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Garhwali Folk Drama, Folk Theater, Community Rituals and Traditional Plays गढ़वा

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Bhishma Kukreti:
          सलूड़ गांव का रम्माण

North Indian Folk Genre Expert Dr.नंद किशोर हटवाल

कल बदरीनाथ के पट खुल रहे हैं। पूरे देश को पता है। लेकिन बदरीनाथ के ही निकट कल ही विश्व का एक विशिष्ट लोकउत्सव भी होने जा रहा है। इस लोकउत्सव का नाम है रम्माण।
यह आयोजन जिला चमोली गढ़वाल की पैनखण्डा पट्टी, जोशीमठ विकास खण्ड के सलूड़-डुंग्रा गांव में कल ही होने जा रहा है इसलिए कल का दिन खास हो गया है। एक ओर बदरीनाथ के पट खुल रहे होंगे दूसरी ओर सलूड़ गांव में रम्माण हो रहा होगा।
रम्माण को 2009 में यू0एन0ओ0 ने विश्वधरोहर घोषित किया है। यह उत्सव सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अपै्रल में आयोजित होता है। इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन होता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है।
रम्माण एक पखवाड़े तक चलने वाले विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक श्रृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, प्रहसन, स्वांग, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। परम्परागत पूजा-अनुष्ठान भी होते हैं तो मनोरंजक कार्यक्रम भी। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है और परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट का करने का मौका भी।
अंतिम दिन (कल 26 अप्रैल) लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। रामायण के इन प्रसंगों की प्रस्तुति के कारण यह सम्पूर्ण आयोजन रम्माण के नाम से जाना जाता है। इन प्रसंगों के साथ बीच बीच में पौराणिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय चरित्रों तथा घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। अंतिम दिन के आयोजन को देखने के लिए क्षेत्र में दूर-दूर से लोग आते हैं और मेला जुड़ जाता है।
रम्माण का आधार रामायण की मूलकथा है और उत्तराखण्ड की प्रचीन मुखौटा परम्पराओं के साथ जुड़कर रामायण ने स्थानीय रूप ग्रहण किया। रामायण से रम्माण बनी। धीरे-धीरे यह नाम पूरे पखवाड़े तक चलने वाले कार्यक्रम के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा।
आयोजन की शुरूवात-
इस आयोजन की शुरूवाल बैसाख की संक्रांन्ति अर्थात विखोत (बैसाखी) से मानी जा सकती है। बैसाख की संक्रांति को भूम्याल देवता को बाहर निकाला जाता है। 11 फीट लम्बे बांस के डण्डे के सिरोभाग पर भुम्याल देवता की चांदी की मूर्ति को स्थापित किया जाता है। मूर्ति के पीछे चौंर मुट्ठ (चंवर गाय के पूंछ के बालों का गुच्छा) लगा होता है। लम्बे लट्ठे पर ऊपर से नीचे तक रंग-बिरंगे रेशमी साफे बंधे होते हैं। इस प्रकार भुम्याल देवता का उत्सव रूप या नृत्य रूप तैयार कर दिया जाता है। इसे ‘लवोटू’ कहते हैं। धारी भुम्याल के लवोटू को अपने कंधे के सहारे खड़ा कर नाचते हैं।
तीसरे दिन अर्थात 3 गते बैसाख से दिन में भूम्याल देवता गांव भ्रमण पर जाता है। भूम्याल का यह ग्रामक्षेत्र भ्रमण पांच-छै दिन में पूरा होता है।
रात्रि को भी आयोजित होते हैं कार्यक्रम
बैसाखी के तीसरे दिन की रात्रि से लेकर रम्माण आयोजन की तिथि तक हर रात्रि को भूम्याल देवता के मंदिर प्रांगण में मुखौटे पहन कर नृत्य किया जात है। ये मुखौटे विभिन्न पौराणिक, ऐतिहासिक तथा काल्पनिक चरित्रों के होते हैं। स्थानीय तौर पर इन मुखौटों को दो रूपों में जाना जाता है। ‘द्यो पत्तर’ तथा ‘ख्यलारी पत्तर’। ‘द्यो पत्तर’ देवता से संबंधित चरित्र और मुखौटे होते हैं और ‘ख्यालारी पत्तर’ मनोरंजक चरित्र और मुखौटे होते हैं। कुछ परम्परागत मनोरंजक कार्यक्रम भी दिखाये जाते हैं और कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी सम्पन्न होते हैं।
मुखौटों के क्रम में सबसे पहले ‘सूर्ज पत्तर’ (सूर्य का मुखौटा) आता है। इसी रात कालिंका और गणेश पत्तर भी आते हैं। चार गते राणि-राधिका नृत्य होता है। यह नृत्य कृष्ण और राधिकाओं (गोपियों) का माना जाता है। इसी के साथ-साथ अगली रात्रि से क्रमशः मोर-मोर्याण, (महर और उसकी पत्नी), बण्या-बण्यांण-चोर, (व्यापारी, उसकी पत्नी और चोर), बुड़देबा, राजा कन्न (कानड़ा नरेश या कांगड़ा नरेश), गान्ना-गुन्नी, ख्यालारी आदि पत्तर आते हैं। इन पत्तरों के आने का एक परम्परागत क्रम निर्धारित है। किसी एक रात गोपीचंद नृत्य भी आयोजित किया जाता है।
‘स्यूर्तू’ की रात-
रम्माण की पूर्व रात्रि को ‘स्यूर्तू’ होता है। ‘स्यूर्तू’ का अर्थ है सम्पूर्ण रात्रि कार्यक्रम। ‘स्यूर्तू’ की रात्रि को सभी पत्तर आकर नृत्य करते हैं। इस रात पाण्डव नृत्य भी होता है। इस रात्रि रम्माण के बाजे लगते हैं तथा इस पर रम्माणी नाचते हैं। इसमें अठारह साल से कम उम्र के वे बच्चे भी नाचते हैं जिन्हें दूसरे दिन आयोजित होने वाले मुख्य रम्माण मेले हेतु राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के रूप में चयनित किया जाना है। इसी ‘स्यूर्तू’ की रात को मल्लों का भी चयन होता है। ढोल वादक अन्य लोगों के सहयोग से इनका चयन करते हैं तथा यही दूसरे दिन होने वाले रम्माण में पात्र के रूप में भूमिका निभाते हैं।
अंतिम दिन होता है रम्माण का आयोजन-

