Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158682 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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2
शांत सरोवर का उर
किस इच्छ के लहरा कर
हो उठता चंचल, चंचल !
सोये वीणा के सुर
क्यों मधुर स्पर्श से मरमर्
बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल !
आशा के लघु अंकुर
किस सुख से पर फड़का कर
फैलाते नव दल पर दल !
मानव का मन निष्ठुर
सहसा आँसू में झर-झर
क्यों जाता पिघल-पिघल गल !
मैं चिर उत्कंठातुर
जगती के अखिल चराचर
यों मौन-मुग्ध किसके बल !
(फरवरी,1932)
3
आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल ?
जब लगता सब विश्रृंखल;
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल !
खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की !
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन !
आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता !
क्या यह जीवन ? सागर में
जल भार मुखर भर देना !
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना !
सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय
(जनवरी,1932)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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4
मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !
(फरवरी,1932)
5
देखूँ सबके उर की डाली
किसने रे क्या-क्या चुने फूल
जग के छवि-उपवन से अकूल !
इसमें कलि, किसलय,कुसुम, शूल !

किस छवि, किस मधु के मधुर भाव ?
किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव !
कवि से रे किसका क्या दुराव !

किसने ली पिक की विरह तान ?
किसने मधुकर का मिलन गान ?
या फुल्ल कुसुम, या मुकुल म्लान ?
देखूँ सबके उर की डाली-

सब में कुछ सुख के तरुण फूल
सब में कुछ दुख के करुण शूल-
सुख-दुख न कोई सका भूल ?
(फरवरी,1932)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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6
सागर की लहर लहर में
है हास स्वर्ण किरणों का,
सागर के अंतस्तन में
अवसाद अवाक् कणों का !

यह जीवन का है सागर,
जग-जीवन का है सागर,
प्रिय-प्रिय विषाद रे इसका
प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका !

जग जीवन में हैं सुख-दुख,
सुख-दुख में है जग जीवन;
हैं बँधे बिछोह-मिलन दो
देकर चिर स्नेहालिंगन !

जीवन की लहर-लहर से
हँस खेल-खेल रे नाविक !
जीवन के अंतस्तल में
नित बूड़-बूड़ रे भाविक !
(फरवरी,1932)
7
आँसू की आँखों से मिल
भर ही आते हैं लोचन,
हँसमुख ही से जीवन का
पर हो सकता अभिवादन !

अपने मधु में लिपटा पर
कर सकता मधुप न गुंजन,
करुणा से भारी अंतर
खो देता जीवन-कंपन

विश्वास चाहता है मन,
विश्वास पूर्ण जीवन पर;
सुख-दुख के पुलिन डुबा कर
लहराता जीवन-सागर !

दुख इस मानव-आत्मा का
रे नित का मधुमय-भोजन
दुख के तम को खा-खा कर
भरती प्रकाश से वह मन !

अस्थिर है जग का सुख-दुख
जीवन ही सत्य चिरंतन !
सुख-दुख से ऊपर; मन का
जीवन ही रे अवलंबन !
(फरवरी,1932)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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8
कुसुमों के जीवन का पल
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा !

वन की सूनी डाली पर
सीखा कलि ने मुसकाना,
मैं सीख न पाया अब तक
सुख से दुख को अपनाना !

काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली !

अपनी डाली के काँटे
बेधते नहीं अपना तन
सोने-सा उज्जवल बनने
तपता नित प्राणों का धन !

दुख-दावा से नव अंकुर
पाता जग-जीवन का वन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव जीवन-कण !
(फरवरी,1932)

===================

9

जाने किस छल-पीड़ा से
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,
ज्यों बरस-बरस पड़ने को
हों उमड़-उमड़ उठते घन !

अधरों पर मधुर अधर धर,
कहता मदु स्वर में जीवन-
बस एक मधुर इच्छा पर
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन

पुलकों से लद जाता तन,
मुँद जाते मद से लोचन
तत्क्षण सचेत करता मन-
ना, मुझे इष्ट है साधन

इच्छा है जग का जीवन
पर साधन आत्मा का धन;
जीवन की इच्छा है छल
आत्मा का जीवन जीवन !

