Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 75558 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ON-LINE KAVI SAMMELAN : ऑनलाइन कवि सम्मेलन

दोस्तों,

आपके लिए एक अवसर कि आप अपने द्वारा स्वरचित कविताओ को यहाँ पर पोस्ट कर सकते है! हमने इस टोपिक का नाम दिया है ऑनलाइन कवि सम्मेलन जहाँ पर आप किसी विषय पर कविता क़ी रचना करके यहाँ शेयर कर सकते है!

मेरापहाड़ पोर्टल में वैसे काफी कवी है जिन्होंने बहुत अच्छी कविताये लिखी है जैसे परासर गौर जी, जगमोहन जी, दयाल पाण्डेय जी, सुंदर सिंह नेगी जी आदि! लेकिन अन्य सदस्य जिन्होंने ने कभी कोई कविता नहीं रची है वो यहाँ से अपनी एक कवि बनाने का हुनर दिखा सकते है !

हम यहाँ किसी विषय पर कविता रचने के Subject प्रस्तुत करंगे, देखते है कौन का कवि
कैसी कविता लिखता है! तो आएये भाग लीजिये ऑनलाइन कवि सम्मलेन में !

पहला विषय है " बसंत"  - पहाड़ो में बसंत ऋतू का क्या नजारा होता है, कविता के रूप में आप यहाँ पर व्यक्त कर सकते है !

Regards,

एम् एस मेहता 

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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wah Mehta ji kya topic hai , kaviyun ko hunar dekhane ka mouka mil gaya hai........

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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फिर से गम हर लायी है ,
फिर से ख़ुशी भर लायी है ,
पीली -पीली धरती हो गए है,
                          देखो ये बसंत ऋतू आयी है ,
योवन खिल उठा धरा का ,
हर ओर हरयाली छाये है ,
सरसों सेमल बुराश खिला है ,
वो पिछोड़ा ओडे आये है ,
                         देखो ये बसंत ऋतू आयी है
देवभूमि की रंगत बढ़ी है ,
ठिठुरता अब शिथिल पढ़ी है,
प्रिय का प्रीतम से मिलन हुवा है ,
दुल्हन अब निखर पड़ी है ,
प्रफुल्लित तन और उर मैं स्नेह लायी है ,
                         देखो ये बसंत ऋतू आयी है
घुघूती अब आने लगी है ,
कोयल भी गाने लगी है ,
सन -सन कराती शीतल हवा
ये संदेशा लाये है ,
                       देखो ये बसंत ऋतू आयी है

खीमसिंह रावत

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  पहाड़
तुम अटल, अचल हो,
वर्षो से जड़ बने हो,
मेरी कई पीढियों ने
चढ़ते उतरते पगदंदियो को
अपने नन्हे कदमो से नापकर
और किया एहसास, कि
तुम्हें छुपा दिया जाय
वृक्षो कि सघनता से
बादलो कि ओट में
उनकी अथक कोशिशों से
वृक्ष लगा लगा कर
हरा भरा बनाया तुम्हें
बादलो का झुंड भी
होता था तुम पर मेहरबान
रिमझिम -२ बरखा लाकर
नित नये नये परिधानों का
उपहार तुम्हें दे देकर
नई नवेली सा सजाता था
उनकी प्रीति नही भाई तुम्हें
तुम बने अभिमानी
मान सम्मान दर किनार कर
और ऊपर उठाने की ठानी
सूरज को छूने की जिद में
घेर लिया सर्दी की छाया ने
जब दुसरे का हुआ बंधन
सर्दी ने किया खूब मंथन
बिछाया हिम का बिछौना
सूरज ने जब आँखें खोली
दिखा सुंदर हिम का खिलौना
मन ललचाया कुछ सकुचाया
फ़िर किरणों को समझाया
तुम भी अठखेलियाँ खेलो, मगर
कर्तव्य है क्या तुम्हारा
अपने तेज स्वभाव से
इसे कभी मिटा न देना
अधिक उठाने की चाह में
दबे रहेगें अब वर्षो बरस
क्या यह अपमान नही मानव का
उसने हराभरा बनने में
जीवन गवाया व्यर्थ में
अंतर्मन से मंथन किया
पछताऊं, क्या पछताना है अब
क्यों नही समझा तब
प्यार प्राणियो का ठुकराया जब
वह मेरे ही गोद में घरौदा बनते
बंजर कोख को उपजाऊ बनते
फसलो से भरे खेतो से
हवा उड़ा ले जाती खुशबू
मैं खड़ा रहता उसकी रह में
बाट देता था खुशबू जग में
अब प्राणियो का वह झुंड
नही दिखता न ही हलचल भारी
वृक्षो ने भी छोड़ा साथ अपना
जीते जी है कैसी लाचारी

