Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 1118575 times)

Bhishma Kukreti

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                            गढ़वाली भाषा में लोक कथा संसार और मुख्य संकलनकर्ता 

 

                                                                   भीष्म कुकरेती

                कथाओं के बारे में हिंदी के प्रसिद्ध समालोचक  डा अनिल डबराल का कहना है कि कहानी  समस्त वांगमय में सबसे पुरानी विधा है .

डा. अनिल  डबराल ' गढ़वाली गद्य कि परंपरा'   पुस्तक में कहते हैं  कि कहानी स्मृति है और मनुष्य यही स्मृति है. यही कारण है कि गढवाल में

कथाओं का रूप प्राचीन काल से ही रहा है किन्तु वाच्य रूप में रहा है और लिखित  रूप में नहीं

                                                 गढवाली भाषा में लोक कथा संकलन

                 जहाँ तक गढवाली लोक कथाओं के संकलन का प्रश्न है रोहित गंगासलाणी ने 'चिट्ठी पतरी ' के लोक कथा विशेषांक में पूरा ब्यौरा दिया और लिखा कि

तारा दत्त गैरोला , ओकले व भीष्म कुकरेती ने अंग्रेजी में गढ़वाली लोक कथाओं व गाथाओं  का प्रकाशन किया तो हिंदी में  अबोध बंधु बहुगुणा ( लंगड़ी बकरी ),

भीष्म कुकरेती (गढवाल की २४  लोक कथाएं) व चक्रधर बहुगुणा व वीणा पाणी जोशी ( दांत कथाएं ) की पुस्तकें महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं .

 इसके अतिरिक्त डा चातक, राधाकृष्ण कुकरेती ने भी पत्र पत्रिकाओं में  गढवाली लोक कथाएं हिंदी प्रकाशित  कीं ( गढवाली गद्य  परंपरा , पृष्ठ १५६)

सम्पति नेगी ने 'पक्षियों की गढवाली लोक कथाएं ' पुस्तक में ९ कथाएं हिंदी में छापी हैं . डा अनिल डबराल ने इस कथा संग्रह की भूरि भूरि प्रशंशा की है

                         जहाँ तक गढवाली भाषा में गढवाली लोक कथाओं के संकलन का प्रश्न  है इस पक्ष में निम्न हस्ताक्षर मुख्य  हैं :

रिकोर्ड अनुसार गढवाल की लोक कथा पहली बार गढवाली भाषा  में पर्वतीय जन दिल्ली (१९५४ ई) में छपी. तदुपरांत रैबार (१९५६), मैती (१९६८) में डा चातक kee लिखी

गढवाली भाषा में गढवाली लोक कथा (फ्यूँली)  छपीं

           डा हरिदत्त भट्ट शैलेश के ग्रन्थ 'गढवाली भाषा और उसका साहित्य ' में कुछेक कथाएं गढवाली में छापी हैं .

             अबोध बंधु बहुगुणा का गाड मटयेकि गंगा में भी कई गढवाली लोक कथाएं छपीं हैं

  जाय लाल वर्मा की ' वैताल पचीसी ' की कथाएं बेताल पचीसी से सम्बन्धित हैं किन्तु कथाओं की भाषा गढवाली है

इसी तरह पंडित आदित्य राम दुदपूडी की ' पंचतंत्र के कथाएं ' पुस्तक का गढवाली अनुदित साहित्य में महत्वपूर्ण दस्तवेज माना जाता है

          भीष्म कुकरेती की २३  ' सलाण  बिटेन गढवाली लोक कथा '  गढवाली भाषा साप्ताहिक रंत रैबार' में  सन २००५ में छपीं व इनका विश्लेषण रोहित गंगा सलाणी

ने चिट्ठी पतरी के लोक कथा विशेषांक में किया . ये सभी कथाएं ढाणगु , ड़बरालस्यूं व  उदयपुर पट्टी में प्रचलित कथाओं पर आधारित हैं. या यों कहा जा सकता है की ये कथाएं

 गंगा सलाण की  क्षेत्रीय लोक कथाएं हैं .

                 डा अनिल डबराल ने ' गढ़वाली  गद्य परंपरा' ; पुस्तक में गढ़वाली भाषा में १७ लोक कथाओं का संकलन किया है.

                    विदेशी  भाषाओँ की लोक कथाओं का गढ़वाली में अनुबाद का श्रेय भीष्म कुकरेती को जाता है. भीष्म कुकरेती ने मिश्र, रोम व मध्य एशिया की

 कई लोक कथाओं का गढ़वाली  अनुवाद गढ़वाली का एकमात्र दैनिक गढ़ ऐना (१९९०)  में प्रकाशित किये

 समय समय पर 'युगवाणी' , चिट्ठी पतरी व अन्य पत्रिकाओं ने  गढवाली लोक कथायें  गढ़वाली भाषा  में प्रकाशित की   हैं . इन लेखकों में बालेन्दु बडोला, सुरेन्द्र पुंडीर,

डा राकेश गैरोला, महावीर रांवल्टा , प्रताप शिखर, विजय जड़ाधरी , माला थपलियाल का नाम महत्त्व पूर्ण है

            हिंदी में   मोहन बाबुलकर, डा हरि दत्त भट्ट शैलेश, अबोध बंधु बहुगुणा, भीष्म कुकरेती , डा नन्द किशोर ढौंडियाल , डा अनिल डबराल ने गढवाली लोक कथाओं

पर गवेषणात्मक लेख लिखे हैं

                                                 गढवाली भाषा में लोक कथाओं का विश्लेषण

                जहाँ तक निपट गढ़वाली भाषा का प्रश्न है निम्न विद्वानों ने गढ़वाली भाषा में गढ़वाली लोक कथाओं का वैज्ञानिक ढंग से विशेलाष्ण किया :

                      अबोध अबन्धु बहुगुणा द्वारा गाड मयटेकी गंगा में फघ्वाली लोक कथाओं की मूल आत्मा को दर्शाया . इसी तरह भीष्म कुकरेती एवम अबोध बंधु बहुगुणा के एक

वार्तालाप में गढ़वाली लोक कथाओं में हास्य व्यंग्य  का पाया जाने पर बहुत महत्वपूर्ण वार्तालाप हुयी है जो लोक साहित्य हेतु एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी है (कौन्ली किरण पुष्तक  )

           डा नन्द  किशोर ढौंडियाल का लेख ' गढ़वाली लोक कथों पर एक नजर '  गढ़वाली समोल्चना साहित्य में एक महत्वपूर्ण लेख है जिसमे मूर्धन्य लेखक ने

गढ़वाली लोक कथाओं का विवेचन किया व मोहन बाबुलकर के वर्गीकरण - देव गाथाएं, कथा, व्रत कथाओं, उपदेशात्मक कथाएं, मनोरंजनपूर्ण कथा,

भूत की कथा व समस्या प्रधान वर्गीकरण  , का विश्लेष्ण भी किया (चिट्ठी पतरी २००७)

               हिमांशु शर्मा ने चिट्ठी पतरी (२००७) के अंक में अर्ने टॉमसन का वर्गीकरण , ब्लौदिमीर  के वर्गीकरण व जुलिअस फेडरिक क्रोहन के लोक कथाओं के वर्गीकरण

का आद्योपांत विश्लेषण किया.

               अश्वनी कुमार ने हिंदी में प्रकाशित अबोध बंधु बहुगुणा के गढ़वाली लोक कथा वर्गीकरण  ( ऐतिहासिक, क्रमिक विकास संबंधी , धार्मिक, हास्य सम्बन्धी, प्रतीतात्मक, कहावती, बाल विनोदाद्मक व संसमरणआ त्मक  )  गढ़वाली अनुबाद चिट्ठी पतरी (२००७ ) में छापा

              रोहित गंगा सलाणी ने समय क्रमानुसार गढ़वाली लोक कथाओं के संकलन का ब्यौरा चिट्ठी पत्री (२००७) में छापा

          उमा शर्मा का  ' लोक कथाओं का सार्वभौमिक तत्व - गुण अर गढ़वाळी लोक कथा' लेख  में विश्व की अन्य लोक कथाओं का

गढ़वाली लोक कथाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन है जो गढ़वाली आलोचना का एक सुनहरा  अध्याय है (चिट्ठी पतरी २००७ )

 भीष्म कुकरेती का चिट्ठी पतरी लोक कथा विशेषांक (२००७) लेख ' गढ़वाळी कथौं  मां प्रबंध शाश्त्र की सूचना ' जहाँ लोक कथा विश्लेष्ण को

नया विषय प्रदान करता है. हिंदी में इसी तरह के भीष्म कुकरेती के विचारों पर दिल्ली के समाचार पत्र दैनिक हिंदुस्तान व नव भारत टाइम्स  ( भीष्म कुकरेती की पुस्तक ' गढ़वाल की लोक कथाएं ' पर समीक्षा )  में एक बहस शुरू भी हुयी थी. वहीं चिट्ठी पतरी (२००७ )  में ही भीष्म कुकरेती का दूसरा  लेख ' जवारून सम्बंधित लोक कथौं संकलन महाभारत बिटेन लग ' लेख

लोक कथाओं के संस्कार पर अन्वेषणात्मक लेख है

   चिट्ठी पतरी के इसी अंक में सुरेन्द्र पुंडीर का लेख ' गढ़वाळी ल़ोक कथाएं : जौनपुर का परिपेक्ष मां ' जौनपुर की लोक कथाओं का विश्लेष्ण करता है

            इस तरह हम पाते हैं कि अबोध बंधु बहुगुणा, डा अनिल डबराल व भीष्म कुकरेती ने अधिसंख्य गढ़वाली लोक कथाओं को गढ़वाली  भाषा में प्रकाशित किया व  अबोध बंधु बहुगुणा , भीष्म कुकरेती , नन्द किशोर ढौंडियाल उमा शर्मा, रोहित गंगासलाणी, सुरेन्द्र पुंडीर , अश्विनी कुमार, हिमांशु शर्मा  आदि ने गढ़वाली लोक कथाओं का गढ़वाली भाषा में न्यायोचित  विश्लेष्ण किया .

Bhishma Kukreti

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              सॉरी भुला !
( संसार के प्रसिद्ध कथाकार मंटो की उर्दू कथा ' सौरी ब्रदर 'का गढवाली में रूपांतर )

(रूपांतरकर्ता: भीष्म कुकरेती )

           हिन्दू मुस्लिम दंगो को जोर छौ .

