Author Topic: Balli Singh Cheema' Poem - बल्ली सिंह चीमा जी की कविताये  (Read 9680 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पसीना चुए हैं ये मंज़र तो देखो / बल्ली सिंह चीमा

पसीना चुए है ये मंज़र तो देखो ।
 लगे जून जैसा नवम्बर तो देखो ।
 
 ये जलते हुए घर, ये लाशों के मलबे,
 ज़मीं पर लहू का समन्दर तो देखो ।
 
 न हिन्दू मरा है, न सिख ही मरा है,
 तुम्हीं हो, ज़रा पास जाकर तो देखो ।
 
 है फ़िरका-परस्ती का उन्माद दिल में,
 बना है बहादुर वो कायर तो देखो ।
 
 न जाने मिलेगा इन्हें कब ठिकाना,
 भटकते हुए लोग दर-दर तो देखो ।
 
 करो बात इनसे सुनो दर्द इनके,
 ये गूँगे नहीं हैं बुलाकर तो देखो ।
 
 दिलों में तो ख़ूनी इरादे छिपे हैं,
 उड़े हैं अमन के कबूतर तो देखो ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हर तरफ़ काला कानून दिखाई देगा ।
 तुम भले हो कि बुरे कौन सफ़ाई देगा ।
 
 सैकड़ों लोग मरे, क़ातिल मसीहा है बना,
 कल को सड़कों पर बहा ख़ून गवाही देगा ।
 
 वो तुम्हारी न कोई बात सुनेंगे, लोगो !
 शोर संसद का तुम्हें रोज़ सुनाई देगा ।
 
 इस व्यवस्था के ख़तरनाक मशीनी पुर्ज़े,
 जिसको रौंदेंगे वही शख़्स सुनाई देगा ।
 
 अब ये थाने ही अदालत भी बनेंगे ’बल्ली’
 कौन दोषी है ये जजमेंट सिपाही देगा ।
 
 (साभार :जनकवि बल्ली सिंह चीमा)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बल्ली सिंह चीमा: खेतों में कविताएं बोता कवि





