Author Topic: Garhwali Poems by Virendra Panwar Ji- वीरेन्द्र पंवार जी की लिखी कविताये  (Read 35627 times)

Bhishma Kukreti

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        Geet Gaun Ka: Garhwali Lyrics Caring, Concern for Society and Environment           
                  Critical Review of Garhwali Literature- 2287
                     (Review of Modern Garhwali Literature series)
  Review of Garhwali Lyric Collection ‘Geet Gaun Ka’ by Virendra Panwar
           Review by: Bhishma Kukreti (Regional Language Promoter)
              The Asian legend singer Narendra Singh Negi rightly said that present lyric collection will fill the gap of no or less lyrics in present n Garhwali Poetic world. Virendra Panwar is famous Garhwali poet and critics. The present lyric collection is about showing his concern for society, geographical and human environment. The lyric collection has freshness and lyrics are capable inspiring readers to think.
            There are fifty four (54) lyrics in ‘Geet Gaun Ka’. The subject of each lyric is having different subject as worshipping (Sarswati vandana), new changes in Garhwal (Gadhwal Badalgya); philosophy of life (Pani); curses of alcohol consumption increase (Ghughti Ghuara Ghura); Political betrayal (Gairsain Dur); climate changes and its effects on society (Kafal); High urbanization and centralized administration in Uttarakhand (sabi Dhani Dehradun) and so on.  As Indian legend singer Narendra Singh Negi said that there is least love song in this collection of Virendra than other burning issues of common men.
  The lyrics are outcome of lyrist own experiences of rural Garhwal. The lyrics are easily readable and understandable. Definitely readers would like to sing the song.
                  देवभूमि का सिपै
देवभूमि का सिपै छां , यांका  काम औंला झम्म,
जान चा चली     जाउ , मान हम बढ़ौला झम्म। 
            नखरौं वाळि
अळका - जळकि इन निलाणी नखरौं वाळि,
बिगरैलो ज्यू च तेरु ,         माया रौंत्याळि ।

           Virendra had been in his best for using old and newer phrases. Virendra Panwar uses figure of speeches and metaphors for offering speed to his poetries.
     उत्तराखंडी  जाग तू,
 घाम ऐगि भैर कखि ,उत्तराखंडी  जाग तू,
ह्वे नि जा अबेर कखि ,उत्तराखंडी  जाग तू।
Xxx                xxx
                 कत्ति जगौं सोर
कत्ति जगौं सोर छन ,
लाटा  काला गोर छन।
             टल्ली भित्र , सल्लि भैर ,
              यु हमारा सगोर  छन।

 Poet has uses symbols and imagery for making lyric lucid and is successful.
Conclusively, the Lyric Collection ‘Geet Gaun Ka’ is easily readable and enjoyable too. The lyrics provoke readers to think about society and environment too.
  The present lyric collection by Virendra Panwar is important collection for Garhwali Poetic World.

        Geet Gaun Ka
Garhwali Lyric Collection
Poet- Virendra Panwar
Pages – 54 lyrics and 92 pages
Price- Rs 150
Publisher -Winsar Himalaya, Dispensary road, Dehradun
Contact Virendra Panwar 09897840537, Virendra.pauri@gmail.com 

Copyright@ Bhishma Kukreti 12/10//2014
Bhishma Kukreti, 2013, Angwal, Garhwali Kavita Puran (History of Garhwali Poetry) Dehradun, India 
Critical Review of Garhwali Literature to be continued…
Critical Review of Garhwali Poetry Collection to be continued…
XX
Geet Gaun Ka: Garhwali Lyrics Caring, Concern for Society and Environment; Poetry / Lyric Collection Review of Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of Garhwali Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of Uttarakhand Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of Central Himalayan Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of Himalayan Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of North Indian Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of Indian Regional Language; Poetry / Lyric Collection Review of South Asian Regional Language;               

Bhishma Kukreti

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आणा-भ्वीणा ’पीछे छूटते समय की एक समळऔण

