उत्तराखंड जल उठा
(खंडकाव्य)
क्रमस.......२ से आगे
(३)
(तृतीय सर्ग)
शासक हो या प्रशासक
जनहित से नहीं ऊपर है
जाँत-पांत, धर्म छेत्रवाद में
शासितों को उलझाना अहितकर है.
पद-प्रतिष्ठा का मान-सम्मान
जीवन में छनिक सुख देता है
जनहित का अणु प्रतिफल,
जीवन को मधुमय कर लेता है.
स्वार्थ सिधि की अट्टालिका
शरहद निर्धारित करती है
विशाल हृदय छम्मा शक्ति को
शरहद की सीमा अखरती है.
किन्तु जहां अनीति, छल-बल से,
सत्ता हथियाई जाती हो
जहां जाती, धर्म, छेत्रवाद में
विभाजन की बू आती हो.
जहाँ अन्याय, कुटिलता से,
शासन चलाया जाता हो,
जहाँ नागरिकों को केवल,
वोटर भुनाया जाता हो.
जहाँ लोकतंत्र में एक व्यक्ति,
पूरा शासन चलाता हो,
जहाँ तंत्र में विपक्स कि,
वह आवाज दबाता हो.
जहाँ समाजवाद, धर्म निरपेक्षता कि,
देते वृथा दुहाई,
जहाँ विकास के आंकड़ों कि,
सिर्फ कागजों में हो भरपाई.
जहाँ सत्ताधारी मंचों से,
चिल्लाते जिओ और जीने दो,
मंच के पीछे मंत्र फूकंते,
रक्त एक दूजे का पीने दो.
जहाँ जनता के प्रतिनिधि,
आपस में लड़ते झगड़ते हों,
जहाँ के जन प्रतिनिधियों में,
परस्पर जूते पड़ते हों.
जहाँ सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ,
गुंडों को चुनाव लड़ाते हों,
जहाँ वोट भी राजनीतिज्ञ
बलपूर्वक ही पाते हों.
जहाँ नीतियुक्त प्रस्तावों को,
ठोकर मारी जाती हो,
जहाँ सत्य बोलने पर,
सजा आफत आती हो.
जहाँ सत्य सदैव हरता,
झूठ पांव फैलता हो,
जहाँ न्याय भी आँखों पर,
अन्याय कि पट्टी बाँधता हो.
जहाँ न्याविद पदासीन हो,
जूठी दलीलें गड़ता हो,
जहाँ झूठ कि विजयश्री और,
सच सूली पर चड़ता हो.
कहो उस शासन का क्या होगा,
कैसें वो निष्पक्ष रहेगी,
फिर कैंसे प्रजा वहां कि,
उसको राम-राज्य कहेगी.
कैंसे वहां पर न्याय होगा,
कहो कहाँ शिकायत करेंगे
क्रूर-दुष्ट उस शासक का,
वे कैंसे दमन सहेंगे.
बोलने का अधिकार न होगा,
लोहा चने चबाये होगा,
हर समय नागरिक वहां का,
शोला हृदय दबाये होगा.
वही दबा शोला एक दिन,
लावा बन उबलता है,
शांति छोड़ आंदोलित हो,
सड़कों पर निकलता है.
कौन उत्तरदाई है कहो,
उस जन आन्दोलन का,
घृणा से भरा जन-मन या,
बोया बीज अनीतिपन का.
है विचारणीय विषय,
आन्दोलन हुआ क्यों है,
अपने घर का सुख चैन छोड़,
वह निकला सड़कों पर क्यों है.
अन्याय और अनीति पर,
जब शासक चलता है,
तो समझो अवश्य वहां
आन्दोलन जन-जन में पलता है.
सहते- सहते जहाँ मनुज,
थक गया हो तन-मन से,
अपने को सदैव उपेक्षित,
समझता हो शासन से.
देश हितैषी मनुज,
जहाँ न सम्मान पायें,
जहाँ स्वाभिमानी को,
देश द्रोही समझा जाये.
जहाँ जाती, धर्म, छेत्रवाद,
आधार हो शासन का,
अंदर ही अंदर सुलगता है,
हृदय वहां जन-जन का.
सत्ता के संग पक्षपात का,
जहाँ मेल हो जारी,
देखने में शांति परन्तु,
अंदर सुलगती है चिंगारी.
आन्दोलन न रुकेंगे जब तक,
हर नागरिक न सम होगा,
खून-खराबा करने में,
वह न किसी से कम होगा.
ऐंसी समता करता शासक,
निस्वार्थ राज्य सेवा से,
प्रजा को करता खुशहाल,
आदर्शो के मधु-मेवा से.
शांति न्याय का रूप दूसरा,
न्याय आवश्यक प्रशासन में,
अन्याय, अनीति का जहाँ आसरा,
शांति कहाँ उस शासन में.
कृतिम शांति अधिक समय तक,
दबी नहीं रह सकती है.
अंतत एक दिन वह,
लावा बन फूट पड़ती है.
फिर कठिन होता रोकना,
उस दबे हुए आक्रोश को
फूट पड़ा जो लावा बनकर,
उद्वेलित कर जन-जोश को.
है सत्ता बदल-बदल कर,
अलग-अलग दलों में आई,
पर सफ़ेद लिबासी राजनीतिज्ञ
हैं आपस में भाई-भाई.
सत्ता का सुख लेते हैं सब,
स्वार्थ, अधर्म कि नीति से,
फिर कैंसे संभव है, नागरिक,
खुश होगा उस रीति से.
ओड़ते हैं जो सफ़ेद वस्त्र,
काले कर्म अधिक करते हैं,
स्वदेशी के ये हिमायती,
स्वयं विदेशी से मन भरते हैं.
ओड़ा है यदि सफ़ेद रंग,
उसका सम्मान करना सीखो,
दया-करुणा, प्रेम, परोपकार,
अन्दर अपने भरना सीखो.
रंगों में रंग सफ़ेद रंग,
इसके महिमा अपरम्पार,
शांति, सहिसुंनुता, पावनता,
आहिंसा मुख्य इसके आधार.
ओड़ के गाँधी ने यह रंग,
अहिंसा की ऐंशी ज्योति जलाई,
शांति दूतों में अग्रणी,
'राष्टपिता' की पदवी पायी.
मदर टेरीसा का यह रंग,
विश्वभर में छाया है,
करुण, अपंग बेसहारों को,
उसने गले लगाया है.
समाज भी विधवावों को,
सफ़ेद रंग पहनता हैं,
त्याग, तपस्या, सहिसुनुता से,
जीना उन्हें सिखाता है.
झंडो में रंग सफ़ेद रंग,
जिस किसी ने फहराया है,
आग उगलती तोपों ने,
शांति रुख अपनाया है.
इस रंग कि प्रवृत्ति अदभुत्त
शांत सरल हृदय है,
इसकी पावनता के तुल्य,
हो नहीं सकता संचय है.
हर रंग में रंग जाता है,
देख इसे कभी जंग न हो,
ऐसीं करनी करो हमेशा,
पावनता इसकी बदरंग न हो.
क्रमस.... (4)