारीदेबी  हरी सम्वाल, रमेश मंदोलिया ,दिनेश कोथियालर कुसुम बिष्ट आदि ! पुष्पांजली अपना काम क्र रही थी .. ! 
     सरोजिनी नगर मे सहित्य कला समाज  नामक संस्था जो एकाकी नाटक करते थे उनोहने उसको बदल कर "जागर "  " का नाम देकर सन १९७४ मे राजेंदर धस्माना जी का नाटक जंकजोड़  को प्रस्तुत किया  और सन ७५ मे "अर्ध्ग्रमेश्वर" जो  अपने समय का एक बहुत चेर्चित नाटक था !

Dinesh Bijalwan

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Re: गढ़वाली नाटक की .... शुरुवात
« Reply #6 on: January 20, 2009, 06:24:26 PM »
बिल्कुल सही कह रहे है..  धस्मानाजी | उनका योगदान कभी नही भूल्या जायेगा.. ये तो अभी बचे है.. उनके आगे ..

गौड्जी उक्त  शब्दो का क्या अर्थ निकाले -  धस्माना जी अभी जिन्दा है या  कोई उनके आगे बच्चा है /   

Parashar Gaur

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Re: गढ़वाली नाटक की .... शुरुवात
« Reply #7 on: January 21, 2009, 12:25:15 AM »
I simple want say ,  No Body can ignore his contribution and what he has  done for  Garhwali theater .He is so large we , including me ( while i was making my contribution to garhwali theater before he came to stage 1974-75 ) are looks child.  if  I hurt u  someway than i am sorry but reality is reality....

U know bijlwanjee

 me and rajnderjee are very good friend but in 1974-75
 After Ardhgrameshwar ( Its a long story ) we have not spoken each  for other more than  2o years ,  In 2007  finally we sit to gether and forgive each other.

thanks for asking

parashar

खीमसिंह रावत

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Re: गढ़वाली नाटक की .... शुरुवात
« Reply #8 on: January 21, 2009, 11:59:50 AM »
ek garhwali lekhak the Shri kanhayalal dadiriyal ji /
gaur ji ne unke bare me nahi likha kya ve 80 ke dashak ke natakkar the\
kripaya prakash dale/

Dinesh Bijalwan

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Re: गढ़वाली नाटक की .... शुरुवात
« Reply #9 on: January 21, 2009, 12:46:36 PM »
Respected Gaurji,   
If you really intended what you have written, then I am extremely sorry.  I also  regard Dhasmanaji in a very high esteem.    I have been associated  with him since 1986 and also contributed in his Play Jai Bharat Jai Uttrakhand in writing too, apart from acting.   We still meet each other and share our views about  contemporary garhwali/kumauni theatre.   As I have not been fortunate enough to meet you in person and  You have also not been able to  see any play  written by me or  atleast have a reading of any of my Scripts .    So,  I , just wanted to know  whether I can be evaluated without  examination of my work.   Nothing serious.

 

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