कविता उत्तराखंड की बालकृष्ण डी ध्यानी
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खैल कै दे बोई
जिकोड़ी पीड़ा बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
रैगे ऊ अपरू अंग्वाल मा
अपरू ही चुल्दु पाणी बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
घुट घुट घुटैण्डीदी रै
कै थे भटैण्डीदी रै
जिकोड़ी कू घूरघूर ये
गुळ मुळ झुरैन्दी रै
विंकी हिरकिरी बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
रन्या सब आपरी मा
मौल चवलों की चाकरी मा
वे धेढपढ़ी कैन यख पढ़ी
ठुख ठुख बजदा रंयां बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
जरा सा मलास दे
ईं थे तू थोडु सा ध्यास दे
अपरी मा ही बसी चा ये
कूच त ना बस खैल कै दे बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
जिकोड़ी पीड़ा बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
रैगे ऊ अपरू अंग्वाल मा
अपरू ही चुल्दु पाणी बोई
कैल णी समझी , कैल नि जाणी
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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