Author Topic: Himanshu Joshi Famous Author -हिमांशु जोशी उत्तराखंड मूल के प्रसिद्ध साहित्यकार  (Read 33014 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तीन तारे
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मूल्य: $4.95 
प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन
आईएसबीएन: 81-7016-677-2
प्रकाशित: फरवरी ०३, २००४
पुस्तक क्रं:3514
मुखपृष्ठ:सजिल्द
सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश   
    किशोर मन की उड़ानों के लिए सारा आकाश ही छोटा पड़ जाता है। किशोरों की इस  दुनिया में जड़ और जंगल, पशु और पक्षी सभी कुछ तो मनुष्यों के मित्र और  सहायक होते हैं। इस मनोरंजक कहानी में गधे के दो नन्हे-मुन्ने बच्चे एक  मानव किशोर के परम मित्र बनकर बड़ी ही रोमांचक और साहसपूर्ण यात्रा पर  निकल पड़े हैं। पग-पग पर आपदाएं आती हैं-चोर लुटेरे हैं, हिंसक जन्तु उनसे  भी डरावने डाकू हैं। पर तीनों मित्र अपनी सूझ-बूझ और हिम्मत से सबको छकाते  हुए अपना उद्धार करते हैं और दूसरे कई बालकों का उद्धार भी करते हैं। और  इस बहुत बड़ी दुनिया में घूम-भटक कर लौट आते हैं। जिस शान से वे घर लौट,  अपनी यात्रा में जो ज्ञान और साहस उन्होंने संचित किया, आपदाओं की भट्ठी  में मैत्री के सोने को उन्होंने जैसा कंचन बनाया, वह सभी किशोर पाठकों को  भी प्राप्त हो।   
    1   
    वे तीन साथी थे। दो सफेद खरगोश-से मासूम, और एक नटखट बन्दर सा अदना। तीनों  नन्हें-मुन्ने तुतला-तुतलाकर मीठे-मीठे स्वर में बोलते। मिल-जुलकर रहते,  जैसे तीनों पक्के साथी हों-तीन तन, एक प्राण।
 
  गब्बू, नब्बू और टिन्कू था उन तीनों का नाम।
  गब्बू का रंग गोरा था-दूध के झाग की तरह सफेद।
  कान खरगोश के जैसे लम्बे-लम्बे, बड़े मुलायम बड़े खूबसूरत ! वैसा ही  सुन्दर, सुगठित आकार-प्रकार भी था। स्वभाव भी समुद्र की तरह शान्त,  गम्भीर। लड़ना-झगड़ना या गाली देना जैसे सीखा ही नहीं। बड़े धीरज के साथ  हर किसी की बातें सुनता लड़कपन की शैतानी तो मानो छू भी नहीं गई थी।
 
  ठीक उसी के जैसा उसका छोटा भाई नब्बू था। उमर में छोटा पर सूज-समझ में  बहुत आगे। चौबीस, घंटे चुपचाप बड़े भाई के पीछे छाया की तरह लगा रहता,  जैसे राम-लक्ष्मण की जोड़ी हो।
 
  और उन दोनों का निराला साथी था टिन्कू।
  देखने में बच्चा, पर अकल का बूढ़ा था। लोग कहा करते कि उसके पेट में दाढ़ी  है। हिरन के बच्चे की-सी आंखें थीं उसकी। मेमने की तरह निश्छल मुखड़ा।  मैना की जैसी मीठी बोली थी। वाकई टिन्कू हर तरह से टिन्कू था। उसकी अटपटी,  मीठी बातें हर किसी का मन हर लेतीं।
  न वह किसी से लड़ता-झगड़ता, न किसी को गाली देता। शैतान बच्चों से हमेशा  दूर रहता। अकसर वह अपनी बूढ़ी नानी से परियों की कहानियां सुनता, या  मोटे-मोटे अक्षरों में छपी बाघ-भालू आदि जानवरों की किताबों के पन्ने  पलटता, या फिर गब्बू-नब्बू के साथ खेलता। बस, सारे दिन यही उसका काम था।
 
