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photo.5 hours agoपहाड़ी भाषाएँ और उत्तराखण्ड की भाषाएँ
उत्तराखण्ड की भाषाएँ
उत्तराखण्ड की भाषाएँ पहाड़ी भाषाओं की श्रेणी में आती हैं। उत्तराखण्ड में बोली जाने वाली भाषाओं को दो प्रमुख समूहों में विभाजित किया जा सकता है: कुमाऊँनी और गढ़वाली जो क्रमशः राज्य कुमाऊँ और गढ़वाल मण्डलों में बोली जातीं हैं।
जौनसारी और भोटिया दो अन्य बोलियाँ, जनजाति समुदायों द्वारा क्रमशः पश्चिम और उत्तर में बोली जाती हैं।
लेकिन राज्य की सबसे प्रमुख भाषा हिन्दी है। यह राज्य की आधिकारिक और कामकाज की भाषा होने के साथ-साथ अन्तरसमूहों के मध्य संवाद की भाषा भी है।
पहाड़ी भाषाएँ
हिमालय पर्वतश्रृंखलाओं के दक्षिणवर्ती भूभाग में कश्मीर के पूर्व से लेकर नेपाल तक पहाड़ी भाषाएँ बोली जाती हैं। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण करते समय पहाड़ी भाषाओं का एक स्वतंत्र समुदाय माना है। चैटर्जी ने इन्हें पैशाची, दरद अथवा खस प्राकृत पर आधारित मानकर मध्यका मे इनपर राजस्थान की प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का प्रभाव घोषित किया है। एक नवीन मत के अनुसार कम से कम मध्य पहाड़ी भाषाओं का उद्गम शौरसेनी प्राकृत है, जो राजस्थानी का मूल भी है।
पहाड़ी भाषाओं के शब्दसमूह, ध्वनिसमूह, व्याकरण आदि पर अनेक जातीय स्तरों की छाप पड़ी है। यक्ष, किन्नर, किरात, नाग, खस, शक, आर्य आदि विभिन्न जातियों की भाषागत विशेषताएँ प्रयत्न करने पर खोजी जा सकती हैं जिनमें अब यहाँ आर्य-आर्येतर तत्व परस्पर घुल मिल गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा विदित होता है। कि प्राचीन काल में इनका कुछ पृथक् स्वरूप अधिकांश मौखिक था। मध्यकाल में यह भूभाग राजस्थानी भाषा भाषियों के अधिक संपर्क में आया और आधुनिक काल में आवागमन की सुविधा के कारण हिंदी भाषाई तत्व यहाँ प्रवेश करते जा रहे हैं। पहाड़ी भाषाओं का व्यवहार एक प्रकार से घरेलू बोलचाल, पत्रव्यवहार आदि तक ही सीमित हो चला है।
पहाड़ी भाषाओं में दरद भाषाओं की कुछ ध्वन्यात्मक विशेषताएँ मिलती हैं जैसे घोष महाप्राण के स्थान पर अघोष अल्पप्राण ध्वनि हो जाना। पश्चिमी तथा मध्य पहाड़ी प्रदेश का नाम प्राचीन काल में संपादलक्ष था। यहाँ मध्यकाल में गुर्जरों एवं अन्य राजपूत लोगों का आवागमन होता रहा जिसका मुख्य कारण मुसलमानी आक्रमण था। अत: स्थानीय भाषाप्रयोगों में जो अधिकांश "न" के स्थान पर "ण" तथा अकारांत शब्दों की ओकारांत प्रवृत्ति लक्षित होती है, वह राजस्थानी प्रभाव का द्योतक है। पूर्वी हिंदी को भी एकाधिक प्रवृत्तियाँ मध्य पहाड़ी भाषाओं में विद्यमान हैं क्योंकि यहाँ का कत्यूर राजवंश सूर्यवंशी अयोध्या नरेशों से संबंध रखता था। इस आधार पर पहाड़ी भाषाओं का संबंध अर्ध-मागधी-क्षेत्र के साथ भी स्पष्ट हो जाता है।
