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Re: Information about Garhwali plays-विभिन्न गढ़वाली नाटकों का विवरण

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Bhishma Kukreti:
                  Aili Meri Paudi? : A Garhwali Drama Attacking on Corrupt Practices in Government Administration

   (Review of ‘Aili Meri Paudi?’ drama written by Girish Sundariyal)
           (Garhwali Drama, Kumauni Plays, Uttarakhandi Stage show, Himalayan Dramas)

                                        Bhishm Kukreti
             
                         These days, satire is very common in Garhwali poetry, prose, story, films or in stage plays. The Garhwali creative understand very well their role as critics of their societies and happening in government administration.   As African contemporary writers are also conscious of wrong happenings in Africa (Lokangaka Losambe and Devi Sarinjeiv, 2001, Pre and Postcolonial Drama and Theatre in Africa, pp.53), the Garhwali writers are disturbed eyewitnesses of corruption, evil methods in government-administration, exploitation, injustice, ridiculousness around them.  The Garhwali drama writers of the twenty-first century as Kula Nand Ghanshala, Bhishma Kukreti, Narendra Kathait and  Girish Sundariyal preferred satire as the best tool for showing ridicule in the society and in government administration. The dramas of recent dramatists definitely are tools for restoring indigenous language, language promotion, and language protection simultaneously.   
            Aili Meri Paudi? is one of the five dramas from the drama collection ‘Asgar’ by Girish Sundariyal (2011) .      ‘Aili Meri Paudi?’ drama by famous Garhwali poet Girish Sundariyal is about an old widow of an army soldier not getting her pension. She found that she is not getting a pension because according to government papers she is not alive but is dead. She visits the pension office at Paudi the capital of Paudi Garhwal. There she meets staff from peon to chief officer.  The audience experiences the selfishness of government staff; ill-treatment and insensitive behaviors of government staff towards the weak people as an old widow; no botheration by government workers for serving people but worried about their income and recreation; red tapes in government offices.  The audience experiences the torture and agony of a widow in the drama.
 The characterization is perfect in this drama by Sundariyal and is successful in showing the putrefying system in government offices which are becoming ant-people.
 The specialty of this drama is its well-written dialogues. The dialogues are small and fit to characters. The conversation looks like a daily life conversation.
The last dialogue ‘ Aili meri Paudi?’  is itself very attentive as it has multi meanings – Will you come to my Paudi, why did you come to Paudi or you will get trouble coming to Paudi.
 The director will get pleasure in directing the well-constructed drama ‘Aili Meri Paudi?’ by Girish Sundariyal.


Copyright @ Bhishm Kukreti
Popular Garhwali Drama, Kumauni Plays, Uttarakhandi Stage Plays, Himalayan Dramas to be continued ….

Bhishma Kukreti:
इकीसवीं सदी क  गढ़वाळी स्वांग/नाटक

                           रस, रस्याण  अर रौंस
 

                          भीष्म कुकरेती

 

(इकीसवीं सदी मा नरेंद्र कठैत, भीष्म कुकरेती , कुलानन्द घनसाला , ललित केशवान, गिरीश सुंदरियाल का

गढवाली मा तकरीबन जण  बीसेक  स्वांग छपे/रचे  होला. यूँ नाटकूं छाण निराळ से पैल नाटक विधा पर कुछ छ्वीं लगी जवान त भलो होलू) 

 

                     रस, रस्याण अर रौंस

                कला जरोरात  से भैर हूणो एक बडी भारी जरूरत  च .

               कैं  बि चीज तैं रचण से , बणाण से, कला जनमदि . कला क चीज/वस्तु तैं बिगरैली वस्तु, सुन्दर चीज बुल्दन.

रचण, रचना, अर रसौ-जनम एकी कामौ तीन व्यौपार छन. या इन बि त बुले सक्यांद बल  इकु समौ तीन छण छन-

पैलू, आज अर अंत. य़ी त काल च या महाकाल च. 

   कला मा  कै  बि चीज/वस्तु  को ध्येय  होंद रचण अर रचना से रसिकौ बान  रौंस लाण. असल मा रस एक

बिलखणि /(अद्भुत) अनुभूति च,

रस से रस्याण जन्मद अर रस्याण से रौंस  आँदी . 

 प्लेटो क हिसाब से रस/रस्याण /रौंस   एक भरमौ सुख च.

अरस्तु बुल्दो बल  रस अनुकृति को आनन्द च .(अरस्तु कें बि मनिखौ रचना तैं अनुकृति /नकल बुल्दो छौ  ).

वेद अर उपनिषद बुल्दन बल रस ब्रह्मा-स्वादौ  भै च.

रसो वै स: . रस ह्येवायम लब्ध्वाअअनंदी भवति (तैत्तरीय उपनिषद ७-६१७)

भरत कु नाट्यशाश्त्र मा लिख्युं च बल जन  तेल, मर्च, लूण, खटाइ -मिठै  मैणु- मसालो 

मिलैक दाळ भात-भुजी  मा सवाद आन्दु अर खाणौ  ज्यू बुल्यांद उनि साहित्य मा बि रचना से रस जन्मदु (भ.ना.शा.६-३२) 

रस, रस्याण अर रौंस बस चेतना च. 

                                 रचना अर रसिक

 

रचना त कलाकार करदो पन रसिक कथगा इ होन्दन. पैलो त रचनाकार, फिर दिखंदेर, बंचनेर, सुणदेर अर समीक्षक आदि

१- रौंसौ बान  सरल होण जरूरी च -- सरल अखंडि  च मतबल रसिक तैं रौंसौ बान  अपण ज्ञानो भार,ब्यौहार, उच्चाट , आड़

छुटि लीण पोडद 

२- बिगरैल/बिगरैलि/ बिगरैलु  - बिगरैल/बिगरैलि/ बिगरैलु बि अखंडि च. बिगरैल/बिगरैलि/ बिगरैलु पूरो च/पूर्ण च , अधुरो नी च .

