Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158151 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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काले बादल / सुमित्रानंदन पंत

रचनाकार:सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~


सुनता हूँ, मैंने भी देखा,

काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!


काले बादल जाति द्वेष के,

काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,

काले बादल उठते पथ पर

नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!


सुनता आया हूँ, है देखा,

काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!


आज दिशा है घोर अँधेरी

नभ में गरज रही रण भेरी,

चमक रही चपला क्षण-क्षण पर

झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर;


नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका

काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।


काले बादल, काले बादल,

मन भय से हो उठता चंचल!

कौन हृदय में कहता पल पल

मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!


आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!

काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!


मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,

पर अनीति से प्रीति नहीं है,

यह मनुजोचित रीति नहीं है,

जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!


देश जातियों का कब होगा,

नव मानवता में रे एका,

काले बादल में कल की,

सोने की रेखा!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वसंत / सुमित्रानंदन पंत

रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह, मग़, वन में आया वसंत
सुलगा फागुन का सूनापन
सौन्दर्य शिखाओं में अनंत



सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह



पल्लव पल्लव में नवल रूधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला
आया नीली पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला



अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब से गाल लजा
आया पंखड़ियों को काले-
पीले धब्बों से सहज सजा



कलि के पलकों में मिलन स्वप्न
अलि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया प्रेमी वसंत
आकुल जड़-चेतन स्नेह प्राण

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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संध्‍या के बाद / सुमित्रानंदन पंत
रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
सिमटा पंख साँझ की लाली

जा बैठी तरू अब शिखरों पर

ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख

झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर!

ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में

सूर्य क्षितीज पर होता ओझल

बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा

लगता चितकबरा गंगाजल!

धूपछाँह के रंग की रेती

अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित

नील लहरियों में लोरित

पीला जल रजत जलद से बिंबित!

सिकता, सलिल, समीर सदा से,

स्‍नेह पाश में बँधे समुज्‍ज्‍वल,

अनिल पीघलकर सलि‍ल, सलिल

ज्‍यों गति द्रव खो बन गया लवोपल

शंख घट बज गया मंदिर में

लहरों में होता कंपन,

दीप शीखा-सा ज्‍वलित कलश

नभ में उठकर करता निराजन!

तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ

विधवाएँ जप ध्‍यान में मगन,

मंथर धारा में बहता

जिनका अदृश्‍य, गति अंतर-रोदन!

दूर तमस रेखाओं सी,

उड़ती पंखों सी-गति चित्रित

सोन खगों की पाँति

आर्द्र ध्‍वनि से निरव नभ करती मुखरित!

स्‍वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज

किरणों की बादल-सी जलकर,

सनन् तीर-सा जाता नभ में

ज्‍योतित पंखों कंठों का स्‍वर!

लौटे खग, गायें घर लौटीं

लौटे कृषक श्रांत श्‍लथ डग धर

छिपे गृह में म्‍लान चराचर

छाया भी हो गई अगोचर,

लौट पैंठ से व्‍यापारी भी

जाते घर, उस पार नाव पर,

ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे

खाली बोरों पर, हुक्‍का भर!

जोड़ों की सुनी द्वभा में,

झूल रही निशि छाया छाया गहरी,

डूब रहे निष्‍प्रभ विषाद में

खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!

बिरहा गाते गाड़ी वाले,

भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,

हुआँ-हुआँ करते सियार,

देते विषण्‍ण निशि बेला को स्‍वर!


माली की मँड़इ से उठ,

नभ के नीचे नभ-सी धूमाली

मंद पवन में तिरती

नीली रेशम की-सी हलकी जाली!

बत्‍ती जल दुकानों में

बैठे सब कस्‍बे के व्‍यापारी,

मौन मंद आभा में

हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!

धुआँ अधिक देती है

टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,

मन से कढ़ अवसाद श्रांति

आँखों के आगे बुनती जाला!

छोटी-सी बस्‍ती के भीतर

लेन-देन के थोथ्‍ो सपने

दीपक के मंडल में मिलकर

मँडराते घिर सुख-दुख अपने!

