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उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!

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पंकज सिंह महर:
उठा गढ़वालियो ! (सत्य नारायण रतूणी)

अब त समय यो सेण को नी छ.तजा यो मोह निद्रा कू. अजौ तैं जो पडी़ ही छ
अलो! आपण मुलूक की यों छुटावा दीर्घ निद्रा कूँ,सिरा का तुम इनी गहैरी खडा़ माँ जीन गिरा यालै
आहे! तुम भैर त देखा, कभी से लोक जाग्याँ छन,जरा सी आँख त खोला,कनो अब घाम चमक्यूँ छपुराणा वीर व ऋषियों का भला वतान्त कू देखा,छयाई उँ बडौ की ही सभी सन्तान तुम भी त
स्वदेशी गीत कू एक दम गुँजावा स्वर्ग तैं भायों,भला छौंरु कसालू की कभी तुम कू कमी नी छ
बजावा ढोल रणसिंघा,सजावा थौल कू सारा,दिखावा देश वीरत्व भरी पूरी सभा बीच
उठाला देश का देवतौं साणी,बांका भड़ कू भी,पुकारा जोर से भ्यौ घणा मंडाण का बीचकरा प्यारो !
करा तुम त लगा उदोग माँ भायों,किलै तुम सुस्त सा बैठयों छयाई औरक्या नी छ
करा संकल्प कू सच्चा, भरा अब जोश दिल माँ तुम,अखाडा़ माँ बणा तुम सिंह,गर्जा देश का बीच
बजावा सत्य को डंका सबू का द्धार पर जैकभगवा दुःख दारिद्रय करा शिक्षा भली जो छ
अगर चाहयैंत हवै सकदैं धनी विद्धान बलधारी,भली सरकार की छाया मिंजे तुम कू कमी क्या छ
जागो मेरा लाल

पंकज सिंह महर:
भूतपूर्व सैनिकों की उत्तराखण्ड आन्दोलन में शहादत पर एक कविता


सीमा पर जो नही आ सके अचूक निशाने की जद़ मे
नही आ सके जो मिसाइलों -टैंकों और राँकेटो की रेंज मे,
वे आ गये बिना निशाना सधी गोलियो की चपेट में
जो देश कि सीमा पर मुस्तैदी से रहे तैनात,
मार गिराया जिन्होने न जाने कितने दुश्मनो को,
वो काम आ गये अपनी ही जमीन पर
अपने ही लोगो के बीच निहत्थे थे
अस्मिता की तलाश मे निकले,
मुटिठ्या तनी थी,
जिसमे थी इच्छायें,
इच्छाओ से पटी थी आग,
आग से जले थे शब्द,
और उन शब्दो से डरा हुआ था तानाशांह,
एक जद के खिलाफ निहत्थे खडे़ थे
हजारो के बीच वे तीन या तेरह,
पांच या सात,
और इस जिद के खिलाफगिरते-गिरते भी उन्होने
अपने खून से लिख दिया
ज...य ..उ..त्त..रा...खण्ड

पंकज सिंह महर:
मसूरी काण्ड पर लिखी गयी ह्रदय स्पर्शी कविताविदा मां ......विदा !!(जगमोहन)

जाते समय झार पर छोड़ आई थी,वह माँ कहकर आई थी अभी आती हूँ
ज...ल्दी बस्स.....तेरे लिए, एक नई जमीन,एक नई हवा, नया पानी ले आऊं ले आऊं
नई फसल, नया सूरज, नई रोटी
अब्बी आई....बस्स पास के गांधी-चारे तक ही तो जाना है,झल्लूस में
चलते समय एक नन्ही हथेली, उठी होगी हवा में- विदा ! मां विदा!!
खुशी दमकी होगी,दोनो के चेहरे पर माथा चूमा होगा मां ने- उन होठो से,
जिनसे निकल रहे थे नारे वह मां सोई पडी़ है सड़क पर पत्थर होंठ है,
पत्थर हाथ पैर पथराई आँखे पहाडों की रानी को, पहाड़ देखता है
अवा्क - चीड़ देवदार, बाँज -बुराँस, खडें हैसन्न-
आग लगी है आज.आदमी के दिलो में खूब रोया दिन भर बादल रखकर सिर पहाड़ के कन्धे पर
नही जले चूल्हे, गांव घरो में उठा धुआ उदास है खिलखिलाते बच्चे,
उदास है फूल वह बेटा भी रो-रोकरसो गया है- अभी नही लौटी मां......
लौटेगी तो मैं नही बोलूंगा लौटी क्यों नही अभी तक....!
उसे क्या पता, बहरे लोकतन्त्र में वह लेने गई है,अपने राजा बेटे का भविष्य

पंकज सिंह महर:
के दगडियों सी गोछा? (क्यूं दोस्तो सो गये?)1994 के उत्तराखण्ड आन्दोलन में अचानक विराम लगने से उत्पन्न व्यथा को कुमाऊनी कवि शेरदा "अनपढ" ने इन शब्दों में व्यक्त किया.इस दौर में भी इस कविता की प्रासंगिकता कम नही हुई है, जब राज्य बने 7 साल बीत चुके हैं और आम जनता नेताओं और पूंजीपतियों के द्वारा राज्य को असहाय होकर लुटता देख रहे हैं. कहीं भी विरोध की चिंगारी सुलगती नही दिख रही है. उम्मीद है कि शेरदा "अनपढ" की यह कविता युवा उत्तराखण्डियों को उद्वेलित जरूर करेगी.

चार कदम लै नि हिटा, हाय तुम पटै गो छा? के दगडियों से गोछा?
डान कान धात मनानेई, धात छ ऊ धात को?
सार गौ त बटि रौ, तुम जै भै गो छा?
भुलि गो छा बन्दूक गोई, दाद भुलि कि छाति भुलि गिछा इज्जत लुटि,
तुमरै मैं बैणि मरि हिमालाक शेर छो तुम, दु भीतर फै गो छा? के दगडियों से गोछा?
काहू गो परण तुमर, मरणै कसमा खै छी उत्तराखण्ड औं उत्तराखण्ड,
पहाडक ढुंग लै बोलाछि कस छिया बेलि तुम, आज कस है गो छा के दगडियों से गोछा?
एकलो नि हुन दगडियो, मिल बेर कमाल होल किरमोई तराणै लै,
हाथि लै पैमाल होल ठाड उठो बाट लागो, छिया के के है गो छा? के दगडियों से गोछा?
तुम पुजला मज्याव में, तो दुनिया लै पुजि जालि तुमरि कमर खुजलि तो,
सबूं कमरि खुजि जालि निमाई जै जगूना, जगाई जै निमुंछा के दगडियों से गोछा?
जांठि खाओ, जैल जाओ, गिर जाओ उठने र वो गर्दन लै काटि जौ तो,
धड हिटनै र वो के ल्यूंल कोछि कायेडि थै, ल्यै गो छा? के दगडियों से गोछा?

Dinesh Bijalwan:
अन्ध्यारा मा हिट्णु रौ सदानी आस मा बिन्सरी का गैणा की,

खुट्टो अबत ऐ ग्याय रफत उन्दार उकाल सैणा की,

आज तई जु रड्क्दी च जुकडी का कोणा मा,

खेल बाळ्यो मा ध्ररी थै तस्वीर वी मैणा की,

या बात  और च कि मेरा हात कुछ नि लगे

बाट्ण को त मैम ही ल्यै छा वू भरी कन्डी पैणा की /

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