               बीच चौबट मा एक ल्हास पोड़ी  छे

        दंगाय़ी उना बिटेन आइन .

              एक दंगाईन ल्हास को सुलार को नाड़ू ख्वाल,

              अर झळकाँ देखिक ब्वाल बल

         " सॉरी भुला ! माफ़ कॉरी दे   '

Bhishma Kukreti

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                                  बिठुं पर  भिड़याणो रौंस याने सवर्ण  स्पर्श सुख

                                                                भीष्म कुकरेती

               (शिल्पकार संघर्ष की एक मार्मिक  कथा , a Garhwali story )

                       गुंडू  तैं ना निंद ना चैन. तेरों दिन आण वाळ च अर गुंडू से वो नि होई जो वैको बुबा जी न कसम ल्हेकी बोली छौ.

  गुंडू क बुबा जी तैं मोर्याँ दस दिन ह्व़े गे छया. मोरद दें गुंडू क बुबा जीन गुंडू से कसम ल़े छौ बल तिरैं से पैलि गुंडू बिठुं पर बिठुं क

मर्जी से भिड़यालू अर सवर्ण स्पर्श सुख ल्ह्यालू . जाँ  से गुंडू क बुबा जी तैं सोराग मिली जाओ . . गुंडू न बुबा जी क सोराग पाणऐ   ल्ह़ाळसा  मा  अपण मोरद बुबा क समणि कसम खै दे  बल वु तिरैं से पैलि  अवश्य ही सवर्ण स्पर्श सुख ल्ह्यालू .
 
 बुबा को मोरणोऊ परांत द्वी चार दिन त गुंडू इन्नी ही राई . वैन  समज इकीसवी सदी मा बिठुं / सवर्ण सुख भौत इ सरल होलू .पण वै तैं क्या पता की यूँ बिठुं / सवर्णों दुनया मा क्या क्या टुट ब्याग होंदन,

 सवर्णों क इख क्या क्या गोरख धंधा हुन्दन.
 
                     वै दिन ऊ बामण  डाक्टर  मा गे . गुंडू क हत्थ फर सौ रुपया कु नोट छयो . गुंडू न बोली " डाक्टर साब तब्यत खराब च नाडी द्याखो, स्टेथोस्कोप से

जिकुड़ी ( हृदय) क गती टटोल़ो ". बामण डाक्टर न गुंडू तैं इन द्याख जन बुल्यां कोढ़ी होऊ , बामण डाक्टर न एक स्योल़ू क डुडड़ा /डोर गुंडू क तरफ चुलाई/ फेंकी

अर ब्वाल, " ल़े ए डुडड़ा तैं अपण हथकुळी पर बाँध अर मी डुडड़ो  दुसर छ्वाड़ पर स्टेथोस्कोप से नब्ज दिखदु ! "

 गुंडू न बोली ," ना नब्ज डाइरेक्ट द्याखो "

बामण  डाक्टर न  करकरो  जबाब दे, " डैरेक्ट नब्ज दिखाणे त कै आर्य/शिल्पकार क्लिनिक मा जा."
 
वै दिन   गुंडू तैं बिठुं भिड़याणो  (स्पर्श सुख ) सुख नि मील 

  इनी तीन चार दिन हौरी निकळ गेन 

                   ब्याळी गुंडू त्रेपन सिंह टेलर मा झुल्ला सिलाणो गे . गुंडू तैं पूरो खात्री छे बल त्रेपन सिंग झुल्ला क नाप लींद दें गुंडू  पर जरूर भिड्यालो.
 
   त्रेपन सिंग न गुंडू तैं आदेस दिने बल आइना का समणी खडू ह्व़े जा अर त्रेपन सिंग बड़ो आइना मा गुंडू का नाप ल़ीण लगी गे .

गुंडू न विरोध करी अर बोल " म्यार गात को डाइरेक्ट नाप ल्ह्याओ ना की ऐना का छैल मा  .. "
 
 त्रेपन सिंग को कैड़ो जबाब थौ , " त्वे सणी डाइरेक्ट  नाप को बड़ो रौंस च , शौक च त आनंदी लाल आर्य/शिल्पकार टेलर मा जा वो गात क्या सब्बी नाप ल्हें ल्यालो .."

   गुंडू तैं त्रेपन सिंग से बि स्वर्ण स्पर्श सुख नी मील

           आज गुंडू क बुबा जी मोर्याँ दस दिन ह्व़े गेन अर अबी तलक गुंडू तैं सवर्ण स्पर्श सुख नसीब नी ह्व़े .

         आज गुंडू क बुबा जी मोर्याँ दस दिन ह्व़े गेन अर आज ही मकरैणी क दिन कठघर मा हत्थ गिंदी को म्याल़ा /मेला बि छयो  .

 घड़यांदो, घड़यांदो , सोचदो , सोचदो  गुंडू तैं एक कौंळ/ विधि समज मा आई . गुंडू तैं सोळ आनो भरवस होई  ग्यायी बल आज त भेमाता /ब्रह्मा बि

गुंडू तैं सवर्ण सुख से बंचित नि कॉरी सकदन , आज क्वी  बि गुंडू तैं बिठुं पर  भिड़याणो सुख से नि रोकी सकदो. गुंडू कठघर को गिंदी म्याल़ा तरफ चली गे

   कटघर मा हाथ गिंदी अपण चरम उत्कर्ष मा छयी . सौ सी बिंडी लोक हथगिंदी का बान एक हैंकाक मथि मुड़ीन पोड़यां छया . लोकुं  पिपड़कारो इनी छयो जन बुल्यां

 म्वारूं पेथण मा म्वारूं पिपड़कारू ह्वाऊ . गुंडू तैं सूजी .

  गुंडू लोकुं पिपड़कारो से भौत अळग  उच्चो भींट /दिवाल मा गयो  अर उख बिटेन किराई /चिल्लाई , " मी बि गिंदी खिलल़ू ' अर फिर अळग बिटेन गुंडू ना गिंदी खेलदा लोकुं क भीड़ / पिपड़कारो

मा फाळ मार दिने . तौळ गिंदी खेलदा बिठुं न गुंडू शिल्पकार /अछूत तै मथि /ऐंच बिटेन जनि आन्द देखी की सौब गिंदी से अलग ह्व़े गेन  .

गुंडू सीदा कठोर ख़ड़ीजा   जन पथरूं   मा धम्म गिरी अर वैको कपाळ छटाक-खचाक   से इन फूटी जन खीरा को दाणो फूटी गे हो धौं !

      ल्वे का बीच गुंडू की खुली  आँखी जन बुलणा होवन , "यीं इकासवीं सदी  मा त मै तैं सवर्ण सुख द्याओ..!!!"

  अर उख गिन्देरूं  अर तमाशबीनुं  की हक्क बक्क हुईं आँखी फिर बि बोलणा छयी , " सवर्ण सुख तुम शिल्पकारों तैं चयाणो च हम बिठुं तैं  शिल्पकारूं  पर भिड़याणो सुख थुका चयाणो च ...!!!"


    Copyright@ Bhishm Kukreti

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                          आधुनिक  गढवाली भाषा कहानियों की विशेषतायें  और कथाकार

                     (   Characteristics of Modern Garhwali Fiction and its Story Tellers)

 

                                                    भीष्म कुकरेती

                कथा कहना और कथा सुनना मनुष्य का एक अभिन्न  मानवीय गुण है . कथा वर्णन करने का

सरल व समझाने की सुन्दर कला है अथवा कथा प्रस्तुतीकरण का एक अबूझ नमूना है . यही कारण है कि प्रतेक बोली-भाषा में

लोक कथा एक आवश्यक विधा है. गढ़वाल में  भी प्राचीन काल से ही लोक कथाओं का एक सशक्त भण्डार पाया जाता है .

गढ़वाल में हर चूल्हे का, हर जात का, हर परिवार का, हर गाँव का , हर पट्टी का  अपना विशिष्ठ  लोक कथा भण्डार है

                जहाँ तक लिखित आधुनिक गढ़वाली कथा साहित्य का प्रश्न है यह प्रिंटिंग व्यवषथा  सुधरने व शिक्षा के साथ ही विकसित हुआ .

संपादकाचार्य विश्वम्बर दत्त चंदोला के अनुसार गढ़वाली गद्य की शुरुवात बाइबल की कथाओं के अनुबाद (१८२० ई.  के करीब ) से हुयी  ( सन्दर्भ: गाड मटयेकि गंगा १९७५ ) .

गढ़वालियों में सर्वप्रथम डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर पद प्राप्तकर्ता  गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने (उन्नीसवीं  सदी के अंत में ) हितोपदेश कि कथाओं का अनुबाद पुस्तक छापी थी (सन्दर्भ :गाड म्यटेकि गंगा).

                            आधुनिक गढ़वाली कहानियों के   सदानंद कुकरेती 

               आधुनिक गढ़वाली कथाओं के जन्म दाता विशाल कीर्ति के संपादक, राष्ट्रीय महा विद्यालय सिलोगी,मल्ला  ढागु के

संस्थापक सदा नन्द कुकरेती को जाता है . गढवाली ठाट के नाम से यह कहानी विशाल कीर्ति (१९१३ ) में प्रकाशित हुयी थी. इस कथा का  आधा भाग

प्रसिद्ध कलाविद बी . मोहन नेगी , पौड़ी के पास सुरक्षित है . कथा में चरित्र निर्माण व चरित्र निर्वाह बड़ी कुशलता पुर्बक हुआ है . गढवा ळी विम्बो का प्रयोग अनोखा है , यथा :

      "गुन्दरू की नाक बिटे सीम्प कि धार छोड़िक विलो मुख , वैकी झुगली इत्यादि सब मैला छन, गणेशु की सिरफ़ सीम्प की धारी छ पण सबि चीज सब साफ़ छन . यांको कारण , गुन्दरू की मा अळगसी' ख़ळचट  अर लमडेर छ.

         . भितर देखा धौं ! बोलेंद यख बखरा रौंदा होला . मेंल़ो  (म्याळउ )  ख़णेक घुळपट  होयुं च . भितर तकाकी क्वी चीज  इनै क्वी चीज उनै . सरा भितर तब मार घिचर पिचर होई रये.  अपणी अपणी जगा पर क्वी चीज नी.  भांडा कूंडा ठोकरियों मा लमडणा  रौंदन . पाणी का भांडों तलें द्याखो धौं . धूळ को क्या गद्दा जम्युं छ. युंका भितर पाणी पेण को भी ज्यू नि चांदो . नाज पाणी कि खाताफोळ , एक मणि पकौण  कु निकाळण त द्वी माणी खते जान्दन , अर जु कै डूम डोकल़ा , डल्या , भिकलोई तैं देण कु बोला त हे राम ! यांको नौं नी .