उत्तराखंड के जिला ऊधमसिंह नगर का कस्बा काशीपुर. यहां अवैध खनन माफियाओं का एक इलाका है सुल्तानपुर पट्टी, जहां चौराहे से दाहिनी ओर एक ऊबड़-खाबड़-सा रास्ता मड़ैया गांव की ओर जाता है. यह गांव उस कवि का पता है, जिसके लिए कविता जेहनी अय्याशी या मनोविनोद नहीं है, जिसकी कविता मिट्टी में उगती है.
रास्ते में घास का बड़ा-सा बोझ ढो रही एक बूढ़ी स्त्री से उनका पता पूछने पर वे कहती हैं, ''वही जो खेतों में गीत गाते हैं.'' हां, वही कवि, जिसका नाम बल्ली सिंह चीमा है, जो हरे-भरे खेतों के बीच हाथों में फावड़ा लिए जनता का गीत गा रहा है, पूछती है झोंपड़ी और पूछते हैं खेत भी/कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के.
आज से 60 बरस पहले पंजाब के अमृतसर जिले के चीमा खुर्द गांव में जन्मे बल्ली सिंह ने चार बरस की उम्र में मां को खो दिया था. पिता काशीपुर-मुरादाबाद के रास्ते पर ट्रक चलाते थे. बाद में ट्रक बेचकर उन्होंने जमीन खरीदी और किसानी करने लगे.
चीमा अमृतसर से तीसरी कक्षा पास कर काशीपुर आ गए. वे आगे पढ़ने के लिए अमृतसर गए, लेकिन बीए फर्स्ट ईयर के बाद पढ़ाई अधूरी छोड़ वापस आना पड़ा क्योंकि कोसी नदी में आई बाढ़ ने उनकी जमीन लील ली थी. घर में चूल्हा जलाने के लाले पड़ गए थे. किताब छूट गई, हाथों में हल उठा लिया, लेकिन गीत जिंदा रहे. यहीं उन्होंने खेतों में धान के साथ-साथ कविताओं के बीज बोए और आज उस फसल की हरियाली हर ओर छाई है. सुदूर ऊंचे पहाड़ों, खेतों और गांव-गांव में लोग भले चीमा का नाम न जानें, लेकिन उनके गीत गुनगुनाते हैं.
देश भर के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों व फैक्टरियों में उनके गीत गाए जाते हैं, पोस्टर बनाकर चिपकाए जाते हैं. अगर गीतों का जीवंत होना, गाया जाना कवि की लोकप्रियता का पैमाना हो तो वे हमारे दौर के सबसे लोकप्रिय हिंदी कवियों में हैं. उनकी परंपरा कबीर, फैज, साहिर और दुष्यंत कुमार से जुड़ती है. वे एक साथ बगावत और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं के कवि हैं.
गीत कैसे बनते हैं? चीमा कहते हैं, ''मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं कवि जैसा कुछ बनूंगा. गीत अच्छे लगते थे, बचपन से ही गाने का शौक था. अमृतसर में पंजाबी के मशहूर कवि सुरजीत पातर हमें पढ़ाते थे. वहीं मेरा पंजाबी कवि पाश से परिचय हुआ और कविताओं से भी.
19 साल की उम्र में अमृतसर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका चर्चा में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई.'' वह पहली कविता भी दरअसल गीत थी, जिसमें छंद, लय, ताल सब था, जिसे गाया जा सकता है. चीमा 'गद्य कविता' से जुड़ाव नहीं महसूस करते. कहते हैं, ''वह कविता ही क्या, जो गाई न जा सके. वह लिखना ही क्या, जो इनसान के बीच न जा सके. वह शब्द ही क्या, जो लोगों के दिलों में न उतर सके.
की-बोर्ड पर एंटर का बटन दस बार दबा दिया तो गद्य कविता बन गया. अब उसे दो-चार-छह बार पढ़ो तब जाकर उसका अर्थ समझ में आता है.'' क्या यह अनायास है कि आज हिंदी में 'गद्य कविता' साहित्यिक गोष्ठियों, समारोहों, पुरस्कारों के दायरे में ऊंची कुर्सी पर बैठी है और छंदबद्ध कविताओं-गीतों को हेय दृष्टि से देख रही है.
चीमा कहते हैं, ''यह अनायास नहीं है. शासक वर्ग ने गद्य कविताओं को आगे बढ़ाया है. वह चाहता है कि कविता आम इनसान से कटी रहे.'' एक कमरे में चार बुद्घिजीवी उस पर चर्चा करें, शोध-प्रबंध लिखें. कविता खेतों में न गूंजे, मछुआरों का गीत न बने, मजदूरों की आवाज न हो, कोयले की खदानों में न जाए. वह दिल्ली-पटना-इलाहाबाद के ऑडिटोरियम में दुबकी रहे. लेकिन पाश की गद्य कविता या बाबा नागार्जुन की कविताएं इस दायरे में नहीं आतीं.
चीमा कहते हैं, ''उनके गद्य में भी पद्य है. उसमें भी लय है, वह गाई जा सकती है. दूसरे उनके गीत इस देश की धरती से जुड़े हैं.'' वे यूरोपीय साहित्य के खिलाफ नहीं, लेकिन कविताओं के बिंब वहां से उठाए जाने के खिलाफ हैं. वे कहते हैं कि वही कविता जिंदा रहेगी, जो इस देश की नदियों, पहाड़ों, जंगलों, खेतों, फूलों से जुड़ेगी. यह क्या बात हुई कि लंदन में बर्फ गिरी और दिल्ली में लड़की को जुकाम हो गया.
अब तक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्हें अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका है. डॉक्यूमेंट्री फिल्म भगीरथी की पुकार और गढ़वाली फिल्म तेरी सौं में उनके गीतों का इस्तेमाल हुआ है. तेरी सौं के निर्देशक अनुज जोशी कहते हैं, ''उनका गीत ले मशालें चल पड़े हैं मुझे बेहद पसंद है. मैंने आंदोलनकारियों की एक रैली के दौरान उसे सुना था और फिर अपनी फिल्म में इस्तेमाल किया.'' कवि नीलाभ चीमा की कविताओं पर टिप्पणी करते हैं, ''वे सही अर्थों में प्रतिबद्घ जनकवि हैं, जो अदम गोंडवी की तरह अपने फन के माहिर हैं.'' पर उन्हें लेकर विवाद भी कम नहीं है.
पिछले दिनों उन्हें राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने केंद्रीय हिंदी संस्थान के गंगाशरण सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया तो सवाल उठा कि क्या खेतों की कविताएं दिल्ली के गलियारों में पहुंच गईं? चीमा आत्मविश्वास और सधे सुर में जवाब देते हैं, ''मेरी हर कविता शोषण की इस व्यवस्था के खिलाफ है. मैंने किसी सरकार का पक्ष नहीं लिया, लेकिन फिर भी वे मुझे सम्मानित करते हैं तो मुझे क्यों आपत्ति होनी चाहिए.
बाबा नागार्जुन कहते थे कि विरोध क्यों करूं? क्या मुझे अपनी काबिलियत पर भरोसा नहीं है? मैंने इसे पाने के लिए तिकड़म नहीं की, सो मेरी अंतरात्मा साफ है. और पैसा तो जनता का है, सरकार का नहीं.'' वे बचपन से वामपंथी विचार और संघर्षों से जुड़े रहे हैं, लेकिन किसी पार्टी के सदस्य नहीं बने और यह कहने में भी संकोच नहीं किया- संसद में हर कॉमरेड जपता पूंजी की माला है, आ जा मिलकर राज करेंगे, कौन पूछने वाला है.
जिंदगी के संघर्षों ने उन्हें इतना तपा दिया कि कुछ कोमल एहसासों को जीने का वक्त ही नहीं बचा. मुहब्बत की उड़ान भरने से पहले शादी में कैद हो गए. उनकी दुल्हन उनके दोस्तों ने ढूंढी थी. 18 साल में चीमा की कविताओं में रोमांस नहीं, नक्सलबाड़ी आंदोलन का सुर था. जब कविता में प्रेम लौटा तो भी उसका रूप बदल चुका था.
फैज ने लिखा, और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा और चीमा कहते हैं, भुलाकर फिक्र रोटी की, भुलाकर दर्द दुनिया का/मुझे बिलकुल नहीं भाता, तेरे रुखसार पर लिखना. वे कहते हैं कि जब जिंदगी के दूसरे सवाल ज्यादा बड़े हो जाएं तो मुहब्बत को कुछ देर के लिए मुल्तवी कर देना पड़ता है. उन्होंने प्रेम को अलग निगाहों से देखा है-फूल खिलते हैं, सुना है जब भी मुस्काती हो तुम, फूल बेशक ना खिलें, पर मुस्कुराओ तो सही.
बगल में बैठी उनकी पत्नी बलजीत मुस्कुरा देती हैं. बलजीत को पति का कविताएं लिखना, जनता की लड़ाई के नाम पर हमेशा घर से बाहर रहना पसंद नहीं था. लेकिन अब खुश हैं कि पति का इतना नाम है. उनके बेटे प्रणवीर ने भी जीवन-यापन के लिए किसानी को चुना है. बेटी सनोबर की दो साल पहले अकाल मृत्यु हो गई, जिसके सदमे से पति-पत्नी आज भी नहीं उबर पाए हैं.
ये दुख जिंदगी के साथ-साथ चलेंगे, लेकिन एक बड़ी लड़ाई की खातिर, मेहनतकशों की खातिर, जैसे उन्होंने मुहब्बत को मुल्तवी कर दिया, वैसे ही अपने निजी दुख को मुल्तवी कर देते हैं. उनका पक्ष साफ है. वे जानते हैं कि वे किस वर्ग का हिस्सा हैं और मशाल बन जल रहे हैं-मैं तीरगी को मिटाने की जिद पे कायम था/मशाल बन के न जलता तो और क्या करता? http://aajtak.intoday.in