Bhishma Kukreti

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पुस्तक समीक्षा

‘आणा-भ्वीणा ’पीछे छूटते समय की एक समळऔण

                                                                             वीरेन्द्र पंवार

                                                                                     

आणा-भ्वीणा का शाब्दिक अर्थ है पहेलियाँ। सुधीर बर्त्वाल गढ़वाली भासा और साहित्य के लिए नया नाम है, लेकिन*आणा-भ्वीणा* नाम से गढ़वाली में पहेलियो को प्रकाशित कर उन्होंने सराहनीय कार्य किया है। मेरी दृस्टि में गढ़वाली में पहेलियों का ये पहला संकलन है ! इससे पूर्व कहावते और मुहावरों के संकलन प्रकाशित हुवे हैं। गढ़वाली भासा एवं साहित्य में इस महत्वपूर्ण अवदान के लिए सुधीर बर्त्वाल बधाई के पात्र हैं। असल में आणा-भ्वीणा पीछे छूटते समय की एक समळऔण हैं।

            लोकसमाज में आज विज्ञानं, टेक्नॉलॉजी, मोबाइल,इंटरनेट और संचार के तमाम संसाधनों की घुसपैठ के बाद भले ही इन् पहेलियों का अस्तित्व कहीं खो सा गया है, बावजूद इसके इनका महत्व है। गढ़वाल के जीवन में संघर्ष,विरह और करुणा व्याप्त रही है,युगों तक यहाँ का लोकजीवन प्रायःस्थिर रहा है, आज की भांति उसमे गतिशीलता कम रही है। पहेली पर्वतीय लोकसमाज के उसी युग का प्रतिनिधित्व करती है। इन्में गढ़वाल के लोकजीवन की झलक देखि जा सकती है। सुधीर बर्त्वाल ने ऐसी विधा का डॉक्यूमेंटेशन किया है,जो साहित्य का हिस्सा भले ही न रही हो, भले ही ये टाइम-पास का  साधन रही हों, लेकिन पहेलियाँ लोकरंजन के साधन के रूप में लोकसमाज का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं ।कालान्तर में पहेलियाँ लोकसमाज में काफी प्रचलित रही। इन् पहेलियों की उपस्थिति दर्शाती है परिस्थितयां कैसी भी रही हों,पर्वतीय लोकसमाज में ज्ञानार्जन करने की विधियों की आकांक्षा बलवती रही।

           पहेलियाँ लोकसमाज की अपनी परिकल्पना पर आधारित रचनाएँ हैं, जिनमें  प्रश्न सीधे न पूछकर प्रतीकों को माध्यम बनाकर पूछे जाते हैं। इनका सृजन प्रायः मनोविनोद के लिए किया गया, इन् पहेलियों में तर्क और विज्ञानं के बजाय इनको लोकरंजन के एक उपकरण के रूप में अधिक देखा जाता है,इनका उपयोग बुद्धि चातुर्य की परख के रूप में किया जाता रहा है। लेखक ने एक जगह लिखा भी है की कभी कभी पहेलियों के प्रतीक सटीक नहीं बैठते,कभी कभी मजाक में ही सही वाद-विवाद की नौबत आ जाती है।

 ये पहेलियाँ मौखिक रूप में रही, परन्तु युगों तक जिन्दा रहीं। सभ्यता के इस दौर में संस्कृति के ये पदचिन्ह पीछे छूटते नजर आ रहे हैं, अभी भी इन् पहेलियों को समग्रता के साथ उकेरा नहीं जा सका है। आज ये पहेलियाँ प्रायः लुप्ति के कगार पर हैं । आज के समय में संकलन का यह कार्य श्रमसाध्य ही नहीं कठिन भी है, क्योंकि पुरानी पीढ़ी की मदद के बगैर यह कार्य सम्भव नहीं है। और पुराने जानकार लोग अब कम रह गए हैं। जिनको पहेलियाँ कंठस्त याद हों। ऐसे समय में सुधीर ने इनको उकेरने सहेजने ,संजोने का कार्य किया है। समझा जा सकता है की एक युवा रचनाकार के लिए यह चुनौती भरा कार्य रहा होगा।