khim

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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तुम ऋतुराज हो ,
तुम सरताज हो ,
वर्ष का शुभारम्भ
तुम बसंत बहार हो,
बृक्षों को हरा बनाया,
कलियों को खिलाना सिखाया
नरों का प्यार नारायण का बरदान हो,
संतों का मगल गीत हो,
परियों का संगीत हो,
कवियों की कल्पना,
निर्धनों के मीत हो,
तुम एक आश हो,
एक बिस्वास हो,
तुम बसंत बहार हो,

jagmohan singh jayara

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नवोदित कवियों के लिए कविता लिखने को कहा गया है लेकिन रहा नहीं गया, पोस्ट कर रहा हूँ "पहाड़ पर वसंत-२०१०" पर स्वरचित कविता अवलोकनार्थ.

"बसंत की बरात"

धरती पर आई है,
तभी तो पहाड़ पर,
बुरांश की लाली छाई है,
पीले रंग में रंगि फ्योंलि,
उत्तराखंड अपने मैत आई है.

बनो बाराती आप भी,
पहाड़ी परिवेश में,
सज धजकर,
ऋतु बसंत आई है,
मन में उमंग छाई है,
मैं नहीं कह रहा हूँ,
पहाड़ से बहती हवा ने,
मेरे पास पहुँच कर,
यंग उत्तराखंडी मित्रों,
चुपके से बताई है.

लेकिन! मित्रों आज,
पहाड़ पर,
बचपन में देखी,
"बसंत की बरात" की झलक,
मन में उभर आई है,
तभी तो कवि "ज़िग्यांसु" ने,
आपको भी बताई है.

क्या आपके कदम?
उत्तराखंड की धरती की ओर,
"बसंत की बरात" में जाने को,
बढ़ रहे हैं,
कल्पना में पहाड़ पर,
ख़ुशी ख़ुशी चढ़ रहे हैं,
अगर नहीं ऐसा,
तो कल्पना में खोकर,
देख लो "बसंत की बरात",
सकून मिलेगा आपको,
क्या ख़ुशी की बात.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित  ३.३.२०१०)
www.e-magazineofuttarakhand.blogspot.com/2010/03/blog-post_4275.html
E-Mail: j_jayara@yahoo.com
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वाह वाह वह. दयाल दा एव खीम दा and Jagmohan Ji..   

वैसे मै भी कवि तो नहीं लेकिन कुछ कोशिश करता हूँ! पहाड़ में बसंत के बारे में लिखने के लिए दो लाइन 
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  देखो कस रंगत आ रेई
  पहाड़ में बसंत आ रेई
 
       बुराश क फूल हसन रेई डानो में आज
       कोयल का कूक गूजन रेई डानो में आज

  देखो कस रंगत आ रेई 
  पहाड़ में बसंत आ रेई

     भावरा रस खान में मस्त है रेई
     कफुवा गीत में गीत मस्त है रेई

देखो कस रंगत आ रेई 
 पहाड़ में बसंत आ रेई..

       पोथ पथील गैण रेई बसंत क हाल
        डाली बोटी है रेई खुशहाल..

  देखो कस रंगत आ रेई 
  पहाड़ में बसंत आ रेई

        बुरास फूली भे डानो छा रेई लाली
        पेड़ पौधों में ले छा रेई हरियाली

 


Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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bhai hum huye taali bajane wale..

kya baat .. kya baat... kya baat


tad tad tad tad tad tad....

हुक्का बू

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बसन्त हर बार की तरह आया,
लेकिन मैने इस बार कुछ और ही पाया,
बुरांस पाया कुछ अनमना और अलसाया।
पूछा मैने, तेरे आने से पहाड़ हो जाता था सुर्ख लाल,
तेरी आभा मन मोह लेती थी सबका,
तेरी पंखुड़ी छू-छूकर महिलायें पूछती,
कब आयेगी भिटौली, कैसा अहि मायका।
लेकिन आज तू ही क्यों है उदास और निराश,
उसने कहा मैं निराश नहीं, हूं हताश,
उत्तराखण्ड बनने के बाद मैं तो राज्य वृक्ष हो गया,
लेकिन इस राज्य को पाने के लिये मेरे रंग से
भी सुर्ख लहू का रंग बहाया था जिन्होंने,
आज देखकर इस प्रदेश की दुर्दशा,
उन लोगों की आत्मायें मेरी पंखुड़ि,
छू-छू कर कहती हैं, पूछती हैं,
हे बुरांश, हमारे बलिदान का यह कैसा प्रतिदान?

 

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