इस मुद्दे पर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार बटरोही जी का एक लेख पिछले दिनों "अमर उजाला" के सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ था...
पहचान मिटाने की कोशिश
बटरोही
पिछले दिनों खबर आई कि उत्तराखंड में युवाओं के एक वर्ग ने राज्य स्तरीय परीक्षाओं में स्थानीय भाषा, रीति और परंपरा की जानकारी की अनिवार्यता का विरोध किया है। समाचार में राज्य के विभिन्न जातिगत संगठनों का हवाला देते हुए कहा गया कि सरकार राज ठाकरे के नक्शे-कदम पर चल रही है। सिद्धांत रूप में बात गलत नहीं लगती। मगर क्या ठाकरे के मराठी पहचान से जुड़े आंदोलन को इस शासनादेश के समकक्ष रखा जा सकता है? समाचार पढ़ते ही मुझे कुछ महीने पहले अपने साथ घटी एक घटना याद हो आई। सरकार द्वारा संस्कृत को राज्य की दूसरी राजभाषा बनाए जाने की तैयारी से पहले भाषा और संस्कृति का पूरा बजट संस्कृत पर झोंकने के निर्णय पर मेरा एक लेख छपा था, जिसमें मैंने संस्कृत को अतीत की भाषा बताते हुए इस फैसले को युवाओं के साथ अन्याय कहा था। मेरा इशारा उत्तराखंड की दूसरी राजभाषा के रूप में हिंदी और कुमाऊंनी-गढ़वाली, जौनसारी, बुक्सा, थरुआटी आदि उपभाषाओं को प्रोत्साहित करने की ओर था। यह भी कि उत्तराखंड में रहने वाले दूसरे भाषा-समूहों जैसे उर्दू, पंजाबी, भोजपुरी आदि पर भी सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए। इन सभी भाषाओं का दूसरी राजभाषा के पद पर संस्कृत से पहले हक है।
लेख छपते ही मेरे मोबाइल की घंटियां बजने लगीं और करीब दस-बारह दनों तक मुझे लगातार धमकियां दी जाती रहीं। ऐसे उत्तराखंड के बारे में तो मैंने नहीं सोचा था। मगर रहना हमें इसी उत्तराखंड में है, जहां मेरे विरोध के बावजूद संस्कृत को दूसरी राजभाषा बना दिया गया है।
इस बीच ऐसा लगता रहा कि जिस प्रजातंत्र को हमने अपनी सुरक्षा के लिए चुना है, उसमें ऐसे विरोधाभास तो आएंगे ही। जब ऊपर से ही धर्म, जाति और संप्रदायों को मुक्ति के रास्तों के रूप में परोसा जा रहा हो, तो हम अकेले कर ही क्या सकते हैं? जिस घर में रहना है, उसकी बगल से गंदा नाला बहता हो, तो हमें उस दुर्गंध
को सहने की आदत तो डालनी ही पड़ेगी।
इसीलिए बीच का रास्ता अपनाते हुए यह एहसास हुआ कि संकट ही एक दिन उसका उपचार बनकर सामने आता है। आज यही हुआ है। जिस पहाड़ी पहचान को लेकर इस राज्य का गठन हुआ था, उसी के बारे में कहा जा रहा है कि हम उसके पहाड़ीपन की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करते। और ऐसा भावुकतावश नहीं कहा जा रहा है। वे जानते हैं कि उनके पास नए परिसीमन का ब्रह्मास्त्र है, जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। पहाड़ी क्षेत्रों के विधायकों की संख्या तो मुख्यमंत्री नहीं बना सकती, इसलिए मैदानी क्षेत्रों के लोग जैसा चाहेंगे, वैसा ही होगा।
मगर जरा ठंडे दिमाग से सोचें कि यह पहाड़ी-मैदानी है क्या चीज। जिन लोगों ने मुझे मार डालने की धमकी दी थी, वे कोई हरिद्वार-उधमसिंहनगर के युवा तुर्क नहीं थे। बाद में पता चला कि संस्कृत के साथ उनका कारोबार जुड़ा था, और पुरोहिती का कारोबार उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में ही होता है। अब यह चिंता साफ दिखाई दे रही है कि सरकार के निर्णय से उन लोगों का करोबार प्रभावित हो रहा है, जो पहले प्रतिपक्ष में थे। झगड़ा वहीं होता है, जहां स्वार्थ टकराते हैं। यह कोई जरूरी तो नहीं कि हरिद्वार या उधमसिंहनगर का प्रतिनिधित्व करने वाला विधायक या सांसद पहाड़-विरोधी या अल्मोड़ा-टिहरी का विधायक मैदान-विरोधी ही होगा। यह चिंतन आखिर हमें कहां ले जाएगा?
आम अनपढ़ आदमी तो हमेशा अपने से बड़ों की नकल करता है। तकलीफ तब होती है, जब सत्ता के शीर्ष पर बैठा आदमी इस तरह की सोच रखने लगता है। हमारे एक नेता को उत्तराखंड में फौजियों के अलावा दूसरी प्रजाति दिखाई ही नहीं देती। दूसरे नेता को लगता है कि भगवान ने सारी कूटनीति उन्हीं के दिमाग में परोसी है, वह जब चाहें, संजीवनी पर्वत को हनुमान जी की तरह हिमालय के भाल में स्थापित कर सकते हैं और देवभूमि को जब चाहें, देवताओं की भूमि बना सकते हैं। जिस नैनीताल में पढ़ा हुआ विद्यार्थी मानेकशॉ देश का पहला सेनाध्यक्ष रहा हो, देश के पहले नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक सर सी. बी. रमन के शिष्य जिन डी. डी. पंत ने यहां के एकमात्र क्षेत्रीय दल यूकेडी (उत्तराखंड क्रांति दल) को जन्म दिया हो, वहां अवैज्ञानिक और अतार्किक बातें सुनकर आज बड़े-बड़े संस्थाध्यक्ष मुंडी हिलाते हैं। जाहिर है, ऐसे समाज से उम्मीद रखना कुछ ज्यादा ही है।