Author Topic: Articles by Sunita Sharma Khatri / सुनीता शर्मा खत्री जी के लेख।  (Read 2656 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]Dosto,

We are introducing Writer SunitaSharma Khatri. Her introduction is as follows.

Sunita Sharma
Rishikesh ,Dehradun
Uttarakhand 249 201

1996 to1997 – worked as a trainee in the field of Hindi Journalism in Himachal Times News Paper.
1998 - As a reporter  in Hindi Daily news paper  Doon Darpan.
1998-1999- as feature writer in Hindi news paper Dainik Jagarn (Rishikesh, Haridwar).
Presently working as a free lancher.
 
Achievements:
1.    1996- Himachal Times Hindi News paper 

News published as follows:
  • Vajpei Ki Sabha
  • Ram Katha Sunane Kyu Khiche Chale Aaye Dehradun Nivasi
  • Gandagi Sei Bhi Joogh Raha Hai Dehradun

Articles, Features & Stories:
  • Paryavaran Niti Mei Parivartan Ki Avashayakta
  • Bhrashtachar Ki Vyapakta Tatha Lok Pal
  • Uttar Pradesh Vidhan Sabha Chunaw, Matdata Uljhan Mei Hai
  • Samaj Tatha Mahilao ki Badalti Bhumika

2.     1997 – Himachal Times Hindi News paper  Article, Story published:

Avyavastha Mei Duba Hai Charo Dhamo Ka Pravesh Dwar Rishikesh (Article)
Kya Ye Khel Hai (Story)

July, 1997 : Jai Uttarakhand Veer Hindi News Paper
Badhali Mei Hai Charo Dham Ka Pravesh Dwar Rishikesh (Article)
 
1997- Article Series – Hamare Dharam Sthal – Pubilshed Dainik Jagran National News Paper
a)      24 July: Raghunath Mandir -Bhagwan Ram Ne Yahi Par Yajna Kiya Tha
b)      26 July: Veerbhardra Mandir- Yaha Durg Ki Diwaro Ke Avshesho Wa Siriya Aaj Bhi Dikhai
c)      27 July: Bharat Mandir Maya Sei Mukti Thi Yaha Vishnu Ne
d)     28 July: Gopal Mandir-Bhajan Kirtan Ki Shuruat Yahi Se Saare Rishikesh Mei Hui Thi
e)      29 July: Bhadrakali Mandir – Ravan Vijay Se Purva Bhagwan Bharat Nei Is Mandir Ki Sthapana Ki Thi
f)       31 July: Someshwar Mahadev – Shiv Ke Somras Paan Se Yaha Shivaling Prakat Hua Tha
g)      3 August : Hanuman Mandir – Swapan Mei Hanuman Nei Pratima Sthapit Karne Ko Kaha Tha
h)      8 August : Satyanarayan Mandir – Rasto Ki Kashto Sei Mukti Kei Liye Yaha Manoti Mangi Jaati Hai
i)        10 August :Bairav Nath Mandir -  Shraddhaluo Ki Siddhiyo Ka Kendra Hai
j)        17 August : Trimukhi Baba Ka Mandir – Brahma, Vishnu Evam Indra Ko Shiv Ne Teen Mukho Ka Arshiwad Diya Tha
k)      19 August: Pushkar Mandir – Siddha Purush Raghavachari Ke Ishtadev Ka Nivas Sthan
l)        August: Shatrudhan Mandir – Shatrudhan Ne Yaha Rishi Parvat Mei Tapasya Ki Thi
 
1998- Dainik Jagran Hindi News Paper Feature Article- Investigative:
Videsi Sailani –Musibate Kam Nahi

Article:

 Nadi Hi Nahi Samskriti Bhi Hai Ganga.
 Garhwal Mei Paryatan
Gurukul Ka Puratatava Sangrahalaya, Dharohar, Haridwar
 
