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Himanshu Joshi Famous Author -हिमांशु जोशी उत्तराखंड मूल के प्रसिद्ध साहित्यकार

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

हिमांशु जोशी

जोशी की प्रमुख कृत्यों में आठ उपन्यास है! उनके तीन कविता संग्रह है ! इसके अतिरिक्त तो वैचारिक संस्करण तथा दो प्रमुख यात्रा वृतरान्त है ! उन्होंने जीवनी एव खोजपरक साहित्य भी लिखा है ! इसके आलवा उन्होंने रेडिओ नाटक भी लिखे जिसमे " कगार की आग" तथा एकांकी " सु राज तथा अन्य एकांकी "समय की शिला पर" और " इस बार" है!

बाल साहित्य में में उनकी प्रमुख रचनाये है !

१)   तीन तारे
२)  अग्रि संतान (उपन्यास)
३)  हिम का हाथी) (कहानी संग्रह)
४)  भारत रत्ना (गोविन्द बल्लब पन्त)  - जीवनी आदि !

इसके अतिरित उनके सम्पादित कथा संग्रह है

१)  चीड के बनो से !

२)  अँधेरे के विरुद्ध संधिपत्र नहीं

३)  क्ष्रेस्थ समान्तर कहानिया

४)   भारतीय भाषाओ की प्रतिनिधि कहानिया

५)   २५ क्ष्रेष्ठ कहानिया ( दो भाग)

और अप्रवासी हिंदी लेखो की क्ष्रेष्ठ कहानिया (साहित्य अकादमी)

उनके पांच पुस्तके भी सम्पादित की है ! कथा श्तावादी के अंतर्गत गत सौ वर्षो में हिंदी के प्रतिनिधि सौ लेखको की क्ष्रेष्ठ सौ कहानियो का संकलन है !
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
 हिमांशु जोशी संकलित कहानियांहिमांशु जोशी संकलित कहानियां<<प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश   


  हिमांशु जोशी : संकलित कहानियां में कथाकार  द्वारा चुनी गई तेइस कहानियां संकलित हैं। किसी बड़े रचनाकार के पांच दशकों के रचनाकर्म  की पूरी पर्यवस्थिति का अनुमान एक छोटे संकलन में असंभव है, पर संकेत रूप  में यहां पूरे हिमांशु जोशी (1935) को देखा जा सकता है। हर आंदोलन के  पार्श्व में वैचारिक धरातल की अनिवार्यता स्वीकार करने वाले इस कथाकार ने  समांतर कहानी आंदोलन से अपने को इस धारणा से जोड़ा कि वे समाज की दौड़ में  पीछे रह गये लोगों से जुड़ना चाहते थे। आगे चलकर समांतर आंदोलन भले सिमट  गया, पर हिमांशु जोशी सदा उन लोगों से जुड़े रहे, और उस जुड़ाव के पाथेय  से अपनी संवेदना और रचना-यात्रा को विस्तार देते रहे। कल्पना और यथार्थ,  फेंटेसी और वास्तविकता की उलझी हुई परिस्थितियों में  स्वातंत्र्योत्तरकालीन भारतीय नागरिक का जीवन जिस प्रपंच, संशय और आतंक  में बीतता रहा – उनके विस्मयकारी रहस्य इन कहानियों में पूरी तरह  विश्लेषित हैं। कहीं बालमन की जिज्ञासाएं, कहीं स्मृतियों के तार, कहीं  पारिवारिक जीवन का उतार चढ़ाव तो कहीं वंचितों का दुख-दर्द... वस्तुतः  कहीं कहानी जिंदगी लगती है, तो कहीं जिंदगी कहानी। कई पुरस्कारों  से सम्मानित रचनाकार हिमांशु जोशी की कुछ अन्य महत्वपूर्ण कृतियां हैं :  अंततः, मनुष्यचिह्न, गंधर्वगाथा (कहानी संग्रह), सुराज, समयसाक्षी  (उपन्यास) आदि। उनकी कई रचनाएं राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में  अनुदित, प्रशंसित हैं।      भूमिका    पांच दशकों से भी अधिक समय से रचनारत हिमांशु  जोशी का जन्म  4 मई 1935 को उत्तरांचल के जोस्यूड़ा गांव में हुआ था। पिता स्वाधीनता  सेनानी थे जिनके संस्कारों का हिमांशु जोशी के बाल-मन पर गहरा प्रभाव  पड़ा। 
  हिमालय का दुरूह वातावरण, चारों ओर बिखरी विपन्नता, अस्तित्व के लिए घोर  संघर्षों ने उन्हें एक दिशा ही नहीं, दृष्टि भी दी। 
  प्रारंभिक शिक्षा के बाद वह गांव से नैनीताल चले आए। आगे की पढ़ाई के  साथ-साथ कविताएँ लिखने लगे। अनायास इनका रुझान कविता से कहानी की ओर हो  गया और फिर यह कथा-जगत से गहरे में जुड़ते चले गए। कविता छूटी तो नहीं,  लेकिन कवि-रूप को फिर स्वयं भी प्रमुखता से नहीं लिया। यही कारण है कि  इनका एकमात्र कविता-संग्रह ‘अग्नि संभव’ बहुत बाद में  प्रकाशित हुआ। 
 