  बचपन से ही उसे चूहों, बिलौटों, पिल्लों, चूजों, खरगोशों और गधों आदि से  विशेष प्यार था। उनके साथ वह खिलौनों की तरह खेला करता। ये जिन्दा खिलौने  उसे बेहद पसन्द थे। उसकी नानी उसे इसीलिए जिन्दा खिलौनों का राजकुमार कहकर  चिढ़ाती थी। धीरे-धीरे वह उनकी बोली भी समझने लग गया था।
  रोज शाम के समय हरे-भरे मैदान में वह जा पहुंचता खूंटे से खुले बछड़े की  तरह कुलांचें भरता, सीधा गोली की तरह चलकर वहीं रुकता, जहां गब्बू-नब्बू  लम्बे इन्तजार से खके-ऊंघते खड़े होते।
 
  टिन्कू घुल-घुल कर उनसे बातें करता। नानी के दिए बिस्कुट तीन बराबर-बराबर  हिस्सों में बांटता। देखते-देखते पटर-पटर तीनों सब हजम कर जाते। बाकी जो  चूरा बचता उसको पुड़िया में बांध उनके लम्बे लम्बे कानों में खोंस देता,  ताकि कल सुबह नाश्ते के समय काम आ सके।
  गब्बू-नब्बू के कान खरगोश के कानों से मिलते-जुलते थे। रुई के फाहे की तरह  मुलायम और सफेद। उन पर हाथ फेरने में टिन्कू को बड़ा मजा आता। मन ही मन वह  सोचता-काश, भगवान ने उसके भी ऐसे कान बनाए होते। मक्खियों को भगाने के लिए  ऐसी ही पूंछ होती। जूतों को रोज पहनने-उतारने की मुसीबत से बच जाता, अगर  उसके जूते भी उनकी ही तरह पांवों में जनम से ही जुड़े रहते, जो न कभी फटते  हैं, न घिसते-टूटते। फीता बांधने की भी जरूरत नहीं। मोची से पालिश कराने  की भी आवश्यकता नहीं।
 
  ‘ये सचमुच कितने खुशनसीब हैं !’ टिन्कू सोचता।
  लेकिन, एक दिन उसे बहुत बड़ा धक्का लगा, जब पता चला कि ये दोनों बेचारे  इतना सब कुछ होते हुए भी गरीब हैं, बहुत गरीब।
  ‘‘गब्बू-नब्बू भैया, तुम भी गरीब हो न  ?’’ मैदान में घूमते-घूमते एक बार टिन्कू ने पूछ  लिया। 
  ‘‘गरीब क्या बला है ?’’ गब्बू ने  अपने कान खड़े कर अचम्भे से पूछा।
  ‘‘अरे, तुम नहीं जानते ! हमारे घर में तो छोटे-बड़े  सभी जानते हैं। कल हमारे यहां रात को एक आदमी दरवाजे पर आया था जाड़े से  ऐंठता हुआ। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता हुआ कह रहा था,  ‘‘कोई फटा-पुराना कपड़ा दे दो। एक टुकड़ा रोटी दे दो।  चार दिन से भूखा हूं, नंगा हूं।’
  ‘‘मैं उस अजनबी को देखते ही भागता-भागता अपनी नानी के  पास पहुंचा। ‘नानी, यह कौन है ?’ मैंने पूछा।
  ‘‘नानी ने जवाब दिया, ‘‘बेचारा  गरीब है।’
  ‘‘ ‘गरीब क्या होता है, नानी ?’  मैंने फिर प्रश्न किया।
 
  ‘‘नानी ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फिर पूछा। जब तक  नानी ने उत्तर नहीं दिया, मैं लगातार पूछता रहा। उसके आंचल को दोनों हाथों  से खींचे खड़ा रहा। नानी ने झुंझलाकर कहा, ‘बावले, गरीब क्या  होता, तुझे क्या बतलाऊं ?’
  ‘‘ ‘कुछ तो होगा ही, नानी !’  मैंने हठ करके पूछा।
  ‘‘ ‘अरे, गरीब उसे कहते हैं, जिसके पास  खाने पीने को नहीं होता। नानी समझती हुई आगे बोली, ‘रहने को  उसके पास मकान नहीं होता। पहनने को कपड़ा नहीं होता। समझ गया न  ?’
  ‘मैं तब सोचता रहा, सोचता रहा। बिस्तरे पर लेट कर भी सोचता चला  गया। तुम्हारे बारे में जब विचार आया तो मुझे बड़ा दुःख हुआ। मैंने  तुम्हें कभी भी अपनी तरह कपड़े पहने नहीं देखा, बिस्तरे पर सोते नहीं  देखा, खाते नहीं देखा।
 