इनके वर्तमान स्वरूप पर विचार करते हुए दो तत्व मुख्यत: सामने आते हैं। एक तो यह कि पहाड़ी भाषाओं की एकाधिक विशेषता इन्हें हिंदी भाषा से भिन्न करती हैं। दूसरे कुछ तत्व दोनों के समान हैं। कहीं तो हिंदी शब्द स्थानीय शब्दों के साथ वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त होते हैं और कहीं हिंदी शब्द ही स्थानीय शब्दों का स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। खड़ी बोली के माध्यम से कुछ विदेशी शब्द, जैसे "हजामत", "अस्पताल", "फीता", "सीप", "डागदर" आदि भी चल पड़े हैं।
भेद
पहाड़ी भाषाओं के तीन भेद निर्धारित किए जा सकते हैं :
पूर्वी पहाड़ी
इसे नेपाली अथवा "खसकुरा" भी कहते हैं। "गोरखाली" इसी के अंतर्गत है। इसमें लिखित साहित्य पर्याप्त है। (विशेष देखिए- नेपाली भाषा और साहित्य)
मध्य पहाड़ी
ये कुमाऊँ एवं गढ़वाल में बोली जाती हैं अत: इसी आधार पर "कुमाउँनी" तथा "गढ़वाली" के नाम से प्रसिद्ध हैं। उत्तर प्रदेश के सात पार्वत्य जिले इनके क्षेत्र हैं और इन्हें बोलनेवालों की संख्या लगभग 16 लाख है।
कुमाउँनी भाषा जिला नैनीताल, अल्मोड़ा तथा पिथौरागढ़ में प्रयुक्त होती है। इसका क्षेत्र इस समय लगभग 8000 वर्गमील में विस्तृत है तथा सन् 1951 की जनगणना के अनुसार इसे बोलनेवालों की संख्या लगभग 570,008 है। हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। इस कारण कुमाउँनी हिंदी खड़ी बोली के अत्यधिक निकट आ गई है। व्याकरण की दृष्टि से सर्वनामों में - मै, तू, हम, तुम, ऊ, ऊँ, (वह, वे) का प्रयोग चलता है। संबंध कारक बहुवचन का रूप "उनको" न होकर "उनर" होता है। हिंदी की भाँति कुमाउँनी में दो ही लिंग प्रयुक्त होते हैं और यह लिंगत्व केवल पुरुषत्व, स्त्रीत्व के भेद पर आधारित नहीं प्रत्युत वस्तु के आकार तथा स्वभाव पर भी निर्भर है। वचन दो हैं, तथा हिंदी की प्राय: सभी धातुएँ मिलती हैं। पदक्रम, एवं वाक्यविन्यास भी मिलता जुलता है। आरंभ में कर्ता अंत में क्रियापद रहता है। क्रियाविशेषण भी हिंदी की भाँति क्रिया के पूर्व आता है।
फिर भी कुमाउँनी में कुछ ध्वनियाँ खड़ी बोली हिंदी की अपेक्षा विशिष्ट हैं। स्वरों की दृष्टि से ह्रस्व "आ", ह्रस्व "ए", ह्रस्व "ऐ", ह्रस्व "ओ" तथा ह्वस्व "औ" ध्वनियाँ देखी जा सकती हैं। इस भेद से शब्दार्थों का अंतर हो गया है। जैसे, "काँव" (ह्रस्व आ) शब्द का कुमाउँनी में अर्थ हैं - "काला" और "काव" (दीर्घ आ) शब्द का अर्थ होता है "काल" - अर्थात् मृत्यु। व्यंजनों में विशेष "न" तथा विशेष "ल" की उपलब्धि होती है। "कांन" (काँटा), "भांन" (बर्तन) जैसे शब्दों में विशिष्ट "न" ध्वनि है जिसका उच्चारण कुछ तालव्य की ओर झुका हुआ है। विशेष "ल" वर्ण गंगोली तथा काली कुमाऊँ की बोलियों में प्राप्त होती है। कुमाउँनी की आठ बोलियाँ हैं - (1) खसरजिया, (2) कुमय्याँ, (3) पछाईं, (4) दनपुरिया, (5) सोरमाली, (6) शीराली, (7) गंगोला, (