लोक समाज में इन् पहेलियों का चलन और इनकी उपस्थिति एक सुखद अनुभूति देते हैं। संकलन में लगभग ४२९ पहेलियां संकलित हैं,१०० मुहावरे १०० कहावतें संकलित की गयी हैं।गढ़वाली के शब्द-युग्म एवं ब्यावहरिक बोधक शब्दों का संकलन कर लेखक ने इस कृति को दिलचस्प बना दिया है।पहेलियों के रूप में लोकभासा प्रेमियों के लिए आणा-भ्वीणा एक अच्छी सौगात है। संकलन में तल्ला नागपूरया भासा अपनी रवानगी पर है।संस्कृति प्रकाशन अगस्तमुनि की साफ़ सुथरी छपाई ने इस संकलन को ख़ूबसूरत आकार दिया है।पुस्तक की कीमत १०० रुपए है। लेखक सुधीर बर्त्वाल  का  फोन नंबर ९४१२११६३७६।

Bhishma Kukreti

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गांव की माटी की सोंधी महक से लबरेज कविताएँ

                                                               *वीरेन्द्र पंवार*

गणेश खुगसाल गणी गढ़वाली भासा के लोकप्रिय और सशक्त कवि हैं। वुं मा बोली दे उनकी प्रकाशित होने वाली पहली काव्यकृति है।शीर्षक का अर्थ है उनसे कह देना । किस से कहना है और क्या कहना है ये पाठक स्वयं तय करें। संग्रह की कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सोंधी महक से लबरेज हैं। सांस्कृतिक क्षरण को प्रतिबिंबित करती ये कविताएँ,सोचने पर विवश करती हैं।

     बकौल कवि वे वर्ष १९८६-८७ से कविता लिख रहे हैं परन्तु उनका पहला काव्य संग्रह अब प्रकाशित हो रहा है। कविताओं को पढ़कर कहा जा सकता है की देर आए दुरस्त आए। हालाँकि इस देरी के लिए उन्होंने अपने अंदर के डर को कारण बताया है न हो क्वी कुछ बोलु। लेकिन पुस्तक छपने के बाद का बड़ा डर कि न हो क्वी कुछ बी नि बोलू। जो कि गढ़वाली रचनाकारों के साथ प्रायः होता रहा है। बाद का डर इसलिए क्योंकि गढ़वाली भासा साहित्य में समीक्षा का प्रायः अभाव सा है।

      गणी संवेदनाओं की अभिब्यक्ति का कवि है। गणी जी की काव्य वस्तु में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि प्रमुख आधार रही है। लोक परम्पराओं की गहरी समझ रखने वाले इस कवि का भासा पर अधिकार उसकी पहचान का परिचायक भी है। ठेठ पारम्परिक शब्दों से सुसज्जित और सांस्कृतिक सोपानों की अभिव्यक्ति उनकी काव्य भासा का प्रमुख गुण है।उनकी रचना के केंद्र में गाँव और गावं की पहचान है।गावों का जीवन है, लोक परम्पराएँ हैं।                                                                                   गणी उन चुनिंदा रचनाकारों में शामिल हैं जिन्होंने गढ़वाली कविता को नए आयाम दिए। रोजगार की तलाश में गावों से पलायन  के कारण पहाड़ का लोकजीवन प्रायः नारी के इर्द गिर्द केंद्रित रहा है। इसलिए गढ़वाली साहित्य में नारी का नायकीय स्वरुप में अच्छा खासा प्रतिनिधित्व दिखाई देता है। पहाड़ में उम्रदराज होने  पर भी माँ का खेत खलिहान में काम करते हुए खपना उसकी जीवटता है या मजबूरी अक्सर यह तय कर पाना आसान नहीं होता । पहाड़ में माँ से ही जीवन और जीवन संघर्ष शुरू होते हैं और शुरू होती है गणी की कविता भी। माँ को नमन करते हुए वह कहते हैं कि-