  ‘‘मैं सोचते-सोचते न मालूम कब सो गया। नींद में मैंने  देखा कि तुम दोनों हमारे दरवाजे पर हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ा रहे हो :  ‘हमें भी कपड़ा दो, खाना दो’।
 
  ‘‘तब सपने में ही दौड़ता दौड़ता मैं नानी के पास  पहुंचा।’’ टिन्कू कहता चला जा रहा था अपनी धुन में और  वे दोनों खामोश सुनते जा रहे थे। ‘नानी ! नानी !’  मैंने पुकारा, ‘सुन तो, दो गरीब फिर आये हैं दरवाजे पर !
  ‘‘नानी दरवाजे तक आई और मुझ पर गुस्से से उबल पड़ी,  ‘मूर्ख कहीं का !’ और यह कहकर अन्दर चली गई। इतने में  उछल-कूद नाम का हमारा नौकर आया और तुम पर पिल पड़ा।’’
  उसने दोनों साथियों के चेहरों की ओर देखा और फिर बोला,  ‘‘सच गब्बू, मैं तब रोया, खूब रोया नानी से झगड़  पड़ा, ‘तुम कहती हो गरीबों पर दया करो ! सब मिलकर प्रेम से रहो,  प्रेम से खेलो, प्रेम से खाओ ! फिर तुमने बेचारों को डण्डे से क्यों  पिटवाया ?’ और मैं सचमुच रो पड़ा।
  ‘‘नानी का दिल पिघल आया। मुझे पुचकारती हुई बोली,  ‘अरे, पगले रोता क्यों है ? तू तो खुद समझदार है। अपनी अकल से  जो ठीक समझे कर। आगे कुछ नहीं कहूंगी।’
 
  ‘‘इतना कहना काफी था। आंसू पोंछता हुआ, मैं फिर  खिलखिला उठा। भागता हुआ तुम दोनों को ढूंढ़ लाया।’’
  ‘‘बक्स में से फिर अपने सारे कपड़े निकाले। तीन  हिस्से किए और बराबर-बराबर बाँट लिये। फिर तुम दोनों हमारे गुसलखाने में  साबुन से खूब नहाये। शैम्पू से सिर धोया और फटे मुंह पर क्रीम लगाई। साफ  सुथरे कलफ लगे कपड़े पहने, और फिर नानी के साथ हम सब ने खूब भर पेट खाना  खाया। चाकलेट खाई। बर्फी खाई। टाफियां खाईं। तुम्हें सब याद है न, गब्बू  ?’’ टिन्कू ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
 
  वे दोनों गुमसुम अब तक टिन्कू के भोले-भाले चेहरे की ओर टकटकी बांधे, लार  टपकाते, खुली आंखों से देखते चले जा रहे थे।
  तभी टिन्कू की आखिरी बात सुनकर गब्बू जैसे नींद से जागा और गरदन हिलाता  हुआ बोला, ‘‘नहीं-नहीं ! सपने की बात भी कहीं सच होती  है !’’
 
  ‘‘वाह !’’ टिन्कू उछल पड़ा,  ‘‘कैमरा होता तो सपने में ही फोटो खींच लेता और इस  समय हाथ में नचाता हुआ दिखलाता। फिर तो सच मानते न !’’
 
  तीनों साथी फिर देर तक चुपचाप टहलते रहे। टिन्कू को यही अफसोस हो रहा था  कि क्यों नींद में उसने फोटो नहीं खींचा। तभी सन्नाटा भंग करता हुआ, कुछ  सोचकर वह बोला, ‘‘भैया, तभी तुझे ख्याल आया कि भगवान्  ने तुम्हें गरीब बनाया है, तुम्हारे शरीर पर कपड़े-लत्ते तो मैंने कभी  देखे नहीं।’’
  वे दोनों भाई चुप कान हिलाते रहे।
  ‘‘तुम खाना क्या खाते हो, गब्बू-भैया  ?’’ टिन्कू ने फिर पूछा।
  ‘‘यहीं इधर-उधर घास चर लेता हूं। कभी तुम क्रीम लगे  बिस्कुट खिलाते हो तो बड़ा भला लगता है लार टपकने लगती है अपने-आप। वैसे  मालिक तो बस मालिक ही है। वह कुछ देता नहीं। हमारी दीदी भी नहीं देती कुछ  एक आध बार पत्थर कंकड़ मिले सूखे चने चबाकर दांत तोड़े थे। लेकिन, इधर तो  उसके भी दर्शन नहीं होते।’’ गब्बू ने उदास स्वर में  कहा।
 
