साहित्य विचार
--------------------------------------------------------------------------------
निसर्ग में वैश्विक चेतना की अनुभूति: सुमित्रानंदन पंत
कांति अय्यर
बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। उसी समय अल्मोड़ा निवासी सुमित्रानंदन पंत उस नये युग के प्रवर्तक के रूप में हिन्दी साहित्य में अभिहित हुये। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है।
पंत जी का जन्म 20 मई सन् 1900 ई. को कौसानी, जिला अल्मोड़ा (कुमाऊं) के बर्फ आच्छादित पर्वतीय प्रदेश में हुआ था। उच्च अभ्यास इलाहाबाद में करने के कारण उन्हें उस युग के महान साहित्यकारों का सानिध्य एवं प्रोत्साहन मिला। काव्य रचना के अंकुर तो अल्मोडा में ही प्रस्फुटित हो चुके थे। अल्मोडा का प्राकृतिक सौन्दर्य उनकी आत्मा में आत्मसात हो चुका था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भंवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। बारह वर्ष की उम्र से ही उनकी रचनाएं किसी न किसी पत्रिका में छपने लगीं।
इलाहाबाद में होने वाले कवि सम्मेलनों में उनके कंठ का माधुर्य प्रेक्षकों व श्रोताओं का मुख्य आकर्षण था। जितना मधुर कंठ था उतनी ही लालित्यपूर्ण-लावण्यपूर्ण कविता होती थी। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। सन् 1922 में उच्छवास काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। हरिवंश राय बच्चन भी उनके काव्य के चाहक थे। समकालीन होने के नाते एक से बढ़कर एक छायावादी कवि हिन्दी साहित्य की काव्यधारा को निसर्ग के गूढ़ तत्वों में डुबोता गये।
द्विवेदी युग की काव्य नीरसता पंत जी की मधुर संगीतमय काव्य लहरी और प्रकृति सौन्दर्य से मढ़ी भाषा से सरसता में बदल गयी। वे हिन्दी छायावादी काव्यधारा के प्रवाहक ही नहीं, स्थापक भी सिद्ध हुये। उन्होंने प्रकृति सौन्दर्य का जो रसपान कराया, वह अन्य छायावादी कवि भी न कर सके।
पंत जी की प्रथम रचना वीणा साहित्य-प्रेमियों के दिलोदिमाग पर गीत विहंग बनकर घूमती रही। स्वभाव से अति कोमल, संवेदनशील एवं मानव संवेदनाओं को मुखरित करने में कुशल पंत जी छायावाद के अग्रणी कवि माने जाने लगे। उनका काव्य संवेदनापूर्ण निसर्ग के प्रतीकों-बिम्बों से पूर्ण रहने के कारण अचेतन समझने वाली वस्तु में चेतना का संचार दिखने लगा। प्रकृति भी मानवीय संवेदना का भाव धारण कर अपनी अभिव्यक्ति में सक्षम लगने लगी। कवि पंत की संवेदना के शब्द मानव-प्रकृति और परम तत्व पर केंद्रित होने के कारण उसका समन्वय ही उनके काव्य का मूल तत्व सिद्ध हुआ।
कवि सर्वचेतनावादी रचनाकार होता है। इसलिए उसके अंदर एक अव्यक्त सौन्दर्य का आकर्षण उनकी चेतना को तन्मय करने में रत था। संध्या को रानी का रूप निहार कर कह उठते थे -
तारों की चुनरी ओढ़े, उतर रही संध्या रानी।
पंत जी कोमल सौम्य प्रकृति प्रेमी होने के कारण प्रकृति को स्वतंत्र सत्ताधीश, नारी सौष्ठव, लावण्यता देने का प्रयत्न करते। कभी सखी, कभी सुकोमल कन्या, बाल्या, प्रेयसी और सहचरी का रूप देकर प्रकृति के साथ एक-रूपता स्थापित की।
डॉ. कुट्टन लिखते हैं- 'पंत की काव्य दृष्टि, वीचि-विलास उषा की स्मित-किरण, ज्योर्तिमय नक्षत्र, फलों की मृदु मुस्कान, पत्रों के आनत अधर, अपलक अनंत, तत्वंगी गंगा, स्निग्ध चांदी के कगार, कल-कल, छल-छल बहती निर्झरणी, मेखलाकार पर्वत, अपार, लास्यनिरत लोल-लोल लहरें, मंजु गुंजरित मधुप की मार हम सब पर पड़ती है और कवि असीम आत्मीयता का आनंद अनुभव करता है। पंत का कवि तरू ण उषा की अरूण अधखुली आंखों से बिंध जाता है। (डॉ. एन पी, कुट्टन पिल्लै - पंत और उनका काव्य) सन् 1934 में ज्योत्स्ना काव्य संग्रह छपा, इसके बाद ही युगान्त एवं युगवाणी का प्रकाशन हुआ। पल्लव की भी लोकप्रियता रही और प्रकृति वर्णन की चर्चा रही।
विहंग कविता में पंत जी ने परमात्मा और आत्मा का अंशी-अंश संबन्ध प्रगट किया। आत्मा वैश्विक चिरंतन नित्य है। (ना हन्यते है।) आप लिखते हैं -
रिक्त होते जब-जब तरूवास
रूप धर तू नव-नव तत्काल
नित्य नादित रखता सोल्लास
विश्व के अक्षय वट की डाल।
(विहंग-गुंजन,पृ.83)
छायावादी की दृष्टि में संपूर्ण विश्व एक ही वैश्विक चेतना से परिपूर्ण होने के नाते प्रकृति में और जड़ जगत में मानवीकरण उद्भवित हो उठता है। छायावादी की दृष्टि में सभी तत्वों में एक ही चेतना का संचार प्रतीत होता है। वह क्षण में आनंदविभोर हो उठता है तो क्षण में विषादग्रस्त। पंत जी मानवीकरण के मुख्य प्रणेता माने जाते हैं। यहां पर हिमालय को संबोधित करते हुये पंत जी कह उठते हैं -
शैलाधिराज का हिम पर्वत
मरकत भू आसन पर शोभित
करती परिक्रमा शोभा नत
षड ऋतुएं नव यौवन मुकुलित।
पंत की काव्य-धारा या रचनात्मक कार्य सन् 1912 से सन् 1977 तक सतत चलता रहा। उनकी लेखनी प्रकृति सौन्दर्य, चिंतन-मनन एवं सत्यान्वेषण के मूल तत्वों पर केंद्रित रही। इतना ही नहीं, उन्होंने लोक कल्याण की भावना और ग्राम्य जीवन की सहजता पर भी लेखनी चलाई। अंत में इतना ही कहेंगे कि पंत जी सौन्दर्य शिल्पी एवं प्रकृति लालित्य के कलाकार थे।
स्वर्ण की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार
प्रसूनों के शाश्वत श्रृंगार
गूंज उठते थे बारम्बार।
(पल्लव)
संदर्भ :-
1. इंद्रप्रस्थ भारती अंक - अप्रेल-जून 1999
2. इद्रप्रस्थ भारती अंक - जनवरी-मार्च 2001
3. अध्ययन और अनुशीलन - डॉ. कुट्टन पिल्लै
4. रचनाकर्म - अक्टूबर-दिसंबर 2006