 

  रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' ने इस कथा को पुन :  गुन्दरू  कौंका घार स्वाळ पक्वड़ ' शीर्षक के नाम से 'हिलांस'   में प्रकाशित किया था .

सदानंद कुकरेती ( १८८६-१९३८) का जन्म ग्वील-जसपुर , मल्ला  ढागु , पौड़ी गढ़वाल में हुआ था .वे विशाल कीर्ति के सम्पादक भी थे

                  गढवाली ठाट के बारे में रामप्रसाद पहाड़ी का कथन सही है कि यह कथा दुनिया की १०० सर्वश्रेष्ठ कथाओं में आती है. कथा व्यंगात्मक अवश्य है और कथा में सुघड़ व  आलसी , लापरवाह स्त्रियों के चरित्र की तुलना

हास्य, व्यंग्य शाली बहुत रोचक ढंग से हुआ है. कथा असलियत वादी तो है,  वास्तविकता से भरपूर है, किन्तु पाठक को प्रगतिशीलता की ओर ल़े जाने में भी कामयाब है .कथा का प्रारभ व अंत बड़ी  सुगमता व रोचकता से किया गया है भाषा सरल व गम्य है . भाषा के लिहाज से  जहाँ ढागु के शब्द सम्पदा कथा में साफ़ दीखती है रमती है वहीं सदानंद कुकरेती ने पौड़ी व श्रीनगर कई शब्द व भौण भी कथा में समाहित किये हैं जो एक आश्चर्य है.

   ' गढवाली ठाट ' के बारे में अबोध बंधु बहुगुणा (सं -२)  लिखते हैं ' सचमुच में गद्य का ऐसा नमूना मिलना गढ़वाली का बाधा भाग्य है. बंगाली, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक गद्य की अभिव्यक्ति उस समय नहे पंहुची थी. यहाँ तक कि हिंदी में भी उस समय (सन १९१३ ई. में  ) गद्य अभिव्यक्ति इतनी रटगादार , रौंस (आनन्द , रोचक ) भरी मार्मिक नहीं थी.  इस तरह कि हू-ब-हू चित्रांकन शैली के लिए  हिंदी भी तरसती थी.

      गढवाल कि दिवंगत विभितियाँ  के सम्पादक   भक्त दर्शन का कथन है " सदानंद कुकरेती चुटीली शैली में प्रहसनपूर्ण कथा आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं "

    डा अनिल डबराल का कहना है कि सदानंद कुकरेती कि अभिव्यक्ति की  प्रासगिता आज भी बराबर बनी है .

               भीष्म कुकरेती के अनुसार ( सन्दर्भ 1) सदानंद कुकरेती का स्थान ब्लादिमीर नबोकोव, फ्लेंनरी ओ'कोंनर, कैथरीन मैन्सफील्ड , अर्न्स्ट हेमिंगवे, फ्रांज काफ्का, शिरले जैक्सन , विलियम कारोल विलियम्स , डी .एच लौरेन्स , सी. पी गिलमैन, लिओ टाल्स्टोय , प्रेमचंद, इडगर पो , ओस्कार वाइल्ड जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों की श्रेणी  में आते हैं

        परुशराम  नौटियाल : अबोध बंधु बहुगुणा ने  गाड म्यटयेकि गंगा (पृ ४०) में लिखा है श्री परुशराम  कि 'गोपू' आदि डो कहानियाँ इस दौरान ( १९१३- १९३६ ) प्रकाशित हुईं थीं

श्री देव सुमन : बहुगुणा के अनुसार श्री देव सुमन ने ' बाबा ' नाम कि कथा जेल में लिखी थी.

                                            आधुनिक गढ़वाली का प्रथम कहानी संग्रह 'पांच फूल '

    भगवती प्रसाद पांथरी (टिहरी रियासत , १९१४- स्वर्गीय ) ने ' १९४७ में   पाँच फूल ' कथा संग्रह प्रकाशित किया जो कि गढवाली का प्रथम कहानी संग्रह है . 'पांच फूल'  में 'गौं की ओर', 'ब्वारी', ' परिवर्तन',आशा', और न्याय पांच कहानियाँ है  पांथरी की कथाएं प्रेरणादायक व नाटकीयता लिए हैं. अबोध के अनुसार ब्वारी यथार्थवादी कहानी है और इसे बहुगुणा कथा साहित्य हेतु विशिष्ठ दें  बताता है

रैबार कहानी विशेषांक (१९५६ई. ) : सतेश्वर आज़ाद के सम्पादकत्व में डा शिवा नन्द नौटियाल, भगवती चारण निर्मोही, कैलाश पांथरी , दयाधर बमराड़ा, कैलाश पांथरी , उर्बीदत्त उपाध्याय व मथुरा  दत्त नौटियाल की कहानियाँ प्रकाशित हुईं. . गढवाली साहित्य इतिहास में  'रैबार' का यह  प्रथम गढवाली कथा विशेषांक एक सुनहरा पन्ना है  (सन्दर्भ -४)


दयाधर बमराड़ा( धारकोट, बगड़स्यूं १९४३-दिवंगत ) दयाधर बमराड़ा अपने उपन्यास हेतु प्रसिद्ध है, इनकी कथा रैबार (१९५६ ) में छपी है


डा शिवा नन्द नौटियाल (कोठला , कण्डारस्यूं , पौड़ी ग. १९३६- ) चंद्रा देवी, पागल, हे जगदीश, चुप रा, दैणि ह्व़े जा, से ळी या आग (१९५६) , धार मांकी गैणि जैसी  उत्कृष्ट कहानियां प्रकाश में आई हैं सभी कहानियां १९६० से पहले की ही हैं. डा अनिल के अनुसा r  डा नौटियाल की अपणी विशिष्ठ क्षेत्रीय शैली कहानी में दिखती है

भगवती चरण निर्मोही (देव प्रयाग, १९११-१९९०)  भगवती प्रसाद निर्मोही की कहानियाँ रैबार व मैती (१९७७ का करीब ) में प्रकाशित हुईं  जिनकी प्रशंषा अबोध बंधु व डा अनिल डबराल ने  की.

काशी राम पथिक की  कथा ' भुला भेजी देई'  मैती (१९७७ ) में  छपी और यह कहानी सवर्ण व शिल्पकारों के सांस्कृतिक संबंधों की खोजबीन करती है.   

उर्बी दत्त उपाध्याय (नवन, सितौनस्युं १९१३ दिवंगत ) के  दो कथाएँ ' रैबार' में प्रकाशित हुईं

भगवती प्रसाद जोशी' हिमवंतवासी' (जोशियाणा , गंगा सलाण १९२०- दिवंगत ) डा अनिल के अनुसार जोशी सामान्य प्रसंगों को मनोहारी बनाने में प्रवीन है. चारत्रों को व्यक्तित्व प्रदान करने के मामले में जोशी व रमा प्रसाद पहाड़ी में  साम्यता है. शैली में नये मानदंड मिलते हैं . वातावरण बनाने हेतु हिमवंतवासी प्रतीकों से विम्बों को  सरस बाना देते हैं.  भाषा में सल़ाणी पण साफ़ झलकता है.

गढ़वाली कहानी का वेग-सारथी  मोहन लाल नेगी (बेलग्राम, अठूर, टिहरी ग. १९३० -स्वर्गीय)  प्रथम आधुनिक  गढ़वाली कानी प्रकाशित होने के  ठीक ५५ साल उपरान्त मोहन लाल नेगी ने गढवाली कहानी को नव अवतार दिया जब नेगी ने १९६७ में ' जोनी पर छपु किलै ?' नामक कथा संग्रह प्रकाशित किया . नेगी ने दूसरा कथा संग्रह ' बुरांस की पीड़ ' १९८७ में प्रकाशित हुआ. डा अनिल डबराल व अबोध अबन्धु बहुगुणा के अनुसार मोहन लाल नेगी के २१-२५ गढ़वाली में कहानियां प्रकाशित हुईं . नेगी के कहानियों में विषय विविधता है . मोहन लाल नेगी संवेदनाओं को विषय में मिलाने के विशेषग्य है. लोकोक्तियों का प्रयोग लेखक कि विशेष विशषता बन गयी है . डा अनिल अनुसार मोहन लाल नेगी भाषा क्रीडा में  माहिर है. कहानियों में कथाक्रम व विषय अनुसार वातावरण तैयार करने में कथाकार सुवुग्य है. मोहन लाल के कथाओं में भाषा लक्ष्य पाने में समर्थ है. यह एक आश्चर्य ही है कि मोहन लाल नेगी के दोनों संग्रह २० साल के अंतराल में प्रकाशित हुए और दोनों संग्रहों में शैली व तकनीक में अधिक अंतर नही दिखता . डा अनिल डबराल के अनुसार ' इन तकनीकों के अधिक विकास का अवकाश नेगी जी को नही मिला'.


आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ( उदखंडा , कुंजणि टि.ग. १९१०-२००२ ) आचार्य  कोठियाल कि कुछ कथाएं १९७० से पहले युगवाणी आदि समाचार पत्रों में छपीं. कथाओं में टिहरी के विम्ब उभर कर आते हैं

शकुन्त जोशी  (पौड़ी ग. ) जोशी की कथाएँ मैती (१९७७ ) में छपीं हैं तो   काशीराम पथिक की   (मैती १९७८ ) की 'भुला भेजी देई' व  चन्द्र मोहन चमोली की सच्चा बेटा  (बडुली १९७९) कथाओं का सन्दर्भ भी मिलता है ( सं. ४ )

पुरूषोत्तम डोभाल ( मुस्मोला, टि.ग. १९२० -दिवंगत ) डोभाल की प्रथम कहानी 'बाडुळी (१९७९ ) में प्रकाशित हुयी और डोभाल ने चार पाँच कथाएँ छपीं हैं. कथाएं सौम्य व सामाजिक परिश्थिति बताने में समर्थ हैं.