फिरतीं नीरव नयनों में
छाया-छबियाँ मन-मोहन
फिर-फिर विलीन होने को
ज्यों घिर-घिर उठते हों घन

ये आधी, अति इच्छाएँ
साधन भी बाधा बंधन;
साधन भी इच्छा ही है
सम-इच्छा ही रे साधन !

रह-रह मिथ्या-पीड़ा से
दुखता-दुखता मेरा मन
मिथ्या ही बतला देती
मिथ्या का रे मिथ्यापन !
(फरवरी,1932)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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10
क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !

प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;

निज सुख से ही चिर चंचल मन,
मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।

मैं प्रेम उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;

लगता अपूर्ण मानव-जीवन,
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।

जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव आशा; नव अभिलाष मुझे;
ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;

चाहिए विश्व को नव जीवन
मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !
(फरवरी, 1932)

(Source http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2385)


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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>> कविता संग्रह >> स्वच्छंद
 
 स्वच्छंद
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सुमित्रानंदन पंत << आपका कार्ट
पृष्ठ :  172 << अपने मित्रों को बताएँ
मूल्य :  $10.95   
प्रकाशक :  राजकमल प्रकाशन
आईएसबीएन :  81-267-0092-0
प्रकाशित :  मई १८, २०००
पुस्तक क्रं : 2468
मुखपृष्ठ : सजिल्द
 

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशकविश्री सुमित्रानंदन पंत का काव्य-संसार अत्यंत विस्तृत और भव्य है। प्रायः काव्य-रसिकों के लिए इसके प्रत्येक कोने-अँतरे को जान पाना कठिन होता है। पंतजी की काव्य-सृष्टि में, किसी भी श्रेष्ठ कवि की तरह ही, स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठता के शिखरों के दर्शन होते हैं, नवीन काव्य-भावों के अभ्यास का ऊबड़-खाबड़ निचाट मैदान भी मिलता है और अवरुद्ध काव्य-प्रसंगों के गड्ढे भी। किन्तु किसी कवि के स्वभाव को जानने को लिए यह आवश्यक होता है कि यत्नपूर्वक ही नहीं, रुचिपूर्वक भी उसके काव्य-संसार की यात्रा की जाए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पंतजी के बारे में लिखा कि आरम्भ में उनकी प्रवृति इस जग-जीवन से अपने लिए सौंदर्य का चयन करने की थी, आगे चलकर उनकी कविताओं में इस सौंदर्य की संपूर्ण मानव जाति तक व्याप्ति की आकांक्षा प्रकट होने लगी। प्रकृति प्रेम, लोक और समाज-विषय कोई भी हो, पंत-दृष्टि हर जगह उस सौंदर्य का उद्घाटन करना चाहती है, जो प्रायः जीवन से बहिष्कृत रहता है। वह उतने तक स्वयं को सीमित नहीं करती, उस सौंदर्य को एक मूल्य के रूप में अर्जित करने का यत्न करती है।

श्री सुमित्रानंदन पंत की जन्मशती के अवसर पर उनकी विपुल काव्य-संपदा से एक नया संचयन तैयार करना पंतजी के बाद विकसित होती हुई काव्य-रुचि का व्यापक अर्थ में अपने पूर्ववर्ती के साथ एक नए प्रकार का संबंध बनाने का उपक्रम है। यह चयन पंतजी के अंतिम दौर की कविताओं के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमता, जो काल की दृष्टि से हमारे अधिक निकट है, बल्कि उनके बिलकुल आरंभ काल की कविताओं से लेकर अंतिम दौर तक की कविताओं के विस्तार को समेटने की चेष्टा करता है। चयन के पीछे पंतजी को किसी राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा, किसी नई नैतिक-दार्शनिक दृष्टि जैसे काव्य-बाह्म दबाव में नए ढंग से प्रस्तुत करने की प्रेरणा नहीं है-यह एक नई शताब्दी और सहस्राब्दी की उषा वेला में मनुष्य की उस आदिम साथ ही चिरनवीन सौंदर्याकांक्षा का स्मरण है, पंतजी जैसे कवि जिसे प्रत्येक युग में आश्चर्यजनक शिल्प की तरह गढ़ जाते हैं।