त्यारा खुंटों कि बिवायुं बटी  छड़कदु ल्वे, पर तु न छोड़दी ढुंगा माटा को काम,

आखिर कै माटे बणी छै तू ब्वे।

और एक बेटी जो संघर्षों से लड़ते हुए अपनी अलग पहचान बना रही है -

खुला आसमान मा साफ़ चमकणी  छन ,

यी ब्यटुली जो खैरी बिपदा बिटि ऐंच उठणी छन।

घटनाओं को देखने समझने का उनका अपना एक कोण है एक भिन्न दृष्टि है। कूड़ी अर्थात घर मकान जैसी निर्जीव चीज में वे प्राण डालते हैं तो कूड़ी के मालिकों के पांव उखड़ते दिखाई देते हैं। वे इस दर्द को महसूसते हैं।

जब बोल्ण पर आन्दन कूड़ी त अदमयूं से ज्यादा बोल्दिन। यूँ कुड्युं की जन्दरी बोनी कि सर्य कूड़ी पोडिगे हम उन्द,पर हम अज्युं बी अप्डी जगा मा छौं।

कूड़ी तो अपनी जगह पर है पर कहाँ है आदमी।  केदारनाथ त्रासदी को आस्था से जोड़ते हुए वे भगवान को भी नहीं बक्शते। वे प्रायः उन परिस्थितियों से भी कविता निकाल लाते हैं जहाँ से लगता है कि शब्दों का प्रवाह थम सा गया है। एक छोटी कविता में बेटी की बिदाई के सूनेपन को वे शब्दों से भर देते हैं।

व त चलिगे पर यख छन वींका गीत  अर वींकै गीतुल गूंज्युं छ सर्य गौं।         

कवि की नजर सांस्कृतिक स्वरुप में आते बदलाव को शिद्दत्त से महसूस करती है।

ब्योला ब्योलि की जूठा बिठी देखिकी ऐगे अपणा ब्यो की याद।

उनकी कविताएँ आस भी जगाती हैं जब वे माँ के लिए कहते हैं ^ मिन तेरी आँख्यूं मा देखि लकदक बसंत। माँ की आँखों की यही चमक पहाड़ की सकारात्मकता को बनाये रखती है। यही चमक इंसान के अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा करती है। कवि गावं को पहले की तरह स्वावलम्बी और जीवंत देखना चाहता है, जिस रूप में गावं रहा है।यही उम्मीद कहती है कि अप्डी चून्दी कूड़ी छाणौ मि जरूर औंलू।

औरों से अलग गणी की खासियत यह रही है कि उनकी कविताओं में पलायन का दर्द मौजूद होने के बावजूद उसमे प्रलाप नहीं है। पलायन किस तरह से चीजों को प्रभावित कर रहा है ब्यंग करती हुयी कविताएँ उसके असर टीस और चीस को बड़ी शालीनता से अभिब्यक्त करती हैं। भूमिका में सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी लिखते हैं कि वैकि कविता भौत संवेदनशील छन,भावुक छन,इल्लै रुल्लै  दिंदीन,त दगड़ै छोटी छोटी कविता बड़ा-बड़ा सवाल खड़ा कै दीन्दन।

पहाड़ आज उस दोराहे पर खड़ा है जहाँ से पीछे देखते हैं तो लगता है कि कुछ भी बचा नहीं है और आगे बढ़ते हैं तो लगता है की पीछे बहुत कुछ छूट रहा है। एक तरह  से ये कविताएँ बीतते समय और रीतते मनुष्य की पीड़ा के शब्द हैं। वे भितर कविता में कवि सचाई स्वीकार करता दीखता है की गावं से पलायन कर चुके लोगों के लिए गावं के सरोकार बस इसी पीढ़ी तक सीमित हैं। नई पीढ़ी के लिए गावं एक सिर्फ एक कूढ़ी भर है।ऐसे में अपनी ब्यथा भी किस से कही जाय।