गढ़वाली कथाओं को शिष्टता हेतु का कथाकार अबोध बंधु बहुगुणा ( झाला,चलणस्यूं , पौ.ग १९२७-२००७ ): अबोध बंधु बहुगुणा ने गढ़वाली साहित्य के हर विधा में विद्वतापूर्ण 'मिळवाक'/भागीदारी  ही नही दिया अपितु नेतृत्व भी प्रदान किया है . बहुगुणा ने गढवाली कथाओं को नया कलेवर दिया जिसे भीष्म कुकरेती अति  शिष्टता की ओर ल़े जाने वाला मार्ग कहता है .  बहुगुणा की कथाओं में वह सब कुछ है जो कथाओं में होना चाहिए. बहुगुणा ने भाषा में निपट /घोर ग्रामीण गढवालीपन  को छोड़ संस्कृतनिष्ट भाषा को अपनाने की कोशिश भी की है . कथा कुमुद व रगड़वात दो कथा संग्रह गढवाली कथा साहित्य के नगीने हैं. अबोध बंधु की कथाएं बुद्धिजीवियों हेतु अधिक हैं. डा अनिल का मानना है कि बहुगुणा की कई कथाओं में बहुगुणा मनोवैज्ञानिक शैली में लेखक किशी शब्द विशेष का प्रयोग कर पाठक को बोध या चिन्ताधारा की दिशा निर्धारित कर देता है. अनिल डबराल का मानना है बहुगुणा कि कथाओं में लोक जीवन के प्रति अनुसंधानात्मक प्रवृति भी पायी जाती है बहुगुणा शब्दों के खिलाड़ी भी है तथापि शब्द , मुहावरों में गरिमा भी है . बहुगुणा ने भुग्त्युं भविष्य उप्न्यास भी  प्रकाशित किया है. भीष्म  कुकरेती ने अबोध को  गढवाली साहित्य का सूर्य की संज्ञा दी है.

गढ़वाली कहानियों का परिपुष्ट कर्ता दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल (  पदाल्यूं , कुटूळस्यूं, पौड़ी ग., १९२३-२००२) भीष्म कुकरेती के अनुसार  दुर्गा प्रसाद  घिल्डियाल के बगैर गढवाली कथाओं के बारे में सोचा ही नही जा सकता . घिल्डियाल के तीन गढवाली कथा संग्रह 'गारी' (१९८४), 'म्वारी' (१९९८६) , और 'ब्वारी (१९८७ ) ' गढ़वाली साहित्य के धरोहर हैं. उच्याणा दुर्गाप्रसाद का उपन्यास भी गढवाली में छपा है. सभी ४० कहानियों की विषय  वस्तु का केंद्र गढवाली जनमानस अथवा जीवन है . डा डबराल के अनुसार चरित्र चित्रण के मामले में दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल सफल कथाकार है . घिल्डियाल का प्राकृत वातावरण से अधिक ध्यान देश -काल की ओर रहता है. डा अनिल के अनुसार घिल्डियाल को जितनी सफलता कथा वस्तु, विचार तत्व व पत्रों के निर्माण में मिली है उतनी सफलता भाषा सृजन में नही मिली है . यानी कि अलंकारिक नही अपितु सरल है

प्रयोगधर्मी भीष्म कुकरेती ( जसपुर , मल्ला ढान्गु  पौ.ग. १९५२) भीष्म कुकरेती की पहली गढवाली कहानी ' कैरा कु कतल' (अलकनंदा १९८३ ) है जो की एक प्रकार से गढवाली में एक प्रायोगिक कहानी है. कथा में प्रतेक वाक्य में 'क' अक्षर अवश्य है याने की अनुप्राश अलंकार का प्रयोग है.कुकरेती की अब तक पचीस  से अधिक कहानियाँ गढवाली में अलकनंदा, बुरांश, हिलांस, घाटी के गरजते स्वर, गढ़ ऐना आदि में प्रकाशित हुए हैं . अबोध बन्धु के अनुसार भीष्म कुकरेती की मुख्यतया चार  प्रकार की कहानियाँ हैं - स्त्री दुःख व सम्वेदनात्मक (जैसे 'दाता की ब्वारी कन दुखायारी ' कीड़ी बौ' देखें सन्दर्भ -४ ) , व्यंग्य व हास्य मिश्रित कथाएँ जैसे 'वी .सी .आर को आण ' बाघ, मेरी वा प्रेमिका' 'प्रेमिका की खोज' आदि  ( देखें कौन्ली  किरण पृष्ठ १४७ ) या डा अनिल डबराल (पृष्ठ २४४) की समालोचना . तीसरा  सामाजिक चेतना युक्त कहानियां जैसे ' बिट्ठ  भिड्याणो सुख या सवर्ण स्पर्श सुख' व अन्य विवध कथाएँ जिनमे कई कथाएँ मनोविज्ञानिक (जैसे नारेण दा)   कथाएँ हैं .

 भीष्म कुकरेती विषय गत व शैलीगत प्रयोग से कतई नही घबराता  व भीष्म की एक कथा ' घुघोति बसोती ' ( घाटी के गरजते स्वर (१९८९)  स्त्री समलैंगिक संबंधों पर आधारित कथा है जिस पर मुंबई  की शैल सुमन संस्था  की एक बैठक में बड़ी बहस भी हुयी थी कि गढवाली में ऐसी कहानी की आवश्यकता है कि नही?.

डा अनिल के अनुसार भीष्म की कहानियों में चुटीलापन होता है.व अपनी बात सटीक ढंग से कहता है.  वहीं बहुगुणा ने भीष्म की कहानियों में गहरी  सम्वेदना  पायी है.

    भीष्म कुकरेती ने विदेशी भाषाओं  की कुछ कथाओं का गढवाली में अनुवाद भी प्रकाशित किया है ( गढ़ ऐना १९८९-१९९०)

रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' ( जन्म-बड़ेथ ढान्गु , पैत्रिक गाँव डांग श्रीनगर पौड़ी  ग.  १९११-२००२ ) की  'मेरी मूंगा कख होली'  (हिलांस १९८१) व ' घूंड्या द्यूर ' (हिलांस १९८०) नाम कि दो  कहानियाँ प्रकाशित हुईं . जहां मेरी मूंगा संस्मंरणात्मक शैली में है जिसमे बड़ेथ से व्यासचट्टी बैसाखी मेले  जाने का वृतांत दीखता है,  वंही घूंड्या द्यूर एक सामाजिक संस्कार पर चोट करती हुयी चेतना  सम्वाहक कहानी है. डा अनिल डबराल (३ ) के अनुसार इस कथा का विषय  पुरुष विशेष और ष्ट्री विशेष के सौन्दर्य वोध पर आधारित है .

नित्यानंद मैठाणी ( श्रीनगर, पौ.ग. १९३४ )  ने कुछेक मौलिक गढ़वाली कथाएँ दी हैं. किन्तु मैठाणी का योगदान आकाशवाणी में गढवाली कथाओं का बांचना , डोगरी , कश्मीरी कथाओं का अनुबाद आकश वाणी से आदि में खीं अधिक है . नित्यानंद की कथाओं में पैनापन, व नाटकीयता की विशषता है

नित्यानंद का उपन्यास ' निमाणी' गढवाली कथा साहित्य का एक  चमकता मणि है .

कुसुम नौटियाल : कुसुम नौटियाल के दो कथाएं हिलांस ( काफळ १९८१, नाच दो मैना , १९८२ ) मै प्रकाशित हुईं.

सम्वेदनाओं  का चितेरा  सुदामा प्रसाद डबराल प्रेमी ( फल्दा, पटवालस्यूं , पौ.ग १९३१-) सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी' का गढवाली कथा संसार को काफी बड़ा है, सुदामा प्रसाद 'प्रेमी' के तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं. गैत्री की ब्व़े ( १९८५ ) संग्रह में छपी.  कथाएँ सरल, व प्रेरणा सूत्र लिए होती  हैं. कथाओं में सरल बहाव होता है. कई कथाएँ ऐसी लगती हैं जैसी कोई लोक कथा हो.कथाकार सुदामा प्रसाद ने गढवाली कहावतों से कथाओं का अच्छा प्रयोग किया है. डा अनिल के अनुसार भाषा ढबाड़ी  है(हिंदी -गढवाली मिश्रित) 

 

सुधारवादी कथाकार डा. महावीर प्रसाद गैरोला ( दालढुंग , बडीयारगढ़, टि.ग १९२२-२००९ ) ने बीस से अधिक कथाएँ प्रकाशित की हैं व ड़ उपन्यास गढवाली में प्रकाशित हैं. हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और समालोचक  डा गंगा प्रसाद विमल डा महावीर गैरोला को सुधारवादी कथाकार मानते हैं किन्तु गैरोला की सुधारवादी कथाएं बोझिल नही रोचक हैं. डा महावीर प्रसाद की कथाओं में टिहरी की बोल चाल की बोली, टिहरी की ठसक अवश्य मिलती है. कभी कभी ऐसे शब्द भी मिलते हैं जो पौड़ी गढवाल से ब्रिटिश सत्ता व पढ़ाई लिखाई के कारण लुप्त हो गए हैं. संवाद, चरित्रों के चरित्र को उजागर करने में सक्षम हैं. कथा कहने का ढंग पारम्परिक है और अधिकतर कथाएं पीड़ा लिए अवश्य हैं किन्तु सुखांत में बदल जाती हैं 

बालेन्दु बडोला ( मूल गाँव बडोली, चौन्दकोट , पौ .ग. ) बालेन्दु बडोला ने  चालीस से अधिक कथाएं  हिलांस (१९८५ के बाद ), चिट्ठी पतरी, युगवाणी जैसी पत्रिकाओं में  प्रकाशित की हैं. बालेन्दु की कथाओं पर लोक कथाओं की शैल़ी  का भी प्रभाव दीखता है . कथाएँ बहु विषयक हैं व कथा कहने का ढंग पारम्परिक है. चरित्र व विषय वस्तु आम गढवाली के व गढवाल सम्बन्धी  हैं किन्तु कई कथाओं में चरित्र काल्पनिक भी लगते हैं . भाषा सरल व वहाव लिए होती है. ऐसा लगता है बालेन्दु परम्परा तोड़ने से बचता है  . बालेन्दु की  कहानियों में प्रेरणा दायक पन अधिक है किन्तु ऐसी कथाओं में रोचकता की कमी नही झलकती .गढवाली प्रतीकों के अतिरिक्त कई हिंदी कहावतों का गढवाली में अनुवाद भी मिलता है . वर्तमान में बालेन्दु की कथाएँ युगवाणी मासिक पत्रिका में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं . बालेन्दु बडोला ने बाल कथाएँ भी प्रकाशित किये हैं (हिलांस, चिट्ठी पतरी, युगवाणी ).