  ‘‘हम तीनों साथी एक उम्र के हैं। एक से स्वभाव के  हैं। मित्र हैं। फिर तीनों एक साथ एक समान रहते, तो कितना अच्छा होता !  लेकिन हम रहते नहीं। क्यों नहीं रहते एक समान ?’’  टिन्कू ने गब्बू-नब्बू की ओर देखा।
  अपने लम्बे कान फटकारता हुआ गब्बू बोला, ‘‘अपनी समझ  में तो कुछ आता नहीं !’’
  ‘‘अच्छा, तू बता, नब्बू भैया ! कारण क्या होगा  ?’’
  नब्बू ने अपनी हमेशा की आदत के अनुसार धीमी आवाज में कहा,  ‘‘कुछ तो कारण होगा ही दद्दू ! नहीं तो तुममें और  हममें इतना फर्क होता ही क्यों ? कहां तुम इतनी शान-शौकत से रहते हो।  खीर-पूड़िया उड़ाते हो। दूध के गिलास पर गिलास गटकते हो एक सांस में। रेशम  के पलंग पर उछलते हो। गलीचों पर कूदते हो। और दूसरी और हैं, हम, जो  जहां-तहां मैदानों में, धूल में, सड़कों पर पड़े रहते हैं। लोगों की उस पर  भी झिड़कियां और डण्डे सहते हैं। खीर हलवे की कौन कहे, घास तक भी कभी कभी  सूंघने को नहीं मिलती।’’
  ‘‘लेकिन, यह तो बतलाओ’’, गाल पर  हाथ धरता हुआ टिन्कू बोला, ‘‘आखिर यह सब क्यों है ?  मेरी समझ में तो आता नहीं !’’
  ‘‘तुम भी छोटे हो न हमारी तरह।’’  नब्बू ने उत्तर दिया, ‘‘छोटों की समझ में बड़ी बात  कैसे आ सकती है ? अच्छा, आज रात हम घर जाकर अपनी दादी से पूछेंगे। किसी  पास-पड़ोस के और दाने-सयाने से पूछेंगे। देखें क्या बतलाते हैं  वे।’’
  घूमते-घूमते बड़ी देर हो गई उनको। थकान भी कुछ कुछ महसूस होने लगी। अब  चारों ओर ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। देवदारु के पेड़ों की ओट में बड़ा  थाल-सा चांद उझक-उझककर झांक रहा था। वे तीनों सामने बहती नदी के किनारे  हरी मुलायम दूब पर बैठ गए।
   
  कतार बांधे तीनों चांद की ओर, हरे-भरे मैदानों की ओर, चांदी से चमकीले  पहाड़ों की ओर, पिघले पारे की तरह चमचमाते पानी की ओर टुकुर-टुकुर देख रहे  थे। अन्त में तीनों खुशी से झूमते हुए अपना वही पुराना परियों का गीत  गुनगुनाने लगे : 
    फूल सब के लिए खिलता है,
  झरना सब के लिए हंसता है;
  पानी सब के लिए बहता है,
  चांद सबके लिए उगता है !
  फिर, हम सब एक से क्यों नहीं ?
  एक से क्यों नहीं ?
  एक से क्यों नहीं ? 
    तीनों ऊंची आवाज में मंत्रमुग्ध से तान अलापे जा रहे थे। अपनी धुन में  इतने मस्त थे कि उन्हें दीन-दुनिया की कुछ भी खबर न रही।
 
  इतने में पीठ पर गीले कपड़ों का गट्ठर लादे, हाथ में डण्डा थामे, भागता  हुआ एक आदमी आया। गब्बू-नब्बू की पीठ पर तड़ातड़ लाठी धुनकने लगा बड़ी  निर्दयता से। दोनों बिदक कर भागें इससे पहले ही उसने दोनों के लम्बे-लम्बे  कान पकड़ लिये और घसीटता हुआ घाट की ओर ले चला।
 
  दूसरी ओर से उछल-कूद आया। प्यार से पुचकारते हुए टिन्कू को पीठ पर लाद कर  घर की ओर लपका। तीनों हैरान थे; यह एकाएक क्या हो गया; किसी की समझ में न  आया।   
    2     
    आज घर में बड़ी धूम-धाम थी। पण्डितजी ऊंचे आसन पर विराजमान थे। टिन्कू  बड़ा खुश नजर आता था। सारे दिन वह इधर-उधर चक्कर काटता रहा। पर समझ में  उसकी कुछ भी नहीं आ रहा था।
   