 
4.     1999- Dainik Jagran Hindi News PaperNayi Disha Ki Aur Gujjar
 
5.     2008- Hindi Magazine Meri Churiya
     
Sarvochha Uchayi Ka Mandir “Tunganatha”
At present writing on line contents :My blogs are-Ganga Ke Kareeb http://sunitakhatri.blogspot.com
Emotion’s http://swastikachunmun.blogspot.com 
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sunita sharma khatri

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ऋषिकेश एक तपस्थली

उत्तराखण्ड के चारों धाम का  प्रवेश द्धार ऋषिकेश यूं तो विश्व मानचित्र में योग अध्यात्म एवं धार्मिक पर्यटन में विश्व विख्यात हो चुका है किन्तु प्राचीन व पौराणिक समय से ही इस तीर्थ नगरी में ऋषि-मुनियों ,साधु-सन्यासियों के अलावा बहुत से महापुरूषों ने तप भी किया है अगर हम ऋषिकेश को तपस्थली के रूप में जाने तो कोई  अतिशयोक्ति नही होगी।
पौराणिक साहित्य में इस स्थान के लिए अनेको नाम आये है यथा कुब्जाम्रक क्षेत्र तथा अब ऋषि केश । महाभारत वनपर्व 3082 कुब्जाम्रक तीर्थ का उल्लेख इस प्रकार है
तत:कुब्जाम्रक गच्छेतीथे सेवी यथा क्रमम् ।
गो सहस्रमवाप्रोति स्वर्ग लोकं च गच्छति।।
इसमें सह्स्र गोदान का फल और स्वर्ग लोक की प्राप्ति के सुख का वर्णन किया गया है। कालिका गम 20. 25 के अनुसार महानगर के किसी कोण पर जब एक ऎसी बस्ती को निबिष्ट किया जाये जो शोर गुल से दुर शान्त स्थान पर हो तपस्वी साधु सन्यासी वानप्रस्थी कोलाहल से बचने के लिए जिस जगह पर रहे उस स्थान को कुब्जक कहा जाता है।
तपस्थली के रूप में ऋषिकेश---- देवताओ से सम्बन्धित ऋषि-मुनियों की तपस्थली पर्वतों की तलहटी में बहती देवनदी गंगा के कारण यह स्थान अति पवित्र माना गया है। स्कन्द पुराण में वर्णन आता है की ऋषिकेश में चनद्रेश्वर मंदिर जहां स्थित है उसका सम्बन्ध चन्द्रमा द्वारा क्षय रोग से निवृत्ति के लिए की गयी तपस्या के फलस्वरूप है । यही पर चन्दमा ने क्षय रोग से मुक्ति पाने  के लिए भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी । वाल्मीकी रामायण में व्णरन आता ह कि भगवान राम न ने वैराग्य से परिपूर्ण यही विचरण किया था ।शिवपुराण से पता चलता है कि ब्रह्रमानुत्री संध्या ने भी यहां तप कर शिव के दर्शन किये थे  व बाद में अरून्धती के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
ऋषिकेश नाम प्रचलित होने के सन्दर्भ में विशालमणि शर्मा ने लिखा है ऋषक नाम है इन्द्रि यो का, का जहां शमन किया जाये । ऋषिक इन्द्रियों को जीत कर रैभ्य मुनि ने ईश इन्द्रयों के अधिपति विष्णु को प्राप्त किया इसलिए( ह्रषीक+ईश+  अ+ इ =ए गुण) हृषी केश यह नाम सटीक है। धीरे धीरे यह ऋषिकेश के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