फौड़ मा   खांद दें इन नि दिखे जांद की लोगु क्या लारा/कपड़ा पैर्यां छन.  बस रस्याण को रौंस लिए जांद .रौंस ओ बान

पूरो पूर्ण होण जरूरी च

३-रौंसै  परिभासा- रौंस की परिभाषा नि करे जै स्क्यान्द. सैत च इलै भरत ण अपण नाट्य शाश्त्र मा रौंसै परिभ्षा नि दे.

बस्तु या रूप पूर्ण होंद इलै त रौंस आन्द.

४-रौंस/रस की छाँण निराळ (विश्लेषण ) - रौंस को विश्लेषण नि करे जान्द बस रौंस त लिए जांदी , हाँ  छाँण निराळ (विश्लेषण )

रौंस तैं समजण मा मदद करी सकद बस.

५- काल (समौ ) अर रौंस - हम रौंस तैं समौ(काल), काम अर वांको वजै (कारण) क तराजू मा नि तोल सकदां  .

नरेंद्र सिंह नेगी क गीत सुणद दें कैं लय /भौण तैं समौ क हिसाब से  छाँण निराळ (विश्लेषण ) करिल्या त

इथगा मा रौंस त जाली इ दगड मा दुसरि/तिसरी लय/भौण ऐ जाली . रचना अखंडी च त रौंस बि अखंडी च अर रौंस तैं

तुलणो /नापणो क्वी पैमाना इ नी च ,

६ -कारण/वजै- समालोचक कै स्वांग/कविता/साहित्य की काट/सुकाट करदन अर कारण बतान्दन पण  असल मा

 कै साहित्यौ/रचना मा ज्वा रौंस च वो त वर्तमान इ ना वर्तमानो एक छण च. जब  रसिक/ रौंस-लिंदर रौंस  लीन्दो त  असल मा वी

इ रौंस को अधीष्ठ्क/शाषक च  अर कुछ हद तलक कर्ता बि च.द्याखो ना ! कै मड़घट मा क्वी हौंसदरि   कविता बांचल  त

रसिक तैं वा रौंस नि आली जै  रौंसौ बान हंसदेरि कविता बांचे गे. रौन्सो बान  रसिक को मन बि खाली होण चयेंद.

या ब्यौ मा पलाबन्दों टैम पर पंडित  पिंड दानौ श्लोक बांचल त सुणदारुं तैं रौंस  नि ऐ सकद किलैकि  सुणदेरूं मन,वुद्धि ,अहम्

पिंड दानु निर्वेद भावना क बान खाली नि रौंदन. 

कारण केवल  यांत्रिक व्यख्या च,  बस! अर आलोचना बि कखी ना कखी यांत्रिक विवेचना च. पण आलोचना क बंचनेर, सुणदेर , दिखनेर

आलोचना से रौंस लीन्दन तब वा घटना वर्तमानै च . अब जब हैंको आलोचक वीं पैलि वाळै आलोचना की आलोचना कॉरल त वा फिर से

यांत्रिक व्याख्या ह्व़े जाली.

 

रचना को भौतिक नाप-तोल त ह्व़े सकद च पण रौंस तैं त मैसूस करे जयांद बस.  कारण या वजै त भूतकालो घटना  च.

हाँ हमन रौंस  किलै आई को नाप-तोलौ तरीका निकाळि यालि अर रचना की समालोचना  यूं इ पैमानों से होंद.

 

                     रस, रस्याण अर  रौंस की भारितीय आध्यात्मिक व्याख्या 

 

     रस, रस्याण अर रौंस अनुभूति च पण  हम आलोचक फिर बि रस, रस्याण अर रौंस की व्याख्या करदा इ रौला

 रस, रस्याण अर रौंस चेतना च बस.   

 महान  दार्शनिक शंकर न 'आत्मा का गीत ' मा  चेतना क  परिभाषा कार   अर दिखे जाउ  त रौंस की यै  गति च

                       

                                     आत्मा क गीत

 

ना मि अहम् अर ना मि  कारण,

ना मि मन, ना इ विचार 

ना मि सुणे सक्यान्द् ,ना शबदुं से ढळे स्क्यान्द ,

ना कबि मी सुंग्याई , ना कबि मी दिख्याई   

ना उज्यळ मा,  ना  इ अन्ध्यर मा कैन पाई

ना त मि पृथ्वी मा रौंद  ना इ मि अगास मा रौंद     

मि त चेतना छौं , रौंस को दुसरो रूप बस,

मि त आनंद को आनन्दरूप  छौं, रस्याणऔ  रौंस छौं बस

ना म्यार क्वी नाम , ना म्यार क्वी जीवन, ना मि क्वी साँस लींद . 

ना कै तत्व से मि  बौण  , ना मेरो सरैल, ना इ छौं तहबन्द   

ना मीमा जवान, ना हथ खुट , ना मि विकसित होंद

चेतना छौं मि , रौंस छौं मि , मि त विलीनता  को छौं  आनन्द

ना मि घीण,  ना मि मोह;  भरम  अर लालच को जितन्देर छौं मि   

सिक्कीन कबि मेरी भुकी नि प्याई,  गर्व मै पर  कबि नि भिड्याई 

त दौंकार ब्वालो या ब्वालो जलन, कैन  बि जनम नि ल्याई

पुराणों विश्वास , पुराणों अविश्वास , पुराणों धन, पुराणि  स्याणि -गाणि कि पौंच से दूर छौं मि