  इनकी पहली कहानी ‘बुझे दीप’ ‘नवभारत  टाइम्स’ के  ‘रविवासरीय’ में सन् 1955 में प्रकाशित हुई। तब से  सक्रिय यह  कथाकार हिन्दी-कहानी के अनेक आंदोलनों का साक्षी रहा है। इनका विचार है कि  आंदोलनों के पार्श्व में वैचारिक धरातल होनी जरूरी है, अन्यथा यह एक छद्म  को कर रह जाता है। आम आदमी की कहानी तो यह पहले से लिखते चले आ रहे थे,  लेकिन जब ‘समांतर कहानी आंदोलन’ प्रारंभ हुआ तो यह  उससे जुड़  गए। 
  अपने इस दौर के बारे में इनका कहना है कि ‘‘इस आंदोलन  के पीछे  एक दृष्टि तो थी ही कि कहानी आम आदमी से जुड़े। प्रेमचंद की परंपरा से  जुड़े। मैं मात्र इस भावना से आंदोलन से जुड़ा कि समाज की दौड़ में जो लोग  पीछे रह गए हैं, उनकी ओर हम जुड़ कर देखें।’’ 
 
  यह दीगर बात है कि जब समांतर आंदोलन सिमट गया तो सबसे अधिक भ्रमभंग भी  हिमांशु जोशी को ही हुआ। बहरहाल, ‘अंततः’,  ‘मनुष्यचिह्न’, ‘जलते हुए डैन’,  ‘तपस्या  तथा अन्य कहानियां’, ‘गंधर्व गाथा’,  ‘सागर तट के  शहर’ और ‘अगला यथार्थ’ जैसे कहानी संग्रहों  के अतिरिक्त  इनकी कहानियों के विशिष्ट चयन–‘चर्चित  कहानियां’,  ’हिमांशु जोशी की इकहत्तर कहानियां’ भी चर्चा में रहे  हैं।  ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी कोश’ और  ‘बीसवीं  शताब्दी की हिन्दी कहानियां’ जैसे संचयनों में भी हिमांशु जोशी  की  कहानी को स्थान मिला और ‘कथा-क्रम’ में भी। इनके  उपन्यासों  ‘अरण्य’, ‘महासागर’,  ‘छाया मत छूना  मन’, ‘कगार की आग’, ‘तुम्हारे  लिए’,  ‘सुराज’ और ‘समय साक्षी है’ को  भी पाठकों को  पर्याप्त सराहना मिली है। ‘कगार की आग’ का नाट्य मंचन  अनेक  बार हुआ है। इसका अनुवाद कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में हो चुका है। 
  यात्राओं से लगाव रखने वेल हिमांशु जोशी के यात्रा-वृत्त रोचक और पठनीय  हैं। ‘यात्राएं’ और ‘सूरज चमके आधी  रात’ इसके  प्रमाण हैं। ओस्लो विश्वविद्यालय से इनका रचनाकार हॉलडौर  लैक्सनेस’  उल्लेखनीय है। नार्वे की हेनरिक इब्सन संस्था ने इन्हें ‘हेनरिक  इब्सन इंटरनेशनल अवार्ड फॉर लिटरेचर’ से सम्मानित भी किया। हाल  में  ‘अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ से  ‘साहित्यवाचस्पति’ की उपाधि से सम्मानित हिमांशु जोशी  को  ‘अवंति बाई सम्मान’, ‘गणेश शंकर विद्यार्थी  सम्मान’, ‘राष्ट्रभाषा सम्मान’ सहित हिन्दी  अकादमी,  दिल्ली, बिहार राजभाषा, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और केंद्रीय हिन्दी  संस्थान द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। लंबे समय तक  ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में कार्यरत रहे हिमांशु  जोशी ने  अपने पत्रकार और लेखक के बीच एक आदर्श सामंजस्य बिठाए रखा। 
 