भोटिया। कुमाउँनी भाषा की लिपि देवनागरी है। इसका मौखिक साहित्य बड़ा समृद्ध है, यद्यपि लिखित साहित्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं।
गढ़वाली भाषा में अभी प्राचीन तत्व कुमाउँनी की अपेक्षा सुरक्षित हैं। इसका व्यवहार जिला गढ़वाल, टेहरी, चमोली, तथा उत्तर काशी में होता है। यह क्षेत्र लगभग 10,000 वर्गमील है तथा गढ़वाली भाषा भाषियों की संख्या लगभग 10 लाख। यहाँ भौगोलिक कारणों से आवागमन की कठिनाइयाँ हैं। इसलिए पहाड़ियो के दोनों ओर रहनेवालों अथवा एक ही नदी के आरपार रहनेवालों के भाषागत प्रयोगों में विशेषताएँ उभर आई हैं। उत्तर की बोलियों में तिब्बती, तथा पूर्व की ओर कुमाउँनी प्रभाव स्पष्ट होता गया है क्योंकि इन क्षेत्रों की सीमाएँ मिली हुई हैं। राजपूत जातियों का निवास होने के कारण गढ़वाली पर नाजस्थानी प्रभाव तो है ही, इसके दक्षिण-पश्चिम की ओर खड़ी बोली भी अपना प्रभाव डालती जा रही है।
गढ़वाली भाषा की कुछ विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं। इसका झुकाव दीर्घत्व की ओर है अत: स्वरों में ए, ऐ, ओ, औ, की ध्वनियाँ, जिनका दीर्घ रूप प्रधान है, अधिक प्रयुक्त होती हैं। अनुनासिकता की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत कम हैं। कुछ ऐसे शब्द मिलते हैं जो प्राचीन भाषाओं से चले आए हैं जैसे "मुख" के अर्थ में "गिच्चो" शब्द। संभव है इनमें अनेक प्राप्त शब्द प्राचीनतम जातियों के अवशेष हों। व्याकरण की दृष्टि से गढ़वाली में एक दंताग्र "ल" ध्वनि पाई जाती है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। क्रिया रूपों में धातु के अंतिम "अ" का लोप करके "ओ" या "अवा" जोड़ा जाता है, जैसे दौड़ना। लिंगभेद भी प्रय: नियमित नहीं। वस्तुओं की लघुता, गुरुता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। अनेक शब्दों के एकवचन, बहुवचन रूप समान चलते हैं। उच्चारण में मूर्धन्य "ल" और "ण" की विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं। स्थानभेद से गढ़वाली की नौ प्रमुख बोलियाँ हैं - (1) श्रीनगरिय, (2) सलाणी, (3) मंझकुमइयाँ, (4) गंगवारिय, (5) बधाणी, (6) राठी, (7) दसौलिया, (
लोभिया, और (9) रर्वाल्टी। इनमें उच्चारण का ही मुख्य अंतर प्रतीत होता है। गढ़वाली भाषा का भी मौखिक साहित्य महत्व रखता है।
पश्चिमी पहाड़ी
यह पहाड़ी भाषाओं का तीसरा भेद है। वस्तुत: यह अनेक बोलियों का सामूहिक नाम है। ये बोलियाँ जोनसार बावर, शिमला, उत्तर-पूर्वी-सीमांत पंजाब, कुल्लू घाटी, चंबा आदि स्थानों में बोली जाती हैं। इन सभी बोलियों का साहित्य लिखित रूप में प्राप्त नहीं, इस कारण भाषा वैज्ञानिक खोज बहुत कम हो पाई है। अभी तक जो बोलियाँ इसके अंतर्गत निश्चित की जा सकी हैं, उनका क्षेत्रविस्तार लगभग 14 हजार वर्गमील का है तथा बालनेवाले प्राय: 16 लाख हैं। इनमें मुख्य हैं - (1) सिरमौरी, (2) जौनसारी, (3) कुलुई, (4) चंपाली, (5) आंडियाली, और (6) भद्रवाही, आदि। इन बोलियों में अधिकांश लोकगीत और कथाएँ विशेष प्रचलित हैं। कुलुई तथा चंबाली पर इधर कुछ कार्य हुआ है।
