पहाड़ो का उत्त्थान : एक चिंतन
उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य है ! किसी भी स्थान की पहचान उसकी नैसर्गिक सुन्दरता व् जलवायु के अलावा वहाँ का जनजीवन एवं संस्कृति से होती है ! इनमें आर्थिक , सामाजिक ,ऐतिहासिक व् भौगोलिक परिस्तिथियाँ वहां के जीवन यापन के मापदंड की कसौटी है !उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को मनीआर्डर इकोनोमी के रूप में देखा जा सकता है क्यूंकि यहाँ के दुर्गम क्षेत्रों में भारी उद्योग स्थापित नहीं हो सकते ! जिसके फलस्वरूप मैदानी हिस्सों पर निर्भर रहना पड़ता है ! यहाँ की कृषि वर्षा जल पर आधारित है ! संसाधनों की दृष्टी में यह राज्य अन्य राज्यों की तुलना में अधिक सम्पन्न है ! यहाँ पर जीवनरक्षक जड़ी बूटियों व् कई महत्वपूर्ण खनिज के अपार भंडार है !
उत्तराखंड का विकास प्राकृतिक वनस्पति का प्रबन्धन कर उसे बढ़ावा देने हेतु वैज्ञानिकों द्वारा इन क्षेत्र में रूचि बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है ! स्वरोजगार के अंतर्गत औषधीय वनस्पतियों को चयनित कर उसको निश्चित भूखंडों में विस्तृत पैमाने पर लगाना , उसकी जानकारी स्थानीय लोगों तक पहुंचाकर उनकी रूचि इस और बढाकर इस दिशा में उन्हें स्वालम्बी बनाना मुख्य ध्येय है ! उत्तराखंड के 2001 के सर्वे के अनुसार वनाच्छादित क्षेत्र 23,534 वर्ग किमी थे जो 2009 में बढ़कर 24,425 वर्ग किमी हो गया है ! भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष राज्य का 45 -80 फीसदी हिस्सा वनाच्छादित है जबकि पूरे देश के मामले में यह आंकड़ा 21.02 फीसदी है !यहाँ पर पायी जाने वाली 1,600 वनस्पतियों का औषधीय उपयोग है ! जिनमें 160 वानस्पतिक प्रजातियाँ अत्यंत दुर्लभ है जिनके अस्तित्व को खतरा है ! इनका प्रयोग आयुर्वेद , यूनानी और होमियोपैथी चिकित्षा पद्धति में किया जाता है !
वन उत्पादों से मिलने वाला कुल राजस्व लगभग 220 करोड़ रुपए है !यहाँ के जंगलों में टीक ,साल , युक्लिप्टस ,पोपलर , चीड , देवदार ,बांज ,बांस और रेशा वाली घास बहुतायत मिलती है ! वन विहीन बुग्यालों में विभिन्न प्रकार की घास एवं बहुमूल्य जड़ी बूटियां मिलती है ! दुनिया भर में हर्बल क्रांति की वजह से उत्तराखंड इसकी मांग आपूर्ति हेतु अक्षम है !जड़ी बूटी की खेती को बड़े पैमाने में फैलाया जा रहा है ! जिसमें तकरीबन 18000 किसान कार्यरत हैं और इस आंकड़े को बढ़ावा देने के लिए सभी को एक जुट होकर जागरूकता अभियान फ़ैलाने की आवश्यकता है !
कृषि में उन दलहनों को बढ़ावा दिए जायें जिनकी मांग देश विदेश में है और उसके जरिये आमदनी के साधन बढ़ाये जायें ! इनमें प्रमुख गहत पथरी रोकथाम की दृष्टी से औषधीय गुणों से परिपूर्ण है !, सोयाबीन ह्रदय सम्बन्धी और कोदा है जिसका पेटेंट करने में जापान के वैज्ञानिक शिशु आहार हेतु करना चाह रहे हैं और शुगर कण्ट्रोल में इसका भविष्य सुरक्षित है ! अन्य पहाड़ी राज्यों की भाँती फलों की खेती प्रचुर मात्र में किया जाना चाहिए ! फलों में सेब , संतरा , अंगूर , नासपाती , अखरोट , लीची , आम , अमरुद की पैदावर इतनी बढाई जाये ताकि मैदानी हिस्सों तक पहुंचाई जा सके ! चाय के बागानों द्वारा उत्तराखंड में रोजगार की बहुत संभावनाएं हैं !चम्पावत और घोडाखाल तक चाय बागानों तक सीमित न रखकर उसका विस्तारं होना चाहिए जिसके लिए स्थानीय निवासियों को इसकी शिक्षा देनी होगी !उत्तराखंड में खनिज संपदा का आपर भंडार है जिसमें चांदी ,आर्सनिक , अभ्रक ,राज्य अर्थव्यवस्था को बदिया योगदान दे रहा है ! ऊँचे हिमालयी क्षेत्रों में दुर्लभ सुघ्धि वनस्पतियों का प्रचार व् प्रसार आने क्षेत्रों तक अत्यंत आवश्यक है ! तस्करों के हाथों इस बहुमूल्य संपदा का हनन न हो इसलिए औषधीय वनस्पतियों की सुरक्षा , भण्डारण के लिए जन जाग्रति लाना जरूरी है !
