Author Topic: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?  (Read 14658 times)

D.N.Barola / डी एन बड़ोला

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Kumaoni and Garhwali dialects (Boli) have rich literature, but both the dialects do not qualify to be called a Language (Bhasa). In order to qualify to become a language, the requirements are

 (1) It should have its Lipi. At present both the dialects are written in Devnagari Lipi. This Lipi can be improved to cater to the requirements of these dialects by borrowing words from Sanskrit.

 (2) It requires Standardization of the dialect.

 (3) It should have its Dictionary.

   (4) it should have its pronouncement method and above all

   (5) it should develop its Grammar.  Some groups, I understand, are working to develop a Dictionary and I think a Garhwali Dictionary has already been prepared.  I solicit further information about how Kumaoni and Garhwali are being developed to qualify as Language. Once the dialects qualify as Languages, they can also become the Official Languages (Raj Bhasha) of Uttarakhand, which would mean a great feat accomplished.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #1 on: August 08, 2008, 04:44:34 PM »

Sir

Thanx for opening this thread.  This is one of the issue for UK now that we do not have registered language. A common should be there in place from the state side which should be also in written. Once I had received a mail from someone that he is making dictionary on UK’s language .   We will discuss on this issue at length.

हेम पन्त

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #2 on: August 08, 2008, 05:24:27 PM »
बरोला जी नमस्कार, आपने बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है. लेकिन गढवाली या कुमाऊंनी बोलियां उत्तराखण्ड की राज-भाषा बन पायेंगी, यह विचार बहुत काल्पनिक लगता है. वर्तमान समय में यह दोनों बोलियां अपना अस्तित्व बचाने के लिये संघर्षशील हैं. इन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या पीढी-दर-पीढी तेजी से कम हो रही है.

मुझे लगता है पहले हमें अपनी बोलियों के संवर्धन और उनके साहित्य के प्रचार-प्रसार पर अपनी ऊर्जा लगानी होगी.

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #3 on: August 08, 2008, 05:31:50 PM »
Dear Sir Dr. Jullandhari who is a renowned scholar has developed a lipi for Uttarakhandi language we are also helping him in preparing font for it.

पंकज सिंह महर

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #4 on: August 11, 2008, 05:01:17 PM »
बोली तो हर ६ कोस में बदल जाती है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः ३ बोलियां प्रचलन में हैं, कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी.....लेकिन इनका भी रुप हर ६ कोस में बदलता रहता है और कहीं-कहीं तो word भी change हो जाते हैं।
     ऎसे में इन्ही बोलियों को लिपि या व्याकरण या भाषा का दर्जा दिया गया, तो लोगों को राजनीति करने का और क्षेत्र के आधार पर लडाने का एक और मौका मिल जायेगा।
    मेरा मत है कि पूरे उत्तराखण्ड की बोलियों का अध्ययन कर एक समरुप और सर्वमान्य भाषा, लिपि तथा व्याकरण बनाया जाय। जो कि हमारी राजकीय भाषा हो और इसमें क्षेत्रीयता की बात कहीं से कहीं तक न रह पाये।

D.N.Barola / डी एन बड़ोला

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #5 on: August 13, 2008, 09:49:27 AM »
Kumaoni and Garhwali dialects (Boli) have rich literature, but both the dialects do not qualify to be called a Language (Bhasa). In order to qualify to become a language, the requirements are (1) It should have its script (Lipi). At present both the dialects are written in Devnagari script. This script can be improved to cater to the requirements of these dialects by borrowing words from Sanskrit. (2) It requires Standardization of the dialect.(3) It should have its Dictionary. (4) it should have its pronouncement method and above all (5) it should develop its Grammar.  Some groups, I understand, are working to develop a Dictionary and I think a Garhwali Dictionary has already been prepared.  I solicit further information about how Kumaoni and Garhwali are being developed to qualify as Language. Once the dialects qualify as Languages, they can also become the Official Languages (Raj Bhasha) of Uttarakhand, which would mean a great feat accomplished.