कँप-कँप उठते लौ के संग

कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,

क्षीण ज्‍योति ने चुपके ज्‍यों

गोपन मन को दे दी हो भाषा!

लीन हो गई क्षण में बस्‍ती,

मिली खपरे के घर आँगन,

भूल गए लाला अपनी सुधी,

भूल गया सब ब्‍याज, मूलधन!

सकूची-सी परचून किराने की ढेरी

लग रही ही तुच्‍छतर,

इस निरव प्रदोष में आकुल

उमड़ रहा अंतर जग बाहर!

अनुभव करता लाला का मन,

छोटी हस्‍ती का सस्‍तापन,

जाग उठा उसमें मानव,

औ' असफल जीवन का उत्‍पीड़न!

दैन्‍य दुख अपमाल ग्‍लानि

चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,

बिना आय की क्‍लांति बनी रही

उसके जीवन की परिभाषा!

जड़ अनाज के ढेर सदृश ही

वह दीन-भर बैठा गद्दी पर

बात-बात पर झूठ बोलता

कौड़ी-सी स्‍पर्धा में मर-मर!

फिर भी क्‍या कुटुंब पलता है?

रहते स्‍वच्‍छ सुधर सब परिजन?

बना पा रहा वह पक्‍का घर?

मन में सुख है? जुटता है धन?

खिसक गई कंधों में कथड़ी

ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,

सोच रहा बस्‍ती का बनिया

घोर विवशता का कारण!

शहरी बनियों-सा वह भी उठ

क्‍यों बन जाता नहीं महाजन?

रोक दिए हैं किसने उसकी

जीवन उन्‍नती के सब साधन?

यह क्‍यों संभव नहीं

व्‍यवस्‍था में जग की कुछ हो परिवर्तन?

कर्म और गुण के समान ही

सकल आय-व्‍याय का हो वितरण?

घुसे घरौंदे में मि के

अपनी-अपनी सोच रहे जन,

क्‍या ऐसा कुछ नहीं,

फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?

मिलकर जन निर्माण करे जग,

मिलकर भोग करें जीवन करे जीवन का,

जन विमुक्‍त हो जन-शोषण से,

हो समाज अधिकारी धन का?

दरिद्रता पापों की जननी,

मिटे जनों के पाप, ताप, भय,

सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,

पशु पर मानव की हो जय?

वक्ति नहीं, जग की परिपाटी

दोषी जन के दु:ख क्‍लेश की

जन का श्रम जन में बँट जाए,

प्रजा सुखी हो देश देश की!

टूट गया वह स्‍वप्‍न वणिक का,

आई जब बुढि़या बेचारी,

आध-पाव आटा लेने

लो, लाला ने फिर डंडी मारी!

चीख उठा घुघ्‍घू डालों में

लोगों ने पट दिए द्वार पर,

निगल रहा बस्‍ती को धीरे,

गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जग जीवन में जो चिर महान / सुमित्रानंदन पंत
रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
 
जग जीवन में जो चिर महान,

सौंदर्य पूर्ण औ सत्‍य प्राण,

मैं उसका प्रेमी बनूँ नाथ!

जिससे मानव हित हो समान!


जिससे जीवन में मिले शक्ति,

छूटे भय-शंसय, अंध-भक्ति,

मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!

मिज जावें जिसमें अखिल व्‍यक्ति!


दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा-प्रसार,

हर भेदभाव का अंधकार,

मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ!

मानव के उर के स्‍वर्ग-द्वार!


पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान

करने मानव का परित्राण,

ला सकूँ विश्‍व में एक बार

फिर से नव जीवन का विहान।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Mehta ji mere paas shanda nahi hain aapki prashansa karne ke liye. Jo aap yeh amulya kritian le ke aae.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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भारतमाता ग्रामवासिनी / सुमित्रानंदन पंत
 