सदानंद जखमोला (चन्दा , शीला, पौ. ग. १९००-१९७७ ) के पाच  कथाएँ प्रकाशित हूई  जैसे छौं को वैद (गढ़ गौरव १९८४)

लोक मानस का चितेरा कथाकार प्रताप शिखर (कोटि, कुणजी , टिहरी ग. १९५२ ) प्रताप शिखर का कथा संग्रह 'कुरेड़ी फट गे ' (१९८९) में नौ कथाएँ संग्रहीत हैं. कथायों में समाज का असलियतवादी चित्रण है, कई कथाएँ रेखाचित्र भी बन जाती है, प्रताप शिखर टिहरी भाषा का प्रयोग करता है जो कि कथाओं को एक वैशिष्ठ्य प्रदान करने म सक्षम है .

कुसुम नौटियाल की दो ही कथाओं का जिक्र गढवाली साहित्यिक इतिहास में मिलता है (बहुगुणा १९९० ) और दोनों कथाएं हिलांस (१९८१, १९८२ ) में प्रकाशित हुयी  हैं. कथाएं सम्वेदनशील हैं व गढवाली कथाओं को एक नया  दौर देने की पहल में शामिल होने के कोशिश भी.

पूरण पंत पथिक ( अस्कोट, चौन्दकोट, पौ ग १९५१ ) पंत की दो कथाएं (हिलांस १९८३ व चिट्ठी २१ वां अंक ) प्रकाशित हुए हैं . कथाओं में कथात्व कम है विचार उत्प्रेरणा अधिक है ( डा अनिल ) . हाँ व्यंग्यात्मक पुट अवश्य मिलता है ( बहुगुणा , सं. ४ व ६ )

मनोविज्ञानी कथाकार काली प्रसाद घिल्डियाल (पदाल्युं, कटळस्यूं ,१९३०-) गढ़वाली नाटक वेत्ता काली प्रसाद घिल्डियाल की केवल तीन कहानियां प्रकाश में आई हैं (हिलांस १९८४ ) . काली प्रसाद की कहानियों में जटिल मनोविज्ञान मिलता है , जो कि गढवाली कथाओं के लिए एक गति शीलता का परिचायक भी बना . जटिल मनोविज्ञान को सरलता से काली प्रसाद घिल्डियाल कथा धरातल पर लाने में सक्षम है.

जबर सिंह कैंतुरा (रिंगोली , लोत्सू, टि.ग. १९५६-) : जबर सिंह कैंतुरा की कथाएं हिलांस (१९८६), धाद (१९८८) आदि पत्रिकाओं में दस -बाढ़ कथाएं प्रकाशित हुयी हैं. कथाओं में मानवीय सम्वेदना, संघर्ष, शोषण की नीति , पारवारिक सम्बन्ध प्रचुर मात्र में मिलता है (कैंतुरा की भीष्म  कुकरेती से बातचीत ,ललित  केशवान का पत्र  व डा. अनिल डबराल ) . भाषा टिहरी की है व कई स्थानीय शब्द गढवाली शब्द भण्डार के लिए अमूल्य हैं. कैंतुरा का कथा संग्रह प्रकाशाधीन है


मोहन लाल ढौंडियाल ( दहेली , गुराड़स्यूं , १९५६ ) कवि ढौंडियाल के दो कथाएं हिलांस व धाद (१९८५-८६ ) में छपी हैं. कथाएँ सीख व परंपरा संबंधी हैं ( लेखक की भीष्म कुकरेती से बातचीत व केशवान )

विजय सिंह लिंगवाल : विजय सिंह लिंगवाल  के एक कहानी ( हिलांस १९९८८) में प्रकाशित हुयी जो डा अनिल अनुसार सरल, सहज व मुहावरेदार है

जगदीश जीवट : जीवट के एक कहानी'दिन'  धाद १९८८) प्रकाश में आई है जो सरस है.
 
विद्यावती डोभाल (सैंज,नियली,  टि.ग. १९०२ -१९९३) कवित्री विद्यावती डोभाल  की  कहानी 'रुक्मी ' (धाद १९८९) उनकी प्रसिद्ध कहानियों में एक  है

खुशहाल सिंह 'चिन्मय सायर' ( अन्दर्सौं, डाबरी , पौ ग. १९४८) कवि 'चिन्मय सायर' की एक लघु कथा 'धुवां' (चिट्ठी २१ वां अंक) में प्रकाशित हुयी.

विजय गौड़ : हिंदी के कवि विजय गौड़ की 'कथा 'भाप इंजिन ' (चिट्ठी २१ वां अंक )  गढवाली में अति आधुनिक कहानी मानी जाती है

विजय कुमार 'मधुर' (रडस्वा , रिन्ग्वाड़स्यूं १९६४ ) विजय कुमार 'मधुर' ने तीन कहानियाँ प्रकाशित हुयी हैं जैसे चिट्ठी -२१ वां अंक . एक बालकथा भी छपी है.

गिरधारी लाल थपलियाल 'कंकाल (श्रीकोट, पौ.ग. १९२९-१९८७) : नाटककार , कवि गिरधारी लाल थपलियाल 'कंकाल के एक ही कथा 'सुब्यदरी ' (धाद १९८८) प्रकाशित हुयी दिखती है . क्य्हा मुहावरे दार और चपल किसम की शैली में है

जगदम्बा प्रसाद भारद्वाज  : भारद्वाज की  एक ही कहानी मिलती है - सच्चु  सुख की कहानी  , धाद १९८८ . कहानी अभुवाक्ति कौशल का एक उम्दा नमूना है

सुरेन्द्र पाल  : प्रसिद्ध गढवाली कवि की कथा 'दानौ बछरू' एवम 'नातो' (धाद १९८८) गढवाली कथा के मणि हैं

मोहन सैलानी : मोहन सैलानी के कथा ' घोल' (धाद १९९०) एक वेदना पूर्ण कहानी है.

महेंद्र सिंह रावत : रावत के एक ही कहानी गाणी (धाद १९९० ) प्रकासहित हुयी है .

सतेन्द्र सजवाण : सतेन्द्र सजवाण  के एक कहानी 'मा कु त्याग ' (बुग्याल १९९५ ) प्रकाश में आई है .

बृजेंद्र सिंह नेगी (तोळी , मल्ला  बदलपुर, पौ . ग. १९५८ ) बृजेंद्र की अब तक पचीस से अधिक कथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं व अधिकतर युगवाणी मासिक में प्रकाशित हुयी है. सं २०००  के पश्चात् ही  'उमाळ ' व छिट्गा' नाम से दो कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  . कथा विषय गाँव, मानवीय सम्बन्ध , अंधविश्वास , समस्या संघर्ष , आदि हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी से सम्बन्ध रखते हैं. भाषा में सल़ाणी भाषा की प्रचुरता है , स्थानीय मुहावरों से कथा में वहाव आ जाता है . पारंपरिक शेली में लिखी कथाएं आम आदमी को लुभाती भी हैं (ललित  केशवान का पत्र व भीष्म कुकरेती की लेखक से बातचीत ) )

 

ललित केशवान (सिरोंठी , इड्वाळस्यूं , अपु.ग. १९४०-) प्रसिद्ध गढवाली कवि केशवान की तीन कथाएं (हिलांस, १९८४, १९८५ ) व धाद में प्रकाश में आये हैं. कथाएं रोमांचित कर्ता  अथवा सरल हैं  .

ब्रह्मा नन्द बिंजोला ( खंदेड़ा , चौन्दकोट १९३८ ) कवि  बिंजोला के आठ नौ कथाएं यत्र तत्र प्रकाशित हुईं व ललित केशवान के अनुसार ' फ़ौजी की ब्योली ' कथा संग्रह प्रकाशाधीन  है. ललित केशवान के अनुसार कथाएं मार्मिक व गढवाल के जन जीवन सम्बंधीं हैं. कथायों में कवित्व का प्रभाव  भी है.

राजाराम कुकरेती ( पुन्डारी, म्न्यार्स्युं १९२८-) राजाराम के कुछ कथाएं यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में १९९० के पश्चात प्रकाशित हुईं ( ललित केशवान का लेखक को लम्बा पत्र, २०१०  ) व २० कथाओं का संग्रह प्रकाशाधीन है

).


कन्हया लाल डंडरियाल ( नैली मवालस्युं , पौ.ग. १९३३-२००४ ) डंडरियाल ने दो तीन कथाये लिखी हैं (२)

लोकेश नवानी ( गंवाड़ी ,  किनगोड़   खाल , १९५६ ) लोकेश नवानी के चारेक कथाएं धाद, चिट्ठी , दस सालैक खबर सार (२००२)  , मे प्रकाशित हुए हैं

गिरीश सुन्दरियाल (चूरेड़ गाँव, चौन्दकोट, १९६७ ) सुंदरियाल ने छ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं जो 'चिट्ठी' के इकसवीं  अंक मे छपी व कुछ कथाएं चिट्ठी पतरी  (२००२) मे जैसे ' काची गाणि' आदि  प्रकाशित हुईं. डा अनिल डबराल ने लिखा की ऐसी मादक, हृदयस्पर्शी , प्रगल्भ, कथा बिरली ही हैं.

डा कुटज भारती (भैड़ गाँव , बदलपुर  १९६६ ) : डा कुटज भारती की 'जी ! भुकण्या तैं घुरण्या ल़ीगे ' कहानी  (खबर सार , १९९९ ) एक बहुत ही आनंद दायक, प्रहसनयुक्त , लोक लकीर की कहानी है

वीणा पाणी जोशी ( देहरादून १९३७) नब्बे के दशक के बाद ही कवित्री की गढवाली कथा ' कठ बुबा ' प्रकाश में आया .

 डी एस रावत : डी एस रावत की एक कथा 'छावनी'  चिट्ठी पतरी , १९९९) प्रकाश मे आई है , कथा एक बालक का सैनिक छावनी को अपने नजर से देखने का नजरिया है.