केदारखण्ड पुराण के अनुसार गंगा द्धारोत्तर विप्र स्वर्ग स्मृता बुधे यस्य दर्शन मात्रेण वियुक्तों भव बन्धनों अर्थात गंगाद्धार हरिद्धार के उपरान्त केदार भूमि स्वर्ग भूमि के समान शुरू हो जाती है ,जिसमें प्रवेश करते ही प्राणी भव बन्धनों से मुक्त हो जाता है।राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने के उपरान्त जो चार पुत्र रह गये थे उसमें से एक ह्रषीकेतु ने भी यहां तप किया था ।
इसी क्रम में सतयुग में सोमशर्मा ऋषि ने ह्रषीकेश नरायण की कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हे वर मांगने को कहा था भगवान विष्णु ने उन्हे वर प्रदान कर दर्शन दिये जिसका ज्रिक केदारखण्ड में मिलता है । यहां के तीन सिद्ध पीठों में यथा वीरभद्रेश्र,चन्द्रेश्वर व सोमेश्वर में रात्रि में आलौकिक अनुभूतियां होने के बारे मे बताया जाता है ।चन्द्रेश्वर में चन्द्रमा ने तप किया सोमश्वर में सोमदेव नामक ऋषि ने अपने पांव के अंगूठे के बल खडे हो शिव की कठिन पर तपस्या की ।बालक ध्रुव ने भी विष्णु भगवान की तपस्या की प्रतीक स्वरूप ध्रुवनारायण मंदिर बना है ।
मुनि की रेती व तपोवन के उत्तर में ऋषिपर्वत के नीचे के भाग में अर्थात गंगा के तट पर एक गुफा में शेष जी स्वंय निवास करते है । इस तपोवन क्षेत्र में अनेको गुफाए  थी जहां पूर्वकाल में अनेको ऋषिमुनि तपस्यारत रहते थे ।शिव पुराण खण्ड आठ अध्याय 15 के अनुसार गंगा के पश्चिमी तट पर तपोवन है जहां शिवजी की कृपा से लक्ष्मण जी पवित्र हो गये थे यहां लक्ष्मण शेष रूप में तथा शिवजी लक्ष्मणेश्वर के नाम से विख्यात हुए ।
ऋषिकेश के निकट शत्रघन ने ऋषि पर्वत पर मौन तपस्या की । स्वामी विवेकानन्द ने एक वर्ष तक तप किया। आज भी लोगो को यहां मानसिक शान्ति व पुण्य का लाभ मिलता है।मणि कूट पर्वत में महर्षि योगी द्धारा ध्यान पीठ की स्थापना की गयी जिसमें चौरासी गुफाए योगसाधना के लिए सौ साधना के लिए गुफाएं भूमि के गर्भ में बनी है । यहां आश्रमों में योग व अध्यात्म की अतुलनीय धारा बहती है । देश से ही नही वरन् विदेशों से भी काफी मात्रा में लोग तप के लिए यहां आते है ।
जहां एक ओर ऋषिकेश में आधुनिक पर्यटन की सभी सुख-सुविधा है वही दूसरी ओर त्रिवेणी घाट की परमार्थ की सांयकालीन आरती का दृष्य बडा ही आलौकिक लगता है। इस तपस्थली का वर्णन शब्दो मे नही किया जा सकता  इसकी महिमा अपरम्पार है ।