पंकज सिंह महर

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #6 on: August 25, 2008, 11:49:21 AM »
नई लिपि नहीं दिला सकती बोली को भाषा का दर्जा


जागरण कार्यालय, अल्मोड़ा: कुमाऊंनी व गढ़वाली बोली के लिपि के सवाल पर चल रही बहस में कुमाऊंनी व हिंदी के लब्धप्रतिष्ठित कवि व कहानीकार दीप चन्द्र सिंह कार्की का कहना है कि सामाजिक उत्थान के लिए मानव जाति को किसी भी माध्यम से एक-दूसरे को समझना आवश्यक है। यह माध्यम बोलने व लिखने में सरल व सहज होना चाहिए। उनका मानना है कि यह माध्यम कुमाऊंनी अथवा गढ़वाली बोली के रूप में देवनागरी में प्रचलित है। हालांकि पूर्व में पाली लिपि अथवा भाषा का प्रयोग हुआ है। उनका मानना है कि कुमाऊंनी साहित्य व समाज की उन्नति के लिए कुमाऊंनी बोली को जिंदा रखना आवश्यक है। बोली को जिंदा रखने के लिए या कुमाऊंनी व गढ़वाली साहित्य सृजन के लिए देवनागरी लिपि से श्रेयकर व उत्कृष्ट दूसरा जरिया नजर नहीं आता है। किसी भी लिपि का निर्माण व विकास अव्यवहारिक है। क्योंकि नई लिपि व भाषा का ज्ञान नौनिहालों को कराना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। भाषा व लिपि का ज्ञान विद्यालयीय शिक्षा के बाद मेरी समझ में साहित्य सृजन का सशक्त माध्यम देवनागरी में ही हो। नई लिपि के विकास में हम वर्षो पिछड़ जाएंगे। इतना जरूर है कि भाषा-विज्ञानियों को दीर्घ Oस्व चिह्नों के लिए कुछ चिह्नों का उपयोग सुझाना चाहिए। श्री कार्की ने कहा कि हस्तलिखित ब्याणतार् पत्रिका में कुमाऊंनी बोली के लिए Oस्व के लिए वर्ण के नीचे व दीर्घ के लिए संकेत लिपि का उपयोग किया गया है। उनका कहना है कि यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि अधिक प्रचलित बोली में लिखा हुआ स्तरीय साहित्य कम लिखी जाने वाली भाषा अथवा लिपि से अधिक सार्थक है।