किसी कवि की जन्मशती के अवसर पर परवर्ती पीढ़ी की इससे अच्छी श्रद्धाजंलि क्या हो सकती है कि वह उसे अपने लिए सौंदर्यात्मक विधि से समकालीन करे। पंत-शती के उपलक्ष्य में उनकी कविताओं के संचयन को ‘स्वच्छंद’ कहने के पीछे मात्र पंतजी की नहीं, साहित्य मात्र की मूल प्रवृत्ति की ओर भी संकेत है। संचयन में कालक्रम के स्थान पर एक नया अदृश्य क्रम दिया गया है, जिसमें कवि-दृष्टि, प्रकृति, मानव-मन, व्यक्तिगत जीवन, लोक और समाज के बीच संचरण करते हुए अपना एक कवि-दर्शन तैयार करती है। ‘स्वच्छंद’ के माध्यम से पंतजी के प्रति विस्मरण का प्रत्याख्यान तो है ही, इस बात को नए ढंग से चिन्हित भी करना है कि जैसे प्रकृति का सौंदर्य प्रत्येक भिन्न दृष्टि के लिए विशिष्ट है, वैसे ही कवि-संसार का सौंदर्य भी अशेष है, जिसे प्रत्येक नई दृष्टि अपने लिए विशिष्ट प्रकार से उपलब्ध करती है।

पन्त-पथ पर

कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मशती के अवसर पर निकाले जा रहे इस संचयन को ‘स्वच्छंद’ कहने के पीछे सिर्फ़ हिन्दी की स्वच्छन्तावादी काव्यधारा को, उसके बाद एक प्रमुख स्थगित के माध्यम से, अनुगुँजित करना अभीष्ट नहीं है। अभीष्ट यह भी है कि हिन्दी भाषा और कविता को अपना जातीय छन्द देने में पन्त की भूमिका को कृतज्ञतापूर्वक याद किया जाना चाहिए। बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ ही पन्त जी की जन्मशती में जो लेखक हिन्दी भाषा पर व्याप्त रहे हैं उनमें निश्चित ही पंत जी हैं। बल्कि जिन मूर्धन्यों ने हमारों लिए शताब्दी को रचा-गढ़ा और उससे समझने-सहने की शक्ति दी उनमें पन्त जी शामिल हैं।

यह भी निर्विवाद सा है कि छायावाद कविता के लिए इस शताब्दी का स्वर्णयुग था। अब, इतने बरसों बाद और कविता की संवेदना भूगोल के अप्रत्याशित विस्तार के बाद, यह स्पष्ट दीख पड़ता है कि छायावाद स्वाधीनता, मुक्ति और व्यक्तित्व के आग्रह के कविता के केन्द्रीय होने का युग था। हालाँकि छठवें दशक के शुरू में पन्त जी ने अपने पहले ‘निराला व्याख्यान’ में यह कहने पर नयी कविता छायावाद का विस्तार है, हम सभी चौंके और नाराज़ हुए थे लेकिन उसमें काफ़ी सचाई है। छायावाद का ऐसा ऊर्जस्वी वितान न होता तो आज कविता में कुछ भी कह पाने का साहस, अपने समय और दृष्टि करने का जोखिम और सारे संसार को कविता के परिसर में शामिल करने को उदग्र सम्भव न होता। यह अकारण नहीं हो सकता है कि अनेक नये कवि इधर बिना किसी हिचक या संकोच के अपने को किसी छायावादी मूर्धन्य से जोड़ते रहे हैं।