कुलुई का क्षेत्र, बहुत संभव है, प्राचीन कुणिंद जल का क्षेत्र रहा हो जिसने यहाँ राज्य किया था। इस समय यह बोली कुल्लू घाटी से लेकर हिमाचल प्रदेश के महासू जिले तक बोली जाती है। चंपाली अपने स्वरमाधुर्य के लिए उल्लेखनीय है तथा स्थानभेद से इसके भी "भट्याली", "चुराही", आदि रूपांतर मिलते हैं। मांडियाली सुकेत में बोली जाती है जबकि बधाटी सोलन की ओर। शिमला के चतुर्दिक् क्यूथली का व्यवहार होता है। पहले पश्चिमी पहाड़ी की ये सभी बोलियाँ टक्करी लिपि में लिखी जाती थीं किंतु अब देवनागरी का प्रयोग होता है।
कुमाऊँनी भाषा
कुमाऊँनी भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में बोली जाने वाली एक भाषा/बोली है। इस भाषा को हिन्दी की सहायक पहाड़ी भाषाओं की श्रेणी में रखा जाता है।
कुमाऊँनी भारत की ३२५ मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक है, और २६,६०,००० (१९९८) से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है। उत्तराखण्ड के निम्नलिखित जिलों - अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत, ऊधमसिंह नगर के अतिरिक्त असम, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब, तथा हिमाचल प्रदेश और नेपाल के कुछ क्षेत्रों में भी बोली जाती है।
कुमाऊँनी भाषा, कुमाँऊ क्षेत्र में विभिन्न रुपांतरणों में बोली जाती है जैसे:-
अल्मोड़ा और उत्तरी नैनीताल में मध्य कुमाऊँनी।
पिथौरागढ़ में उत्तर पूर्वी कुमाऊँनी।
दक्षिण पूर्वी नैनीताल में दक्षिण पुर्वी कुमाऊँनी।
पश्चिमी अल्मोड़ा और नैनीताल में पश्चिमी कुमाऊँनी।
कुमाऊँ क्षेत्र की बोलियाँ
कुमाऊँनी जानने वाले लगभग सभी लोग हिन्दी समझ सकते हैं। हिन्दी भाषा के इस क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव के कारण यह भाषा तेजी़ से लुप्त होने की स्थिति में पहुँच चुकी है। नगरीय क्षेत्रों में बहुत कम लोग यह भाषा बोलते हैं, और बहुत से मामलों में यदि माता पिता कुमाऊँनी या गढ़वाली जानते भी हैं तो उनके बच्चे इन भाषाओं को नहीं जानते हैं। बहुत से अन्य मामलों में बच्चे कुमाऊँनी समझ तो सकते हैं लेकिन बोल नहीं सकते। बहुत से कुमाऊँनी परिवारों में पुरानी दो पीढ़ी के लोग जब नई पीढ़ी के लोगों से कुमाऊँनी में संवाद करते हैं तो उन्हें उत्तर हिन्दी में मिलता है। मध्य पीढ़ी के लोग कुमाऊँनी और हिन्दी दोनो भाषाओं में संवाद करते हैं। कुमाऊँनी, देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। कुमाऊँनी भाषा का बहुत अधिक साहित्य उपलब्ध नहीं है।
कुमाऊँ क्षेत्र में २० बोलीयाँ बोली जाती हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:- जोहारी, मझ कुमारिया, दानपुरिया, अस्कोटि, सिराली, सोरयाली, चुगरख्यैली, कुंमईया, गंगोला, खसपरजिया, फल्दकोटि, पछाइ, रौचभैसि.