पंकज सिंह महर

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सुरेन्द्र नेगी, नैनीताल: भाषा का आधार ध्वनि है, जो श्रव्य या दृष्टिगम्य होती है। ध्वनि को गोचर-विचार गम्य बनाने के लिए प्रयुक्त प्रतीत चिह्न लिपि-चिह्न बनते हैं। भाषा वाक् प्रतीकों द्वारा विचारों को प्रेषित करने का एक माध्यम है और लिपि वाक् प्रतीकों को दृश्य बनाने हेतु स्थापित प्रतीक चिह्नों का रूप। यह कहना है कुमाऊं विवि डीएसबी परिसर की हिन्दी विभाग की प्रोफेसर मधुबाला नयाल का। वह कुमाऊंनी बोली को सर्वग्राह्य बनाने के लिए जागरण द्वारा शुरू की गई बहस पर अपनी राय जाहिर कर रही थीं। उन्होंने कहा लिपि के दो भेद हैं-अक्षरात्मक और वर्णात्मक। देवनागरी लिपि अक्षरात्मक है तो रोमन लिपि वर्णात्मक है। देवनागरी के साथ ही अरबी-फारसी, बंगला, गुजराती, उडि़या, तमिल, तेलगू आदि लिपियां अक्षरात्मक ही हैं। कुमाऊंनी एवं गढ़वाली हिन्दी की पांच उप भाषाओं में पहाड़ी हिन्दी के मध्य पहाड़ी वर्ग से सम्बद्ध मानी गई हैं। अत: लेखिम में देवनागरी लिपि का प्रयुक्त होना इनके विकास और बोध गम्यता में सहायक है। देवनागरी लिपि संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि मानी जाती है। इसमें जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जाता है। कुमाऊंनी-गढ़वाली के लेखिम में कतिपय उच्चरित ध्वनियों को यथावत लिखने में कठिनाई का अनुभव तो होता है। उसका वह लेखिम रूप उसी भाषा की उप बोलियों में भिन्न स्वनिम के कारण कई सवाल पैदा करता है। किसी भी एक भाषा में अनेक बोलियों का समावेश संभव है। कुमाऊंनी एवं गढ़वाली का वर्तमान रूप भी विभिन्न बोलियों के ताने बाने से बुना गया है। ऐसे में इनमें उच्चरित एवं लेखिम में प्रयुक्त कतिपय ध्वनियों को लेकर बार-बार लिपि की अक्षमता या लिपि चिह्नों की कमी का सवाल उठाया जाना स्वाभाविक है। ध्वनि के तीन रूप हैं-उत्पत्ति, गमन और श्रवण। भाषा के नेत्रग्राह्य, श्रोतग्राह्य एवं स्पर्शग्राह्य प्रतीकों में से श्रोत्रग्राह्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ध्वनि के श्रवण प्रभाव को व्यक्त करने के लिए अभी तक संसार की किसी भी भाषा में स्पष्ट और पर्याप्त शब्दावली का अभाव है। भाषिक परिवर्तन के मुख्य कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है स्वन परिवर्तन। यह परिवर्तन स्वाभाविक है जो किसी न किसी परिवेश के अन्तर्गत घटित होते हैं। कालक्रम के साथ-साथ भाषा के विकास क्रम में कभी-कभी यह परिवेश लुप्त हो जाते हैं किन्तु कुछ तथ्य बचे रह जाते हैं। यह भाषा के इतिहास की पुनर्रचना में सहायता करते हैं। जहां तक लिपि का सवाल है सरलीकरण की प्रक्रिया में कुमाऊंनी से ध्वनि लेखिम लुप्त हो चुकी है। ऐसा ही कुछ अन्य ध्वनियों के साथ भी संभव है। बाजारवाद की प्रक्रिया में कुछ नए अपभ्रष्ट शब्द जन्म ले रहे हैं, जिन्हें उपभोक्ता प्रारंभ में कतराते हुए कुछ दिनों बाद सहजता से स्वीकार कर ले रहा है। यह शब्द न तो पूर्णतया हिन्दी के हैं न किसी लोक भाषा के। यथा बहु प्रचलित हिंग्लिश जैसा शब्द या झकास, भड़कैली, मरैली, आइगो जैसे शब्द पर बाजार की चमक शब्दों को भड़कीला बनाकर नजरों से ऐसा चढ़ाती है कि अशोक-अशोका, कृष्ण-कृष्णा, राम-रामा हो चुके हैं। यह भाषा के बनने बिगड़ने तथा नया रूप लेने की प्रक्रिया है।
 