पन्त जी की काव्यधारा विपुल है : छायावादियों में उन्होंने सबसे अधिक और सबसे लम्बे समय तक कविताएँ लिखी हैं लगभग अबोध विस्मय से आरम्भ कर उनका कविता-संसार दार्शनिक अभिप्रायों और आध्यात्मिक चिन्ताओं तक जाता हुआ संसार है। हर कवि, वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, और पन्त एक बड़े कवि है इसमें क्या संशय, अपनी यात्रा में कई मुकाम और पड़ाव तय करता है। लेकिन बाद में उनमें से कई स्वयं उसके लिए और प्राय: दूसरो के लिए पीछे छू़ट जाते हैं, मुबहम हो जाते हैं। इस बीच, यानी पन्त जी के कविता की रुचि बेहद बदल गई है। बल्कि वह तो उनके रहते भी खासी बदल चुकी थी और इस बदली हुई रुचि और संवेदना से पन्त स्वयं प्रतिकृत हुए थे। आसान नहीं था लेकिन दो छायावादी मूर्धन्यों- निराला और पन्त- ने अपने छायावादी मुहावरों को जोखिम उठाकर, पर बड़ी खरी पारदर्शिता के साथ पुनराविष्कार किया था। कविता के पन्त-प्रयत्न को उसकी पूरी विविधता और विपुलता में समेटना कठिन कार्य है : ऐसा बहुत सा है जो एक समय मार्मिक और प्रभावपूर्ण लगता था पर अब अपनी धार खो चुका है। सौभाग्य से, ऐसा पर्याप्त है जो बासी या पुराना नहीं पड़ा है; उसमें न सिर्फ पन्त की दृष्टि, शिल्प और भंगिमाएँ समय पार कर हमसे कुछ सार्थक बात कर पाती हैं उन्हें जाने-सुना बिना स्वयं हिन्दी कविता की अपनी आन्तरिक लय, उसका अन्त:संगीत और उसका शब्द सौष्ठव समझना संभव नहीं है।

हमारा समय, दुर्भाग्य से, ऐसा समय हैं जिसमें मनुष्य के साधारण जीवन-व्यापार और साहित्य से विस्मय-बोध गायब ही हो गया है। पर्यावरण के नाश की सारी दुश्चिन्ताओं के बावजूद हम काफ़ी हद तक मनुष्यों के समाज में बँध गये हैं, बजाय उस लोक में होने के जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच इतना अपरिचय या दूरी नहीं थीं। पन्त की कविता पढ़ना इन दिनों अपने जीवन और भाषा में विस्मय के पुरनर्वास की सम्भावना से दो-चार होना है। पन्त की कविता उनकी गहरी ऐन्द्रियता से भी निकली थी : उसमें शास्त्री गरिमा और लोक उच्छलता दोनों संग्रथित थीं। आज उनकी कविता को पढ़ने से खड़ी बोली ऐन्द्रियता के मूल का संस्पर्श करने की ओर बढ़ते हैं। खड़ी बोली के खड़ेपन के बावजूद उसमें कविता के उपर्युक्त अन्त:संगीत विन्यस्त कर पाना आसान नहीं, लगभग क्रान्तिकारी काम था जो पन्त ने बड़ी सूझबूझ और कल्पनाप्रवणता के साथ किया था। यह काम उनकी कविता में अपनी अनेक छटाओं में है।

 उसे देखना खड़ी बोली की लयात्मक सम्भावनाओं और उलझनों का साक्षात् करना है और स्वयं आज कविकर्म के सामने मौजूद चुनौतियों को बेहतर समझ की ओर बढ़ना है। कविता ने इधर कुल मिलाकर अगर गाना छोड़ दिया तो इसलिए नहीं कि समय बदल गया और अधिक कठिन-जटिल हो गया। हर समय में, वह कितना भी असंभव और असहनीय या अकल्पनीय क्यों न हो, भाषा कविता में गाती रही है और हमारा समय इसका अपवाद नहीं हो सकता। अपने को अधिकतर मुक्त छन्द की रूढ़ि में फँसाकर और लय और गति के कठिन अभ्यास से बचकर हमारे समय में कवि प्रतिभा ने जो रास्ता चुना, वह एक तरह से पन्त-पथ से विरत होना है। यह विपथगामिता अनुभव की जटिलता और समय के काठिन्य से जूझना उतना नहीं, जितना कि उनका सरलीकरण है। किसी दह तक यह पन्त-प्रयत्न का अवमूल्यन भी है। पन्त में छंदों और लय-प्रयोग की विविधता देखना स्वयं अपने समय में कविकर्म की जटिलता को बेहतर समझना है।