आनन्द का लारा  पैर्दु , चेतना छौं मि , रौंस छौं मि 

पाप-पुण्य, दुःख-सुख नि छन मेरी कुल-परम्परा

श्रुति ग्रन्थ, , जातरा, प्रार्थना नि छन मेरी कुल परम्परा   

अर्पण, तर्पण, समर्पण नि छन मेरी कुल परम्परा   

ना मि खाणा -बुखाणा , ना मि क्रिया खाणै, खन्देर बि नि छौं  मि 

 चेतना छौं   मि, आनन्द छौं मि, रौंस की रौंस छौं मि 

मि मिरत्यु की घंघतोळ नि छौं , जाति की खन्दक  मै फाड़ी नि सकदन

कै ब्व़े-बाबुन बच्चा बोलीक नि भट्याइ , जनम को बंधन मा मि कबि नि बंध्याइ 

ना मि च्याला ना मि गुरु , सगा, सम्बन्धी , दगड्या म्यार कबि नि ह्व़ाइ

चेतना छौं मि , रौंस छौं मि , रौंस मा विलीन हूण इ मेरो आखरी छ्वाड़  ह्व़ाइ

मि ना त जणे सक्यान्द , ना मि ज्ञान छौं , ग्यानी बि मि नि छौं, निरंकारी  रूप च मेरो

मि इन्द्रियों मा घुमणो रौंदु , पण इन्द्री  नि छन बासो मेरो

छौंमि त अमर, निर्मल अर संतुलित  ,  ना मि स्वछन्द,  ना  क्वी च  बंधन मेरो

मि चेतना छौं, रौंस छौं , जख रौंस तख च बासो मेरो

 (अनुवाद - भीष्म कुकरेती )

   

 डा राधाकृष्णन न शंकर भाष्य पर भौत इ बढिया टिप्पणी लिखीं च (भारतीय दर्शन, -२, पृ. ३८२ -५७७  )

अर यिं टिप्पणि क लगा बगी इ भौत सा साहित्यकारून दुसर ढंग मा रस व्याख्या कार 

जन की डा.हरद्वारी लाल शर्मा न रस, रस्याण को अध्यात्मिक हिसाबन इन व्याख्या कार - 

१- रस औ बान आत्मा की जरुरात -
 
आत्मा रस औ बान एक सौंग जरोरात च

२- रस ल़ीणो बान रसिक ऐ  स्वीकृति , रौंस अर रौंस मा डुबणो बान एक जागृत इच्छा (रसेच्छा ) जरूरी च.

३-हाँ रसेच्छा रौंस मा बाधक बि ह्व़े जान्दो. याने की चेतन मन मा रसेच्छा नि  होण चयेंद  पन विरोधाभास याच

अनुत्तेजक  इच्छा रस पैदा नि करदी 

४- एक हौर विरोधाभास च बल रसयाण लीणो बान इच्छा दमन बि जरुरी च.

५- साहित्यौ अर काला अ रौंस अ बान मन तैं अमन करण बि उनि जरुरी च जन योगभ्यास मा मन को रेचन हुंद.

६-दर्शकूं मन रेचन का वास्ता साहित्य अर कला मा  गति लये  जांद जै तैं संगीत मा लय  बि बुले जांद .

आज बि भग्यान ललित मोहन थपलियालौ 'खाडू लापता ' नाटक पसंद करे जान्दन किलै कि ये स्वांग मा गति च.

७- नाटकों /स्वान्गुं  मा दिखंदेरुं मन तैं अमन करणो बान या मन रेचन का वास्ता कति सुल्ट-ब्याग अर कबि कबि टुटब्याग

 बि करण पोड़दन.

८- रस लींद दें बुद्धि  तर्क, विचार, कल्पना से मन तैं  निर्णय दींदु. हाँ जब बुद्धि कबि जादा हावी ह्व़े गे त ह्व़े सकद च

रौंस या रसयाण मा  व्यवधान आई जालो. एकी स्वांग मा जादा रस होण से बि रस्याण मा व्यवधान ऐ जान्दो.

अर यो इ वजै च बल नरेंद्र कठैत को 'डा.आशाराम', भीष्म कुकरेती क 'बखरों ग्वैर स्याळ', अर ललित केशवान

कु ' लालसा' अर  कुलानंद घनसाला क ' मनखी  बाग' अर गिरीश सुंदरियाल औ 'असगार' स्वांग अलग अलग दिखेन्दन.

जख कुलानंद घनसाला क ' मनखी  बाग' अर गिरीश सुंदरियाल औ 'असगार' स्वान्गुं मा जादा रस अर जादा भाव छन वुख

नरेंद्र कठैत को 'डा.आशाराम', भीष्म कुकरेती क 'बखरों ग्वैर स्याळ', अर ललित केशवान कु ' लालसा' मा संख्या क हिसाबन

रस अर भाव काम से कम छन. फिर गिरीश सुंदरियाल औ स्वांग ' ल़े ऐली पौड़ी !' अर 'असगार' मा बि रस/भाव संख्या क कारण

' ल़े ऐली पौड़ी !' 'असगार; से जादा रौन्सदार चितये जांद किलैकि 'असगार मा ' भौत सा रस अर भाव  छन जब कि ' ल़े ऐली पौड़ी !'

द्विएक  रसुं पर केन्द्रित हूण से जादा रौंस दे सकद . इनी 'लालसा' जादा प्रभाव छोड़दु किलैकि 'बखरों ग्वैर स्याळ' अर 'डा.आशाराम'

मा 'लालसा' से जादा रस छन. फिर भीष्म कुकरेती छ्वटु सि स्वांग ' स्पर्ष सुख' जादा याद औंद किलैकि ए स्वांग मा सबसे कम रस छन.

त नाटकूं क खासियत हूण चयेंद बल  बुद्धि  मन पर कम से कम हावी ह्वाऊ.

पण फिर तर्क, कल्पना अर विचार बि जरूरी छन किलैकि ये मामला मा मन बुद्धि  कि इ सुणदो .

मन अर बुद्धि मा संतुलन रावो त चित्त रस मा बौगण बिसे जांद.