sunita sharma khatri

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पुण्य तीर्थ हरिद्धार...हरिद्धार भारत का विश्वपसिद्ध तीर्थ है ,प्राचीनकाल से ही ही इसकी गणना सात मोझदायक तीर्थो में की जाती रही है । अयोध्या ,काशी,काज्यी,अवन्तिका ,पुरी द्धरावती चैव सप्तैता तीथर् मोक्षदायिका।।
इस श्लोक में माया से आशय मायापुर हरिद्धार से है । हरिद्धार की गिनती चार धामों में की जाती है ,बदरी,हरिद्धार,पुरी व रामेश्वर । इसी प्रकार इक्यावन सिद्ध क्षेत्रों में,108 दिव्य शक्ति स्थानों में अष्टोत्तर शत दिव्यदेशों में आठ श्री विग्रहों में ,और वल्लाभाचार्य की 84 बैठकों में इसकी गणना होने से वैष्णव ,शैव,शाक्त, नाथ,सिद्ध सभी सम्प्रदायों के लोगों का यह महान आस्था का केन्द्र रहा है हजारों वर्ष की ऎतिहासिक अवधि में समय समय पर यह अनेक नामों से विख्यात रहा है ,उनमें से कुछ नाम इस प्रकार है गंगाद्धार,स्वर्गद्धार,कनखल,मोयूलों,मायाहरिद्धार,हरद्धार।   
 महाभारत के अनुसार यहां गंगा पहाडों को तोडकर वेग से बहती है विभेद तरसा गंगा,गंगाद्धारे युधिष्ठर ।पुण्यं तत्खायते राजन्ब्रह्रार्षि गण सेवितम् ।।8।
वनपर्व अ 0 88 इस पुण्य क्षेत्र में मानव ही नही देव गन्धर्व एवं देवर्षि भी रहकर पुण्यफल प्राप्त करते है । कुरूक्षेत्र के विनाश के बाद धृतराष्ट्र,गन्धारी ओर कुन्ती को साथ लेकर अपना अन्तिम संन्यास समय बिताने गंगाद्धार ही आये थे और तीन वर्ष के तापस जीवन के बाद एक दिन दावाग्नि में सभी जल मरे थे एक संजय बचा था वह भी तपस्वियों को यह सुचना देकर उत्तर हिमालय को महाप्राण हेतु चला गया । गंगाद्धार को कपिलाद्धार भी कहा जाता था ।कपिलाद्धार या कपिलद्धार का प्रयोग चौदहवीं शती ई0 तक होता था इसका प्रमाण तैमूरलंग की जीवनी के लेखक शरीफउदीन के विवरण से मिलता है । 1398 ई0 में तैमूरलंग ने दिल्ली से आगे बढकर हरिद्धार में तीन महत्वपूर्ण विजये प्राप्त की थी । शरीफउदीन लिखता है कि यहं पर गंगानदी चोपाली दर्रे से होकर पहाडियों से निकलती है ।चौपाली कपिला के लिए ही आया है ।गंगा का एक नाम कपिलधारा भी है ।एक समय कपिल का अर्थ गिरिद्धार या दर्रे से भी लिया जाने लगा था सिन्धु की सहायक कुभा का नाम पूर्वकाल में कपिला भी था , उसके तट के नगर कपिल के हिज्जे बिगाडकर कबिल और कालान्तर में काबूल हो गया आज उस सहायक नदी को काबुलनदी कहते है ।
स्वर्गद्धार -हरिद्धार को स्वर्गद्धार के नाम से जाने जाने के कारण संभवत: महाभारत का यह उल्लेख था कि गंगाद्धार से उत्तर में जो देवभूमि महागिरि का अंचल प्रारम्भ होता है ,वह स्वर्ग के समान है,जहां धर्मज्ञ नमस्कार प्रणाम करके आगे बढते है -ततो गच्छेत धर्मज्ञ नमस्कृत्य महागिरि ।स्वर्ग द्धारेण यत्तुल्यं गंगाद्धार न सशंय: ।231 वनपर्व अ0 82( तीर्थयात्रा  पर्व)
 सल्तकाल में सर्गद्धारी नाम का उल्लेख स्वर्गद्धार के लिए ही आया प्रतीत होता है ।      ........जारी है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bahut sunder jankari Khatri ji..