पंकज सिंह महर

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पृथक लिपि पर बहस अनावश्यक
« Reply #8 on: September 09, 2008, 10:25:37 AM »
कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों के लिए किसी पृथक लिपि की जरूरत का सवाल ही अपने आप में अनावश्यक है, यह बिना बात के बहस का सवाल लगता है। जरूरत तो बाकी समृद्ध बोलियों को ही जीवित रखने की है। कोई पृथक लिपि इन्हें जिंदा रख पायेगी या और अधिक समृद्ध कर पायेगी इस पर गहन विचार की जरूरत है। कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों के लिए किसी अलग लिपि के लिए शुरू की गयी बहस पर अपनी राय व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं कथाकार आनन्द बल्लभ उप्रेती का कहना है कि विभिन्न प्रांतों व क्षेत्रों की बोलियों के शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भरपूर प्रयोग उत्तराखंड की बोलियों में हुआ है, और यहां की बोली ने अपनी शब्द सम्पदा को भी बढ़ाया है, ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं देखने को मिलता है। यहां पर्यायवाची शब्दों का ऐसा भंडार कि किसी भाव को पूरी तरह अभिव्यंजित कर के रख दें। यह चमत्कार पूर्ण है। इन चमत्कारिक शब्दों को लिपिबद्ध करने में परेशानियां तो जरूर हैं, किन्तु कोई नई लिपि ऐसा कर पायेगी इस पर भरोसा नहीं होता है। इससे तो अच्छा यही होगा कि देवनागरी में Oस्व, दीर्घ चिन्हों के सरल व सर्वमान्य प्रयोग पर चर्चा चलाई जाए। नेपाली देवनागरी में ही धड़ल्ले से लिखी व पढ़ी जाती है क्यों, इसलिए कि वह आम प्रयोग की भाषा बन गयी है। इसलिए किसी नई लिपि के जाल में फंसने से अच्छा इन बोलियों को व्यवहार में लाने की जरूरत अधिक है। कुमाऊंनी का एक मानक तैयार करने के लिए पूर्व में कई सेमीनारों का आयोजन भी होता है, लेकिन अपने-अपने क्षेत्र के क्रियापदों को न छोड़ पाने का लोभ या जिद मानकीकरण में बाधा बना रहा। शायद इसीलिए एक अलग लिपि का सवाल पैदा हुआ होगा, लेकिन यह समस्या तो नई लिपि के बाद भी अपनी जगह जिन्दा रहेगी। इसलिए राज्य बन जाने के बाद भी चलन से बाहर होती जा रही इन बोलियों को व्यवहार में लाना पहली जरूरत है। जिन शब्दों को हम देवनागरी में बिना Oस्व-दीर्घ आदि चिन्हों का सर्वमान्य प्रयोग के बगैर लिख नहीं सकते हैं। उन्हें लिखने के लिए कोई दूसरी लिपि नहीं निर्मित की जानी चाहिए है। आज पत्रों के आदान-प्रदान को संचार व्यवस्था ने लगभग समाप्त सा कर दिया है। कुछ वर्ष पूर्व तक कुमाऊं के अधिकांश लोग आपस में पत्रों को कुमाऊंनी में ही लिखते और पढ़ते थे, उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी। क्योंकि उनके व्यवहार में कुमाऊंनी रची बसी थी। अब कुमाऊंनी तो दूर की बात हिन्दी का प्रयोग छूटता जा रही है। हम भूल गए हैं कुमाऊं क्षेत्र के सबसे बड़े भाषा विज्ञानी डा. हेमचन्द्र जोशी को और याद करते हैं। उनके लिखे पर कैंची चलाने वालों को। गुमानी को कविताओं को गैर कुमाऊंनी भी लय के साथ पढ़ सकता है। किन्तु हम जो लिख रहे हैं। स्वयं की एक गति से पढ़ नहीं पा रहे हैं। क्योंकि हम स्वत: स्फूर्त नहीं जबर्दस्ती लिख रहे हैं। पंजाब का व्यक्ति हनुमान चालीसा को लिखता तो हनुमान चालीसा ही है लेकिन व्यवहार में वह ऐसा कर पाता है। बांग्ला भाषी जल को लिखता जल है, लेकिन बोलता जौल व भजन को भौजन बोलता है। कुमाऊंनी में कान और कांण ऐसे शब्द में जिन्हें अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग विपरीत अर्थो में लिया जाता है। कुछ स्थानों में कान का मतलब कांटा होता है और कुछ में काना यानी अंधा होता है। इसके विपरीत काण को काना और कांटा लिया जाता है। ऐसे में कोई लिपि क्या कर लेगी।
 