९- अहम् बुद्धि अर मन को अधिष्ठाता च त सौब रस्वादन मा  अहम् को ही काम च.

हैंको ढंग मा इन बुले जांद बल जब अहम म्येरो से अलग हेवेक स्वयम मा आंदो .अर रस्वादन या रस्याणो रौंस

लीणो कुणि स्वयम मा इ आण जरोरी च . पन इखम बि विरोधाभास होंद. जन की स्वयं को रस क अनुसार कार्य करण से

रस्याण खतम ह्व़े जांद अर जु रस मा णि डुबद त रौंस नि आन्द.

१०- विलियम जेम्स अर कार्ल लांजे क मनोवैज्ञानिक सिद्धांत से  वाह्य संसार से सरैल मा फ़िजिऔलौजिकल  बदलाव होण से

हम भावु पर प्रतिक्रिया करदवां या भैरो  चेष्ठा से   सरैल मा फ़िजिऔलौजिकल प्रतिक्रिया होंद. रौंस क बान सरेल अर भितरौ

चेष्टाओं मा बदलाव जरुरी छन.

११- कला, स्वांग या हौर दृश्य-काव्य मा ध्यान, अवधान, कल्पना, स्मृति, इन्द्रियुं से सम्वेदना ग्रहण जन बात जरूरी छन.

यां से मुखोऊ मिजाज मा बदलाव आन्द अर दिखे जाव त रौंस सरैलो अंग च.

१२- कला मा गति क सम्बन्ध जिकुड़ी/ह्रदय से च

१३- संतुलन अर संगति को मूलोस्थान सरैल, सम्वेदनशीलता अर हौरी चेष्ठा छन.

१४- रस मा जिन्दगी भार से  मुक्ति मिलदी अर यीं मुक्ति क नाम च आनंद जु कुछ नि च बल्कण मा व्यक्तित्व-विलय च

१५- व्यक्तित्व विलय से एक नै सृष्ठी  पैदा होंद जो समौ, जगा, जाती, तर्क, सत्य , न्याय, विवेचना  आदि से अलग च.

१६- आत्म-सत्ता अनुभव से मूल भावना जनमन्दन जौं तैं धर्म, नीति, सभ्यता, संस्कृति न दबायुं रौंद

१७- रसानुभूति जीवनऐ एक सरलतम अनुभूति च

१८- रस्वादन या रस्याण मा स्वछन्द गति या साक्षात् स्वतंत्रता क दर्शन होन्दन.

१९- वस्तु तैं तोले जै स्क्यान्द च पण रौंस तैं ना त नपे जै सक्यांद ना ही विश्लेषित करे जै सक्यांद

 

               पतांजलि क योग दर्शन मा स्वांग्कारूं बान हिदैत   
 
.  पतांजलि क योग सूत्र स्वांगकारूं बान कामौ  सूत्र छन

तदा द्रष्टुः स्वरुपेअव्स्थानम् ।३।

तब, चेतना/आत्मा अपणी जोगमाया मा चमकदी

वृतिसारूप्यमित्र्त्र ।४।

हौरी समौ पर चेतना /आत्मा कबजाळ (वृति /फ़्ल्क्चुएसन) मा दिखे जांद

वृत्तय्यः   पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ।५।

वृति/कबजाळ/हेराफेरी पांच तरां होंदी अर कष्टकारी होंद 

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ।६।

प्रमाण- सै ज्ञान , अनुभवगत ज्ञान

विपर्या - मिथ्या ज्ञान या मिथ्या समझ

विकल्प - शक, सन्देह . कल्पना /दिवास्वप्न

निद्रा- सुपिन ,  अवचेतन मन

स्मृति - समळौण , याद

इ पांच इ वृति  (फ़्ल्क्चुएसन) पैदा करदन

 मतबल दर्शकूं सै ज्ञान, मिथ्या ज्ञान, कल्पना /दिवास्वप्न की शक्ति , अवचेतन मन अर स्मृति क ख्याल नाटक मा हूणि चएंदन

 

                     रस, रस्याण अर रौंस पर भारतौ  स्वांग- शास्त्र्युं  विचार

 

 भरत मुनि क नाट्य शास्त्र तैं भारत मा बि बि उथगा इ मान्यता च जथगा जब भरत मुनि न रची छै  ,क्वी बि भारतीय कथगा बि पाश्चात्य्वादी

ह्वाऊ तबि  बि बगैर भरत मुनि क नाट्य शास्त्र की बात कर्याँ वो नि रै सकदो. भरत न रस अध्याय (६- ३२-से अगने ) मा रस अर भाव

अध्याय ९७-४ से अगने) मा भावुं बारा मा इन लयाख की मनोविज्ञान मा बि इ सत्य साबित हूणा छन .

१- सौन्दर्य से रिझण-भिजण  हमारी मूल प्रवृति  च

२- सौन्दर्य क आकर्षण से रौंस आन्द जु जिन्दगी क हौरी रसों से बिगळयूँ होंद

३- कला क पारिस्थित्यूँ तैं विभाव बुल्दन

४- विभावुन मा आल्म्बन अर उद्दीपन द्वी करण होन्दन जन से रौंस आँदी

५- स्थाई भावूँ बढ़ोतरी ही रस पैदा नि करदन बल्कण मा  विभाओं से इ रस सम्पन  हूण चएंद.

६-स्थाई भाव ऊँ क मूल टेक /अडसारा रसिकौ   (दर्शक अर अभिनय कर्ता ) रौंस से लिप्त चेतना च

७-रसिक विभाओं से आकर्षित होंद

८- रौंस मा खाली मन इ प्रभावित णि होंद सरैल मा बि फिजियोलौजिकल बदलाव आन्दन

९- रौंस औण मा खाली स्थाई भाव इ नि स्फुटित होन्दन बल्कण मा हौरी मानसिक क्रिया बि शामिल होन्दन

जौं तैं ब्यभिचारी भाव बुले जांद.

