Author Topic: Manglesh Dabral Poems - मंगलेश डबराल जी की कविताएं  (Read 11609 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

We are posting here some exclusive poems and literature by Manglesh Dabral ji.


brief Introduction about Mr Maglesh Dabral

जन्म: 16 मई 1948
उपनाम--
जन्म स्थानकाफलपानी गाँव, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड,  भारत
कुछ प्रमुख
कृतियाँ
पहाड़ पर लालटेन (1981);  घर का रास्ता (1988);  हम जो देखते हैं (1995)
विविधओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982); श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989) और " हम जो देखते हैं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार (2000) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।
जीवनीमंगलेश डबराल / परिचय
http://www.kavitakosh.org/
 
मंगलेश डबराल / परिचययहां जाएं: भ्रमण, खोज मंगलेश डबराल  का जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल  उत्तराखंड के कापफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा हुई देहरादून में।
दिल्ली आकर हदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद में भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनउ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं। मंगलेश डबराल के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन / मंगलेश डबराल , घर का रास्ता / मंगलेश डबराल, हम जो देखते हैं / मंगलेश डबराल  और आवाज भी एक जगह है / मंगलेश डबराल  । साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पहल सम्मान से सम्मानित मंगलेश जी की ख्याति अनुवादक के रूप में भी है।
मंगलेश जी की कविताओं में भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंगे्रशी, रूसी, जर्मन, स्पानी, पोल्स्की और बल्गारी भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुवेफ हैं। कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के सवालों पर नियमित लेखन भी करते हैं। मंगलेश कविताओं में सामंती बोध एव पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है। वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपना रचकर करते हैं। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी।


M  S Mehta
 



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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MANGLESH DABRAL (India)
Manglesh Dabral is a major voice in contemporary Hindi poetry. His poetry has been translated into major Indian and foreign languages. He has recited his poetry in major capitals of the world, and also got Writers Programme Fellowship from Iowa University, US. He has also received the prestigious Sahitya Akademi Award.
 
 
ACCOMPANIST
Accompanying the main singer’s monolith-weighed voice
 His own is beautiful delicate and quavering
 He is the singer’s younger brother
 Or his apprentice
 Or a distant relative who travels on foot to learn
 Under the main singer’s baritone
 He matches his own echo since old times
 Singing the second verse through tone’s intricate jungle
 Lost in
 The scale’s unstruck note
 Straying into the scale’s further reaches
 It is the accompanist who keeps the theme steady
 Like gathering up the main singer’s left-behind objects
 Like reminding him of his childhood
 When he was just a novice
 In the higher registers when the singer’s voice gives way
 Inspiration leaving him fervour fading
 His voice shedding ash-like
 It is then that blending with the main singer
 Appears from somewhere the accompanist’s tone
 Sometimes he simply sings to join in
 To remind the singer that he is not alone
 And that once again the song can be sung
 The same raga that has already been sung
 And in his voice the faltering that is audible
 Or his voice’s attempt at not raising the high notes
 This shouldn’t be taken as his incompetence
 But his own humanity.
 
For Children, a Letter
Dear children, we were of no use to you. You wanted us to spend our precious
 time in your play. You wanted us, in our play,
 to include you. You wanted us to become innocent like you.
Dear children, we only told you that life is a battleground where
 we fight endlessly. It was we who sharpened our

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वसंत / मंगलेश डबरालइन ढलानों पर वसन्त
आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुंधवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अंधकार

 चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख

फिर उभरेगा झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगी जैसे बीते साल की बर्फ़
शिखरों से टूटते आएंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान

 (रचनाकाल : 1970)




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आवाजें / मंगलेश डबराल
कुछ देर बाद
शुरू होंगी आवाज़ें

 पहले एक कुत्ता भूँकेगा पास से

कुछ दूर हिनहिनाएगा एक घोड़ा
बस्ती के पार सियार बोलेंगे

 बीच में कहीं होगा झींगुर का बोलना

पत्तों का हिलना
बीच में कहीं होगा
रास्ते पर किसी का अकेले चलना

 इन सबसे बाहर

एक बाघ के डुकरने की आवाज़
होगी मेरे गाँव में ।

 (रचनाकाल :1979)

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गिरना / मंगलेश डबराल

सबसे ज़्यादा ख़ामोश चीज़ है बर्फ़
उसके साथ लिपटी होती है उसकी ख़ामोशी
वह तमाम आवाज़ों पर एक साथ गिरती है
एक पूरी दुनिया
और उसके कोहराम को ढाँपती हुई

 बर्फ़ के नीचे दबी है घास

चिड़ियाँ और उनके घोंसले
और खंडहर और टूटे हुए चूल्हे
लोग बिना खाए जब सो जाते हैं
वह चुपचाप गिरती रहती है
बर्फ़ में जो भी पैर आगे बढ़ता है
उस पर गिरती है बर्फ़

 बर्फ़ गिर रही है चारों ओर आदि-अंतहीन

रास्ते बंद हो रहे हैं
उस पार कोई चीखता है
बर्फ़ पर उसकी आवाज़ फैलती है
जैसे ख़ून की लकीर

 (रचनाकाल :1976)

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यहां थी वह नदी / मंगलेश डबराल
जल्दी से वह पहुँचना चाहती थी
 उस जगह जहां एक आदमी
 उसके पानी में नहाने जा रहा था
 एक नाव
 लोगों का इंतज़ार कर रही थी
 और पक्षियों की कतार
 आ रही थी पानी की खोज में


बचपन की उस नदी में
 हम अपने चेहरे देखते थे हिलते हुए
 उसके किनारे थे हमारे घर
 हमेशा उफनती
 अपने तटों और पत्थरों को प्यार करती
 उस नदी से शुरू होते थे दिन
 उसकी आवाज़
 तमाम खिड़कियों पर सुनायी देती थी
 लहरें दरवाज़ों को थपथपाती थीं
 बुलाती हुईं लगातार


हमे याद है
 यहाँ थी वह नदी इसी रेत में
 जहाँ हमारे चेहरे हिलते थे
 यहाँ थी वह नाव इंतज़ार करती हुई

अब वहाँ कुछ नहीं है
 सिर्फ रात को जब लोग नींद में होते हैं
 कभी-कभी एक आवाज़ सुनायी देती है रेत से

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पहाड़ पर लालटेन

 रचनाकार:     मंगलेश डबराल
प्रकाशक:     राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली

वर्ष: 1981,1997
भाषा: हिन्दी
विषय: --कविता
शैली: --
पृष्ठ संख्या: 72

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कविता / मंगलेश डबराल
 कविता दिन-भर थकान जैसी थी

 और रात में नींद की तरह

 सुबह पूछती हुई :

 क्या तुमने खाना खाया रात को ?

 (रचनाकाल : 1978)

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तुम्हारा प्यार / मंगलेश डबराल



(एक पहाड़ी लोकगीत से प्रेरित)

 तुम्हारा प्यार लड्डुओं का थाल है
जिसे मैं खा जाना चाहता हूँ

 तुम्हारा प्यार एक लाल रूमाल है
जिसे मैं झंडे-सा फहराना चाहता हूँ

 तुम्हारा प्यार एक पेड़ है
जिसकी हरी ओट से मैं तारॊं को देखता हूँ

 तुम्हारा प्यार एक झील है
जहाँ मैं तैरता हूँ और डूब रहता हूँ

 तुम्हारा प्यार पूरा गाँव है
जहाँ मैं होता हूँ ।

 (रचनाकाल :1976)

 

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