Author Topic: Balli Singh Cheema' Poem - बल्ली सिंह चीमा जी की कविताये  (Read 11792 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मैं अमरीका का पिठ्ठू और तू अमरीकी लाला है / बल्ली सिंह चीमा


मैं अमरीका का पिठ्ठू और तू अमरीकी लाला है
 आजा मिलकर लूटें–खाएँ कौन देखने वाला है
 मैं विकास की चाबी हूँ और तू विकास का ताला है
 सेज़ बनाएँ, मौज़ उड़ाएँ कौन पूछ्ने वाला है

 बरगर-पीजा खाना है और शान से जीना-मरना
 ऐसी–तैसी लस्सी की, अब पेप्सी कोला पीना है
 डॉलर सबका बाप है और रुपया सबका साला है
 आजा मिलकर लूटें–खायें कौन देखने वाला है

 फॉरेन कपड़े पहनेंगे हम, फॉरेन खाना खायेंगे
 फॉरेन धुन पर डाँस करेंगे, फॉरेन गाने गायेंगे
 एन०आर०आई० बहनोई है, एन०आर०आई० साला है
 आजा मिलकर लूट मचाएँ, कौन देखने वाला है

 गंदा पानी पी लेते हैं, सचमुच भारतवासी हैं
 भूखे रहकर जी लेते हैं, सचमुच के सन्यासी हैं
 क्या जानें ये भूखे–नंगे, क्या गड़बड़-घोटाला है
 आजा मिलकर राज करें, कौन देखने वाला है

 रंग बदलते कम्युनिस्टों को अपने रंग में ढालेंगे
 बाक़ी को आतंकी कहकर क़िस्सा ख़तम कर डालेंगे
 संसद में हर कॉमरेड जपता पूंजी की माला है
 आजा मिलकर राज करें, कौन देखने वाला है

 पर्वत, नदिया, जंगल, धरती जो मेरा वो तेरा है
 भूखा भारत भूखों का है, शाइनिंग इंडिया मेरा है
 पूंजी के इस लोकतंत्र में अपना बोलम–बाला है
 आजा मिलकर राज करें, कौन देखने वाला है

 तेरी सेना, मेरी सेना मिलकर ये अभ्यास करें
 हक़-इन्साफ़ की बात करे जो उसका सत्यानाश करें
 एक क़रार की बात ही क्या सब नाम तेरा कर डाला है
 आजा मिलकर राज करें, कौन देखने वाला है

 मैं अमरीका का पिठ्ठू और तू अमरीकी लाला है
 आजा मिलकर लूटें–खाएँ कौन देखने वाला है
 मैं विकास की चाबी हूँ और तू विकास का ताला है
 सेज़ बनाएँ, मौज़ उड़ाएँ कौन पूछ्ने वाला है

(source - http://www.kavitakosh.org/kk)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चलो कि मंजिल दूर नहीं / बल्ली सिंह चीमा

चलो कि मंज़िल दूर नहीं, चलो कि मंज़िल दूर नहीं
आगे बढ़कर पीछे हटना वीरों का दस्तूर नहीं
चलो कि मंज़िल दूर नहीं ...

चिड़ियों की चूँ-चूँ को देखो जीवन संगीत सुनाती
कलकल करती नदिया धारा चलने का अंदाज़ बताती
ज़िस्म तरोताज़ा हैं अपने कोई थकन से चूर नहीं
चलो कि मंज़िल दूर नहीं ..

बनते-बनते बात बनेगी बूँद-बूँद सागर होगा
रोटी कपड़ा सब पाएँगे सबका सुंदर घर होगा
आशाओं का ज़ख़्मी चेहरा इतना भी बेनूर नहीं
चलो कि मंज़िल दूर नहीं....

हक़ मांगेंगे लड़ कर लेंगे मिल जाएगा उत्तराखंड
पहले यह भी सोचना होगा कैसा होगा उत्तराखंड
हर सीने में आग दबी है चेहरा भी मज़बूर नहीं
चलो कि मंज़िल दूर नहीं ..

पथरीली राहें हैं साथी संभल-संभल चलना होगा
काली रात ढलेगी एक दिन सूरज को उगना होगा
राहें कहती हैं राही से आ जा मंज़िल दूर नहीं
चलो कि मंज़िल दूर नहीं .. चलो कि मंज़िल दूर नहीं

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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रोटी माँग रहे लोगों से / बल्ली सिंह चीमा
रोटी माँग रहे लोगों से, किसको ख़तरा होता है ।
 यार, सुना है लाठी-चारज, हलका-हलका होता है ।

 सिर फोड़ें या टाँगें तोड़ें, ये कानून के रखवाले,
 देख रहे हैं दर्द कहाँ पर, किसको कितना होता है ।

 बातों-बातों में हम लोगों को वो दब कुछ देते हैं,
 दिल्ली जा कर देख लो कोई रोज़ तमाशा होता है ।

 हम समझे थे इस दुनिया में दौलत बहरी होती है,
 हमको ये मालूम न था कानून भी बहरा होता है ।

 कड़वे शब्दों की हथियारों से होती है मार बुरी,
 सीधे दिल पर लग जाए तो ज़ख़्म भी गहरा होता है ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अब घर के उजड़ने का कोई डर नहीं रहा By बल्ली सिंह चीमा