१०- जन योग मा शम महत्व पूर्ण च उन्नी नाटकूं मा  हौरी मानसिक फ्लक्चुएसनों को खतम होण बि जरोरी च

११- वस्तु मा कार्य-कारण सिद्धांत की अपणि अहमियत च

 

                 रस, रस्याण अर रौंस पर पश्चिमी विचार

 
 
           पश्चिमी दर्शन अरस्तु क मिमेसिस याने अनुकरण से शुरू ह्व़े. मिमेसिस को हिसाब से चित द्रव्य को द्रवित(पिगळण )  होण से इ

रस जनमद /पैदा होंद .यूरोप मा भावना क स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नि छौ

यूरोप मा पालि दें दार्शनिक कांट न रौंस मा विचार, भावना अर संकल्प को महत्व स्थापित कार. जां से  भावना, रेचन, विकास,

विरोध अर संवान्दुं महत्व समणि आई

  पश्चिम मा मनोविज्ञान मा प्रगति होण  भौत सि बात नाटकूं खुणि सामणि ऐन जांको छाण-निराळ अग्वाड़ी अ अध्याऊं  मा होलू

 

                    रसिक को व्यक्तित्व

    भरत नाट्य शाश्त्र मान्य बि च नाटक मा दर्शक इ रसिक नि होन्दन बलकण मा स्वांग करदार बि रसिक होन्दन.

जब तलक स्वांग करदार रौंस मा रसिक कि भूमिका नि निभाला ट नाटक पूरो होलू इ ना. इलै नाटक कि पूरी टीम अर दर्शक रसिकों श्रेणी मा आन्दन

व्यक्तित्व भौत सा घटकों मिळवाक् च इखमा सरैल बि च ट मानसिकता बि च. मानसिकता मा समाज, अर अनुभव सौब ऐ जान्दन.

 

 बकै अग्वाड़ी क सोळियूँ मा......

१- नरेंद्र कठैत का नाटक डा ' आशाराम ' मा भाव

२-  गिरीश सुंदरियाल क नाटक 'असगार' मा चरित्र चित्रण

३- भीष्म कुकरेती क नाटक ' बखरौं ग्वेर स्याळ ' मा वार्तालाप/डाइलोग

५- कुलानंद घनसाला क नाटक संसार 

 

  Copyright@ Bhishm Kukreti

 

Bhishma Kukreti:
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Bhishma Kukreti:

                   गिरीश सुंदरियालौ नाटक 'असगार' मा चरित्र चित्रण - part 5
 

                                    भीष्म कुकरेती

      गढवाळी गिताड़  कवि गिरीश सुंदरियालौ 'असगार' पैलो स्वांग खौळ/नाटक संग्रह  च जैमा  पांच नाटक छन .

'असगार' नाटक 'असगार' खौळ कु एक स्वांग च.

    'असगार' एक आदर्शवादी अर सीख दिन्देर स्वांगऔ ज़ात /कोटि मा आन्द . कथा सपाट ब्वालो या सरल ब्वालो च .

कथा गढवाळि  गौंऊँ मा पलायन से जन्मीं समस्या अग्वाड़ी लाणै  एक कोशिश लगद. महिमा नन्द की बडी कुटमदारि

च - चार नौं अर वोंका परिवार, बेटी अर वीक परिवार . पण सबि देस उन्द (मैदानी शहरूं )  मा नुँकरी करदार छन .

 ड्याराम बस अस्सी सालौ महिमा नन्द अर वैकी घर्वाळी   रौंदन. महिमा  नन्द औ सबि नौन्याळ चांदन बल वुनको बुबा जी

ड्यारक पुंगड़ बेचीं दयावान जां से शहरूं मा   पैसों वजै से वुंका रुक्याँ  काम पूरा ह्वेजावन. महिमा नन्द आपन जिंदु

रौंद पुंगड़ो एक दौळ बि बिचणो तैयार नी च.  बस अब पुंगड़ पटळ तबि बिकी सकदन जब महिमा नन्द मोरल!  यीं कथा मा

छ्वटि छ्वटि हौर कथा बि छन

                 सरा स्वांग कथा पर कम चरित्र चित्रण पर इ निर्भर च . कथा मा रहस्य नी  (अब क्या ह्वाल तब क्या ह्वालनी च )

 च त सरा गर्रू चरित्र चित्रण इ उठान्दू. 

                      १-  महिमा नन्द (८० साल)

 महिमा नन्द औ परिचय पैलि दिए गे - कलजुग मा सतजुगी मनिख. पंडितैं से जीवन यापन अर नामी बिरतिवान . महिमा नन्द इ स्वान्गौ

हीरो च अर दिखे जावो त नाटक की असली कमजोरी बि च. या बात सच बि च बल असलियत मा गढ़वळि गौं मा  बूड बुड्या इ संघर्ष करणा छन.

पण नाटक मा महिमा नन्द को संघर्ष संघर्ष णि रै जान्दो जो नाटक मा उदेस्यपूर्ति  बान चएंद छौ .जो काम महिमा नन्द न करण छौ आखिरैं

महिमा नन्द औ पुंगड़, पटळ, कूड़ तैं करण पोड़ .

 महिमा नन्द तैं पंडित दिखाई त संस्कृतौ श्लोक, अड़ाण वळा अर मुवारों से भरपूर वाक्य चरित्र पर सजदा छन अर बिगरौ इ नि दीन्दन बल्कण मा

चरित्रौ विकास मा मददगार बि छन.