कविता कहीं न कहीं भाषा में स्मृति-पुनस्संयोजन और शब्द की सम्भावनाओं का अप्रत्याशित विस्तार है। हमारा समय कई अर्थों में स्मृतिक्षीण और शब्द-दरिद्र समय है। ऐसे समय में पन्त एक प्रतिकल्प की तरह उभरते हैं। उनकी कविता में हमारी लम्बी भारतीय कविता में हमारी कविता और सौन्दर्यबोध की असमाप्त अनुगूँजें हैं जिनमें एक साधारण जीवनप्रक्रिया भी अदम्य शास्त्रीय अर्थाभा से भर जाती है। पन्त ने सैकड़ों नये शब्द गढ़े और उनमें से अनेक का काव्यप्रवेश ही उनके यहाँ पहली बार हुआ होगा। शब्द से कविता गढ़ना और कविता के लिए उपयुक्त और नये शब्द खोजना-गढ़ना सच्चे कविकर्म का ज़रूरी हिस्सा हैं : पन्त-काव्य पढ़ना कविकर्म ऐसा अटूट और अकाट्य, समृद्ध और उत्तेजक, अप्रत्याशित लेकिन अनिवार्य साक्ष्य देखना है।

कविता हमेशी ही स्थानीय और सार्वभौम, दोनों को साधने की चेष्टा करती है। बल्कि शायद यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि कविता स्थानीय से सार्वभौम को छूने की चेष्टा करती है और साथ-साथ सार्वभौम को स्थानीय बनाने का यत्न भी। पन्त के यहाँ यह साधना अपनी पूरा उदात्तता के साथ व्यक्त हुई है। कौसानी, कूर्मांचल, काला कांकर आदि की इतनी सारी निपटा स्थानीय छवियाँ उनकी कविता में हैं। इस पर ध्यान कम गया है कि बचपन की यादें और धरती में पैसे बोने जैसी हरकतें अपनी पूरी ऐन्द्रियता में जितनी पन्त के यहाँ हैं उतनी किसी अन्य छायावादी के यहाँ नहीं हैं। कई बार तो लगता है कि पन्त अपने जीवन भर संसार, भाषा और समय को एक तरह के अक्षय बालविस्मय से देखते रहे और यह हिन्दी का सौभाग्य है कि यह विस्मय काव्य-विन्यस्त होता रहा।

मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन आदि के प्रति पन्त के आकर्षण को कई तरह से समझा गया है और प्राय: यह माना गया है कि उनकी काव्य-संवेदना उनसे उपजे वैचारिक बोझ का सफलतापूर्वक वहन करने में समर्थ प्राय: सिद्ध नहीं हुई। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छायावाद का दौर भारतीय समाज में आदर्शवादिता का दौर था। एक तरह के व्यापक मानववाद का प्रभाव प्राय: हर कलाचेष्टा पर था। इसलिए कितनी भी सुकुमार संवेदना क्यों न हो, उसका विचार प्रवाह से बचना संभव नहीं था। पन्त के मामले में इन वैचारिक आकर्षणों ने उन्हें अपनी कविता का भूगोल विस्तृत करने के लिए प्रेरित किया। वे अपने विस्मय और ऐन्द्रियता के साथ जिस ‘भूमा’ के कवि थे। उसे इन वैचारिक प्रभावों ने एक ओर ठोस बनाया तो दूसरी ओर उनकी काव्य और जीवन-दोनों की ही चेतना को एक तरह की उर्ध्वगामिता भी दी। आज ये देखा जा सकता है कि पन्त की परवर्ती कविता-उपवन के भूमा में विस्तार व आकाश में वितान के बीच सन्तुलित है। उससे यह सबक आज भी सीखा जा सकता है कि कविता अपने आप में दर्शन है, संसार को छूने-समझने-बदलने की एक विधा है और उसे अन्य दर्शनों की, कम-से-कम उनके वर्चस्व की, कतई दरकार नहीं है।

वही कवि बड़ा हो पाता है जो अपनी दृष्टि और शैली का अतिक्रमण करने की दुस्साहसिकता कर सके। पन्त में यह साहस था: उनकी कविता छायावाद के स्वर्णलोक का कारक थी पर आगे चलकर वह उससे मुक्त होकर एक नये संसार में प्रवेश कर पायी। बदलने के बाद भले उसमें वैसा काव्योत्कर्ष सम्भव न हो। लेकिन उसमें तेजी से आ रहे परिवर्तनों के प्रति खुला रहने का उदार साहस था, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