  तभी उछलकूद नौकर को बुला कर उसने बड़ी उत्सुकता से पूछा,  ‘‘आज यह घर में क्या होने जा रहा है, भाई  ?’’
  ‘‘अरे, इतना भी नहीं जानते ? आज गो पूजन  है।’’
  ‘‘इसमें क्या होता है ?’’ उसने  फिर प्रश्न किया।
  ‘‘देखते नहीं, गौ माता की पूजा अन्दर हो तो रही  है।’’ इतना कहकर उछलकूद उछलता-कूदता चला गया।
  टिन्कू ने देखा, अन्दर गौ माता की मूर्ति पर तिलक, चन्दन अक्षत चढ़ रहे  हैं। फूल-पत्तियों की बरसा हो रही है। सामने मिठाइयों के थाल सजे हैं।  बर्फी, केले सन्तरों की भरमार है। मटका भर चरणामृत है। टिन्कू की लार टपक  गई।
  तभी उसकी नानी ने बुलाया, ‘‘टिन्कू, अरे ओ टिन्कू  !’’
 
  ‘‘क्या है, नानी ?’’ उसने पास  जाकर पूछा।
  ‘‘बेटा, देखो ! आज पूजन है। शाम को तुम यहीं रहना  आरती के समय कहीं इधर-उधर चले न जाना। और हां देखो, अपने दोस्तों को भी  निमन्त्रण दे आना। ऐसे शुभ दिन भला कब-कब आते हैं ! सभी साथ बैठकर भोजन  करना।’’ नानी इतना कहकर काम में जुट गई, और टिन्कू  सीधा गोली की तरह दौड़ता हुआ मैदान में पहुंचा।
     

http://vedantijeevan.com/bs/home.php?bookid=3514

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हिमांशु जोशी जी को मिले सम्मान
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१. छाया मत छूना मन
२. अरण्य
३. मनुष्य चिह्न
४.  क्ष्रेष्ठ कहाहिया
५.   गन्धर्व यात्रा

उत्तर प्रदेश हिंदी संसथान से सम्मानित !

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१. हिमांशु जोशी की कहानिया तथा भारत रत्न गोविन्द बल्लब पन्त को हिंदी अकादमी दिल्ली का सम्मान!

२. तीन तारे - राज भाषा बिहार सरकार द्वारा पुरुष्कृत!

३. पत्रिका के लिए केंदीय हिंदी संसथान (मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार) द्वारा स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी पुरूस्कार से सम्मानित!

४)  नयी धारा का "उदयराज" सम्मान !

५)  उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का "अवनित बाई सम्मान:"

६)   हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग का "साहित्य वाचस्पति सम्मान

७)   नार्वे का "हेनरी इब्सन अवार्ड फॉर लिटरेचर" (२००६)

८. )   कुमाऊ विषय विधालय द्वारा डी लिट की मानक उपाधि (२०१०)
 

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समय साक्षी है

प्रकाशक: आर्य प्रकाशन मंडल
आईएसबीएन: 81-88118-07-9
प्रकाशित: अप्रैल ०१, २००४
पुस्तक क्रं:3328
मुखपृष्ठ:सजिल्द
  प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश   
    समस्त राष्ट्र का भविष्य जब मात्र मुट्ठी-भर लोगों के हाथों में समा जाता  है तो अनेक जटिल समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। यदि उनके निर्णय  दूरदर्शितापूर्ण न हों तो राष्ट्र को उनके दूरगामी प्रभावों के परिणाम  झेलने के लिए भी विवश होना पड़ता है। भारत आज जिस संक्रमण की स्थिति से  गुजर रहा है, उसका दायित्व इन्हीं राजनीतिज्ञों पर है, जिन्होंने राजनीति  में से नीति को तिरोहित कर, जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे समस्त राष्ट्र  के अस्तित्व को दाँव पर लगा दिया है। आए दिन चारों ओर जो हिंसा, जो  रक्तपात जो विघटनकारी घटनाएँ घटित हो रही हैं, उसके मूल में कहीं ये ही  कारण हैं कि मात्र अपने व्यक्तिगत हितों के लिए उन्होंने किस तरह से समस्त  राष्ट्र के हितों की बलि चढ़ा दी है।
 