अंतिम दिन होता है रम्माण का आयोजन। यह दिन में होता है। आयोजन स्थल वही पंचायती चौक, भुम्याल देवता का मंदिर प्रांगण। इस दिन रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। ये प्रसंग हैं-राम लक्ष्मण जन्म, राम लक्ष्मण का जनकपुरी में भ्रमण, सीता स्वयंबर, राम वनवास, स्वर्णमृग वध, सीता हरण, हनुमान मिलन, लंका दहन तथा राजतिलक। रामायण के इन प्रसंगों का प्रस्तुतिकरण सिर्फ नृत्य के द्वारा किया जाता है। यह नृत्य ढोल के तालों पर होता है। सर्वप्रथम राम-लक्ष्मण मंदिर प्रांगण में आकर नृत्य करते हैं। यह नृत्य पांच तालों में किया जाता है।
प्रत्येक नृत्य प्रस्तुति के बाद रामायण के पात्र विश्राम करते हैं। इसी बीच अन्य पौराणिक, ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र आकर अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। ये पात्र हैं- म्वौर-म्वार्याण, बण्यां-बण्यांण-चोर, बाघ, माल (मल्ल) कुरज्वोगी इत्यादि। बीच बीच में भुम्याल देवता का ‘लवोटू’ भी नचाया जाता है।
ऐतिहासिक पत्तरों में बण्यां-बण्यांण तथा माल विशेष आकर्षण के केन्द्र होते हैं। बण्यां-बण्यांण के बारे में कहा जाता है कि ये तिब्बत के व्यापारी थे जो कि गांवों में ऊन बेचने आते थे। एकबार उनके पीछे चोर लगे और उनका पैसा और माल लूट कर ले गये। इस किस्से को नृत्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। माल पत्तर गोरख्याणी के समय (सन् 1804-14) स्थानीय योद्धाओं के द्वारा गोरखों से युद्ध की घटना प्रस्तुत करते हैं। इनमें दो माल (मल्ल) स्थानीय और दो गोरखे माने जाते हैं। इस नृत्य के समय प्रयुक्त की जाने वाली एक तलवार और ढाल गोरखों से छीनी गयी बतायी जाती है। दोनों पक्षों में एक-एक माल के पास बारूद भरी बंदूक भी होती है। इसके अलावा खुंखरी, ढाल, तलवार को हाथ में लिये माल नाचते हुए चुनौती, वीरता, बल प्रदर्शन की अभिव्यक्ति करते हैं। अंत में बंदूकों की हवाई फायर के साथ दुःशमन पर विजय का ऐलान करते हुए यह नृत्य समाप्त होता है।
इसके बाद ‘कुरू ज्वोगी’ आता है। यह फटे तथा गंदे कपड़े पहने होता है। इसके सारे कपड़ों पर ‘कुरू’ (एक प्रकार का कांटेदार कपड़ों पर चिपकने वाला फूल) लगा होता है। उसके कपड़ों से ‘कूरू’ निकाल-निकाल कर लोग दूसरों पर फेंकते हैं। कुछ देर हंसी-ठिठोली और व मारने-बचने का खेल चलता है।
अंत में नरसिंह पत्तर आता है। नरसिंह पत्तर इनसे सम्बन्धित पौराणिक कथा को नृत्य द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। अंत में कुछ देर तक भूम्याल नचाने हैं।
रम्माण की पूरी प्रस्तुति में कोई संवाद नहीं होता है। ढोल के तालों में नृत्य के साथ भावों की अभिव्यक्ति की जाती है।
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Bhishma Kukreti:

--- Quote from: Bhishma Kukreti on November 22, 2013, 08:17:11 PM ---Dissimulation Sentiment in Garhwali Folk Dramas, Folk Rituals, Community Theaters, and Traditional Plays

                   गढवाली लोक नाटकों / लोक  गीतों में    अवहित्थ     भाव

Review of Characteristics of Garhwali Folk Drama, Folk Theater/Rituals and Traditional Plays part -45

                                    Bhishma Kukreti

                According to Bharat’s Natyashastra (7/79); dissimulation sentiment is demonstrated in drama by irrelevant talk, looking down, broken speech and pretended patience
        Dissimulation sentiment in drama is to show the deceptive quality of a character. To show dissimulation characters the performer changes the subject of talk immediately, speaks differently or irrelevant talks.
          I remember a mini Garhwali folk drama played by Badi-Badan in Jaspur, Malla Dhangu, Pauri Garhwal, North India in the month of Chait (15th March-14th April) in 1964-65. 
                     एक गढवाली लोक नाटक में अवहित्थ     भाव
 पंडी जी (व्यासपीठ से ) - सुणो ! चोरी करण माहापाप च। चोरी करण से नरक मिल्द ।
एक शिल्पकार (दर्शक दीर्घा से भैर  )- पण पंडी जी परसि त तुम गलादार  जीक मूळा चुराणा छया। 
पंडी जी ( इना उना दिखद )- ऊँ ऊँ  …मूळा … की चोरी चोरी नि बुले जांद। चलो अब कृष्ण सद्भामा विवाह की कथा सुणो
   In this mini drama a Pundit is preaching about the sins of theft. Suddenly a Shilpkar reminds the Pundit that day before Pundit Ji was stealing radish from village council chief.
Pundit replies that stealing radish is not theft. The role of Pundit was played by a Badi was marvelous in showing the sentiment of dissimulation. Performer (Badi) was able to show concealing the intensions. 
  Badis (a professional class –caste) were great dramatists to show the negativity in the society.


Copyright@ Bhishma Kukreti 22/11/2013

Review of Characteristics of Garhwali Folk Drama, Community Dramas; Folk Theater/Rituals and Traditional to be continued in next chapter.

                 References
1-Bharat Natyam
2-Steve Tillis, 1999, Rethinking Folk Drama
3-Roger Abrahams, 1972, Folk Dramas in Folklore and Folk life 
4-Tekla Domotor , Folk drama as defined in Folklore and Theatrical Research
5-Kathyrn Hansen, 1991, Grounds for Play: The Nautanki Theater of North India
6-Devi Lal Samar, Lokdharmi Pradarshankari Kalayen 
7-Dr Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas part 1-12
8-Dr Shiva Nand Nautiyal, Garhwal ke Loknritya geet
9-Jeremy Montagu, 2007, Origins and Development of Musical Instruments
10-Gayle Kassing, 2007, History of Dance: An Interactive Arts Approach
11- Bhishma Kukreti, 2013, Garhwali Lok Natkon ke Mukhya Tatva va Charitra, Shailvani, Kotdwara
12- Bhishma Kukreti, 2007, Garhwali lok swangun ma rasa ar Bhav , Chithipatri
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