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हर तरफ़ काला कानून दिखाई देगा....
 
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 तुम भले हो कि बुरे कौन सफ़ाई देगा ।
 
 सैकड़ों लोग मरे, क़ातिल मसीहा है बना,
 कल को सड़कों पर बहा ख़ून गवाही देगा ।
 
 वो तुम्हारी न कोई बात सुनेंगे, लोगो !
 शोर संसद का तुम्हें रोज़ सुनाई देगा ।
 
 इस व्यवस्था के ख़तरनाक मशीनी पुर्ज़े,
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बल्ली भाई की गजल में नैनीताल ......

बड़े पर्वत पे पानी से भरा इक थाल रक्खा है ।
बड़ा -सा फ़रिज बना कर नाम नैनीताल रक्खा है ।

बड़े सुंदर हैं ये बाजार नैनीताल के दोनों ,
इधर तल्ली उधर का नाम मल्लीताल रक्खा है ।

गुलामों की तरह निचली सडक भी साथ है चलती ,
मगर ऊँची सडक का नाम उसने "माल " रक्खा है ।

अमीरी - शौक है ये मयकशी और वो भी किश्ती में ,
मेरे जैसे फकीरों ने भी इसको पाल रक्खा है ।

उधर वो सब नशीली घूप का आनन्द लेते हैं ,
इधर ठंडी सडक की ठंड ने कर बेहाल रक्खा है ।

डिनर या लंच कह कर जाने क्या - क्या खाते रहते हो ,
मगर " बल्ली " ने इनका नाम रोटी - दाल रक्खा है ।

- बल्ली सिंह चीमा

 

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