यहाँ की मिट्टी को उपजाऊ बनाने में बांज वृक्षों को अधिक मात्र में लगाया जाना चाहिए ! विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ पर कृषि केवल वर्षा पर केन्द्रित होती है क्योंकि इन वृक्षों में जल भंडारण की क्षमता अधिक होती है और इसके आस पास की मिटटी में नमी बनी रहती है किन्तु इसके विपरीत चीड के वृक्ष जमीन को न केवल खुष्क बनाते हैं अपितु पूरे वर्ष भर इसके पत्ते झड़ते रहते हैं ,जिसकी सफाई न करने पर जंगलों की आग को प्रत्येक वर्ष बढ़ावा देती है ,इसीलिए इनकी सूखी पत्तियों का इंधन में इस्तमाल होते रहना चाहिए ! चूंकि बड़े उद्योग दुर्गम क्षेत्रों में स्थापित किये जा सकते हैं इसीलिए अपनी मूलभूत आवश्यताओं की पूर्ती स्थानियों लोगों द्वारा स्वयं किया जाना चाहिए ! इसके लिए लघु उद्योग , दुग्ध उद्योग , फल उद्योग ,सब्जी उद्योग , जड़ी बूटियां ,मत्स्य , कुकुट ,एवं जगलों पर आधारित उद्योग की स्थापना होनी चाहिए ! इको टूरिज्म और सुगंधी वनस्पतियों का विस्तारण होते रहना चाहिए ! हिमायन सोसाइटी फार हिमालयन एन्वैर्मेंटल रिसर्च (शेर ) इस दिशा में कार्यरत है , और भी ऐसी योजनायें भविष्य में बढती रहनी चाहिए !
राज्य को धार्मिक पर्यटन को भी बढ़ावा देना चाहिए !केवल मान्यता प्राप्त धार्मिक स्थलों पर ध्यान केन्द्रित न करके प्रत्येक गाँव के देवी देवताओं की जानकारी व् उससे जुडी मान्यताओ को जनव्यापी अभियान में रखना चाहिए और सिधपीठ ढूंढ कर उसे पर्यटन के साथ जोड़ देना चाहिए ! पर्यटन की दृष्टी से प्रत्येक क्षेत्र की और पर्यटक की रुचि बढे इसके लिए लेखन कार्य बढ़ना चाहिए ! हमारे रचनाकारों ने पहाड़ो के सौदर्य का वर्णन कर ख्याति प्राप्त की है किन्तु उसकी पीड़ा पर कुछ ही कलमकार ने अभिरुचि दिखाई ! पर्यटन राज्य होते हुए भी मौलिक सुविधाओ के आभाव में लोग दुर्गम क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं ! पहाड़ो की समस्या आज भी वेसे ही है कुछेक प्रदेशों में सुधार अवश्य हुए किन्तु उस रफ़्तार से नहीं जिस रफ़्तार से राज्य गठन के बाद हो जाना चाहिए था कारण कि अभी सरकार इन मसलों में गंभीर नहीं हुयी है ! सरकार को चाहिए कि वह राज्य व्यापी जनसँख्या व् उससे जुडी समस्यायों का पता लगाने हेतु अभियान चलाये जिसमें यह तय हो कि कितने लोग ,मैदानी ,कितने निम्न पहाड़ी क्षेत्रों और कितने दुर्गम क्षेत्रों में गुजर बसर कर रहे हैं ! एक सर्वेक्षण के अनुसार 80 % लोग ऐसे क्षेत्रों में बसे हैं जहा की समस्या अन्य दुर्गम क्षेत्रों से बेहतर है ! रास्तों का आये दिन टूटन और गरीबी इन लोगों को अपना दृष्टीकोण बदलने नहीं देती तो विकास कैसे आएगा ! दूर दराज के क्षेत्रों में ग्रामीण विधुतिकर्ण के लिए लघु जल विधुत परियोजना को प्रोत्साहन की जरुरत है ! चूंकि अब बड़े उद्योगों ने राज्य में अपने पैर फैलाना आरभ किये हैं किन्तु अभी तलहटी क्षेत्रों में ही संभव हो पाया है जबकि दुर्गम क्षेत्रों को मुख्य धारा में जोड़ना इसीलिए जरुरी हैं क्यूंकि हमारे सारे दुर्लभ संसाधन मुख्य रूप से इन्ही स्थानों में है !
