गोविन्द बल्लभ पंत का निधन ९८ वर्ष की अवस्था में २६ अगस्त १९९६ को हुआ था। अगर वे दो साल और जीवित रहते तो 'जीवेम शरदः शतम' की उक्ति को चरितार्थ करते. आश्चर्य है कि तत्कालीन संचार माध्यमों के लिए उनकी मौत कोई खबर नहीं बन सकी थी. वैसे देखा जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है क्योंकि पंत जी उस युग के साहित्यकार थे जब साहित्य का मतलब सिर्फ साहित्य होता था ,साहित्यबाजी नहीं. यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं कि बहुधा लोग नाम की समानता के कारण उनमें और भारत सरकार के पूर्व गृहमंत्री तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री पं० गोविन्द बल्लभ पंत में भ्रमित हो जाया करते थे. इस बारे में हिन्दी-कुमांऊंनी समाज में तरह-तरह के किस्से कहे-सुने-सुनाये जाते रहे हैं. 'हिन्दी साहित्य कोश' में भी गोविन्द बल्लभ पंत-१ और गोविन्द बल्लभ पंत-२ लिखा गया है. सुखद आश्चर्य है कि इसमें साहित्यकार पंत पहले स्थान पर हैं और राजनेता पंत दूसरे स्थान पर.
२९ जुलाई १८९८ में रानीखेत में जन्मे गोविन्द बल्लभ पंत ने अठारह-उन्नीस उम्र से काव्य रचना आरंभ की. १९१७ में उनके पहले काव्य संग्रह 'आरती' का प्रकाशन हुआ. १९२० में वाराणसी में कालेज की शिक्षा बीच में ही छोड़कर स्वाधीनता समर के सिपाही बन गए और बाबू शिवप्रसाद गुप्त के 'ज्ञानमंडल' से संबद्ध हो गए.इसके बाद मेरठ की 'व्याकुल भारत नाटक कंपनी' में एक वर्ष तक नाटककार के रूप काम किया फ़िर पहाड लौटकर मिशन स्कूल रानीखेत ( आज का 'रानीखेत इंटर कालेज') और प्रेम विद्यालय ,ताड़ीखेत में अध्यापन कार्य किया. पंत जी अध्यापन,अभिनय,लेखन और थिएटर-सिनेमा की दुनिया के बीच अपने मुकाम को तलाशते रहे. उन्होंने पत्रकार के रूप मे 'हिमालय', 'सुधा',' धर्मयुग', 'नवनीत' आदि पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में कार्य किया.महादेवी वर्मा द्वारा ताकुला (नैनीताल) में स्थापित 'उत्तरायण'संस्था में भी सहयोग किया.
उनकी ख्याति मुख्यत: नाटककार और कथाकार के रूप में रही है। उनके नाटकों में 'कंजूस की खोपडी', 'राजमुकुट', 'वरमाला', 'अंत:पुर का छिद्र', 'अंगूर की बेटी', 'सुहाग बिन्दी', 'ययाति' आदि प्रमुख हैं. उन्होंने कई नाटक कंपनियों -व्याकुल भारत, राम विजय, न्यू एल्फ्रेड, पृथ्वी थिएटर्स आदि के लिए नाटक लिखे और अभिनय भी किया. ऐसे नाटकों में 'अहंकार', 'प्रेमयोगी', 'मातृभूमि', 'द्रौपदी स्वयंवर' प्रमुख हैं. पंत जी ने जीवन और जगत के विविध अनुभवों पर कई उपन्यासों की रचना की है जिनमें 'प्रतिमा', 'मदारी', 'तारिका', 'अमिताभ', 'नूरजहां', 'मुक्ति के बंधन', 'फॉरगेट मी नाट', 'मैत्रेय', 'यामिनी' आदि चर्चित रहे हैं. उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में 'विषकन्या' ( एकांकी संग्रह) तथा 'एकादशी' और 'प्रदीप' (दोनों कहानी संग्रह) शामिल हैं. उन्होंने लगभग ७५ वर्षों तक लेखन किया लेकिन १९६० के बाद से वे एक रचनाकार के रूप में चुप ही रहे. अगर उनकी यह चुप्पी टूटती तो संभवत: पुस्तकों की संख्या की दृष्टि से वे महापंडित राहुल सांकृत्यायन के निकट पहुंच जाते.