पंकज सिंह महर

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एक मूक की भाषा इशारा होती है, जबकि बोलने वाला भाषा के माध्यम से अपने हृदयस्थ भावों को अभिव्यक्त करता है। भाषा लिपि द्वारा सुरक्षित रखी जा सकती है। जहां तक कुमाउनी भाषा और उसकी लिपि का सवाल है, वह देवनागरी लिपि के माध्यम से ही फल-फूल रही है और उसी में उसका उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगोचर होता है। आज वैश्र्वीकरण के दौर में जबकि संसार की अनेक लिपिबद्ध एवं व्याकरण सम्मत प्राचीन भाषाएं भी हाशिये पर सिमटती चली जा रही हैं, वहीं सर्वग्राह्यता-सर्व स्वीकार्यता बनाने के नूतन प्रयोगों तथा नये सिरे से नई लिपि निर्माण के उपक्रम से तो शनै: शनै उत्तरोत्तर अपना साहित्यिक स्वरूप प्राप्त कर रही है। कुमाउनी लोकभाषा के उन्नयन का पथ बाधित हो सकता है। लोकभाषा कुमाउनी हिन्दी की उप भाषा है। इसका साहित्य लोकगीत, लोककथा-गाथा, रमैल, मालूशाही, झोड़ा, चाचरी, पौ- पर्व आदि के रूप में मौखिक परम्परा का साहित्य रहा है। कुमाऊं में चन्द राजाओं के शासनकाल में यह राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित रही। बाद में आदि कवि लोकरत्‍‌न पन्त गुमानी (1790-1846) ने इस भाषा को कविता के माध्यम से लोक साहित्य बना दिया। अल्मोड़ा से प्रकाशित अचल (1938-39) में गद्य लिखकर चन्द्रलाल चौधरी और जीवन चन्द्र जोशी आदि साहित्य स्रष्टाओं ने कुमाउनी का कायाकल्प कर डाला। उस समय का गद्य आज भी समसामयिक और विविधतापूर्ण है। प्यास, ऑखर, ब्याणतार, दुदबोलि आदि पत्रिकाओं ने कुमाउनी को नये सोपानों की ओर उन्मुख किया तो हिलॉस, पुरवासी, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, उत्तरायण, जन जागर, उत्तराखंड उद्घोष, बुरुंश, दैनिक जागरण आदि पत्र पत्रिकाओं ने स्तम्भ प्रदान कर कुमाउनी की श्रीवृद्धि में बहुमूल्य योदान प्रदान किया। बुरुंश और पछ्याण से लेकर अनेकों काव्य संकलनों के प्रकाशन से कुमाउनी लोकप्रियता के शिखर पर है। फलत: कुमाऊं विश्र्वविद्यालय ने कुमाउनी को अपने पाठ्यक्रम का अंग बना लिया है। श्री हयात सिंह रावत, डा. शेर सिंह बिष्ट, बहादुर बोरा, डा. प्रभा पंत ने कहानियां व कुमाउनी गद्य में कृतियां प्रस्तुत की हैं, तो श्याम सिंह कुटौला ने कुमाउनी उपन्यास लिख डाला है। इधर स्वयं मैंने तीन कविता संग्रहों का प्रकाशन किया है और गद्यांजलि (कुमाउनी गद्य संग्रह) का सम्पादन निजी व्यय पर किया। इन संकलनों में कुमाउनी भाषा के लगभग सभी समकालीन स्थापित साहित्यकारों की रचनाएं संग्रहीत हैं। उक्त कृतियों का उद्देश्य कुमाउनी की मानक भाषा खसपरजिया के माध्यम से कुमाउनी भाषा को साहित्यिक धरातल देने का प्रयास तथा व्यक्तिगत गद्य लेखन को प्रोत्साहित करना है। मेरा मानना है कि अंग्रेजी पढ़ने वाले बीयूटी बट और पीयूटी पुट स्वाभाविक रूप से कह सकते हैं तो क्यों नहीं एक कुमाउनी का जिज्ञासु बाकर क् पाठ् और सत्य नारायणक् पाठ् का शुद्ध उच्चारण कर सकता है। उसी प्रकार ब्याल-ब्यल कान-कन, आम-आम् में अंतर बोलने में कर सकता है। शब्द शक्ति में हिन्दी को भी समृद्ध कर सकने की शक्ति रखने वाली कुमाउनी भाषा में अनेकों ऐसे दीर्घ वर्णो को एक हलन्त चिह्न के प्रयोग मात्र से लघु उच्चारित किया जा सकता है। कुमाउनी के सर्वग्राह्य स्वरूप निर्धारण के लिए दैनिक जागरण का यह साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रयास स्तुत्य एवं सराहनीय है। विचारों के द्वंद्व से नवनीत की प्राप्ति होगी। यह चर्चा इस ओर भी मोड़ी जानी अपेक्षित है कि खसपरजिया मानक रूप में गद्य रचनाएं अधिक रची जाएं। जड़-जमीन, गांव से खिसकती कुमाउनी को बोलचाल में प्रयोग द्वारा जीवन्तता प्रदान की जाए। जितना अधिक कुमाउनी में गद्य लिखा जायेगा और व्यवहार में प्रयोग की जायेगी, हमारी कुमाउनी भाषा अपने सर्वग्राह्य मानक स्वरूप को स्वत: नैसर्गिक रूप में प्राप्त कर लेगी और व्याकरण सम्मत बन जायेगी। दामोदर जोशी देवाशुं
 

 

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