ब घर के उजड़ने का कोई डर नहीं रहा ।
 वो हादसे हुए हैं कि घर घर नहीं रहा ।
 
 उनके बदन पे उनका वो खद्दर नहीं रहा,
 हमने समझ लिया था सितमगर नहीं रहा ।
 
 रिश्वत न नाचती हो सरे-आम ही जहाँ,
 इस देश में कहीं भी वो दफ़्तर नहीं रहा ।
 
 अब भी वो चीरते हैं हज़ारों के पेट ही,
 कहने को उनके हाथ में खंजर नहीं रहा ।
 
 हीटर लगे हुए बंद कमरों में बैठ कर,
 मत सोचिए नगर में दिसम्बर नहीं रहा ।
 
 वो और हैं नगर में जो  डरते हैं आपसे,
 ’बल्ली’ कभी किसी से भी डर कर नहीं रहा ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बस भी करिए अब मेरे ईमान से मत खेलिए / बल्ली सिंह चीमा

बस भी करिए अब मेरे ईमान से मत खेलिए ।
 हवस की ख़ातिर दिले ईमान से मत खेलिए ।
 
 मन्दिरों और मस्जिदों की क्या कमी है देश में,
 इनकी ख़ातिर अपने हिन्दुस्तान से मत खेलिए ।
 
 ये छुरा, किरपाण, ये त्रिशूल भी रखिए मगर
 इनकी ख़ातिर देश की पहचान से मत खेलिए ।
 
 हाथ में हँसिया-हथौड़ा ही सही पहचान है,
 भूख से लड़ते हुए इन्सान से मत खेलिए ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्यासी रह गईं फ़सलें शरारत कर गया मौसम By बल्ली सिंह चीमा

प्यासी रह गईं फ़सलें शरारत कर गया मौसम ।
 किसानों के घरों में यूँ उदासी भर गया मौसम ।
 
 हमारे ताल सूखे हैं, हमारे खेत सूखे हैं,
 मगर बंजर ज़मीनों में तो पानी भर गया मौसम ।
 
 हमारे गाँव प्यासे हैं, नहीं पीने को भी पानी,
 फुहारों से भरे नगरों को गीला कर गया मौसम ।
 
 शिक़ायत हम करें किससे, है मौसम यार दिल्ली का,
 कहीं सूखा, कहीं बाढ़ें, लो बेघर कर गया मौसम ।
 
 ये मौसम भी नहीं ’बल्ली’ सुहाने मौसमों जैसा
 उड़ाकर धूल सावन में ये साबित कर गया मौसम ।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हर तरफ़ काला कानून दिखाई देगा / बल्ली सिंह चीमा

हर तरफ़ काला कानून दिखाई देगा ।
 तुम भले हो कि बुरे कौन सफ़ाई देगा ।
 
 सैकड़ों लोग मरे, क़ातिल मसीहा है बना,
 कल को सड़कों पर बहा ख़ून गवाही देगा ।
 
 वो तुम्हारी न कोई बात सुनेंगे, लोगो !
 शोर संसद का तुम्हें रोज़ सुनाई देगा ।
 
 इस व्यवस्था के ख़तरनाक मशीनी पुर्ज़े,
 जिसको रौंदेंगे वही शख़्स सुनाई देगा ।
 
 अब ये थाने ही अदालत भी बनेंगे ’बल्ली’
 कौन दोषी है ये जजमेंट सिपाही देगा ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हर सुबह उठ, मुल्क के अख़बार भी देखा करो / बल्ली सिंह चीमा

हर सुबह उठ, मुल्क के अख़बार भी देखा करो ।
 कब, कहाँ, क्या कर रही सरकार भी देखा करो ।
 
 बर्फ़ शिमले में गिरी हर साल तुम हो देखते,
 शीत लहरों में मरे लाचार भी देखा करो ।
 
 जब किसी अपने को जाओ, देखने तुम अस्पताल,
 बिन दवा के मर रहे बीमार भी देखा करो ।
 
 आज मुझसे सख़्त लहज़े में ये पत्नी ने कहा,
 छोड़ दो आवारगी घर-द्वार भी देखा करो ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ज़ख़्मों पर आज मरहम लगाने की बात कर / बल्ली सिंह चीमा

ज़ख़्मों पर आज मरहम लगाने की बात कर ।
 ये फ़ासले दिलों के मिटाने की बात कर ।।
 
 तूफ़ान कैसे आया ये बातें फ़िज़ूल हैं,
 उजड़े हुए घरों को बसाने की बात कर ।
 
 अपनों ने तुझको लूटा ये कहने से लाभ क्या,
 जो कुछ बचा है उसको बचाने की बात कर ।
 
 झूठी बहुत है दिल्ली, ये कहते हैं सब लोग,
 ये झूठ है तो वादे निभाने की बात कर ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कम नहीं होता अँधेरा रात का / बल्ली सिंह चीमा

कम नहीं होता अँधेरा रात का ।
 आ करें चर्चा सुबह की बात का ।
 
 जब ज़हर पीना ही है तो दोस्तो !
 क्यों न लें फिर नाम हम सुकरात का ।
 
 देश में सूखा पड़ा पर वो मज़े से,
 कर रहे दिल्ली ज़िकर बरसात का ।
 
 क्या कहूँ, किससे कहूँ औ’ क्या करूँ,
 दिल के अन्दर जल रहे जज़्बात का ।
 
 चाहता हूँ ख़ुश रहूँ यारो मगर,
 क्या करूँ दिल में छिपे सदमात का ।
 
 बाढ़-पीड़ित क्षेत्र में, ऐ मूर्खो !
 गीत मत गाओ मुई बरसात का ।
 
 सरकसी तेरे इशारों पर चलूँ क्यों,
 मैं तो अब भी शेर हूँ जंगलात का ।
 
 हर अँधेरा हार जाएगा अगर,
 मिल के गाएँ गीत हम परभात का ।


 

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