अज्ञेय ने पन्त की षष्ठिपूर्ति पर हिन्दी प्रकृति-काव्य का प्रख्यात संचयन ‘रूपाम्बरा’ संपादित-प्रकाशित कर उन्हें भेट किया था। जाहिर है यह हिन्दी के प्रकृति-काव्य में पन्त की शीर्षस्थानीयता का एक कविजनोचित स्वीकार था। उन्हीं दिनों नरेश मेहता और श्रीकान्त वर्मा द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘कृति’ ने गजानन माधव मुक्तिबोध और नामवर सिंह के निबंध विशेष रूप से प्रकाशित कर उन्हें एक और तरह की आलोचनात्मक प्रणति दी थी। चार दशक बीत जाने के बाद यह स्वीकार करने का अवसर है कि न सिर्फ हिन्दी प्रकृति-काव्य में बल्कि समूचे आधुनिक काव्य में पन्त की गौरवस्थानीयता असंदिग्ध है और उसे स्पष्ट किया जाना चाहिए। हिन्दी में आधुनिकता का इतिहास बिना पन्त के अवदान के लिखना संभव नहीं है।
 http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2468
 
 
 


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साहित्य के धनी थे कौसानी के पं सुमित्रानंदन पंत 
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  गिरीश कांडपाल, कौसानी (बागेश्वर)
सुप्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत साहित्य के धनी व्यक्ति थे। स्व पंत ने अपना पूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया था तथा कौसानी को विश्व में नई पहचान दिलाई थी। उनके आवास को अब पंत वीथिका के नाम से संग्रहालय का रूप दिया जा चुका है।
पंत का जन्म 20 मई 1900 को कौसानी के चाय बागान व्यवस्थापक गंगा दत्त पंत के घर में हुआ था। जन्म के 6 घंटे बाद ही इनकी माता का देहावसान हो गया। उनका पालन-पोषण उनकी बुआ द्वारा किया गया। पंत जी का बचपन का नाम गुसाई दत्त था। उन्होंने राम के भाई लक्ष्मण को अपना आदर्श मानकर अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय छानी में हुई। 7 वर्ष की आयु में ही उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में सिक्का जमाना प्रारम्भ कर दिया। उनके द्वारा रूपाभ पत्रिका का सम्पादन भी किया गया। उन्होने कला और बूढ़ाचांद पर साहित्य पुरस्कार प्राप्त किए। वर्तमान में कौसानी स्थित उनके आवास को गोविंद बल्लभ पंत राजकीय संग्रहालय की इकाई के रूप में पंत वीथिका के रूप में विकसित किया है। जहां पर स्व पंत के उपयोग की सामग्री भी रखी हुई है। कौसानी आने वाले पर्यटक यहां पहुंचकर स्व पंत की जीवनी से रूबरू होते हैं साथ ही यहां पर देश विदेश से कई शोध छात्र भी इसका लाभ उठाते हैं।
 
(Source - Dainik Jagran)

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Poems by Sumitranandan Pant 
Translated by Elizabeth Kurian �Mona�

Sumitranandan Pant(1900 �1977) is considered one of the eminent poets of the Chhayavaadi school of Hindi literature. He authored twenty eight works including poetry, verse plays and essays.
Panth was awarded the Jnanpith Award for collection of his poems, titled Chidambara. He was also the recipient of the Nehru Peace Prize from the Soviet Union.
These poems are from his collection �Kala aur Boodha Chand�, and are translated by Elizabeth Kurian �Mona� from Hyderabad.
-
monalizak@rediffmail.com
Face

The oceans,
Gather together in my palms:
When I am thirsty, I drink them up.                                                           YANGCHEN LAMO


When they dry up. .
I myself fill them
Melting in the fire of life,

The fire of life-
Shines like a golden mirror,
Joy sees its own face therein.

The face encircled by jet-black curls,
Filled with the constant gaze of love,
Imparts heart to wisdom!
Lips, crimson with the lines of fire,
Are kissed by contentment.