लेकिन इतनी प्रतिकूलताओं के बावजूद भी कवि आश्वस्त है की कुछ न कुछ जरूर होगा। इसीलिए प्रतीकात्मक रूप से वह कहता है की गावं में आ रहे परिवर्तनों के बारे में उनसे कह देना। ये उनसे  कौन है प्रश्न ये है। कवि का इशारा पहाड़ के नीति निर्धारकों की ओर हो सकता है।

कवि की नजर सांस्कृतिक सोपानों पर तो है ही, कवि ने कहावतों के जरिये ब्यवस्था पर तीखे ब्यंग भी किये हैं। नि बिकौ बल्द,जुत्ता,पोस्टर, जब बिटी,सिलिंडर गढ़वाली में नई दृस्टि की कविताएँ हैं। जुत्ता कविता मंच पर काफी लोकप्रिय है। जब बिटि मेरा गौं को एक आदिम मंत्री बण जैसी रचना दर्शाती है कि गावों में राजनीती के प्रवेश  ने गावं के मूल ढांचे की चूलें किस कदर हिला कर रख दी हैं।

कविताओं से गुजरतें हुए मुझे लगता है कि इस पुस्तक के प्रारम्भ से लेकर थौळ शीर्षक तक की कविताओं के तेवर कमोबेस एक समान हैं। यहाँ से आगे की कविताओं के तेवर और तल्ख़ हुए हैं,और बुनावट  प्रभावशाली भी। प्रेम की संवेदनाओं से भरी छोटी रचनाएँ गुदगुदाती हैं। इन कविताओं के जरिये गणी कवियों की भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करते दिखाई देते हैं और उसमे कामयाब भी हुए हैं। कविता के सरोकार कैसे हों, यह जानने के लिए नए कवियों के लिए यह एक मानक संकलन है और समकालीन के लिए एक मिसाल। क्योंकि ये कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सोंधी महक से लबरेज हैं। 

संग्रह के बारे में ये अंतिम उदघोष नहीं हैं,कविता इनसे भी आगे जा सकती है। परन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो आनंद और छपछपि कविताएँ पढ़ने से मिलती  है, मन खुस होकर ये तो कहता ही है कि वूं मा बोली दे। ग्लेज़्ड कागज पर  विनसर प्रकाशन की साफ़ सुथरी छपाई में पुस्तक की कीमत १९५ रुपये है।

कवि  गणेश खुगसाल गणी का  फोन नंबर ९४१२०७९५३७।

Bhishma Kukreti

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            बाघ का बोण :दिमाग की कसरत कराती  कविताएँ         
                                  समीक्षा:  *वीरेन्द्र पंवार*
मधुसूदन थपलियाल ने गढ़वाली काव्य जगत में अपनी शुरुवात गजलों से की। अब उनका काव्य संग्रह बाघ का बोण प्रकाशित हुआ है।शीर्षक का अर्थ है  बाघ का जंगल। उत्तराखंड के लिए जल,जंगल,जमीन के मुद्दे अहम रहे हैं।जंगल का एक अर्थ है उसके पालतू पशुओं के लिए चारा पानी की जगह, अर्थात चारागाह। आशाओं और जन आकांक्षाओं की पृष्ठभूमि में बना उत्तराखंड राज्य।लेकिन जनता की नजर में अब्यवस्थाओं के चलते आज ये राज्य बाघ का बोण बनकर रह गया है।ये प्रतीकात्मक बाघ नेता से लेकर सरकारी अमले के रूप में हैं,जो इस नए नवेले राज्य को चर रहे हैं।इन्हीं हालातों के बीच  रची गयी हैं इस संग्रह की मुक्तछंद कविताएँ। पर इन  कविताओं का आनंद लेने के लिए आपको अपने दिमाग की कसरत तो करानी पड़ेगी।
मधुसूदन विशिस्ट  प्रतिभा के धनी हैं।उनका यह संग्रह गढ़वाली काव्य इतिहास में कविता की तमाम स्थापित मान्यताओं और परम्पराओं से अलग  गढ़वाली कविता की पहचान को बरकरार रखते हुए समकालीन हिंदी कविता के समकक्ष एवं  उससे  अलग खड़ा करने की कोशिस करते दिखाई देते हैं। महसूस हो रहा है कि गढ़वाली कविता में मुक्तछंद हिंदी कविता  की तरह दिल की बजाय दिमाग से लिखे जाने की नयी शुरुवात हो रही है।

