अधूरे ख़्वाबों के संग
अधूरे ख़्वाबों के संग मै उकतात रहता हूँ
ना जाने किस कि तलाश में मैं अब भी
अक्सर घर से बाहर निकल जाता हूँ मैं
लोकतंत्र के वो बंद दरवाजें
क्या मुझे दिखातें हैं क्या मुझसे छुपातें हैं
अक्सर उन के उन वादों में फंस सा जाता हूँ मै
गांव विकास करेगा कभी ऐसा लगता था मुझे
जब छतों पर बैठकर मैं अपनी जुल्फें सूखता था
अक्सर उन दिनों की याद में अब भी रो जाता हूँ मैं
मिलकर बैठें दुःख सुख बांटे अब हमदोनों
अब अपने पास इतना वक्त भी बचा है क्या ?
अक्सर जीवन की आपा-धापी में हम सब खो जाते हैं
फ़ुर्सत कभी मिलेगी तो आईने पास बैठ पूछूंगा
शहर के मौसम से जब गांव का हाल में जानूंगा
अब भी मुझे लगता है वो मुझे सच ना बताएगा
मंगल से ले के चाँद के दर तक पहुँच गया हूँ मैं
तू भी देखले अपने भीतर के कोने से कितना दूर गया हूँ मैं
आज भी लगता है घर अपने शायद देर से पहुंचूंगा मैं
ख़त्म करना चाहता हूँ किस्सा खत्म होता नहीं
सासों की इस लड़ाई का क्यों कर अंत होता नहीं
शब्द सो जायेगे जब मेरे क्या मैं भी सो जाऊंगा
अधूरे ख़्वाबों के संग मै उकतात रहता हूँ
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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