खेतों में फैला है श्यामल

धूल भरा मैला-सा आँचल

गंगा जमुना में आंसू जल

मिट्टी कि प्रतिमा उदासिनी,


भारतमाता ग्रामवासिनी


दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन

अधरों में चिर नीरव रोदन

युग-युग के तम से विषण्ण मन

वह अपने घर में प्रवासिनी,


भारतमाता ग्रामवासिनी


तीस कोटी संतान नग्न तन

अर्द्ध-क्षुभित, शोषित निरस्त्र जन

मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन

नतमस्तक तरुतल निवासिनी,


भारतमाता ग्रामवासिनी


स्वर्ण शस्य पर पद-तल-लुंठित

धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित

क्रन्दन कम्पित अधर मौन स्मित

राहु ग्रसित शरदिंदु हासिनी,


भारतमाता ग्रामवासिनी


चिंतित भृकुटी क्षितिज तिमिरान्कित

नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित

आनन श्री छाया शशि उपमित

ज्ञानमूढ़ गीता-प्रकाशिनी,


भारतमाता ग्रामवासिनी


सफ़ल आज उसका तप संयम

पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम

हरती जन-मन भय, भव तन भ्रम

जग जननी जीवन विकासिनी,


भारतमाता ग्रामवासिनी

"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस / सुमित्रानंदन पंत
रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
 
चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन !
नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन !



शान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण,
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण !
आम्र-मौर लाओ हे ,कदली स्तम्भ बनाओ,
पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ ,
जय भारत गाओ, स्वतन्त्र भारत गाओ !
उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज हिमाँचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल !
लहर-लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल
जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल !



धन्य आज का मुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,
भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल !
तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !
राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन !
स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवगण!
लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!



नव स्वतंत्र भारत, हो जग-हित ज्योति जागरण,
नव प्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण !
नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,
शान्ति प्रीति सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक-जागरण!
नव संस्कृति आलोक करे, जन भारत वितरण!
नव-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन !


http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%A4

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नौका-विहार / सुमित्रानंदन पंत
रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
 
शांत स्निग्ध, ज्योत्सना धवल!
अपलक अनंत, नीरव भूतल!



सैकत शय्या पर दुग्ध-धवल,
तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस बाला गंगा, निर्मल,
शशि-मुख में दीपित मृदु करतल
लहरे उर पर कोमल कुंतल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर,
लहराता तार तरल सुन्दर
चंचल अंचल सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर,
शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर!



चाँदनी रात का प्रथम प्रहर
हम चले नाव लेकर सत्वर!
सिकता की सस्मित सीपी पर,
मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
लो पाले चढ़ी, उठा लंगर!
मृदु मंद-मंद मंथर-मंथर,
लघु तरणि हंसिनी सी सुन्दर
तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल ले शुचि दर्पण पर,
बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!
कालाकाँकर का राजभवन,
सोया जल में निश्चित प्रमन
पलकों पर वैभव स्वप्न-सघन!




नौका में उठती जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर!
विस्फारित नयनों से निश्चल,
कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर नभ का अंतस्तल!
जिनके लघु दीपों का चंचल,
अंचल की ओट किये अविरल
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!
सामने शुक्र की छवि झलमल,
पैरती परी-सी जल में कल
रूपहले कचों में ही ओझल!
लहरों के घूँघट से झुक-झुक,
दशमी की शशि निज तिर्यक् मुख
दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक!




अब पहुँची चपला बीच धार,
छिप गया चाँदनी का कगार!
दो बाहों से दूरस्थ तीर
धारा का कृश कोमल शरीर
आलिंगन करने को अधीर!
अति दूर, क्षितिज पर
विटप-माल लगती भ्रू-रेखा अराल,
अपलक-नभ नील-नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु-सा, समीप,
सोया धारा में एक द्वीप,
ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक,
उड़ता हरने का निज विरह शोक?
छाया की कोकी को विलोक?



पतवार घुमा, अब प्रतनु भार,
नौका घूमी विपरीत धार!
ड़ाड़ो के चल करतल पसार,
भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार,
बिखराती जल में तार-हार!
चाँदी के साँपो की रलमल,
नाचती रश्मियाँ जल में चल
रेखाओं की खिच तरल-सरल!
लहरों की लतिकाओं में खिल,
सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल!
अब उथला सरिता का प्रवाह;
लग्गी से ले-ले सहज थाह
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!



ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार,
उर में आलोकित शत विचार!
इस धारा-सी ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन की उद्गम
शाश्वत लघु लहरों का विलास!
हे नव जीवन के कर्णधार!
चीर जन्म-मरण के आर-पार,
शाश्वत जीवन-नौका विहार!
मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान,
जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व दान!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गृहकाज / सुमित्रानंदन पंत
रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
आज रहने हो यह गृहकाज
प्राण! रहने हो यह गृहकाज!



आज जाने कैसी वातास
छोड़ती सौरभ-श्लभ उच्छ्वास,
प्रिये, लालस-सालस वातास,
जगा रोओं में सौ अभिलाष!



आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण!
सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार,
दृगों में मधुर स्वप्न संसार,
मर्म में मदिर स्पृहा का भार!



शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल,
आज अपलक कलिकाएँ बाल,
गूँजता भूला भौरा डोल,
सुमुखि, उर के सुख से वाचाल!
आज चंचल-चंचल मन प्राण,
आज रे, शिथिल-शिथिल तन-भार,



आज दो प्राणों का दिन-मान
आज संसार नही संसार!
आज क्या प्रिये सुहाती लाज!
आज रहने दो सब गृहकाज!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चाँदनी / सुमित्रानंदन पंत
रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत                 
 
 

नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
मृदु करतल पर शशि-मुख धर
नीरव, अनिमिष एकाकिनि।



वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
छू लेती अग-जग का मन,
श्यामल, कोमल चल चितवन
जो लहराती जग-जीवन!



वह फूली बेला की वन
जिसमें न नाल, दल, कुड्मल
केवल विकास चिर निर्मल
जिसमें डूबे दस दिशि-दल!



वह सोई सरित-पुलिन पर
साँसों में स्तब्ध समीरण,
केवल लघु-लघु लहरों में
मिलता मृदु-मृदु उर-स्पन्दन!



अपनी छाया में छिपकर
वह खड़ी शिखर पर सुन्दर,
है नाच रही शत-शत छवि
सागर की लहर-लहर पर!



दिन की आभा दुलहिन बन
आई निशि-निभूत शयन पर
वह छवि की छुई-मुई-सी
मृदु मधुर लाज से मर-मर



जग के अस्फुट स्वप्नों का
वह हार गूँथती प्रतिपल,
चिर सजल, सजल करुणा से
उसके ओसों का अंचल!



वह मृदु मुकुलों के मुख में
भरती मोती के चुम्बन,
लहरों के चल करतल में
चाँदी के चंचल उडुगण!



वह लघु परिमल के घन-सी
जो लीन अनिल में अविकल,
सुख के उमड़े सागर-सी
जिसमें निमग्न उर-तट-स्थल!



वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी
है मुँदे दिवस के द्युति-दल,
उर में सोया जग का अलि
नीरव जीवन-गुँजन कल!



वह नभ के स्नेह श्रवण में
दिशि का गोपन-सम्भाषण,
नयनों के मौन मिलन में
प्राणों का मधुर समर्पण!



वह एक बूँद संसृति की
नभ के विशाल करतल पर
डूबे असीम सुषमा में
सब ओर-छोर के अन्तर!



झंकार विश्व जीवन की
हौले-हौले होती लय
वह शेष, भले ही अविदित,
वह शब्द-युक्त शुचि आशय!



वह एक अनन्त प्रतीक्षा
नीरवस अनिमेष विलोचन,
अस्पृश्य, अदृश्य, विभा वह,
जीवन की साश्रु-नयन क्षण!



वह शशि-किरणों से उतरी
चुपके मेरे आँगन पर,
उर की आभा में कोई,
अपनी ही छवि से सुन्दर!



वह खड़ी दृगों के सम्मुख
सब रूप, रेख, रंग ओझल
अनुभूति मात्र-सी उर में
आभास-शान्त, शुचि उज्जवल!



वह है, वह नहीं, अनिर्वच,
जग उसमें, वह जग में लय,
साकार चेतना-सी वह
जिसमें अचेत जीवाशय!

 

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