कुमाऊँनी भाषा की उपबोलियाँ
कुमाऊँनी भाषा की उपबोलियाँ इस प्रकार हैं:-
कलि कुमाऊँनी, केन्द्रिय कुमाऊँनी।
उत्तर पूर्वी कुमाऊँनी।
दक्षिण पूर्वी कुमाऊँनी।
अस्कोटि।
भाभरी (रामपुर में)।
चुगरख्यैली।
दनपुरिया।
गंगोला।
जोहारी
खसपरजिया
कुंमईया
पछाइ (पछे)
पश्चिमी कुमाऊँनी
फल्दकोटि
रहू चौभैसी
सिराली (सिरौय्लि)
सोरयाली
बैतडा
डोटियाली
कुमाऊँनी साहित्य
कुमाऊँनी भाषा के कुछ प्रमुख लेखक हैं:-
शैलेश मटियानी (१९३१-२००१)
मोहन उप्रेति (१९२५-१९९७)
हिमांशु जोशी
मीडिया में कुमाऊँनी
कुमाऊँनी चलचित्र
मेघा आ, पहला कुमाऊँनी चलचित्र, निर्देशक काका शर्मा, निर्माता एस एस बिष्ट।
तैरी सौं, (कुमाऊँनी और गढ़वालीमें निर्मित होने वाला पहला चलचित्र), लेखन, निर्माता, और निर्देशक अनुज जोशी।
अपुण बिरैं (अपने पराये) (२००७), श्री कार्तिकेय सिने प्रोडक्शंस, भास्कर सिंह रावत द्वारा निर्मित।
मधुलि (२००८), अनामिका फिल्म द्वारा निर्मित।
कुमाऊँनी रंगमंच
कुमाऊँनी रंगमंच का विकास 'रामलीला' नाटकों के द्वारा हुआ, जो धीरे-धीरे आधुनिक रंगमंच के रुप में विकसित हुआ जिसमे मोहन उप्रेति और दिनेश पांडे जैसे रंगमंच के दिग्गजों, और पर्वतीय कला केन्द्र (मोहन उप्रेति द्वारा आरंभित) और पर्वतीय लोक कला मंच जैसे समुहों का बहुत बडा़ योगदान है।
रेडियो
ट्रांस वर्ल्ड रेडियो (अमेरिका) - ७३२० हर्ट्ज़ (लघुतरंग (shortwave))
गढ़वाली भाषा
गढ़वाली भारत के उत्तराखण्ड राज्य में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है । वास्तव में ये हिन्दी की एक बोली है । गढ़वाली बोली के अंतर्गत कई अन्य उपबोलियाँ प्रचलित हैं।
जौनसारी जौनसार, बाबर तथा आसपास के क्षेत्रों के निवासियों द्वारा बोली जाती है।
मार्छी या भोटिया मर्छा (एक पहाड़ी जाति) लोगों द्वारा बोली जाती है।
जधी उत्तरकाशी के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है।
सलाणी टिहरी के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है।
'श्रीनगरिया' 'गढ़वाली' का परिनिष्ठित रूप है। गढ़वाली में साहित्य प्राय: नहीं के बराबर है, किंतु लोक- साहित्य प्रचुर मात्रा में है। इसके लिए नागरी लिपि का प्रयोग होता है।
नेपाली भाषा
नेपाली या खस कुरा नेपाल की राष्ट्र भाषा है। यह भाषा नेपाल की लगभग ५०% लोगों की मातृभाषा भी है। यह भाषा नेपाल के अतिरिक्त भारत के सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों (आसाम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय) तथा उतराखण्ड के अनेक लोगों की मातृभाषा है। भूटान, तिब्बत और म्यानमार के भी अनेक लोग यह भाषा बोलते हैं।
नेपाली भाषा साहित्य
नेपाली साहित्य के आदिकवि भानुभक्त आचार्य है। इस भाषा के महाकवि लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा है। इस भाषा के प्रमुख लेखक है :-
बालकृष्ण सम
सिद्धिचरण श्रेष्ठ
विश्वेश्वरप्रसाद कोईराला
लेखनाथ पौड्याल
माधव प्रसाद घिमिरे
बैरागी काँइला
लीलबहादुर क्षत्री
परशु प्रधान
बानिरा गिरी
गोविन्द गोठाले
तारानाथ शर्मा
सरुभक्त
पारिजात
इन्द्र बहादुर राई
मोतिराम भट्ट
कुछ वाक्य
हिंदी नेपाली
आपका नाम क्या है ? तपाईंको नाम के हो? What is your name?