वीरेन्द्र पंवार  ( केंद्र इड्वाल स्यूं 1962 )  कवि, समीक्षकवीरेन्द्र पंवार   की एक  कथा ही प्रकाश में आई  है

अनसुया प्रसाद डंगवाल ( घीडी, बणेलस्यूं , पौ ग. १९४८ ) डंगवाल ने अब तक दस बारह कथाएं प्रकाशित की हैं और अधिकतर कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक (२००० के पश्चात ) में प्रकाशित हुयी हैं . कथाएं सामाजिक विषयक हैं. भाषा चरित्रों के अनुरूप है. कथों से पाठक को आनंद पारपत होता है . भीष्म कुकरेती का मानना है की कथाएं ' रौन्सदार' हैं . कई कहानियाँ पाठक को सोचने को मजबूर कर देती हैं

राम प्रसाद डोभाल : राम प्रसाद डोभाल की दो कथाएं  'चिट्ठी पतरी ' (२०००)  मे ' चैतु फेल बोडि पास ' नाम से प्रकाशित हुईं. एक कथा ' उर्ख्याल़ा की दीदी '  (चि.प. २००१) बालकथा है

सत्य आनंद बडोनी (टकोळी , ति.ग. १९६३ )  सत्य आनंद बडोनी  की एक कथा मंगतू  (चिट्ठी  पतरी , २०००) प्रकाश मे आई है.

विमल थपलियाल 'रसाल' : विमल के एक कहानी ' खाडू -बोगठया' खबर सार (२०००)  में प्रकाश में आई है, जो की दार्शनिक धरातल लिए हुई लोक कथा लीक पर चलती है. सम्वंदों में हिंदी का उपयोग वातावरण बनाने हेतु ही हुआ है. .   

चंद्रमणि उनियाल : चंद्रमणि उनियाल की एक कथा 'रुकमा ददि ' चिट्ठी पतरी ' (  २००१) मे प्रकाशित हुयी. कथा चिट्ठी रूप मे है .

प्रीतम अपछ्याण (गड़कोट , च.ग १९७४ ) की पांचएक  कथाएं २००० के बाद चिट्ठी पतरी मे छपीं. कथाएं व्यंग से भी भरपूर हैं व सामयिक भी हैं.

सर्वेश्वर दत्त कांडपाल : सर्वेश्वर दत्त कांडपाल के एक खाणी 'दादी चाणी ' (चिट्ठी पतरी २०००) प्रकाश मे आये जो की एक बुढ़िया का नए जमाने  मे होते परिवर्तन की दशा बयान करती  है.

संजय  सुंदरियाल (चुरेड गाँव , चौन्दकोट, १९७९) संजय की दो कथाएं चिट्ठी पतरी (२००० के बाद) प्रकाशित हुईं.

सीताराम ममगाईं : सीताराम ममगाईं  की लघु कथा ' अनुष्ठान ' चिट्ठी पतरी (२००२ ) प्रकाश मे आई

पाराशर गौड़ ( मिर्चौड़, अस्वाल्स्युं , पौ.ग., १९४७) 'जग्वाल' फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ की कथाएँ २००६ के बाद इन्टरनेट माध्यम पर प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं व्यंग्य भाव लिए हैं और अधिकतर गढवाल में हुयी घटनाओं के समाचार बनने से सम्बन्धित हैं. भाषा सरल है, हाँ ट्विस्ट के मात्रा मे पाराशर कंजूसी करते दीखते नही हैं

गजेन्द्र नौटियाल : गजेन्द्र नौटियाल के एक कथा मान की टक्क 'चिट्ठी पतरी' (२००६) मे  प्रकाशित हुयी. कथा मार्मिक है

नई वयार का प्रतिनधि  ओम प्रकाश सेमवाल ( दरम्वाड़ी , जख्धर, रुद्रप्रयाग , १९६५ ) यह एक उत्साहवर्धक घटना है क़ि गढवाली साहित्य में ओम प्रकाश सेमवाल सरीखे नव जवान साहित्यकार पदार्पण कर रहे हैं. ओम प्रकाश का आना गढवाली साहित्य हेतु एक प्रात: कालीन पवन झोंका है जो उनींदे गढ़वाली कथा संसार को जगाने में सक्षम भूमिका अदा करेगा . कवि ओम प्रकाश सेमवाल का गढवाली कथा संग्रह ' मेरी पुफु ' (२००९), लोकेश नवानी के अनुसार इस सदी का उल्लेखनीय घटना भी है . कथा संग्रह में 'धर्मा', हरसू, फजितु, आस, ब्व़े, भात, ब्व़े, वबरी, नई कूड़ी , बेटी ब्वारी , बड़ा भैजी , मेरी पुफू, गुरु जी  कथाएं समाहित हैं. कथाएँ मानवीव समीकरण व सम्बन्धों क़ि पड़ताल करते हैं.

              गढवाली लोक नाट्य शाष्त्री   डा दाता राम पुरोहित का कहना है क़ि कथाएँ डांडा -कांठाओं (पहाडी विन्यास ) के आइना हैं व  कथाओं में गढ़वाली मिटटी की 'कुमराण' (धुप से जले मिट्टी की आकर्षक  सुगंध) है. वहीं लोकेश नवानी लिखते हैं की सेमवाल एक शशक्त कथाकार हैं.

     नामी गिरामी , जग प्रसिद्ध लोक गायक  नरेंद्र सिंग नेगी का कहना है की जब गढवाली भाषाई कहानियों में एक रीतापन/खालीपन आ रहा था तब सेमवाल का क्थास्न्ग्ढ़ इस खालीपन को दूर करने में समर्थ होगा. वहीं गजल सम्राट मधुसुदन थपलियाल ने भूमिका में लिखा कि 'मेरी पुफू ' गढ़वाली साहित्य के लिए एक सकारात्मक सौगात है . थपलियाल का कहना इकदम सही है कि कथाओं में सम्वाद बड़े असरदार हैं और कथाएं परिपूर्ण  दिखती हैं.   

आशा रावत : (लखनऊ , १९५४) आशा रावत की पचीस से अधिक कहानियां शैलवाणी समाचार पत्र आदि मे  प्रकाशित हुए हैं. एक कथासंग्रह ' शैल्वणी' प्रकाशन कोटद्वार मे प्रकाशाधीन है, कहानियां मार्मिक, समस्या मूलक, है. संवाद कथा मे वहाव को गति प्रदान करने मे सक्षम हैं.

शेर सिंह  गढ़देशी : शेर सिंह गढ़देशी की परम्परावादी कथा 'नशलै सुधार' एक सुधारवादी कथा है (खबर सार (२००९)

सुधारवादी कथाकार जगदीश देवरानी ( डुडयख़ , लंगूर, १९२५): जगदीश देवरानी की ' चोळी के मर्यादा' , 'नैला पर दैला, 'गल्ती को सुधार' आदि पाँच कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक कोट्द्वारा, में अक्टूबर व नवम्बर २०११ के अंक में क्रमगत में छपी हैं. शैलवाणी के सम्पादक व देवरानी से बातचीत पर ज्ञात  हुआ कि आने वाले अंको में लगभग ३० अन्य गढवाली  कहानियाँ प्रकाशाधीन है. कहानियां सुधारवादी हैं, परम्परागत हैं . भाषा  संस्कार सल़ाणी है  . भाषा सरल व संवाद चरित्र निर्माण व कथा के वेग में भागीदार हैं.

                                                         गढवाली व्यंग्य चित्रों की कॉमिक  कथाएं

                   गढवाली में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से कोमिक कथाएं भी प्रकाशित हई हैं . व्यंग्य विधा के द्वारा कथा कहने का  श्रेय भीष्म कुकरेती को जाता है. भीष्म कुकरेती ने दो व्यंग्य चित्र कॉमिक कथाये ' एक चोर की कळकळी कथा (जिस्मे एक चोर गढवाली साहित्यकारों के घर चोरी करने जाता है) व पर्वतीय मंत्रालय मा कम्पुटर आई ' प्रकाशित की हैं. दोनों व्यंग चित्रीय कॉमिक कथाएँ गढ़ ऐना (१९९०) में प्रकाशित हुए हैं . अबोध बंधु बहुगुणा ने इन कॉमिक कथाओं की सराहना की ( कौंळी किरण , पृष्ठ १४९)

   अंत में  कहा जा सकता है कि आधुनिक गढवाली कहानियाँ १९१३ से चलकर अब तक विकास मार्ग पर अग्रसर रही हैं . संख्या की दृष्टि से ना सही गुणात्मक दृष्टि से गढवाली भाषा की कहानियाँ विषय , कथ्य, कथानक, शैली , कथा वहाव, संवाद, जन चेतना, कथा मोड़, वार्ता , चरित्र चित्रण , पाठकों को

Bhishma Kukreti

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                          गढवाली भाषा साहित्य में साक्षात्कार की परम्परा
                           

                                  Interviews in gadhwali Literature
                                        (गढवाली गद्य -भाग ३) 

                                                                      भीष्म कुकरेती

         

                  साक्षात्कार किसी भी भाषा साहित्य में एक महत्वपूर्ण विधा और अभिवक्ति की एक विधा है. साक्षात्कार कर्ता या कर्त्री के प्रश्नों अलावा साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति

के उत्तर भी साहित्य हेतु या विषय हेतु महत्वूर्ण होते है. अंत में साक्षात्कार का असली उद्देश्य पाठकों को साक्षात्कारदाता से तादात्म्य कराना ही है व प्रसिद्ध व्यक्ति विशेष की विशेष बात पाठकों तक पंहुचाना होता है.. अत : साहित्यिक साक्षात्कार समीक्षा में यह देखा जाता है कि साक्षात्कार से उदेश्य प्राप्ति होती है कि नही .

   गढवाली भाषा में पत्र पत्रिकाओं की कमी होने साक्षात्कार का प्रचलन  वास्तव में बहुत देर से हुआ. यही कारण है कि गढवाली भाषा में प्रथम लेख ' गढवाली गद्य का क्रमिक विकास (गाडम्यटेकि गंगा -सम्पादक अबोध बंधु बहुना , १९७५) में कोई साक्षात्कार नही मिलता और   डा अनिल डबराल ने अपनी अन्वेषणा गवेषणात्मक  पुस्तक 'गढवाली गद्य की परम्परा :इतिहास  से वर्तमान तक (२००७ ) में केवल चार भेंट वार्ताओं का जिक्र किया

   गढ़वाली में साक्षात्कार दो प्रकार का है :

१- किहि विशेष विषय पर वार्ता केन्द्रित हो ;जैसे अर्जुन सिंह गुसाईं, भीष्म कुकरेती के बहुगुणा के साथ वार्ताएं , मदन डुक्लाण का ललित मोहन थपलिया के साथ भेंटवार्ता या वीरेन्द्र पंवार की स्टेफेनसन  के साथ वार्ता .
 
