''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता'' सुन्दर कबडोला (कुँमाऊ)
August 31, 2012 at 5:53pm
''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता''
दिन तपाता
रात कँपाता
कितने दुख
कितने गम
पथ पे मैरे
अडचन देती
शाम-सवेरे
प्रेम का बँन्धन
''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता''
कोई बाँटे
जख्म दिलो को
कोई रुलाति
मुझे छलाति
पग-पग पे
कोई भुलाति
घृणा देति
दिलको मेरे
''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता''
प्रेम का
सच्चा पंछी मिलता
मुझे हँसाति
मुझे रिझाति
प्रेम का बँन्धन
र्दद ना होता
अगर जहा मे
प्रेम ना होता
''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता''
लहु-लौहान
करते मुझको
करे अंकाल
जो प्रेम कंकाल
देते मैरे
दिलको रैते
करे विंकाल
देखको मुझको
''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता''
चमक जो जाता
प्रेम जगत मे
छिन-हतौडे
से तरस्ता
शब्द भी मेरा
उज्जवल होता
सच्चा प्रेमि
मिलता मुझको
''फिर भी मुझको र्दद नही मै पत्थर होता''
सूरज-चाँद
रोज तपाते
सच्चा प्रेमि
मुझे बताते
फिर भी देखो
दिल है रोता
मेरा लेख
मुझे बताता
''फिर भी मुझको दर्द नही मै पत्थर होता''
लेख-सुन्दर कबडोला (कुँमाऊ)