  राजनीति के अंतरंग स्तरों पर क्या-क्या होता है ? ऊँचे-ऊँचे आदर्श किस तरह  क्षण-भर में रेत की दीवार की तरह भरभराकर बिखर जाते हैं ? हिमालय से भी  ऊँचा दीखने वाला व्यक्तित्व किस तरह सहसा बौना जाता है ? इन्हीं की  त्रासद, रहस्यमयी झाँकियाँ हैं प्रस्तुत उपन्यास में।
  लेखक के द्वारा निकट से देखा गया यह विकट संसार आज का इतिहास है। एक  प्रामाणिक दस्तावेज भी ! हिन्दी का अपने ढंग का प्रथम राजनीतिक उपन्यास ! 
    भूमिका     
    राजनीति की भी कोई नीति नहीं होती है। नीति का परित्याग कर जब वह नीति  अनीति का मार्ग अपनाने लगती है, तब उसके परिणाम घातक होते है- बड़े भयंकर।  भारत के गत कुछ वर्षों का इतिहास इसका साक्षी है।
  आज़ादी के बाद लोगों के मन में नई आशाएं, आकांक्षाएं जागीं। सदियों से  शोषित दीन-हीन जनों को लगा-उम्मीदों का नया सूरज उगने वाला है,
  यातनाओं की काली रात बीतने वाली है।
  वह नया सूरज उगा, परन्तु सबके लिए नहीं।
  शायद इसलिए काल-रात्रि अभी भी शेष है।
 
  अभी करोड़ों लोग हैं, जिन्हें एक वक्त का भोजन भरपेट नहीं मिल पाता।  करोडों लोग हैं। जिनके पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं। दो हाथ हैं, पर  उन्हें देने के लिए काम नहीं। तन को ढकने के लिए पूरे वस्त्र नहीं, बीमार  होने पर दबा नहीं-मरने पर कफन नहीं।
  आज़ादी का सपना किसी सीमा तक साकार हुआ, परन्तु वास्तव में वह आज़ादी मिली  कहां, जिसके लिए स्वाधीनता-सेनानियों ने लौह-कपाटों के भीतर नारकीय  यातनाग्रहों में अपनी देह को गला दिया था, फांसी के तख्तों पर हंस-हंस कर  झूलते हुए जीवन के उषाकाल में ही सन्ध्या का वरण कर लिया था। रोटी-रोटी के  लिए मोहताज, भीख मांगते ऐसे बच्चे मैंने स्वयं देखे हैं, जिनके अभिभावक  स्वाधीनता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे चुके थे। उन अनाम,  अज्ञात शहीदों का क्या कहीं लेखा-जोखा है ? लेखा-जोखा उन्होंने चाहा भी न  होगा, परन्तु उनके परिणामों का हिसाब आने वाली पीढ़ियां मागें तो उसे  अनुचित भी नहीं कहूँगा।
 
  देश के ‘भाग्य विधाता’ देश-सेवा के नाम पर क्या-क्या  करते हैं  ? अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए किस तरह करोड़ों लोगो के भाग्य  के साथ खिलवाड़ करते है ? भ्रष्टाचार्य सदाचार के आवरण में किस तरह  प्रस्तुत किया जाता है-उसी ‘आदर्शोन्मुख’ समाज का  चित्रण  प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है।
 
  तिमिर वरन, मेघना, पी० पी० या अन्य पात्र काल्पनिक होते हुए भी काल्पनिक  नहीं। भारतीय राजनीति से जो तनिक भी परिचित है, उन्हें पात्र भी सुपरिचित  लगेंगे। उन्हें किसी-किसी रूप में आपने भी देखा होगा और आज भी देखते  होंगे।
  राजधानी में गत 25-26 साल से रहने के कारण राजनीति और राजनीतिज्ञों को  तनिक निकट से देखने-परखने का मौका मिला। वे ही अनुभव और अनुभूतियां इसके  लेखन में सहायक बनीं। कुछ घटनाएं आपको सत्य के इतने निकट लग सकती हैं कि  हो सकता है, आप उन्हें सत्य ही मान लें। परन्तु अन्त में मैं यहीं कहूँगा  कि मेरा उद्देश्य किसी की कमियों को, कमजोरियों को, रहस्यों को उजागर करके  रस लेना नहीं रहा। हाँ जब इसे लिख रहा था, मेरी आंखों के सामने कोटि-कोटि  संघर्षरत दीन-दुखियों का चित्र बार-बार अवश्य उभर आता था।
 
