साध्य , असाध्य , कुसाध्य , याप्त व्याधियां
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चरक संहितौ सर्व प्रथम गढ़वळि अनुवाद
खंड - १ सूत्रस्थानम , दसों अध्याय (महाचतुष्पाद ) पद ६ बिटेन - १७ तक
अनुवाद भाग - ७३
गढ़वालीम सर्वाधिक अनुवाद करण वळ अनुवादक - आचार्य भीष्म कुकरेती
(अनुवादम ईरानी, इराकी अरबी शब्दों वर्जणो पुठ्याजोर )
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!!! म्यार गुरु श्री व बडाश्री स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं समर्पित !!!
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यूंमा भौत छन -
रोगो साध्य -असाध्य रूप तै अर साध्य -असाध्य कुण जणगरु विचारूर्वक समय पर जु वैदकी शुरू करदो वो वे कर्म तै अवश्य पुरो करदो अर जु वैद्य असाध्य रोग की चिकित्सा करदो वो धन यश , विद्या की हानि उठांदो। वैकि काट (निंदा ) हूंदी , लोग वैमा चिकित्सा नि करवांदन , अर वाइको व्यवसाय नष्ट ह्वे जांद। ७ , ८।
साध्य रोगों द्वी प्रकार हूंदन - सुसाध्य जु सरलता से भलो हूण वळ अर दुसर कठणता से भलो हूण वळ रोग। असाध्य व्याधि बि द्वी प्रकारै हूंदी - एक जु चिकित्सा तक या कुछ समय,तक शांत रौंदी अर चिकित्सा बंद हूण पर पुनः ह्वे जांद अर दुसर जु चिकित्सा से बि भली नि हूंदी सर्वथा असाध्य। साध्य व्याधियों तीन प्रकार हूंदन - एक अलप साध्य दुसर मध्य साध्य अर उत्कृष्ट साध्य जु असाध्य इ च. यूं म नियत अंतर् नी च - याप्य , साध्य असाध्य व्याधियों तीन भेद हूंदन - अल्पयाप्य , मध्यम याप्य , उतकृष्ट याप्य। ९ -१०।
सुसाध्य व्याधियों प्रकार -
रोगोतप्ति कारण थ्वड़ा होवन ,भौत अधिक या तीब्र न हों , रोगुं प्राथमिक कारण बि हळका ह्वावन। दूश्य रक्त , मांश व धातु दोष वातादि कारण क समान नि होवन ,पित्त का कारण रक्त कुपित नि हो ,रोगोत्पादक वात रोग रोगी की प्रकृति न होव् , वातजन्य रोग प्रकृति न ह्वावो , हेमंत म कफ संचय हूंद हो ,अनूप अंग म /कष्ट साध्य अंग पर रोग नि हुयुं हो ,द्वासो गति एकजिना हो ,रोग नवीन हो , रोगौ दगड़ क्वी उपद्रव नि हो , अर चिकित्सा चरी चरण प्राप्त होवन , रोगोत्प्ती क कारण एकी हो , पूरोसराईल रोग सहन करणम समर्थ हो तो इन रोग तै सुसाध्य रोग बुले जांद। १०- १३।
कृच्छ साध्य रोग लक्छन -
रोग का कारण , रोगौ पूर्वरूप , अर रोगौ रूप स्पष्ट चिन्ह ,माध्यम बल ,संख्या म मध्यम ,बिंडी उपद्रवों से पीड़ित न हो , तो वु रोग कृच्छसाध्य रोग हूंद। गर्भवती , वृद्ध अर बाळ बच्चों रोग कष्ट साध्य हूंदन। अस्त्र , छार अर आग से पीड़ित तै चिकित्सा करदो व्याधि ह्वे जाय ,नया न हो ,जु रोग पुरण हो ,मर्म स्थान , संधि स्थान आदि म जु रोग हों ,एक मार्गगामी ह्वाव ,चिकित्सा चरण अपूर्ण होवन, दोष द्विमार्गी हो ,बिंडी समयो नि हो , अर द्वी दोषों से उतपन्न हो तो वो रोग बि कष्ट साध्य रोग हूंदन। १४ -१६।
याप्य व्याधि का लक्छण -
असाध्य व्याधि , पथ्य , आहार विहार का पालन करण से आयु शेष हूण से व्याधि आप्य हूंदी। कुछ काल तक आराम मिल्द /सेळी पड़ दी , पर थुड़ा सि कारण से पुनः उभर जांद। इन व्याधि तै याप्य व्याधि बुल्दन। १७।
*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ १२६ ब्रिटेन १२८ तक
सर्वाधिकार@ भीष्म कुकरेती (जसपुर गढ़वाल ) 2021
शेष अग्वाड़ी फाड़ीम
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