उत्तराखंड से हिंदी साहित्य में नयी पौध :
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दो कवयित्रियाँ : स्वाति मेलकानी और नूतन डिमरी गैरोला
दो कथाकार : अजय कन्याल और अनिल कार्की
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1. स्वाति मेलकानी : जन्म : २९ अप्रैल, १९८४ (नैनीताल)
कविता संग्रह ‘जब मैं जिन्दा होती हूँ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ का युवा नवलेखन पुरस्कार
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नदी हूँ मैं
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बरसाती नाले की तरह/ तीव्र है तुम्हारा प्यार/
चलो नाला नहीं/ झरना कह देती हूँ/
अचानक फूट पड़ता है/ और मैं/ ढलान की/
कमजोर घास को पकड़कर/ किसी तरह/
खुद को बचा पाती हूँ...
चेतना की/ जाने कितनी परतों के नीचे/ झाँकने पर
मैं जानती हूँ/ मैंने भी चाहा है तुम्हें/ निरंतर/
प्रवाह कम नहीं मुझमें भी/ पर/
तुम मुझे बाढ़ बनाना चाहते हो/
और मैं/ नदी हूँ...
2. नूतन डिमरी गैरोला : जन्म : १० जुलाई (देहरादून)
स्त्री रोग विशेषज्ञ. कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
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कुछ खोए हुए लोग
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वो लोग खोए हुए थे/
वो जिन्दा थे/ ये एक संशय था/
वो मरे भी थे/ ये पता न था/
वो आए थे/ क्योंकि उनका जन्म हुआ था/
वो जिधर डूबे थे/ उस ओर/ वक़्त की खुरचन थी/ शिकन थी/
भूख थी
धरती सूरज चाँद तारे थे/ गगन था
सदी अपने में से कुछ खोए हुए लोगों को
घटा देना चाहती थी/
जो उपस्थित नहीं थे गिनती के वक़्त...
3. अजय कन्याल : युवा कथाकार, कवि और बेहतरीन छायाकार
पिथोरागढ़ में अध्यापन, यात्रा का पैशन
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बैतड़ी जिले का भीम बहादुर
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कई बरस पहले जब वो छोटा-सा था तो अपने दल के साथ यहाँ आया था ।
कुमाऊँ और नेपाल के बीच रोटी-बेटी के रिश्ते की यह पहली कड़ी थी ।
यानी रोटी का रिश्ता ।
नेपाल से कई लोग अपने दल बना कर रोजगार के सिलसिले में भारत की तरफ को आते हैं । भाषा और संस्कृति की समानता इस व्यवहार को सहजता देती है ।
नेपाल और भारत की सीमा पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले में काली नदी के द्वारा तय होती है । इस नदी के दोनों तरफ बसे गाँव एक दूसरे के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी रखते हैं और व्यापारिक भी ।
भीमबहादुर दस वर्ष की उम्र में नेपाल के बैतड़ी जिले के किसी गाँव से कुमाऊँ के एक सुदूर गाँव में आ गया था ।
उसकी माँ नहीं थी इसलिए बाप उसे अपने साथ ले आया था ।
लाल गालोँ और बहती हुई नाक वाला वो दस वर्षीय नेपाली बालक अक्सर पिता का हाथ बँटाता नजर आता । पर कभी पिता के हाथों किसी शरारत की सजा खा या जिद पूरी न होने पर रोता तो फिर उसका पिता उसके सर पर अपनी नेपाली रंगीन टोपी रख देता और भीम खिलखिलाने लगता ।
उन दोनों पिता पुत्र के बीच का अपनापन गाँव वालों को उसकी माँ के खालीपन का एहसास कराता ।
बरसात खत्म हो चुकी थी और नेपाल से आये मजदूरों के दल अपने घर लौटने लगे थे । पर भीम और उसके पिता कहाँ जाते ?
जमीन का बहुत छोटा-सा टुकड़ा उन्हें अपने देश बुला सकने को पर्याप्त नहीं था और न ही
दस वर्षीय बालक को पाँच दिन पैदल चलने की इच्छा थी.
काम पर्याप्त उपलब्ध था और भीम का मन भी रम गया था. वे दोनों वापस नहीं गए.
(बिखरी हुई कहानियाँ से साभार)
4. अनिल कार्की जन्म : २५ जून, १९८६ पिथोरागढ़
कुमाऊँ विश्वविद्यालय से ‘छायावादोत्तर हिंदी कविताओं में रचनाविधान तथा विचारधारा’ पर पीएच. डी.
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मथुरिया की बकरी
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शाम के झुटपुटे अँधेरे में वह लड़खड़ाता हुआ टार्च पकड़कर आ रहा है और पल्ले गाँव के लोग टार्च की बेतरतीब हिलते फोकस से समझ गए हैं की मथुरिया ही होगा. नजदीक पहुँच कर उसने कहा, "मेरी बकरी खो गयी है, बताओ तो आज कौन-कौन घस्यारे घास काटने गए थे जंगल ? अगर तुमने कहीं देखा तो बताओ. मैं दिन भर परेशान हो गया हूँ." घस्यारियों ने छज्जों से बाहर देखकर बोला, "नहीं-नहीं बाबज्यू, हमने नहीं देखी! हाँ, दानसिंह को जरूर देखा था पातली गढ़ा के पास बढ़ियाठ कंधे में रखकर लकड़ियों को जा रहे थे, क्या पता उन्होंने देखा हो." यह सुनते ही मथुरिया ने टार्च के बटन पर अपना बूढ़ा बेतरतीब कटा-फटा अंगूठा जमाया और पल्ले गाँव के मल्धार तक का रास्ता तय करते हुए अपने बचपन के मित्र दानसिंह के आँगन में पहुँचा. दानसिंह पहले से ही अपने आँगन में खड़ा था. जैसे ही मथुरिया दानसिंह के आँगन में पहुंचा, दानसिंह ने मथुरिया की तरफ लपककर गर्मजोशी के साथ नमस्कार-पुरस्कार हुई और फिर मथुरिया से पहले आँखर यही कहे दानसिंह ने, "बकरी खोई होगी आज है ना! तू भी यार... क्या बार है आज ?"
मथुरिया अपनी ही भाषा में बोला – ‘मनलबार!
‘हाँ, आज मंगलबार है’ – दानसिंह ने जोर देकर कहा. ‘ये भी कोई बार है अपने बचपन के मित्र के घर जाने का, बुधवार को ही आ जाता!’...
(‘भ्यासकथा तथा अन्य कहानियाँ’ से साभार)