Uttarakhand > Utttarakhand Language & Literature - उत्तराखण्ड की भाषायें एवं साहित्य
उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!
Rajen:
गुरु जी पहले १ कर्मा मेरी ओर से यह टोपिक स्टार्ट करने के लिए
१ और कर्मा ... (?) पोल खोलने के लिए. ;D ;D ;D ;D
पंकज सिंह महर:
पेश है श्री रतन सिंह किरमोलिया जी की कविता "लौटि आओ म्यार गौं
यौ कुड़िक ढुंग, माट्म गार, निरओ उ दिन
उदिन उणू है पैली, लोटि आओ म्यार गौं।
माठुमाठ कै बिलाणई गौं, मणि-मणि के हराणई मनखी,
बुसिण लारै मन्ख्योव सारी, ह्वैलाण लारै स्वैंण पनपी।
माठुमाट के सिराणी संस्कार, रीति-रिवाज हमार त्यार-बार,
क्यार बाई तलिमलि सारैं-सार, माठुमाट के पुरखों की मिटनै अन्वार।
गोठ पान धौ धिनाई नाज पाणि, सुकनै ऊनौ छ्याव, चुपटान, नौवोक पाणी,
हमरि पितरुं कि आपणि हौत छी जो, आ दुरांकि हौत करि यौ हरै सरग चाणि।
लेखी-जोखी खोई म्वाव, इकद्रि ह्ण छी ठुलि कुडिक,
जैस दारपदार बणी हं छी, घाव दयार और तुणीक।
मणि-मणि कै मेटिणै नौ निसाणि,
फुफाणौ अर्याटे-कर्याटे सिसौंण क भूड़,
मौनाक जावांक मौ धौ देखिण ह गो,
मौनाक जावां अडारौंल लगै हाली पूड़।
के म्यार पुरखोंक गौंकियस्से छी पछ याण,
दूद जुन्यावैकि पुज लागछी थान बार,
पितरौंक बताए बाट जांछी सब्बै,
किलै भुलि गेई आपण पर्याय अच्यानचार।
भौव हैं गौंक इतिहास पढ़्न है पैल्ली, गौंक बाट मेटिण हैं पैल्ली,
पुरखोंक पुस्तनाम द्येखण हैं पैल्ली, उ खन्यार कुणौ मि आजी ज्यों नै छों।
यौ कुडि़क ढुंग, माट, गार, नि र ओ उ दिन,
उ दिन ऊण हैं पैल्ली, लौटि आओ म्यार गौं,
लोटी आओ, म्यार गौं....................।
Anubhav / अनुभव उपाध्याय:
Good going Mahar ji aapse aur bahut saari prasidhh kavitaon ki ummid hai :)
पंकज सिंह महर:
पेश है श्री घनश्याम सैलानी जी की कविता "गढ़वाल लो गौरव कख गै"
हरचि कख गढ़वाल कू वो कोदू कण्डाली,
गोल गफा बंण्या रन्दा था जैन गढ़वाली।
मोल था बमोर पक्यां,
डाला था झकाझोर झुंक्यां,
कना दिन था तबारि,
कुछ न थै दुख बिमारी,
काफल किन्गोड़ खाई लौण रालि-रालि। हरचि..............
साग छौ चलू बडयालू,
दगड़ा मा लेंगडू कुथैल्डू,
कोदा झंगोरा की सारि,
छानि मुंग भैंसी लैरी,
छांसि का परोठा खाया झंगोरा मा रालि। हरचि................
पाण्डव जब यख आया,
तौन भी यख कोदू खाये,
रिमोला लोदी न खाये,
घांगु रमोला न खाई,
कोदा का परताप यख भड़ रै गढ़वाली। हरचि..................
मलेथा का माधो सिंह-
भण्डारी न कोदू खाये,
कफू चौहान न खायी,
राजा क सिर नि झुकाई,
कोदा कू स्वाभिमान देखा चन्द्र सिंग गढ़वाली। हरचि.........
खाणि ज्यूणि जो पुराणि,
हरचिगे सी सभी धाणी,
यो कनू विकास ह्वैगी,
घी का जगा डाल्डा ऎगी,
छांसि छोडि़ टिचरी पेणा भौं कै देणा गालि। हरचि...............
सड़कि फुण्डा कुड़ा बण्यां,
भौं कखि मुंग कितला चड़यां,
गौं छोडिले वो पराणु,
सडकि मा पड़्यूण उताणों,
सड़कि फुण्डा चाय पेण औन्दा रतिकाली। हरचि..............
अब काम धन्धा कुछ नि कन,
खाणु पिणु होण कखन,
नांगु मुण्ड चिफल घीचू,
समझणा छन हवैगि किछ,
पर कुछ भी निहवै चिफला ढुंगू मती को ये फाली। हरचि...........
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
सासु ब्वारी खीचा तानी पर पूरन चंद कांडपाल जी की यह कविता ..
रू धुनु दुनिया भागी - रू धुनु दुनिया भागी
सासु ब्वारी की नोंक झौक जब बटी दुनिया
सासु : पानी क घराट ब्वारी, पानी क घराट ब्वारी
उठी जा ब्वारी, गोठ पड़ी पड़ीगयो भैस क औराट
ब्वारी : झुलिया चिचन हो सासु - झुलिया चिचन हो सासु
अलबैर मे दिल्ली जान रयो, तुमि रिया निशचन
Navigation
[0] Message Index
[#] Next page
[*] Previous page
Go to full version