  तथ्यों का उद्घाटन स्वयं में एक समस्या है। शायद इसलिए मैं महीनों तक आग  के दरिया की धधकती लहरों से जूझता रहा। उन मित्रों का मैं कम आभारी नहीं  जिन्होंने इसके लिए सामग्री जुटाने में हर तरह का जोखिम उठाकर मेरी सहायता  की।   
      -हिमांशु जोशी   
    समय साक्षी है     
    ‘नहीं, नहीं यह नहीं होगा। आइ से न्नो ! दांत पीसते हुए तिमिर  वरन  गरजे। आँखें अंगारे की तरह धधक रही थीं। चेहरा तमतमा आया था। आवेश में  सारा शरीर कांपने-सा लगा था।
  मुट्ठी भींचते वह दहाड़ने लगे ‘मेरी प्रतिष्ठा पर आंच आई तो  सबकी  इज़्जत धूल में मिला दूँगा। देखता हूँ- मुझे मंत्रिमंडल से हटाकर कौन  सत्ता में टिका रहता है !’ अन्तिम चेतावनी देते हुए वह उठे फाइल  बगल  में दबाकर, धोती का पल्लू संभालते हुए फटफट बाहर की ओर चल पड़े।
  उन्हें इस तरह उत्तेजित देखते ही धूप में बैठा ड्राइवर घबरा उठा और सिगरेट  का टोटा फेंकता हुआ गाड़ी की ओर लपका।
  चमचमाती हुई, एक नीली-सी लम्बी कार फर्राटे से गेट की ओर मुड़ी और हवा को  चीरती हुई, वारीन्द्र घोष मार्ग पर निकल पड़ी।
 
  बैठक में भाग लेनेवाले संसदीय दल के सभी सदस्य  क्षण-भर के लिए  सन्न  रह गए। तिमिर वरन का यह विकराल रौद्र रूप सबके मन में एक अजीब-सी दहशत  पैदा कर गया था। एक भयावनी आशंका की कहीं दल विघटन फिर न हो जाए! इस बार  दल के विघटन का अर्थ था। घोर अराजकता, सैनिक-शासन या पूर्ण तानाशाही !
  पर देश इसमें से किसी भी स्थिति के लिए तैयार न था।
  तिमिर वरन के पीछे पन्द्रह बीस और सदस्य उठ खड़े हुए। एक-एक कार में पाँच  छह-छह जन लदकर  उसी दिशा में बढ़े जिधर से तिमिर वरन की विदेश से  आयात की गई, कीमती गाड़ी अभी-अभी गुज़री थी।
 
  सत्तर वर्ष के तिमिर वरन आज न जाने किस तरह एक ही छलांग में तीन-तीन  चार-चार सीढ़ियाँ पार कर गए थे। और दिन थोड़ा-सा पैदल चलने में उनका दम  फूलने लगता था। वह बुरी तरह हांफने लगते थे। आवेश के कारण, आज उन्हें कुछ  भी सूझ न रहा था।
  तीर की तरह वह सीधे बैठक में गए। सचिव बर्मन पीछे-पीछे दौड़ता हुआ आया।  सोफे पर फाइल पलटकर वह धम्म से कुर्सी पर बैठ गए।
  ‘यस्सर’ की भंगिमाव बनाए बर्मन हाथ में स्लिप वाली  सफेद नोट-बुक उठाए, सिर झुकाए सामने खड़ा था।
  ‘जिन संसद-सदस्यों की सूची तुम्हें कल दी थी, उन्हें गाड़ियां  भेजकर  बुलाओ। अबरार से कहो कि एक नया  ड्राफ्ट तैयार करें  फौरन।’
 
  बर्मन चला गया तो उन्होंने एक लम्बी सांस ली। पाँवों को दूर तक पसारा और  टोपी उतारकर मेज़ पर रख दी। देर तक उनका हाथ यों ही टोपी के ऊपर रखा रहा।  फिर उनके गंजे सिर पर पहुँच गया, आँखें मूंदकर वह कुछ सोचने लगे।
  अब भी उनका चेहरा तमतमा रहा था। अब तक उनका दम फूल रहा था। कभी इस तरह  अपमानित किया जाएगा-उन्होंने सपने में भी न सोचा था।
  अभी सुबह के नौ भी न बजे थे-चारों ओर घिरा धुंध-सी फैली थी। नमदे की तरह  मोटे-मोटे घने काले बादलों से आसमान घिरा था। सर्दी के कारण बाहर निकलना  कठिन था। फिर भी सड़कों पर भीड़ कम न थी। साइकलों और कारों की सचिवालय की  ओर कतार-सी चली जा रही थी।
 