Jari Rakhiyega.

sunita sharma khatri

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आभार मेहता जी ।

sunita sharma khatri

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पुण्यतीर्थ हरिद्धार-कनखल महाभारत में कनखल का उल्लेख गंगाद्धार और कुशावर्त के साथ आने से इसकी प्राचीनता का पता चलता है अनुशासन पर्व अ0 26 में यह उल्लेख इस प्रकार आया है -गंगाद्धारे कुशावर्त विल्वके नेमिपर्वत ।
तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्ता दिनं व्रजेत।।2।।
कालिदास ने गंगाद्धार को अतिपावन तीर्थ कहकर नामोल्लेख किया है-तीर्थ कनखलं नाम गंगाद्धारेतिपावनम्  पुन: मेघदूत को अलकापुरी जाने का रास्ता स्पष्ट किया है ,वही कनखल है और वही से बढकर उसे अलकापुरी कुबेरनगरी को प्रस्थित होना है।
मोयूलो मायापुर- ह्वेनसांग नामक यात्री सातवीं शती ई0 के पूर्वाद्ध में हर्षवर्द्धन के राज्यकाल में भारत में बौद्ध तीर्थ स्थलों के भ्रमणार्थ आया था । उसके अनुसार गंगा के पूर्वी तट पर मो-यू-लो पहुंचा  उस नगर से कुछ दुरी पर गंगाद्धार नामक एक पवित्र सरोवर था जिसके जल की आपूर्ति पवित्र नदी (प-शु -ई) से एक नहरधारा के द्धारा होती थी । कनिंघम पुराविद् उपरोक्त उल्लेख के आधार पर निष्कर्ष निकालते है कि यह मायापुर मयूरनगर के लिए है जो संभवत: तब गंगा के बायें तट पर था किसी पूववर्ती समय में गंगा मायापुर  तथा कंखल से ज्वालापुर तक पश्चिम दिशा में प्रवाहित रही होगी ,चूंकि इस स्थान पर अब हरिद्धार नगर से ज्वालापुर तक पश्चिम दिशा में प्रवाहित रही होगी उसे धीरे धीरे भर दिया गया । हरिद्धार का नाम मयापुर पांचवी शती इ0से अधिक प्राचीन प्रतीत नही होता ।कनिंघम ने अमरकोष का आधार लेकर स्वीकार किया है कि तब  विषणुपदी नाम प्रचलित हो चुका था ,जो कि गंगा का पर्यायवाची नाम के रूप में किया है। अमरकोष में हमें माया का अर्थ इन्दंजाल के रूप में अवश्य मिलता है जो मायापुर के सन्दर्भ में देवराहा बाबा के सटीक बैठता है कि केदार देवभूमि के बाद यही से सांसारिक समसयाओ का क्षेत्र शुरू होता है इसलिए मायापुरी नाम पडा । मो-यू-लो अर्थात मायापुर को चीनीयात्री ने घनीबस्ती वाला नगर बताया था । संभवत:  कनखल तीर्थ भी उसमें समाहित हो चुका था संभवतया यह गुप्तकाल में भागवत पुराण के सम्पादन के साथ प्रतिपादन करने वाले अनेक परवर्ती पुराणों के कारण हुआ .......  जारी है.....