तुम्हारा नाम क्या है ? तिम्रो नाम के हो? What is your name?
मेरा नाम राम है। मेरो नाम राम हो। My name is Ram
आपका घर कहां है? तपाईंको घर कहाँ हो? Where do you live?
तुम्हारा घर कहां है? तिम्रो घर कहाँ हो? Where do you live?
खाने खाने की जगह कहाँ है? खाना खाने ठाउँ कहाँ छ? Where is a place to eat?
शौचालय कहाँ है? शौचालय कहाँ छ? Where is the toilet?
मलाई नेपाली कुरा/भाषा आउँदैन (हिन्दीः मुझे नेपाली नहीं आती।)
मेरो देश नेपाल हो (हिन्दीः मेरा देश नेपाल है।)
तपाईंलाई/तिमीलाई कस्तो छ? (आप/तुम कैसे हो?)
के छ? हजुर नमस्कार - (नमस्ते जी कैसे हो?) (अनौपचारिक)
सञ्चै हुनुहुन्छ? - (सब ठीक तो है?) (औपचारिक)
खाना खाने ठाउँ कहाँ छ? — (खाने खाने की जगह कहाँ है?)
काठ्माडौँ जाने बाटो धेरै लामो छ — काठमांडू जाने का रास्ता बहुत लम्बा है।
नेपालमा बनेको — नेपाल में निर्मित
म नेपाली हूँ — मैं नेपाली हूँ।
अरु चाहियो? - और चाहाए?
पुग्यो — बस !
कश्मीरी भाषा
कश्मीरी भाषा भारत और पाकिस्तान की एक प्रमुख भाषा है । क्षेत्रविस्तार 10,000 वर्ग मील; कश्मीर की वितस्ता घाटी के अतिरिक्त उत्तर में ज़ोजीला और बर्ज़ल तक तथा दक्षिण में बानहाल से परे किश्तवाड़ (जम्मू प्रांत) की छोटी उपत्यका तक। कश्मीरी, जम्मू प्रांत के बानहाल, रामबन तथा भद्रवाह में भी बोली जाती है। कुल मिलाकर बोलनेवालों की संख्या 15 लाख से कुछ ऊपर है। प्रधान उपभाषा किश्तवाड़ की "कश्तवाडी" है।
नामकरण
कश्मीरी का स्थानीय नाम का शुर है; पर 17वीं शती तक इसके लिए "भाषा" या "देशभाषा" नाम ही प्रचलित रहा। संभवत: अन्य प्रदेशों में इसे कश्मीरी भाषा के नाम से ही सूचित किया जाता रहा। ऐतिहासिक दृष्टि से इस नाम का सबसे पहला निर्देश अमीर खुसरो (13वीं शती) की नुह-सिपिह्न (सि. 3) में सिंधी, लाहौरी, तिलंगी और माबरी आदि के साथ चलता हे। स्पष्टत: यह दिशा वही है जो पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, बँगला, [[हिंदी और उर्दू आदि भारतार्य भाषाओं की रही है।
उद्भव
ग्रियर्सन ने जिन तर्कों के आधार पर कश्मीरी के "दारद" होने की परिकल्पना की थी, उन्हें फिर से परखना आवश्यक है; क्योंकि इससे भी कश्मीरी भाषा की गई गुत्थियाँ सुलझ नहीं पातीं। घोष महाप्राण के अभाव में जो दारद प्रभाव देखा गया है वह तो सिंधी, पश्तू, पंजाबी, डोगरी के अतिरिक्त पूर्वी बँगला और राजस्थानी में भी दिखाई पड़ता है; पर क्रियापदों के संश्लेषण में कर्ता के अतिरिक्त कर्म के पुरुष, लिंग और वचन का जो स्पर्श पाया जाता है उसपर दारद भाषाएँ कोई प्रकाश नहीं डालतीं। संभवत: कश्मीरी भाषा "दारद" से प्रभावित तो है, पर उद्भूत नहीं।
लिपि