  प्रस्तुत 23 कहानियों के विशिष्ट चयन में हिमांशु जी के कथाकार के विविध  रंग-रूप और आयाम देखने को मिलते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने आज से लगभग  पच्चीस बरस पूर्व कभी इनसे जब इनकी कहानी की रचना-प्रक्रिया जाननी चाही  थी, तब इनका जवाब एकदम सहज था–‘‘कभी कोई  विचार अकस्मात  मन के कोने में अटक जाता है और बार-बार, अनेक बार वह उद्वेलित करता रहता  है। वही उद्वेलन जब एक बेचैनी का रूप ले लेता है तो उसे कागज पर उतार कर  ही चैन मिलता है। मैं कहानी गढ़ने पर ज्यादा विश्वास नहीं करता। हां, एक  सूत्र कहीं होता है धुंधला-सा, जब लिखने बैठता हूं... धीरे-धीरे सूत्र  खुलते-सुलझते चले जाते हैं। और फिर अनायास एक कहानी बन जाती  है।’’ 
 
  कहानियों के माध्यम से, दरअसल एक ओर जहां शरत-साहित्य के प्रेमी हिमांशु  जोशी मानव-मन की गुत्थियां खोलते हुए ह्यूमेन कंसर्न को महत्व देते नजर  आते हैं, वहीं प्रमुखतः वह स्वातंत्र्योत्तर भारत की समीचीन समीक्षा भी  करते दिखते हैं। 
  उदाहरण के लिए संगृहीत कहानी ‘जलते हुए डैने’ को ही  लें–शिव ‘दा जैसे जीते-जागते पात्र को कल्पना और  यथार्थ के  सहज मिश्रण से कहानीकार ने प्रामाणिक स्वरूप प्रदान किया है। यहां वह दो  पीढ़ियों का बलिदान चित्रित करते हैं। इस रचना के मूल प्रेरणा-बिंदु बने  विक्टर मोहन जोशी, जो अल्मोड़ा के सुपरिचित क्रांतिकारी स्वाधीनता-सेनानी  थे। अंग्रेजों से संघर्ष करते-करते वह शहीद हो गए थे। देवीधूरा के मेले  में किसी अंग्रेज अफसर ने उन पर डंडों से प्रहार किया था। अंतिम समय तक वह  अपने सिद्धांतों से डिगे नहीं। यदि यह कहानी इतनी भर होती तो एक सामान्य  इतिहास-कथा मात्र होती। रचनाकार ने आपातकाल की यंत्रणाओं की तीव्र  अनुभूतियों को भी इसमें सोद्देश्य शामिल कर नवीन चेतना फूंकी है। यह कहती  है कि भले ही हमें 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता मिल गई, लेकिन यह वास्तविक  अर्थों में स्वाधीनता कहां हैं ! कहां है स्वाधीनता, सुख और समृद्धि ?  इन्हें हासिल करने के लिए एक बार फिर से सच्चाई, त्याग और बलिदान के  रास्ते पर बढ़ते हुए आत्माहुति देनी होगी। 
 
  कहानी की शुरुआत शिव’दा के निधन की खबर पढ़कर नैरेटर के सन्न रह  जाने से होती है। फिर उभर आती हैं स्मृतियां। इनमें पुलिस द्वारा  शिव’दा को पकड़ कर ले जाने के दृश्य तो हैं ही, रमाकांत का  गुस्सा  भी है जो स्वांतत्र्योत्तर भारत पर तीखी टिप्पणी है,  ‘‘अंधेर  है अंधेर ! ऐसा तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं हुआ था। मैं पूछता हूं,  इस भले आदमी का कसूर क्या है ?’’ 
  रमाकांत के पिता गल्ले का लायसेंस छिन जाने के भय से बेटे को चुप करा, घर  के भीतर घसीट ले जाते हैं। कहानी में वर्तमान से अतीत और अतीत से वर्तमान  के बीच खूब आवाजाही हुई है। शिव’दा के बहाने स्वाधीनता-संग्राम  की  स्मृतियां चली आई हैं। यह अपनी भाषा में प्रश्न करती  हैं–‘क्या इसी खोखली स्वतंत्रता के लिए हमने  कुर्बानियां दी  थीं ?’ 
 