एक वचळयात  औ अनुभव कारो - "हाँ! ब्यटा त्यरा ब्व़े बाबुन त पूर्ब जनम तप कर्याँ रैन तबी त वूं तैं इनी संतान

मिले नथर आजकाल कु पुछणु कै तैं .. "

   या

" शाबाश ब्यटों , सेवा करिल्या त मेवा पैल्या"

  महिमा नन्द अपण घर्वळी गौरा   से प्रेम करदो अर वींको सहतर  सालकी उमर मा इथगा मेनत से दुखी च पण कुछ कौर सकण मा लाचार च

महिमानंद ग्यानी च पण सिद्धान्तुं तैं एक्जिक्यूट करण मा लाचार च .भाषण दे सकुद पण बदलौ    लाण मा अस्क्य च

महिमा नन्द अर प्रभु चरित्रौ बीच यू सम्वाद -

"भुला ! स्य सडक , क्य कंडयाई. भुला, हमर त सबि पणचरा  सेर कटे गेन . अर फूका कटेण  द्या. जब मेरा नौना -ब्वार्युं तैं याकि

जर्वत इ नी च त मिन बि क्य करण. सी त बवना छन कूड़ी   पुंगडा बेचा अर रूप्या  हम खुणि भ्याजा

 महिमा नन्द भाग्य पर भरवस करदो जन कि या बच्ल्यात -

"भुला तैं धरती को इत्गा तिरस्कार ह्वालू वींको ब्रह्म क्या ब्वालाल. अरे क्या हो ण वींको 'असगार' त जरोर लगल इ "

  महिमा नन्द एक आम गढ़वाळी च जो चैक बि कुछ नि कौर सकद .

                                  २- गौरा (७० साल)

 महिमा नन्द कि घरवळी नाम गौरा च ज्वा वूं जनान्यूँ प्रतिनिधित्व करदी जौंक नौन्या ळ ब्वारी भैर देस नौकरी करदन

अर यीं उमर मा घौर समाळण पोड़द . गौरा आम भारतीय पुराणी जनानी च जै  तैं या त परिस्थिति या समाज हिटान्दू.

                             ३- भार्तु (५५ साल)

भार्तु डिल्ली नौकरी करदो अर वख वैकु नौनू ब्यौ होण वळ च  .वैक बुबा जु गाँव इ रौंदन अर भार्तु अपण

 ब्व़े बाबू बुल्युं मनेंदर ए कलौ श्रवण कुमार च  . रोल छ्वटु च पण कखी ना कखी असरकारी च

                         ४- गज्वा (२३ साल)

  गज्वा आजौ  गढवाळ मा वीं नै छिंवा ळि क प्रतिनिधत्व करदो जो उदेश्य जाणिक बि उदेस्यहीन च .

छ्वारा छापर गजवा तैं महिमानंद न बिरती  बाड़ी सिखयीं च  अर वो एक मयळु, कामगति, स्ब्युं दुखसुख मां काम

 औण वळु  अणब्यवा जवान च. असल मा ये स्वांग मा सूत्रधारौ काम बि करदो .कबि कबि जवानी क जोश

मा कैकी ब्वारी पर कुटक बि लगान्दु

                     मुन्नी घसेर (२५ साल)

यू चरित्र मै तैं माफिक नि आई बस बीच मा गज्वा क कुटक दिखाणो बान ये सती-सावित्री क चरेतर डाळे
 
गे।

                 ५-  प्रभु (६५ साल ) अर वैकी घर्वळि लक्ष्मी (६० साल)

  प्रभु वैकी घर्वळि लक्ष्मी क चरित्र कथा मा आदर्शवाद लांदन.  टा जिंदगी देस मा रैन जौन इखाक घौर बेचीं दे  छौ.

अब जैक यूंक समाज मा आई की पितर कुड़ी बेचिक ठीक  नि कारि

वैकी घर्वळि लक्ष्मी  आपन नौनु अर  ब्वारी लेकी गाँव आन्दन नयो कुड़ो बान जमीन खरीदन्दन .

य़ी द्वी चरित्र गढवाळी प्रवास्युं  वीं जनरेसन का प्रतिनिधत्व करदन जो प्रवास का तरास भुगतणा छन अर

नि चैकि बि कुड़ी बिचदन अर फिर पाप मुक्ति बान वापस अपण घोल मा अन्दन.

सबसे बढिया सीन च जखम लक्ष्मी आपन उजड्यु  कूड देखिक एक चीज/वस्तर याद करदी .

प्रभु - अब क्या खुज्या नि छे यां!

लक्ष्मी- मेरी एक दगड्या  छे 

प्रभु- दगड्या ! क्या दगड्या

लक्ष्मी - छ्वारा  ! उर्ख्यळि । या च मेरी दगड्या

               ६-प्रमोद (३० साल)

 प्रभु नौनु  प्रमोद पैलि गढ़वाळ मा रयुं, डिल्ली मा नौकरी करद  च अर अब आपन बुबा जी क बुल्युं मांदो बल  घौरम बि एक कूड़ होण चयेंद.

गढ़वा ळी मुवावरा मा बात करदो जन कि, " चौंद कोट्या बांद ना बरास्युं कि बागण .."

            ७-परमिला (२५ साल)

  परमिला प्रमोद की घरवळी च. गढ़वा ळी समजदी च  पण बोली नि सकदी 

वा बि आपन परिवारू इच्छा मा साथ दीन्दी

         ८- पप्पू (३५), मीना (३० ) , किन्नू अर कालू (छ्वटा नौन्याळ )

   पप्पू महिमा नन्द औ छ्वटु नौनु च पप्पू अर वैक घरवळी मीना जौंक एक बेटी अर एक नौनु च .

पप्पू भैर नौकरी करद अर आपन बाल बच्चों तैं गां बिटेन आपन दगड लिजाणो आन्द अर ल़ी जान्द .

आखिर किलै वो ड्यार बिटेन आपन बच्चों तैं लिजांद वां पर पप्पू का डाईलौग  छन

पप्पू (प्रमोद से) वो ट ठीक च पर (पहाड़ की) सुख शान्ति अर हवा पाणी से पेट थ्वड़ा  भ्वरेंद 

पप्पू (अपणि ब्व़े से ) - मा खराब त हम तैं बि लगणु च पन बच्चों भविष्य क सवाल च .."