  तिमिर वरन देर तक उसी मुद्रा में बैठे रहे। उनके विरुद्ध षडयंत्र का जाल  निरंतर बुना जा रहा है, उन्हें इसका अहसास था। वह जानते थे, दल के लोग  सरकार की नीतियों के कारण बहुत-से छोटे-छोटे गुटों में बट रहे हैं। दूसरी  पार्टियों से भी बहुत-से लोग आ गए थे। जिनका एक अलग समुदाय बन रहा था। वे  सत्ता को हथियाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार थे। तिमिर वरन  के लिए यह सबसे बड़ा खतरा था। इस चुनौती का सामना करने के लिए उन्होंने भी  कम चाले न चली थीं। अपनी तरफ से कहीं कोई कसर न रखी थी। किन्तु अब पासा  पलट रहा था। धीरे-धीरे तिमिर वरन को शक्तिहीन करने की सुनियोजित योजना चल  रही थी। उप-चुनावों में उनके ही दल के लोंगों ने, उनके समर्थक उम्मीदवारों  को हराने के लिए विपक्ष के उम्मीदवारों का छिप-छिपकर समर्थन किया था। इस  अभियान में उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली थी।
 
  किन्तु तिमिर वरन भी कोई कच्चे खिलाड़ी न थे। विपक्ष के बहुत-से नेताओं से  उनके आत्मीयता के गहरे सम्बन्ध थे। उन्होंने अपने ही दल के कम  सदस्य-उम्मीदवारों की ज़मानते ज़ब्द नहीं करवाई थीं। बहुत-से लोग उनका  आशीर्वीद प्राप्त कर संसद तक पहुँचने में सफल हुए थे। विपक्ष की बेचों  पर  बैठने के बावजूद उन पर अगाध श्रद्धा रखते थे।
  उनका व्यक्तित्व बर्फ से ढके ज्वालामुखी जैसा था। बाहर से जितने  सौम्य-सन्त लगते थे, भीतर से उतने  ही रीति-नीति के धनी  कूटनीतिज्ञ।  खादी के साधारण-से कपड़े पावों में बेडोल की चप्पलें और सिर पर हिम श्रृंग  की तरह जगमगाती शुभ्र स्वच्छ टोपी !  जब वह समाजवाद या गरीबी से  दूर  करने के नारे लगाते थे, तब लगता था, वाकई कोई भुक्त भोगी किसान अपने ही  दुख-दर्द की बातें कर रहा है !
 
  किसान-परिवार में अपने पैदा होने का उन्हें गर्व था।   मौंके-बेमौके  इस तथ्य का उद्घाटन भी भूलते न थे। सोफे से धीरे से उठकर वह कमरे में ही  चहलकदमी करने लगे। कमरे में किसी के भी प्रवेश की उन्होंने मनाही कर दी  थी।
  नई व्यूह-रचना के विषय में वह गम्भीरता से सोचने लगे। उन्हें-इस बार की  पराजय का अर्थ है, राजनीति से पूर्ण संन्यास ! यानी कि उनकी राजनीतिक  हत्या !
 
  राजनीति से हटने से उन्हें एतराज न था। उम्र भी काफी हो गई थी। दस्तखत  करते हुए हाथ कांपते थे। देर तक मीटिंग में बैठना भी कठिन लग रहा था। उस  पर दिन रात टूर प्रोग्राम ! जन भाषाओं में भाषण तथा नित उठ खड़ी होने वाली  नई-नई उलझने ! पर देश सेवा और जनहित के नाम पर वह वर्षों से इन यंत्रणाओं  को सहते आ रहे थे। उनकी अन्तिम आकांक्षा थी कि कभी ऐसा संयोग हो और  जनता  उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर सुशोभित कर, अपने  पर  किए  गए उनके उपकारों का बदला चुकाए तो संभवता वह इस गरीब देश की कुछ सेवा कर  सकेंगे।   

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