  शिव’दा के पिता का संघर्ष, कथा को एक पीढ़ी पीछे ले जाता है।  सेमुअल  रामदास के प्रसंग के साथ सन् 1942 में आंदोलन की छाया नजर आती है समय  गुजरने के साथ ही पिता जैसा ज़ब्बा ले कर तैयार हो उठे हैं  शिव’दा  भी। अध्यापक हैं, सो तो ठीक, लेकिन छात्रों के बीच चेतना भी जगाने लगते  हैं। यह प्रबंधन को रास नहीं आता। शिव’दा संघर्ष करते हैं,  लेकिन  सरकारी सुविधा नहीं स्वीकारते। उनका कहना है कि उनके लिखे कागज ही दरअसल  काल-पात्र हैं। यही आने वाले समय में बताएंगे कि समाजवाद के नाम पर इस देश  में क्या-क्या नहीं हुआ ! किसी भी जेनुइन इंसान की तरह मनुष्य-विरोधी  व्यवस्था में पगला जाते हैं शिव’दा। 
 
  आपातकाल के दौरान हुई उनकी गिरफ्तारी तोड़ कर रख देती है। जहां से शुरू  हुई है कहानी, वहीं समाप्त भी होती है। इस तरह फिर वहीं से प्रारंभ होने  की सामर्थ्य भी रखती है पाठक के भीतर कि क्यों होता है ऐसा ? क्यों नजर  आते हैं मृत्यु के बाद भी शहीद चौक पर शिव’दा लोक-कथा के किसी  नायक  की तरह ?
  ऐसी ही पीड़ा साथ में लिए आई है ‘तपस्या’। रथीन बाबू  जैसे  जाने कितने लोगों ने सोचा होगा कि जब देश आजाद हो जाएगा, तो सब ठीक हो  जाएगा, लेकिन हुआ उलटा ही। आजादी के बाद वह अपने ही घरों में आलोचना के  शिकार हो गए। बड़ी से बड़ी कुर्बानियां देने वाले इन सेनानियों को देश ने  पूछा तक नहीं। 
  रथीन जैसे चरित्र की विशेषता यह है कि उसे अपना मलाल कतई नहीं है। बल्कि  रथीन पत्नी को समझाते हैं, ‘‘तुम अपना दुख देखती हो,  ठीक है,  पर औरों का दुख किस पहाड़ से कम है ?’’ 
 
  यह दरअसल उस मिट्टी से बने इंसान की कथा है जो देश-सेवा का प्रतिदान नहीं  मांगता। समझाए जाने पर भी आदर्शवाद का दामन नहीं छोड़ता। उसके जेहन में एक  ही प्रश्न उछाल मारता रहता है कि ‘वह हिंदुस्तान कहां है जिसके  लिए  हमने कुर्बानियां दी थीं ?’ 
  जीवन के उत्तरार्ध में इस कथानायक की स्थिति मंटों के टोबा टेक सिंह सरीखी  हो जाती है। बस फर्क यह है कि हिमांशु जोशी का यह पात्र आत्मालोचना भी  करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि क्या पता हमारी तपस्या में ही  कहीं कोई कमी रह गई ! शायद इसीलिए यात्रा अधूरी रह गई और अधूरी रह गई  दास्तान। कथांत भावुक जरूर कर देता है, लेकिन है वह सरल, एकरेखीय और  बोधगम्य।
 
  स्वातंत्र्योत्तर भारत में देश को संचालित करने वाली शक्तियों में एक है  ‘समुद्र और सूर्य के बीच’ का कथा-नायक। यहां उस  व्यक्ति की  स्वप्न गाथा सम्मुख है जो कभी नमक सत्याग्रह में सक्रिय रहा था, लेकिन समय  और स्वाधीनता प्राप्ति के साथ वह उन आदर्शों को भुला बैठा जो गांधी जी ने  कभी दिखाए थे। उसकी सोच अब विपरीत दिशा की ओर है कि  ‘‘इस देश  में कभी सत्याग्रह नहीं हुआ था। गांधी नाम का कोई आदमी इस मुल्क में पैदा  नहीं हुआ। जो लोग बात-बात पर इसका नाम लेते हैं, वे सब विक्षिप्त  हैं।’’ 
 