गढ़वाली की पहली कविता १९०५ मे सत्यशरण रतूड़ी की उठा गढ़वालियों *गढ़वाली* नामक मासिक पत्र में प्रकाशित हुयी। आज ११० साल से ज्यादा के इतिहास में गढ़वाली कविता ने बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं।बीसवीं सदी के प्रारम्भ में तारादत्त गैरोला की पीढ़ी की कविता में भजनसिंह सिंह ने काव्य परंपरा को नया रूप दिया। उस युग में उन्होंने कविता की पारम्परिक खुद (याद या नॉस्टैल्जिया)और खौरी (लोकजीवन के कष्ट या संघर्ष) की धारा में परिवर्तन कर कविता को सामाजिक कुरीतिओं के खिलाफ लड़ने के उपकरण के रूप में इसका प्रयोग किया।बाद में बीसवीं सदी के अस्सी के दशक में पहले कन्हैयालाल डंडरियाल और ढांगा से साक्षात्कार के जरिये नेत्रसिंह असवाल ने गढ़वाली कविता के शिल्प और तेवर को बदलने की पहल की । अब इकीसवीं सदी के दूसरे दशक में मधुसूदन कविता के नए कलेवर एवं तेवर को लेकर प्रकट हुए हैं।
ठेठ पारम्परिक शब्दों का प्रयोग और शब्द शक्ति मधुसूदन की काव्य भासा का प्रमुख गुण रहा है। उनके काव्य में प्रायः गढ़वाली के उन शब्दों की भरमार रहती है,जिनका अर्थ समझने के लिए आम गढ़वाली पाठक को डिक्सनरी का सहारा लेने की आवश्यकता महसूस हो सकती है। उनकी कविताओं की अभिव्यंजना शक्ति चमत्कारिक है- घाम रोज लमडी जांद ब्यखुनीदं।फजल फेर खडु व्हे जांद। और तीसन एक दिन  भूख पकै घाम मा । आदि। मधुसूदन ने कविता के जो बिम्ब खींचे हैं वो अद्वितीय हैं-पीपल की चौंरी मा बैठ्युं बाघ हेरणु च पाखा पर अटग्या गौं थैं। कूढ़ी कविता गढ़वाल में आ रहे परिवर्तनों की ओर इशारा करती है। कूढ़ी अब भ्वींचळ की जग्वाळ मा छ। आज़ादी के ६० साल बाद भी पहाड़ की दशा नहीं बदली।आज भी पहाड़ से रोजगार के लिए सड़क दिल्ली की ऒर ही जाती है।
उनकी कविता सपाटबयानी नहीं है। कविताओं में तीखे चुभते हुए व्यंग्य हैं। मौजूदा राजनितिक परिस्थितियों पर वे लिखते हैं-उल्लू पैंया पर बैठिकी अपणा आँखा घुमैकि सलाह देणु स्याळ तैं। उनकी कविताएँ पर्वतीय लोक के पारम्परिक सरोकारों से गुजरते हुए नए सन्दर्भों से जुड़ती है, यहीं कविता पाठक को रोमांचित करते हुए असरकारक हो जाती है। औरों से अलग मधुसूदन की कवित्ता का मुहावरा ही अलग है।उन्होंने बिम्ब और प्रतीकों को नए आयाम दिए हैं। उनके कुछ बिम्ब देखें- सुपन्यो की कूल(सपनों की नहर), नातों का भारा (रिश्तों के बोझ),अँधेरा बोण(जंगल),सरेल का चुल्लों (शरीर के चूल्हों), सरेल का मुलुक(शरीर के देश),आंख्युं की घचाक (आँखों की चोट),आंख्युं का सल्ली (आँख के उस्ताद)।
टिहरी बाँध को लेकर यहाँ के रचनाकारों ने प्रायः भावनाओं से जोड़कर अभिब्यक्ति दी है।इसके उलट त्रि-हरी कवित्ता के जरिये मधुसूदन लिखते हैं-