sunita sharma khatri

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पुण्यतीर्थ हरिद्धार- हरि शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिये यघपि महाभारत में आया है अमरकोष ने हरि का एक  अर्थ विष्णु भी दिया है तथापि अमरकोष में ही विष्णु के उनचालीस नामों में ह्रषीकेष नाम मिलना और हरि का नाम न मिलना यही दर्शाता है कि पांचवी शतीई0 तक हरिनाम विशेष प्रचलन में नही आया था । हरिद्धार के सम्बन्ध में तब यही सिद्ध होता है कि अभी तक गंगाद्धार नाम ही प्रसिद्ध था । वस्तुत: विष्णु का हरि नाम आदि शंकराचार्य के विष्णु सह्रत्रनाम के उपर रचे भाष्य से ही जगभास हुआ जिसमें हरि का शाब्दिक अर्थ पाप,दुख ,शोक हरण करने वाला,हरि,विष्णु के अनय नामों से ही जगभास हुआ जिसमें हरि का शाब्दिक अर्थ पाप, दु ख ,शोक हरण करने वाला ,हरि ,विष्णु के अन्य नामों से अधिक लोकप्रिय हो गया । शंकराचार्य के युग अर्थात आठवी शती ई0 के बाद जब नारदपुराण की रचना हई तो एक हजार ईसवी के आस-पास हरि सबकुछ हो गये । हरिद्धार में विष्णुपदी गंगा के हरि चरणों में स्पर्श कर बहने की मान्यता है।
मुगलकाल में इसे हरिद्धार कहने लगे थे । अबुलफजल ने हरिद्धार लिखा परन्तु साथ ही इसे शिव की राजधानी हरद्धार भी बताया । जहांगीर भी अपने शासन के सोलहवं वर्ष में आगरा की प्रचण्ड गर्मी से घबराकर स्वास्थ्य लाभ करने यहां आया था । उसने हरिद्धार को हिन्दुओ  के प्रसिद्ध तीर्थ में से एक बताया था उसने हरिद्धार को हिन्दुओ के प्रसिद्धतम तीर्थस्थानों में से एक बताया जहां साधु अपने लिए  एकान्त स्थान बनाकर अपने धर्मअनुसार ईश्वर का पुजन करते है ।   
हरद्धार-  मुगलकाल में हरिद्धार नाम के प्रचलन के बावजूद अधिकांश विवरण हरद्धार नाम को ही रेखांकित करते है यहां तक कि मराठा आधिपत्य के दिनों में 1796 ई0 में  हरद्धार पहुंचा अंग्रेज अधिकारी कै.थामस हार्डविक  तथा 1808 ई0 में रैपर का दल भी यात्रा विवरण में हरद्धार ही लिखते है। गंगाद्धार के बाद कनखल ,मायापुर आदि जो  नाम प्रसिद्ध हुए उनके पीछे हमें सभी पुराणों में शिव से सम्बन्धित कथानक ही मिलते है ।
महाभारत काल से ही गंगाद्वार को शिव /महेश्वर तीर्थ मने जाने की परम्परा के तथ्य मिलने लगते है l अनुशासन पर्व श्लोक १३ में उल्लेख है की उतर दिशा में जहा भागीरथी गंगा में गिरकर विभाजित होती है वह भगवान महेश्वर का निस्ठान तीर्थ है l इससे पहले श्लोक में गंगाद्वार ,कुशावर्त ,विल्वक कनखल तीर्थो को गिना गया है l
गंगा द्वार के बाद कनखल ,मायापुर ,आदि जो नाम प्रसिद हुए उनके पीछे हमें सभी पुराणों में शिव से सम्बंधित कथानक ही मिलते है l गंगा विष्णुपदी होने के बावजूद बिना शिव की अल्को में धारण किये उसका पृथ्वी पर उतरना संभव न था वह अल्को से निकलने के बाद जिन धाराओ में बही उनमे केवल एक नाम भागीरथ के बतये मार्ग पर चलने के कारन भागीरथ कहलाई l सबसे बड़ी जलधारा जो गढ़वाल की सबसे बड़ी जलप्रवाहक  है अलकनंदा है जो शिवपुत्री नाम को सार्थक करती है,दोनों का संगम देवप्रयाग में होने से वह गंगा नामक सर्वनाम ग्रहण करती है और गंगा सागर में समुद्र से मिलती है l
हिमालय को शिव का अदिदेश माना जाता है l कैलाश ,अमरनाथ ,बैजनाथ ,केदारनाथ ,जोगेश्वर पशुपति उसके प्रसिद स्थान है l हिमालय के पांच खंडो (कश्मीर ,जालन्धर ,केदार ,कुर्माचल ,नेपाल)में केदार झेत्र तो शिव के ही नाम से केदारखंड कहलाया है l हिमालय की निचली श्रेनिया ,जो मैदानी भाग के सम्पर्क में है, शिव की अलक अथार्त शिवालिक नाम से संबोधित की जाती है इसलिए गंगाद्वार के बाद हर का द्वार नाम इस तीर्थ के पड़ने की सार्थकता थी l      ......जारी है।

 

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