  स्वप्न गाथा उसे कठघरे में खड़ा करती है। उससे उसके भ्रष्ट आचरण पर प्रश्न  किए जा रहे हैं। यह आजाद भारत की समीक्षा का कथात्मक अंदाज है। यहां निहित  स्वार्थों के लिए राष्ट्र की प्रगति दांव पर लगाने वाले चेहरों को बेनकाब  किया गया है। ऐसे में भयातुर कथानायक समय में बदलाव की कल्पना भर से सिहर  उठा है। निजी स्वार्थों के लिए उसकी हर चाल, स्वप्न में खुलती नजर आती है,  चाहे वह जातीयता को बढ़ावा देने वाली हो या क्षेत्रीयता को। ग्लानि में  भरकर अंत में कथानायक की आत्महत्या लेखक के सरोकारों को स्पष्ट कर जाती  है। एकतान ज़बान में सधी यह स्वप्न कथा ऐसा कथा-प्रयोग है जो जन और  जन-प्रतिनिधि–दोनों को सचेत करता है। 
 
  हिमांशु जोशी का कथाकार संवेदना के धागे से बंधा है। यही उसे  ‘अगला  यथार्थ’ सरीखी कहानी में निर्जन द्वीपों के अजनबीपन में भी कहीं  अपनेपन का अदृश्य रिश्ता अनुभव कराता है। यह वस्तुतः एक पोते की, दादा की  खोज में की गई कालापानी की यात्रा भर नहीं है, उसके साथ प्रतीक्षा की  यात्रा झेल रही दादी की पीड़ा का बयान भी है। वह अपने भीतर यह विश्वास लिए  है कि दादा मरे नहीं है। 
 
  दामोदर नामक एक कैदी तो अपने संघर्षों में एक यथार्थ जी गया। अब एक यथार्थ  वह है जो पोता जी रहा है। पूरे आत्मीव लगाव के साथ अपने दादा को वह  कालापानी की कोठरी में खोज रहा है। यहीं वह जान पाता है कि बहुत भले,  किंतु जिद्दी उसके दादा ने कैसे जुल्मों के खिलाफ भूख हड़ताल कर प्राण  त्याग दिए थे। कथा कह जाती है कि क्रांतिधर्म कभी मरते नहीं। उनकी चेतना  उन्हें जिलाए रखती है अगली पीढ़ियों में। भाषा में तरल प्रवाह लिए। यही है  अगला यथार्थ। 
  इन कहानियों में कथाकार का स्वतंत्रचेता नागरिक-मन पूरी लय के साथ खुलता  नजर आता है। अभिव्यक्त की स्वतंत्रता को सर्वोपरि रखते हुए, वह अपने निकट  अतीत से कथा-प्रसंग उठाकर वर्तमान की उदासी को तोड़ते हुए एक स्वस्थ  भविष्य की परिकल्पना करता है। यहां महज अनुभव की प्रामाणिकता नहीं है।  रचनाकर की दृष्टि का बड़ा महत्व है। यही रचना को विशिष्ट आयाम देती है। 
 
  हिमांशु जोशी मूलतः जनसरोकार के कथाकार हैं। संग्रह की अनेक रचनाओं में यह  स्वर खुलता है कि अब भी हम चाहें तो संवेदनाओं को बचाया जा सकता है। 
  जीवन के उत्तरार्ध में एक बुजुर्ग का अंतर्मंथन है  ‘आश्रय’।  वह विचार करता है। कि क्या अब तक जो जिया, वह सार्थक था ? क्या जो अब  किस्तों में जीना है, यानी मर-मर कर, उसकी कोई उपयोगिता है ? संबंध यहां  आश्रय या आश्रित के रूप में बदलते नजर आते हैं। न्यूजर्सी जाकर रह रहे  बेटे-बहू का बर्ताव अपेक्षाओं भरा, किंतु संवेदनहीन है। यहां समय-सत्य  अपने बीहड़ रूप में उपस्थित है। भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं। कहानी की  पात्र कहती है, ‘‘हर बूढ़ा किसी का पापा, दादा तो  होता ही है,  इसमें नई बात क्या है ?’’ 
 
