पन्त-पथ पर
कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मशती के अवसर पर निकाले जा रहे इस संचयन को ‘स्वच्छंद’ कहने के पीछे सिर्फ़ हिन्दी की स्वच्छन्तावादी काव्यधारा को, उसके बाद एक प्रमुख स्थगित के माध्यम से, अनुगुँजित करना अभीष्ट नहीं है। अभीष्ट यह भी है कि हिन्दी भाषा और कविता को अपना जातीय छन्द देने में पन्त की भूमिका को कृतज्ञतापूर्वक याद किया जाना चाहिए। बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ ही पन्त जी की जन्मशती में जो लेखक हिन्दी भाषा पर व्याप्त रहे हैं उनमें निश्चित ही पंत जी हैं। बल्कि जिन मूर्धन्यों ने हमारों लिए शताब्दी को रचा-गढ़ा और उससे समझने-सहने की शक्ति दी उनमें पन्त जी शामिल हैं।
यह भी निर्विवाद सा है कि छायावाद कविता के लिए इस शताब्दी का स्वर्णयुग था। अब, इतने बरसों बाद और कविता की संवेदना भूगोल के अप्रत्याशित विस्तार के बाद, यह स्पष्ट दीख पड़ता है कि छायावाद स्वाधीनता, मुक्ति और व्यक्तित्व के आग्रह के कविता के केन्द्रीय होने का युग था। हालाँकि छठवें दशक के शुरू में पन्त जी ने अपने पहले ‘निराला व्याख्यान’ में यह कहने पर नयी कविता छायावाद का विस्तार है, हम सभी चौंके और नाराज़ हुए थे लेकिन उसमें काफ़ी सचाई है। छायावाद का ऐसा ऊर्जस्वी वितान न होता तो आज कविता में कुछ भी कह पाने का साहस, अपने समय और दृष्टि करने का जोखिम और सारे संसार को कविता के परिसर में शामिल करने को उदग्र सम्भव न होता। यह अकारण नहीं हो सकता है कि अनेक नये कवि इधर बिना किसी हिचक या संकोच के अपने को किसी छायावादी मूर्धन्य से जोड़ते रहे हैं।
पन्त जी की काव्यधारा विपुल है : छायावादियों में उन्होंने सबसे अधिक और सबसे लम्बे समय तक कविताएँ लिखी हैं लगभग अबोध विस्मय से आरम्भ कर उनका कविता-संसार दार्शनिक अभिप्रायों और आध्यात्मिक चिन्ताओं तक जाता हुआ संसार है। हर कवि, वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, और पन्त एक बड़े कवि है इसमें क्या संशय, अपनी यात्रा में कई मुकाम और पड़ाव तय करता है। लेकिन बाद में उनमें से कई स्वयं उसके लिए और प्राय: दूसरो के लिए पीछे छू़ट जाते हैं, मुबहम हो जाते हैं। इस बीच, यानी पन्त जी के कविता की रुचि बेहद बदल गई है। बल्कि वह तो उनके रहते भी खासी बदल चुकी थी और इस बदली हुई रुचि और संवेदना से पन्त स्वयं प्रतिकृत हुए थे। आसान नहीं था लेकिन दो छायावादी मूर्धन्यों- निराला और पन्त- ने अपने छायावादी मुहावरों को जोखिम उठाकर, पर बड़ी खरी पारदर्शिता के साथ पुनराविष्कार किया था। कविता के पन्त-प्रयत्न को उसकी पूरी विविधता और विपुलता में समेटना कठिन कार्य है : ऐसा बहुत सा है जो एक समय मार्मिक और प्रभावपूर्ण लगता था पर अब अपनी धार खो चुका है। सौभाग्य से, ऐसा पर्याप्त है जो बासी या पुराना नहीं पड़ा है; उसमें न सिर्फ पन्त की दृष्टि, शिल्प और भंगिमाएँ समय पार कर हमसे कुछ सार्थक बात कर पाती हैं उन्हें जाने-सुना बिना स्वयं हिन्दी कविता की अपनी आन्तरिक लय, उसका अन्त:संगीत और उसका शब्द सौष्ठव समझना संभव नहीं है।
हमारा समय, दुर्भाग्य से, ऐसा समय हैं जिसमें मनुष्य के साधारण जीवन-व्यापार और साहित्य से विस्मय-बोध गायब ही हो गया है। पर्यावरण के नाश की सारी दुश्चिन्ताओं के बावजूद हम काफ़ी हद तक मनुष्यों के समाज में बँध गये हैं, बजाय उस लोक में होने के जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच इतना अपरिचय या दूरी नहीं थीं। पन्त की कविता पढ़ना इन दिनों अपने जीवन और भाषा में विस्मय के पुरनर्वास की सम्भावना से दो-चार होना है। पन्त की कविता उनकी गहरी ऐन्द्रियता से भी निकली थी : उसमें शास्त्री गरिमा और लोक उच्छलता दोनों संग्रथित थीं। आज उनकी कविता को पढ़ने से खड़ी बोली ऐन्द्रियता के मूल का संस्पर्श करने की ओर बढ़ते हैं। खड़ी बोली के खड़ेपन के बावजूद उसमें कविता के उपर्युक्त अन्त:संगीत विन्यस्त कर पाना आसान नहीं, लगभग क्रान्तिकारी काम था जो पन्त ने बड़ी सूझबूझ और कल्पनाप्रवणता के साथ किया था। यह काम उनकी कविता में अपनी अनेक छटाओं में है।