पहाड़ो के विकास में केवल सरकार ही नहीं गैर सरकारी संस्थाओं को भी आना चाहिए ! स्थानीय व् प्रवासी लोगों की भूमिका अग्रणीय होनी चाहिए !अपनी पहाड़ी विरासत को संजो कर भावी पीढ़ी तक पहुंचानी है तो हर उस व्यक्ति जो उससे जुड़ा है को आगे आना होगा ! पहाड़ के चहुमुखी उत्थान हेतु प्रतिभाशाली लोगों को पहाड़ से जुड़ना चाहिए ! यदि प्रत्येक निवासी और प्रवासी अपने क्षेत्र में विकास अभियान चलायें तो आधी समस्या स्वय सुधर जाएगी ! किन्तु युवा शिक्षित वर्ग का पलायन ,पहाड़ की पीड़ा बनी हुयी है ,सही कहा भी गया है की पहाड़ का पानी अर्थात उर्जा और पहाड़ की जवानी अर्थात संसाधन पहाड़ के काम नहीं आती उनका उपयोग तो मैदानी क्षेत्र के लोग करते हैं !उत्तराखंड में खोज , शोध और अनुसंधान केन्द्रों की बढ़ोतरी होनी चाहिए जिसमें प्रवासी लोग अग्रणीय भूमिका निभा सकते हैं !साहसिक पर्यटन हेतु भी लोगो को आकर्षित किया जाना चाहिए !
इसके अतिरिक्त पहाड़ों में बदलाव लाने के लिए हमारी पर्वतीय सोच में भी प्रखरता की आवश्यकता है ! यहाँ जरुरत है नए चिंतन , नए नजरिए , प्रेरणादायक व् उत्साहवर्धक वातावरण की जिसमें सांस्कृतिक , राजनीतिक पुनर्जागरण की मौलिक आवश्यकता है ! हमारे युवा वर्ग को शारीरिक श्रम व् जोखिम उठाने में उत्सुकता दिखानी चाहिए ! उत्तराखण्ड समाज के जातीय मानसिकता के कुप्रभाव और जटिलता का भार आज भी पहाड़ की उन्नति में रूकावट बना हुआ है ! कार्यकुशल होने के बावजूद कार्य करने का निर्धारण जातीय अनुसार ही होता है ! आज के अत्याधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर को संघर्षशील युवा पीढ़ी की आवश्यकता है जो पहाड़ो मैं नव चेतना का निर्माण करे व् बड़े पैमाने में हुए पलायन को पुन : स्थापित करवाने हेतु स्वरोजगार के नए आयामों को अपनाएं !शिक्षा के पाठ्यक्रम में युवावों का रुझान बढाने के लिए प्रयत्न व् कृषि सम्बन्धी जानकारी सम्मिलित होना अनिवार्य किया जाना चाहिए !
जो प्रवासी पहाड़ी अपने पहाड़ों के विकास में आगे आना चाहते है उसे सरकार द्वारा उदासीन रुख मिलने की वजह से अपने चिन्तन को खंडित करना पड़ता है जो एक विकासशील प्रदेश के लिए अत्यंत घातक है ! इसलिए पहाड़ के उत्थान में सरकार को निरंतर महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे ! सुदृढ़ ग्राम , सुदृढ़ राज्य , सुदृढ़ भारत का सपना तभी पूर्ण हो पाएगा !