पहाड़ पुकारता हैby
Dinesh Nayal थम चुकी है बारिश
बस रह-रह कर गीली दीवारों से
कुछ बूँदें टपक पड़ती है
मैं अपनी छत पर जाकर
देखता हूं पहाड़ों का सौंदर्य
कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं
मेरे घर के ठीक सामने के पहाड़ पर
है बाबा नीलकंठ का डेरा
इधर उत्तर में विराजमान हैं
माता कुंजापुरी आशीष दे रहीं
इनके चरणों मैं बैठा हूँ
कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं
बारिश के बाद अब धुलकर
हरे-भरे हो गए हैं पहाड़
सफ़ेद बादलों के छोटे-२ झुण्ड
बैठ गए है इसके सर पर
इस अप्रतिम सौंदर्य को निहारता हूँ
कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं
पहाड ने दिए हमें पेड़, पानी, नदियाँ, गदेरे
ये रत्न-गर्भा और ठंडी बयार
पर पहाड़ का पानी और जवानी
दोनों ही बह गए इसके ढलानों पर
मैं पहाड़ पर नहीं हूँ फिर भी
कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं
पहाड़ को कभी रात में देखा है
हमारी संस्कृति का ये महान प्रतीक
अँधेरे में सिसकता है, दरकता है
पुकारता है आर्द्र स्वर में कि लौट आओ
मैं पहाड़ पर लौट नहीं पा रहा हूँ पर
कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं
ये खुदेडा महीना उदास कर रहा है क्यों
बादल ही तो बरसे हैं फिर
भला आँखें मेरी नम हैं क्यों
पहाड़ रो रहा है, हिचकी मुझे आती है क्यों
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
क्या वाकई खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं
नोट- इस कविता में पहाड़ों से युवाशक्ति के पलायन और पहाड़ का दर्द व्यक्त करने की ये मेरी एक कोशिश भर है| Like · ·
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