२- जनरलाइज किसम की वार्ताएं : जिसमे बातचीत बहुविषयक हुयी हैं

   साहित्यिक दृष्टि से  भीष्म कुकरेती  गढवाली भाषा में साक्षात्कार का सूत्रधार  :  वास्तव में भेंटवार्ता व साक्षात्कार प्रकाशन कि परम्परा लोकेश नवानी  के प्रयत्न से ही सम्भव हुआ. लोकेश नवानी धाद मासिक का  असली कर्ता धर्ता था किन्तु पार्श्व में ही रहता था. सन् १९८७-८८ में जब मेरी लोकेश से बात हुयी तब यह भी बात हुई  कि गढवाली में भेंटवार्ताएं नही हैं. मै भीष्म कुकरेती के नाम से व्यंग्य विधा में आ ही चुका था अत ; मैंने साक्षात्कार हेतु 'गौंत्या ' नाम चुना जिससे धाद में भीष्म कुकरेती के नाम से दो लेख ना छपें . यही कारण है कि धाद (मर्च १९८७ ) में हिलांस के सम्पादक अर्जुन सिंह गुसाईं के साथ मेरा साक्षात्कार 'गौंत्या' नाम से  से प्रकाशित हुआ.  इस साक्षात्कार का जिक्र डा अनिल डबराल ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में किया व साक्षात्कार का विश्लेष्ण भी किया. यह साक्षात्कार गढवाली का मानकीकरण विषय की  ओर ढल गया था. अत : इस साक्षात्कार ने गढवाली  मानकीकरण बहस को आगे बढाया . डा अनिल का मत इस साक्षात्कार पर इस प्रकार है " मानकीकरण  के क्रम में यह साक्षात्कार मूल्यवान है. इसलिए कि इसमें मध्यमार्ग अपनाया हुआ है , और विवेचन बहुत नापा तुला है. अर्जुन सिंह गुसाईं का मत है कि मानकीकरण से पहले प्रत्येक क्षेत्र की शब्दावली साहित्य रूप में आ जानी चाहिए. यही बात डा पार्थ सारथी डबराल ने अंतर्ज्वाला में अपने साक्षात्कार  में चुटकी लेते  कहा  " सासू क नौ च रुणक्या  , ब्वारी क नौ च बिछना , सरा रात भड्डू बाजे, खाण पीण को कुछ्ना"

 डा डबराल आगे लिखता है , " प्रश छोटे हैं 'क्या', किलै', जन कि ?. सम्पूर्ण वाक्य ना होने से साक्षात्कार का सौन्दर्य घटा है.

 

 पराशर गौड़ : इसी समय  पाराशर गौड़ की 'जीत सिंह नेगी दगड द्वी छ्वीं ' भी प्रकाशित हुयी. इसमें  जीत सिंह नेगी के कई चरित्र सामने आये जैसे जीत सिंह नेगी की  संकोची प्रवृति . डा अनिल ने इस भेंटवार्ता को सामान्य स्तर का साक्षात्कार बताया . भीष्म कुकरेती का मानना है कि गढवाली भाषा में साक्षात्कार जन्म ल़े ही रहा था तो इस गढवाली साक्षात्कार के  उषा काल में कमजोरी होनी  लाजमी थी .

 

   भीष्म कुकरेती का दूसरा साक्षात्कार :  ' गौन्त्या 'के ही नाम से भीष्म कुकरेती का (धाद १९८८) दूसरा साक्षात्कार मुंबई के उद्योगपति गीत राम भट्ट से प्रकशित हुआ. इस साक्षात्कार में उद्योगपति बनने की यात्रा व गढवाली भाषा का प्रवासियों   के मध्य बोलचाल के प्रश्न जैसे विषय है.

 
 
भीष्म कुकरेती का अबोध बंधु बहुगुणा से 'गढवाळी साहित्य मा हास्य' एक यादगार साक्षात्कार :  गढ़ ऐना (१३-१६ फरवरी १९९१ व धाद मई १९९१ ) में भीष्म कुकरेती का अबोध बंधु बहुगुँ के साथ गढवाली साहित्य में हास्य पर वार्तालाप गढवाली साहित्य व समालोचना साहित्य हेतु एक कामयाब व लाभ्दाये साक्षात्कार है . इस साक्षात्कार में गढवाली साहित्य के दृष्टि से  हास्य-व्यंग्य की परिभाषा ; गढवाली लोक गीत, एवम लोक कथाओं में ;  गढवाली कविता (१७५०-१९९०, १९०१-१९५०, १९५१-१९८०, १९८०-१९९० तक ) में युग क्रम से  हास्य, हिंदी साहित्य का गढवाली हास्य पर प्रभाव; गढवाली गद्य में हास्य (१९९०-१९९०); गढवाली नाटकों में हास्य (१९००-१९९०); गढवाली कहानियों में हास्य (१९००-१९९०); गढ़वाली, गढ़वाली  में लेखों में हास्य व्यंग्य; गढवाली कैस्सेटों में हास्य; गढवाली फिल्मों में हास्य व गढवाली साहित्य में भविष्य का हास्य जैसे विषयों पर लम्बी सार्थक, अवेषणात्मक  बातचीत हुए. सक्सात्कारों में यज एक ऐतिहासिक साक्षात्कार माना जाता है.

 

भीष्म कुकरेती व अबोध बंधु बहुगुणा के साथ बातचीत ( २००५ में प्रकाशित  ):  भीष्म कुकरेती द्वारा बहुगुणा के साथ बहुगुणा के कृत्तव पर आत्मीय बातचीत बहुगुणा अभिनन्दनम में प्रकाशित हुआ.

 

समालोचना पर भीष्म कुकरेती व अबोध बंधु बहुगुणा  के मध्य 'मुखाभेंट ' एक अन्य ऐतिहासिक साक्षात्कार: सं २००३ में भीष्म कुकरेती ने अबोध बहुगुणा से 'गढवाली समालोचना' पर एक साक्षात्कार किया था जो 'चिट्ठी पतरी' के  अबोध बंधु बहुगुणा स्मृति  विशेषांक (२००५) जाकर प्रकाशित हुआ. इस साक्षात्कार में गढवाली आलोचना व समालोचकों की स्तिथि व वीरान पर एक ऐतिहासिक बातचीत है. गढवाली साहित्य इतिहास हेतु यह मुखाभेंट अति महत्वपूर्ण साक्ष्य है. इस साक्षात्कार में भीष्म कुकरेती ने अबोध अबन्धु बहुगुणा को गढवाली का राम चन्द्र शुक्ल, व बहुगुणा ने गोविन्द चातक को भूमिका लिखन्देर, भीष्म कुकरेती को घपरोळया अर खरोळया , राजेन्द्र रावत को सक्षम आलोचक, महावीर प्रसाद व्यासुडी को विश्लेषक लिख्वार, डा नन्द किशोर ढौंडियाल को जणगरु अर साहित्य विश्लेषक, वीरेन्द्र पंवार को आलेख्कार  व आलोचक, सुदामा प्रसाद प्रेमी को छंट्वा खुजनेर , डा हरि दत्त भट्ट शैलेश को जन साहित्य का हिमैती , सतेश्वर आज़ाद को मंच सञ्चालन मा चकाचुर, उमा शंकर समदर्शी -किताबुं भूमिका का लेखक, डा कुसुम नौटियाल को हिंदी में शोधकर्ता की उपाधि से नवाज़ा था .

 

स्व' अदित्य्राम नवानी से जगदीश बडोला की बातचीत (चिट्ठी १९८५) : डा अनिल के अनुसार यह वार्तालाप ऐतिहासिक है किन्तु इसमें कोई विशेष बात नही आ पायी है

 

अनिल कोठियाल की साहित्यकार गुणा नन्द 'पथिक' से बातचीत (चिट्ठी १९८९) : डा अनिल का कथन कि कि यह  वार्तालाप महत्वपूर्ण है एक सही विश्लेष्ण  है क्योंकि इस वार्तालाप सेगढवाली  जन व उसके साहित्य के नये आयाम सामने आये हैं.

देवेन्द्र जोशी के बुद्धि बल्लभ थपलियाल से वार्ता (चिट्ठी पतरी १९९९) : इस वार्ता में देवेन्द्र जोशी की साक्षत्कार की कला तो झलकती है बुद्धि बल्लभ की गढ़वाली भाषा से प्यार भी झलकता है तभी तो बुद्धि बल्लभ थपलियाल ने खा " गढवाळी कविता , हिंदी कविता से जादा सरस, उक्तिपूर्ण अर आकर्षक लगदन".

 

डा नन्द किशोर ढौंडियाल का संसार प्रसिद्ध इतिहासकार डा शिव प्रसाद डबराल के साथ साक्षात्कार (चिट्ठी पतरी, २०००) यह एक साक्षात्कार तो नही किन्तु डबराल के साथ लेखक का व्यतीत एक दिन का ब्योरा है.

 

वीणा पाणी जोशी का अर्जुन सिंह गुसाईं से साक्षात्कार (चिट्ठी पतरी , २०००) जिस समय हिलांस सम्पादक अर्जुन सिंह गुसाईं  कैंसर से लड़ रहा था उस समय वीणा पाणी ने अर्जुन सिंह से साक्षात्कार 'मनोबल ऊँचो छ, लड़ाई जारी छ' नाम से लिया जिसमे गुसाईं द्वारा मुंबई में गढवाली भाषा, सांस्कृतिकता में गिरावट पर चिंता प्रकट की गयी थी. गुसाईं का यह कथन एक मार्मिक वाक्य  ," यख (मुंबई) श्री नन्द किशोर नौटियाल, डा शशि शेखर नैथानी, डा राधा बल्लभ डोभाल, श्री भीष्म कुकरेती बगैरह गढवाली सांस्कृतिक गतिविध्युं पर रूचि ल्हेंदा छाया पर अब त सब्बी चुप दिखेणा छन " मुंबई में भाषा, साहित्य व संस्कृति के प्रति चेतना में गिरावट को दर्शाता भी है व भविष्य पर प्रश्न चिन्ह भी खड़ा कर्ता है.

