Uttarakhand > Utttarakhand Language & Literature - उत्तराखण्ड की भाषायें एवं साहित्य

मेरा पहाड़ सदस्यों द्वारा रचित गढ़वाली/कुमाऊंनी कविताये,लेख व रचनाये

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Veer Vijay Singh Butola:
अनुभव भाई नमस्कार,
मेरी कविताओ की सराहना हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद , बस अपनी कुछ कविताये यहाँ पर डाली है अपने मेरा पहाड़ के मित्रो के लिए | भविष्य में भी कुछ और रचनाओ को यहाँ पर डालूँगा |
प्रणाम,

हेम पन्त:
बुटोला जी अपनी दुदबोलि गढवाली में लिखे गये लेख व कविता पढकर बहुत अच्छा लगा.... हास्यरस की कविताओं में भी गंभीर बातें मन को छू गयी... भाषा समझने में भी कोई दिक्कत नही आयी... कुछ और रचनाओं का इन्तजार रहेगा... धन्यवाद

Veer Vijay Singh Butola:

--- Quote from: H.Pant on February 16, 2009, 01:41:12 PM ---बुटोला जी अपनी दुदबोलि गढवाली में लिखे गये लेख व कविता पढकर बहुत अच्छा लगा.... हास्यरस की कविताओं में भी गंभीर बातें मन को छू गयी... भाषा समझने में भी कोई दिक्कत नही आयी... कुछ और रचनाओं का इन्तजार रहेगा... धन्यवाद

--- End quote ---


Thanks Hem da for your kind love and appreciation. Soon I will share more articals and poems with Mera Pahad fourm.

Veer Vijay Singh Butola:
प्रिय मित्रो,

मैंने एक कविता की रचना की है, जिसमे मैंने अपने मन की व्यथा को पहाड़ से हमारे पलायन के प्रभाव के रूप में प्रस्तुत किया है | आशा है आप को पसंद आयेगी ?

प्रस्तुत है मेरी कविता जिसका शीर्षक है ---------------है धरा तुम्हे पुकार रही |



है धरा पुकार रही

जन्मभूमि निरंतर तुम्हे तुम्हारी है रही पुकार
सूने पड़े है खेत-खलिहान खाली  है गौं-गुठियार

हैं निर्जन वो गलियाँ जंहा पथिको की थी कभी भरमार
राहें जाग रही है बाट जोहे, है उन्हें पदचिन्हों का इंतजार

गिने चुने जन ही शेष है, सन्नाटा पसरा हुआ है चहूँ और
ताक रही है धरती ऐसे मानो  जैसे रुग्ण व्यक्ति ताके भोर

अविरल बहते नदी-नाले भी मुड़ गए अनजान राहों पर
जंगल-पहाड़ भी मौन खड़े है, देखो आँखे उनकी भी हैं तर

खेतों-खलिहानों में अब बाँझपन कर चूका है घर
ये भीगापन वक्षो पर नमी नहीं है, है ये अशरुओ से तर-तर

फूलो ने भी महकना छोड़ा साथ ही फलों के वृक्ष भी हुए बाँझ
ये धरती भी करती है प्रतीक्षा तुम्हारे आने की प्रात: हो या साँझ

घुघूती भी अब नहीं बासती आम की डालियों पर
कलरव छोड़ा चिडियों ने जैसे ग्रहण लगा हो इस धरा पर

जंगल और पहाड़ की आँखे लगी है उन राहों पर
घसेरियां जहा खुदेड़ गीत लगा याद करती थी अपना प्रियवर

चैत महीने के कोथिगो व् मेलों की न रही वो पहिचान
धुल-धूसरित हुई संस्कृति खो गया कही लोककला का मान

काफल-बुरांस के पेड़ अब लाली फैलाते नहीं हो रहे प्रतीत
सोचो तो जरा कभी, क्योँ बिसराया हमने पहाड़, क्यों छोड़ी वो प्रीत

हे शैलपुत्रो बुला रही है ये धरती तुम्हे, आओ करो इसका पुन: श्रंगार
चार दिन के इस जीवन में कभी तो समय निकालो, दो इसको अपना प्यार

ये जन्मभूमि हमारी माता है इसका हमसे अटूट नाता है
बिसरे तुम उसे जो तुम्हे बरबस बुलाये क्या ये तुमको भाता है ?

जगा इच्छाशक्ति, आओ लौट चले इसकी जीवनदायिनी गोद में यही तो हमारी माता है
ले संकल्प करो सृजन इस धरा का अब कर्ज चुकाने का समय शुरू हो जाता है

Written By: Vijay Singh Butola

पंकज सिंह महर:

--- Quote from: Vijay Butola on March 16, 2009, 04:51:15 PM ---हे शैलपुत्रो बुला रही है ये धरती तुम्हे, आओ करो इसका पुन: श्रंगार
चार दिन के इस जीवन में कभी तो समय निकालो, दो इसको अपना प्यार

ये जन्मभूमि हमारी माता है इसका हमसे अटूट नाता है
बिसरे तुम उसे जो तुम्हे बरबस बुलाये क्या ये तुमको भाता है ?

जगा इच्छाशक्ति, आओ लौट चले इसकी जीवनदायिनी गोद में यही तो हमारी माता है
ले संकल्प करो सृजन इस धरा का अब कर्ज चुकाने का समय शुरू हो जाता है
--- End quote ---

बहुत अच्छे बुटोला जी, मर्मस्पर्शी कविता है....जो दिल की गहराई में उतर गई।

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