  बेटे और बहू के मध्य संवादों में बुजुर्ग पिता को लेकर द्वंद्व जरूर है।  बेटा तो यहां तक कह जाता है कि वह पापा को मरने के लिए इस तरह नहीं छोड़  सकता, लेकिन कथांत में पिता जैसे स्वयं ही गुत्थी सुलझा देते हैं यह कह कर  कि उन्होंने ‘ओल्ड होम’ में अपने लिए जगह बुक करा ली  है। अपनी  जबान मे खामोश अंदाज में कहानी कह जाती है कि हम कितना क्रूर समय रचते जा  रहे हैं ! पिता की हंसी की ओट में रुदन का करुण स्वर पकड़ लेने वाला बेटा  यह अच्छी तरह से जानता है, लेकिन उसकी खामोशी उसकी विवशता भी बयां कर जाती  है। 
  नातिदीर्घ आकार की ये कहानियां कोई बौद्घिक संजाल नहीं बुनतीं। लेकिन सहज  अंदाज में यह कह जाती हैं कि प्रायः यथार्थ वही नहीं होता, जो नज़र आ रहा  होता है। ‘पाषाण-गाथा’ में कथाकार ने यह सच बड़ी  खूबसूरती से  पकड़ा है। कथा कहती है कि कोई भी इंसान मूलतः बुरा नहीं होता। आवेश के  किसी क्षण में कभी-कभी कुछ का कुछ हो जाता है और हम ऐसा करने वाले को  अपराधी मान बैठते हैं।   

Source : http://vedantijeevan.com/bs/home.php?bookid=7244

Devbhoomi,Uttarakhand:
भारतरत्न पंडित गोविंद वल्लभ पंत
Bharatratna Pandit Govind Vallabh Pant
   

भारतरत्न पंडित गोविंद वल्लभ पंत
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हिमांशु जोशी   <<   आपका कार्ट
पृष्ठ   :    74   <<   अपने मित्रों को बताएँ
मूल्य   :    $2.95 
प्रकाशक   :    नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया
आईएसबीएन   :    81-237-3913-3
प्रकाशित   :    जनवरी ०१, २००२
पुस्तक क्रं   :   479
मुखपृष्ठ   :   -

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पंतजी की जीवनी बच्चों के लिए लिखना मेरे लिए एक तरह की चुनौती रही। सरल, सहज शैली में जीवन-वृत्तांत लिखना आसान नहीं। यों पंतजी पर अब तक अनेक अच्छी-अच्छी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, जो सराही भी कम नहीं गयी हैं। किंतु मुझे लगा कि बच्चों की आवश्यकताएं कुछ और होती हैं। इसलिए मैं चाहता था कि प्रस्तुत पुस्तक अधिक से अधिक बोधगम्य हो और बच्चों के लिए रोचक भी ताकि वे केवल जीवनी के रूप में ही नहीं, इसे एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में भी ले सकें। इसलिए मैं प्रायः उन सारी जगहों पर स्वयं गया, जो पंतजी के जीवन से जुड़ी थीं।

इस कार्य में अनेक लोगों का सहयोग मिला। महीयसी महादेवी वर्मा, श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित, श्री उमाशंकर दीक्षित, श्री कमलापति त्रिपाठी आदि जिन महानुभावों से मिला, उन्होंने मुक्त हृदय से अपना सद्भाव दिया। श्री कृष्णचंद पंत तथा श्रीमती इला पंत को भी यदा-कदा कष्ट देता रहा। यह कार्य न हो पाता यदि श्री जी. एल. बंसल, सचिव, "पं. गोविंद वल्लभ पंत स्मारक समिति" की शुभकामनाएं साथ न रहतीं। अतः इन सब के प्रति आभार!

बच्चों को, जिनके लिए यह पुस्तक लिखी गयी है, यदि पसंद आयी तो अपना प्रयास सफल समझूंगा। - हिमांशु जोशी


http://vedantijeevan.com/bs/home.php?bookid=479

Devbhoomi,Uttarakhand:
हिमांशु जोशी जी की  कुछ और रचनाएँ




एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

हिमाशु जोशी जी पर शोध
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लगभग ३५ शोधार्थियों ने हिमांशु जोशी के साहित्य पर सहोद कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है!  कई विश्वविधालयो में रचनाये पाठ्यक्रम में लगी है!

१) कोरिया में हाकुदू विश्वविधालय,
२) बल्गीरिया में सोफिया विश्वविधालय,
३) इटली में नेपल्स विश्वविधालय
४) दिल्ली विश्वविधालय,
५) जोधपुर विश्वविधालय

इन विश्व विधालयो में भी उनकी रचनाये पढाई जाती है!

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