                    ९- रमेश  (५५) अर सुरेश (५०) अर १०- कूड़, पुंगड़ आदि

  रमेश  महिमा नाद औ बड़ो नौनु च त सुरेश म्न्झिलो नौन. नाटककार न यूँ दुयूं तैं खलपात्र बणै पान पात्र चरित्र चित्रण म

स्वांग्कार न यूँ दुयूं तैं अपण अपण  हिसाब से आर्थिक रूप से कमजोर  बताई अर तबी य़ी द्वी ड्यारो पुंगड़ बिचण चाणा छन

रमेश ( फोन पर सुरेश से )- भूका जब बिटेन दुया नौनु ब्यौ ह्वाई दुई अपना घर मा बिराणा ह्व़े गेन.

कमरा बि द्वी इ छया दुयूं पर युंको कब्जा ह्व़े गे.  पैसा हुंद त एक कमरा बणान्दू

सुरेश - मी तैं बि पैसों सख्त जरोरात च . बेटी ब्यौ मा एच.एम् वास्ता साथ हजार रूप्या चयेणा छन ''

फिर रमेश (अपण पिताजी से )  पिताजी ! कुतमदारी कारण इ त दुखी छौं. घरव ळी बीमार रौंदी, मै पर सुगरै

बीमारी च. रै णा तैं एक कमरा नी च, हम द्वी बरामदा मा सीन्दा....

           यूँ द्वी चरित्र तैं खलपात्र बणै त दे पण क्वी इन खाल काम यूँ से इन णि ह्व़े जु यूँ तैं खाल पातर मानल.

यूँ दुयूं क परिचय मा इ नाटककार न रमेश अर सुरेश तैं आर्थिक रूप से कमजोर बताई दे . इन मा कन कै  क

दर्शक खलपात्र से  घीण या क्वी हौर गुसा कारल?

                               

बकै चरित्रुं चरित्र चित्रण त ठीक च पण रमेश अर सुरेश को चरित्र विकास मा नाटकार से भयंकर गलती ह्व़े गे.

पैलि कळकळी दिखाओ अर पातर पर सहानुभूति जतावो अर फिर एकदम ऊँ तैं खलपात्र बणाओ त नाटक मा इच्छित

भाव अंकुर्याण /उपजाण मा कठनै त आली इ.

  अंत मा घौरे कुड़ी पुंगड़ी आदि रमेश, सुरेश अर पप्पू तैं 'असगार  दीन्दन वो क्वी प्रभाव नि छोड़द किलैकि   

गिरीश सुंदरियाळ से गल्ति या  ह्व़े बल पैलि इ  रमेश/सुरेश से सहानुभूति दिखये गे.

  पात्र अपण अपण  हिसाब से छाळी गढ़वाळी  बुल्दन. सुरेश अर रमेश छोडिक हौरुं चरित्र विकास ठीक  दिखाए गे 

 .कथा क बनिस्पत चरित्र नाटक मा हावी छन अर हरेक चरित्र असली इ दिखेंद चाहे

वो खल पात्र इ  किलै नि च .

 

Bhishma Kukreti:
बुडया लापता : रौंस  दिलंदेर हंसोड्या स्वांग फाड़ी - १

 

                  भीष्म कुकरेती
   
 मुंबई का सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लिखवार, स्वांगकर्ता भग्यान दिनेश भारद्वाज ,

अर सामाजिक कार्यकर्ता रमण कुकरेती को लिख्युं  नाटक   'बुडया लापता' पर लिखण  से पैली 

नाटक कत्ति  किस्मौ होन्दन पर ज़रा छ्वीं  लगी जवान त ठीकि रालो

           स्वांग/नाटकूं तैं भौं भौं ढंग मा फड़े  (विभाजित ) जै सक्यांद

 

१- रचनौ   हिसाबन- एक दृषौ एकांकी, बिंडी दृश्यौ एकांकी, सूत्रधारी अर एक पात्रीय नाटक

२-साधनौ  हिसाबन - स्टेज, टेलीविजन/वीडिओ/फिल्म/रेडिओ , नुक्कड़ बानौ जन स्वांग 

३- भाषौ  हिसाबन - गद्यात्मक, पद्यात्मक, गद्य-पद्य वळ, म्यूजिकल ड्रामा

४- वाद या सिधांत वळा  स्वांग - आदर्शवादी, असलियत वादी , अति असलियत वादी, प्रगतिवादी, साम्यवादी या समाजवादी,

धार्मिक पंथवादी,  कलावादी, प्रभाव वादी, प्रतीकात्मक  या हौर कें हैंकि कला से प्रभावित नाटक 

५- विषयौ हिसाबन - सामाजिक, इतियासौ , राजनैतिक, चरित्र प्रधान स्वांग

६-बृति हिसाबन - समस्या प्रधान, व्यंगात्मक , हंसोड़ी  गम्भीर,  आलोचनात्मक , अनुभूति प्रधान  जन रुवाण वळ आदि

७- ब्युंत/शैली हिसाबन - शब्द-अर्थ से सरल वळ, चबोड्या  /व्यंगात्मक, हंसोड्या, विचार प्रधानी , गिताड़, भड़ प्रधान/ओज पूर्ण ,

८ -अंत हिसाबन - दुख्यर अंत, सुख्यरु  अंत, मजेदार /रौन्सदार 

                  कौमेडी  या  हंसोड्या  स्वान्गुं बारा मा कुछ विचार
 

   कॉमेडी पर भौत सा विचार छन अर हंसोड्या स्वांग दुन्या मा भाषौ  दगड़ इ ऐ गे होला

कॉमेडी स्वान्गुं बारा मा संक्षेप मा जणगरूं  इन विचार छन

१- पुराणो  भारतीय हंसोड्या ब्यूंत  - विदुसक को होण जरूरी छौ. इक तलक की बीसवीं सदी मा