गुलाम देश की स्वतंत्र रियासत एक दिन आजाद जरूर होली ,जब सांगल तोड़ीकी बौगलु पाणी। डांडा कांठा धार खाळ बण जाला पाणी का सैणा तप्पड़। वे आगे लिखते हैं-देहरादून बटी दिल्ली तक एक व्हे जाली गंगा जमुना आजादी का बाद। यह एक कवि की परिकल्पना है या रूह कंपा देने वाली कोइ भविष्यवाणी।
उत्तराखंड उर्फ़ उत्तराँचल शीर्सक वाली संग्रह की पैसा वसूल कविता है-
हे भूगोल का भजेड़ अर इतिहास का ठञड़ेढ़ कौम का नान्तिनो  खबर च की देहरादून बटी गैरसैण तक मनस्वाग लग्यां छन। उत्तराखंड की पीड़ा को इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-सैरा उत्तराखंड पर मसूरी खटीमा की नरबलि का हंत्या औणा छन। अर्थात राज्य की मौजूदा हालत देखकर शहीद हुए राज्य आंदोलनकारियों की आत्माएं भी दुखी है। वे आगे लिखते हैं- यो सवाल अज्यूँ बी ज्यूंदो छ रामपुर मा लक्ष्मण किलै मरेनि अर सीता किल्ले हरेंनि तुम थैं यो उत्तराखण्ड चीरहरण का मुआवजा मा नी मिल्युं। सवाल करती और पहाड़ियों के आत्म सम्मान को ललकारती उनकी ये कविता उत्तराखण्ड वासिओं को बहुत दूर और देर तक झकझोरती रहेगी। यह कविता अब तक की श्रेष्ठ कविताओं में शामिल है। 
संकलन की भूमिका में लोकेश नवानी की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण स्थापना है- भविष्य की गढ़वाली कविता बाघ का बोण बटी हिटिकी जाली। ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कहना न होगा कि गढ़वाली कविता हिंदी कविता को आदर्श मानकर आगे बढ़ी। इस संग्रह की कविताएँ हिंदी कविता के उत्कर्ष को छूने में कामयाब होती दिखाई देती है।पिड़ा बर्खिगे,बगछु,भैला,मांड,मनखी होणु असोंगू,हिट्दा हिटदी,निखोळ,अधीत अच्छी रचनाएँ हैं। कुछ छोटी कविताएँ हैं जो असरदार बन पड़ी हैं। ग़ज़ल के बाद उनका यह संकलन लम्बे अंतराल के बाद आया है।वे थोड़ा लिखते हैं पर जो कुछ लिखते हैं, वह अच्छा लिखते हैं।   
संग्रह की कविताओं में पाठक को दुरुहता की शिकायत भी हो सकती है। अक्सर कविताओं में गूढ़ अर्थ छिपे हैं।पुस्तक में मुद्रण कीं कुछ त्रुटियाँ खटकती हैं।शब्द संस्कृति प्रकाशन देहरादून से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य१५० रूपया है। गढ़वाली में मार्केटिंग नेटवर्क विकसित नहीं हो पाया है,इसलिए पुस्तक प्राप्ति के लिए लेखक
मधुसूदन का संपर्क नंबर है ९६२७३६६४१५।
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Garhwali Poems, Garhwali Folk Songs

Bhishma Kukreti

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गढ़वाली हाइकु
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*******वीरेन्द्र पंवार
(1)
जन सुख मा
दुख मा भी उन्नि, ब्वे
जन पहाड़।
(2)
इ डाण्डा काठा
खुदेणा छन भौत
तेरी खुद मा।
(3)
पाच साल मा
तुमारी मुखड़ी ह्वे
तिमला फूल।
(4 )
अपणा घोलु
कबि बौड़ीक आला
उड़दा पन्छी।
(5)
खैचमखैच
कुटुम भयात मा
सदानी रैन्द ।

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