15वीं शती तक कश्मीरी भाषा केवल शारदा लिपि में लिखी जाती थी। बाद में फारसी लिपि का प्रचलन बढ़ता गया और अब इसी का एक अनुकूलित रूप स्थिर हो चुका है। सिरामपुर से बाइबल का सर्वप्रथम कश्मीरी अनुवाद शारदा ही में छपा था, दूसरा फारसी लिपि में और कुछ संस्करण roमन में भी निकले। देवनागरी को अपनाने के प्रयोग भी होते रहे हैं और आजकल यह देवनागरी में भी लिखी जा रही है।
ध्वनिमाला
कश्मीरी ध्वनिमाला में कुल 46 ध्वनिम (फ़ोनीम) हैं।
स्वर : अ, आ; इ, ई; उ, ऊ; ए; ओ; अ", आ"; उ"; ऊ"; ए"; ओ";
''मात्रा स्वर : इ, -उ्, -ऊ्
अनुस्वार : अं
अंत:स्थ स्वर : य, व
व्यंजन : क, ख, ग, ङ; च, छ, ज; च, छ़, ज़, ञ;
ट, ठ, ड; त, थ, द, न; प, फ, ब, म;
य, र, ल, व; श, स, ह
इ, ई, उ, ऊ और ए के रूप पदारंभ में यि, यी, -वु, वू और ये" हो जाते हैं। च, छ, और ज़ दंततालव्य हैं और छ़ ज़ का महाप्राण हैं। पदांत अ बोला नहीं जाता।
कारक
कश्मीरी कारकों में संश्लेषणात्मकता के अवशेष आज भी दिखाई पड़ते हैं; जैसे-
सु ज़ोग्न Ð।सो जनो Ð।स जनो; तिम ज़"न्य Ð।तें जने (ते जना:); त"म्य ज़"न्य Ð।तें3 जनें3 (तेन जनेन); तिमव, जन्यव Ð ।तैं जनै: (तै: जनै:); कर्म, संप्रदान, अपादान और अधिकरण में प्राय: संबंध के मूल रूप में ही परसर्ग जोड़कर काम निकाला जाता है; यद्यपि नपुं. के अधिकरण (एफ.) में प्राचीन रूपों की झलक भी मिलती है। संबंध का मूल रूप यों है-तस ज़"निस Ð।तस्स जनस्स Ð तस्य जनस्य; तिमन ज़न्यन Ð । तेंणाँ जनेणां (तेषां जनानाम्)।
नपुं. में-तथ गरस Ð ।तद् घरस्स; रु" Ð ।तम्हादो घरदो; तमि गरुक Ð ।घरको (गृहक:); तमि गरि Ð ।घरे (गृहे)।
क्रियापद
कश्मीरी क्रियापदों में भारतीय अर्थविशेषताओं के ऊपर बहुत ही विलक्षण प्रभाव पड़ता गया है, जिनसे कुछ विद्वानों को उनके अभारतीय होने का भ्रम भी हुआ है। लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार एक-एक धातु के सैंकड़ों रूप बनते हैं; जैसे-
कुछ Ð वीक्षस्व; वुछान छु Ð वीक्ष (म) मण : अस्ति (वह देखता/देख रहा है); वुछान छुम (वह मुझे देखता/देख रहा है); वुछान छम (वह मुझे देखती/देख रही है।)-छुहम (तू मुझे . . . है); -छसथ (मैं तुम्हें. . . हूँ);-छुसन (में उसे . . .हूँ); वुछन (मैं उसे देखूँगा); वुछथ (मैं तुझे देखूँगा); वुछुथ (तुमने देखा); वुछथस (तुमने मुझे देखा)। तुमने उसके लिए देखा); वुछथन (तुमने उसे देखा); वुछिथ (तुमने उन्हें देखा); वुछु"थ (तुमने उस (स्त्री) को देखा); वुछ्यथ (तुमने उन (स्त्रियों) को देखा); वुछुथम (तुमने मेरा/मेरे लिए देखा); वुछ्यथम (तुमने मेरी/मेरे लिए देखीं), आदि-आदि।
क्रियापदों की यह विलक्षण प्रवृत्ति संभवत: मध्य एशियाई प्रभाव है जो खुरासान से होकर कश्मीर पहुँचा है।