अमिताभ बच्चन को आण से पैल हिंदी फिल्मुं या भारतीय फिल्मुं मा हीरो  क अलावा हंसोड्या कलाकार फिल्मुं मा जरुरी

छया. आज बि इनी च

२- पुराणो युनानौ ब्यूंत :प्रथम, मध्य अर आधुनिक  अर अरिस्टोफेंस व मेनानडर का स्वांग प्रसिद्ध छन

३- पुराणो रोमनौ  ब्यूंत ; यूनान बिटेन जयुं ब्यूंत रोम मा खूब फल अर फब बि च . प्लेटो अर टेरेंस कॉमेडी क फून्दा स्वान्ग्कार माने जान्दन .

रोम मा स्टौक चरित्रुं भरमार राई जन कि ऐडलेसेन्स, सेनेक्ष, लीनो, माइल्स ग्लोरिऔस , पैरासिट्स,  गुलाम, अनसिला, मैट्रोना, मेरेत्रिक्ष,

अर विर्गो .

खौंळयाणो बात या च   यूँ चरित्रुं बारा मा वात्सायन न अपण  'काम सूत्र'  मा वर्णन कर्युं च .

४- बुरलेस्क ब्यूंत   :  सोळवीं सदी मा इटली अर फ़्रांस मा जनम्युं सत्र्वीं सदी मा सरा यूरोप मा फैल.

५- सिटिजन कौमेडी : लन्दन मा सोळवीं सदी मा यू ब्यूंत प्रसिद्ध ह्व़े अर ये ब्यूंतौ नाम ऐलिजाबेतियन,

जाकोबियन,कारोलाइन बि च. बेन जौनसन, थॉमस मिडलटन  अर जौन मार्सटन  प्रसिद्ध स्वान्ग्कार ह्वेन

६- जोकर या क्लाउन्स  -     पच्छमी साहित्यकार माणदन बल मिश्र  मा ४५००   साल पैल जोकर ब्युंत आई पन ये इ समौ पर

भारत मा विदूषक स्वान्गुं मा छया अर जानको पुरो वर्णन भारत मुनि क नाट्य शाश्त्र मा विदूषक तकरीबन जोकर बि होंद थौ.

आज सर्कस क अलावा स्वान्गुं मा जोकरूं महत्ता बचीं च 

७- कौमेडी ऑफ़ ह्युमर्स:  हजारों  साल पैल नाट्य शास्त्र मा नाटकुं मा हौंस कनै पैदा करे जान्द मा जानकारी दिए गे.

यूरोप मा सोळवीं सदी मा कौमेडी ऑफ़ ह्युमर्स तैं प्रसिधी मील अर धड्वे छ्या  स्वान्ग्कार -बेन जौनसन अर जौर्ज चैपमैन

८- स्थितियूँ  से जन्मीं कॉमेडी या कौमेडी ऑफ़ इन्ट्रीग:  ये ब्यूंतौ निकोलो माछिवेली अर लोप डे विगा प्रसिद्ध स्वांग लिख्वार ह्वेन

९-  कॉमेडी ऑफ़ मैनर्स :  कौमेडी ऑफ़ मैनर्स मा कें ख़ास ज़ात/वर्ग पर व्यंग्य करे जांद अर वीं ज़ात या वै वर्ग का ख़ास

चरित्रुं  खाल खैंचे जान्द  . विलियम कंग्रीव आदि  प्रसिद्ध ह्वेन

१०-  ड़रयौण्या -धमकौण्या कॉमेडी : कॉमेडी ऑफ़ मेनास क जनम डेविड क्रौम्पटन (१९५८) को स्वांग 'दि लुनाटिक व्यू' से ह्व़े.

इन स्वान्गुं मा ध्वंस बृति पाए जान्द अर फिर हौंस पैदा करे जान्द

११- कळकळी अर हौंसौ मिळवाक, कोमेडी लैमोयांटे   या कॉमेडी ऑफ़ टियर्स : उन त यू ब्यूंत सबि लोक नाटकुं मा मिल्दो पण साहित्यौ हिसाबन

पैल पैलु  कॉमेडी ऑफ़ टियर्स फ़्रांस मा अठारवीं सदी मा शुरू ह्व़े. थौमस हेवुड  ये ब्युंत को मास्टर बुले जान्द

१२- मुखौटों कौंळ : या विधि सोळवीं सदी मा  इटली मा शुरू ह्व़े छे जां मा चरित्र को मुख सजाये जान्द, जांको जिक्र नाट्य शाश्त्र मा छें च

फ़्रांस को जैक कोपे (१८७९-१९४९) न ये ब्यूंत से आधुनिक स्वान्गुं तैं गाँ गाँ पंहुचाये. 

१३- भावनात्मक हंस्योड्या स्वांग : यूरोप मा कोली सिब्बर अर रिचर्ड स्टीले ये ब्युंत का सूत्रधार माने जान्दन

१४- अति यथार्थवादी : बीसवीं सदी क देन यीं ल़ा शाखा मा बि हंसदेरा स्वांग छन.

१५-तर्कहीन या अब्सर्ड नाटक : अब्सर्ड नाटकुं शुरुवात १९६० को उपरान्त ह्व़े अर अब्सर्ड नाटकुं  मा कौमेडी बि च.

अब्सर्ड नाटककारूं मा सैमुअल बेकेट ,   यूजीन लोनेस्को   जीन जेनेट जां नाटककार प्रसिद्ध छन. दिखे जाव त अब्सर्ड मा प्रकृति वाद इ च

इख्मा गाळी गलौज तैं बुरु नि माने जान्द

 
           

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