My heart itself transforms into that face,
When I remember you.
My heart itself transforms into that joy,
When I long for you.


Feelings

I plunged into the sun,
It turned out to be a crystal pool;
I bloomed like a pink lotus!
From top to toe, I turned golden bright!

Oh diamond beam, inner truth,
Oh ruby ray, inner reality,
Traverse the boundary of outward life!
Trespass it!

Evergreen, most modern are you,
O inner light!
Beyond east or west,
You�re the sun of meeting of mankind!

Oh lucid mind dwelling on the silver skies
On the peak of time,
Oh inner vitality, you are the new dawn,
The new spirit!

My sensuality immersed in you
Transforms into golden brilliance.
I am your black bee,
O jewel lotus! O fiery lotus!


Love

I perceived
The quiet radiance of the rose!
I prayed -Reveal the secret
Of your eternal beauty,
In the eyes of my heart.

I was thunderstruck!
It was love personified!
I smelled it-
It was unbounded love!
My heart filled with infinite sweetness.
I kept the rose to my lips-
Its tenderness was divine love.
I went on gazing at
The everlasting beauty of the rose.



Taboos

Wrapped in dazzling green darkness,
You bring in countless creeping desires
Unable to raise their spines!

I know not what will happen to them
They will spread throughout the earth
Like warped snakes.
When the casket is opened.


Which power will bind them?
Which art coerce them?
Which brightness will adorn?
They are honey thickened,
Smoldering chill taboos
Which are being liberated.

They will turn into flower garlands
For your curly golden tresses.
Drinking in their intoxicating smell,
Death will come to life!

You had brought the source of nectar,
Wrapped in golden green darkness,
They will turn into the veins of the heart
And transfuse the entire existence
With new blood!


Inner throbbing
Shell, conch, sound,
Are un-pierced pearls,
Unheard notes
Un-smelled flowers,
On the tree of sound.

The pearls laughed not,
The song did not burst forth,
The flower did not bloom.

The door of the senses
Were closed as a [precaution,
Sad pollen was filled
In the bud of the heart.

Doubt, lack of faith, disbelief,
The mind is not attuned to itself.

The message of truth, 
Shell, conch, blossom of dreams,
Creepers of enjoyment.

Dawn ascends on the waters
Of the bottomless ocean.


Temperament

Oh meek self, 
Fires do not affect you!

I unfasten your anklets of rhythm,
You can tread silently
On the soft earth of tender emotions.
Let not your footsteps be heard,
Nor your footprints seen.

Outside, rages the ocean of deadly poison,
Thousands of serpent hoods
Scorched with the poison of hatred,
Hiss venom at you.
Quietly, trample their pride
Beneath the feet of your worthiness.

You yourself are the deadly poison,
The snake hoods, and the hiss.
Do not fear yourself.
You are moral fiber, sacrifice and love.
Do not pretend ignorance.

Walk on the path of flowers
Through the forest of thorns.
The autumn of hatred
Will soon turn into spring.

Vast silvery horizons
Of universal consciousness,
Are open
Silently fly in the free air
On the wings of propitious creation.
I am unfastening the anklets of rhyme
From your feet.


 
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गृहकाज - सुमित्रानंदन पंत की कविता
आज रहने हो यह गृहकाज
प्राण! रहने हो यह गृहकाज!

आज जाने कैसी वातास
छोड़ती सौरभ-श्लभ उच्छ्वास,
प्रिये, लालस-सालस वातास,
जगा रोओं में सौ अभिलाष!

आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण!
सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार,
दृगों में मधुर स्वप्न संसार,
मर्म में मदिर स्पृहा का भार!

शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल,
आज अपलक कलिकाएँ बाल,
गूँजता भूला भौरा डोल,
सुमुखि, उर के सुख से वाचाल!
आज चंचल-चंचल मन प्राण,
आज रे, शिथिल-शिथिल तन-भार,

आज दो प्राणों का दिन-मान
आज संसार नही संसार!
आज क्या प्रिये सुहाती लाज!
आज रहने दो सब गृहकाज!

(Source - http://www.hindikunj.com)


 

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