इंसानियत के मसीहा
इंसानियत पर देखो आडम्बर का साया है ,
प्रगतिशील समाज पर विषधर की छाया है ,
भूख से बिलखता बचपन ,चंद रुपयों का तमाशा है ,
बसन रहित तन जिनके अक्षि प्यास बुझाते हैं ,
रजनी जिनके सहचर ,कृशनु जिनका जीवन है ,
तीर्थस्थलों में कनक चढाते ,पंडो के भरे पेट भरते हैं ,
वसुधा की त्रास भुलाकर ,व्योम की कल्पना करते हैं ,
विटप को छिन-भिन क्र पुहुप की चाह रखते हैं ,
तोयज हृदय में त्रिश्नाओं के मायाजाल बुनते हैं ,
पन्नग बन इस भव में व्यथा हर पल बढ़ाते हैं ,
अपने उमंग की खातिर ,वपु का सौन्दर्य बढ़ाते हैं ,
अमीर द्रुम न बन रंजो गम की अग्नि फैलाते हैं ,
गरीब की इंसानियत ,अमीर जगत में सुरसरि समान है ,
भागीरथी सा जीवन जीते गरीब इंसानियत के मसीहा हैं