 

मदन डुकलाण का जग प्रसिद्ध नाट्यकार ललित मोहन थपलियाल से साक्षात्कार (चिट्ठी-पतरी २००२): ललित मोहन थपलियाल इस सदी के १०० महान नाटककारों की श्रेणी में आता  है.  किन्तु खडू लापता जसे नाटकदाता थपलियाल का विदेश में  रहने के कारण ललित मोहन के विचारों से कम ही लोग परिचित थे. मदन का ललित मोहन थपलिया से वार्तालाप गढवाली साहित्य हेतु एक मील का पत्थर है जिसमे थपलियाल ने गढवाली नाटकों के लिए दर्शकों के जमघट हेतु 'एक मानक गढवाळी भाषा बणोउण की अर वां पर सहमत होणे पुठ्या जोर /कोशिश' की वकालत की. वार्तालाप गढवाली नाटकों के कई नए आयाम कि तलाश भी करता है. साधुवाद !

 
 
आशीष सुंदरियाल का स्वतंत्रतासेनानी व गढवाली के मान्य साहित्यकार सत्य प्रसाद रतूड़ी  से वार्तालाप (चि.पतरी २००३) : इस वार्तालाप में रतूड़ी  णे स्वतंत्रता आन्दोलन के समय साहित्य के प्रति चिंतन व आज के चिंतन , स्थानीय भाषाओं के  महत्व आदि विषयों पर चर्चा की  और कहा कि ' पौराणिक व पारंपरिक रीति रिवाज, तीज, त्यौहार आदि पर लिखे सक्यांद अर लिखे जाण चएंद'.

 
 
मदन डुकल़ाण की मैती आन्दोलन प्रेणेता कल्याण सिंह से वार्ता (चिट्ठी पतरी , २००३ ) : यह वार्तालाप एक सार्थक वार्तालाप है जिसमे पर्यवार्न के कए नये पक्ष सामने आये हैं.

 

मदन डुकल़ाण व गिरीश सुंदरियाल की महाकवि कन्हया लाल डंडरियाल से भेंटवार्ता (चिट्ठी पतरी २००४): चिट्ठी पतरी  के डंडरियाल स्मृति विशेषांक में यह वार्ता प्रकाशित हुई है  .दिल्ली में गढवाली साहित्यिक जगत के कई रहस्य खोलता यह  वार्तालाप एक स्मरणीय व साहित्यिक दृष्टि से प्रशंशनीय, वांछनीय वार्तालाप है .

 
 
आशीष सुंदरियाल का जग प्रसिद्ध गायक जीत सिंह नेगी से साक्षात्कार (चिट्ठी पतरी , २००६) आशीष ने जीत सिंह नेगी का विशिष्ठ गायक कलाकार बनने के कथा की प्रभावकारी ढंग से जाँच पड़ताल की है.

     गढवाली का संवेदनशील वार्ताकार वीरेंद्र पंवार :  गढवाली भाषा में सबसे अधिक साक्षात्कार गढवाली के प्रसिद्ध कवि, समालोचक वीरेंद्र   पंवार ने सन २००० से निम्न साहित्यकारों के साक्षात्कार लिए है और प्रकाशित किये हैं   :
 
जीवा नन्द सुयाल (खबर सार, २०००): इस साक्षात्कार में जीवानंद सुयाल ने छंद कविता का सिद्धांत, उपयोगिता व पाठकों की छंद कविता में अरुचि की बात samjhaai

महेश तिवाड़ी ((खबर सार) महेश तिवाड़ी के साथ संगीत व कविताओं पर वार्ता तर्कसंगत  बन पायी है

रघुवीर सिंह 'अयाळ ' : ((खबर सार, २००१) आयल ने व्यंग्य विधा पर साहित्य में जोर देने की वकालत की

मधु सुदन थपलियाल ((खबर सार, २००२) थपलियाल ने गढवाली  भाषा विकास हेतु राजनैतिक लड़ाई की हिमायत की

कुमाउनी साहित्यकार मथुरा प्रसाद मठपाल ((खबर सार, २००३) मठपाल ने कुमाउनी साहित्य में कमजोर गद्य के बारे में कारण व साधन बताए

अबोध बंधु बहुगुणा ((खबर सार, २००४ ); गढ़वाली आखिरकार  क्योकर अभिवक्ति के मामले में हिंदी से बेहतर है पर जोरदार वार्ता है 

लोकेश नवानी ( खबर सार , २००५) भाषा विकाश में धाद सरीखे आन्दोलन की महत्ता पर बातचीत हुयी

अमेरिकन लोक साहित्य विशेषग्य स्टीफेनसन सिओल ((खबर सार, २००५ ) गढ़वाली लोक वाद्यों पर विशेष चर्चा हुयी एवम वार्ता में अल्लें विश्व विद्यालय के प्रोफेस्सर ने कहा कि गढवाली लोक साहित्य अधिक भावना प्रधान है  है 
 
नरेंद्र सिंग नेगी ( खबर सार २००६) नौछमी नारेण गीत के प्रसिद्ध होने पर अफवाह थी कि नेगी राजनीती में जा रहा है. उस समय नरेंद्र सिंह नेगी ने इस साक्षात्कार में स्पष्ट किया वह राजनीती में नही जायेगा व गीतों में ही रमा रहेगा

राजेंद्र धष्माना (खबर सार, २०११) वार्तालाप में गढवाली को सम्पूर्ण भाषा सिद्ध करते हुए राजेंद्र धष्माना ने विश्वाश दिलाया कि भाषा विकाश या संरक्षण हेतु पाठ्यक्रम, भाषा पर शोध नहीं अपितु लोगों की मंशा जुमेवार है.
 
बी.मोहन नेगी (खबर सार , २०११ ) इस वार्ता में टेक्नोलोजी,  कला व कलाकार के बावों के मध्य  संबंधों की जाँच पड़ताल हुयी

भीष्म कुकरेती (खबर सार, २०११ ) वार्ता में भीष्म कुकरेती के साहित्य पर बेबाक, बिना हुज्जत की लम्बी बातचीत हुयी

कुमाउनी साहित्यकार शेर सिंह बिष्ट ( (खबर सार २०११ ): शेर सिंह ने कुमाउनी साहित्य के कुछ पक्षों को पाठकों के समक्ष रखा

     इस तरह हम पाते हैं कि १९८७ में भीष्म कुकरेती द्वारा पहल की गयी वार्तालाप/साक्षात्कार विधा गढवाली साहित्य में भली भांति फली व फूली है. वार्तालापों में क्रमगत विकास भी देक्गने को मिल रहा है.  वर्तमान में संकेत हैं कि गढवाली में साक्षात्कार विधा का भविष्य उज्वल है.

Copyright@ Bhishm Kukreti, Mumbai 2011

 

 

 

 

 

 

 

 

 
 
 

 

 

 
 
 

 
 
 

 

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Bhishma Kukreti

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                       गढवाळऐ बड़ा आदिम (मलारी काल से लेकी अब तलक: फडकी -१ )
 

                                           (गढवाल kee  विभूतियाँ : मलारी युग से आज तक भाग-१   )

                             ( Great Personalities of Garhwal from Malari Era  to till Date Part -1 )

                                               गढवाल का बड़ा आदिम : भाग -१

                                                                           

                                               भीष्म कुकरेती

 

 ( ये लेख कु उद्देश्य नवाड़ी साख/छिंवाळी/न्यू जनरेशन  तैं गढवाळी भाषा मां अपण ऊँ लोकुं  तैं याद कराण  जौंक कारण  आज गढवाळ च , जौंक वजै से आज हम तैं घमंड च / गर्व च )

                                                       मलारी जुग का नामी गिरामी गढवाळी (बड़ा आदिम /महान विभतियाँ)

 मलारी  सरदार  : गढवाळ  मा मलारी सभ्यता वेदूं सभ्यता से भौत पैलाकी च  . डा. शिव प्रसाद डबराल की खोज से  (कर्म भूमि १९५६ अर १९५८ का लेख) 

एक मलारी  सरदार की समाधी ११००० फीट पर नीति घाटी कु गाँव मलारी मा मील मील. सरदार बड़ो वीर छयो.इस लगद यू मलारी सरदार ५००० साल पैलाकू  सरदार छौ   

                वेदूं, महाभारत, पुराणु  मा वर्णित गढवाली बड़ा आदिम (विभूतियाँ )


भेद नरेश : ऋग्वेद कु हिसाब से गढवाल मा  भेद नरेश एक अनार्य राजा छौ अर वैन अपण अधीन भड़ू (बीर) अज, शिग्रु, यक्षु की  सहायता से  आर्य राजा सुदास को दगड भारी लडै करी छे . भेद नरेश न

 शम्बर की भी हत्या करी थौ. भेद तैं सुदास न मारी छौ

अज : खरसाली को मंदिर को हिसाब से इन  लगद अज ऋग्वेदीय समौ मा  गढवाल अर हिमाचल कु खस रज्जा   छौ

शिग्रु : इन मने सक्यांद ऋग्वेद कु समौ मा शिग्रु भाभर अर शिवालिक पख्यडों  कु रज्जा  छौ

पैलू वेनपुत्र  : महाभारत /पुराणु क हिसाब से यू  अत्याचारी रज्जा वेन कु बै जंघड़ से पैदा ह्व़े अर गढवाल अर हौरी पहाड़ों का गोंड, कोल, भील जात्युं आदि बुबा छौ.

दुसुर  वेनपुत्र :  वेन कु दें जंघड़ से   दुसुरु नौनु पैदा ह्व़े अर वैन उत्तराखंड को दखिणी भाग, भाभर, अर उत्तरप्रदेश पर राज कौर . एको क्वाठा भितर (राजधानी) हरिद्वार छे.

कोल राक्षस : केदारखंड मा कोल राक्षस को बिरतांत च जैन उत्तराखंड पर राज करी थौ अर राजा सत्य संध  न कोल राक्षस की हत्या करी थौ.

सत्य संध : सत्य संध न कोल राक्षस तैं मारिक उत्तराखंड पर राज करी थौ.

पुरूरवा  अर उर्वशी : हरिवंश  को हिसाब से पुरुरवा अर उर्वशी न बद्रिकाश्रम जं जगा मा वास करी छौ अर पर्वतीय दासुं तैं मारी छौ पण ऊ एक भलो शाषक भी छयो

 

                                                      ययाति जुग

नहुष :  नहुष पुरुरवा को नाती छौ अर सैत  च वैन उत्तराखंड पर राज करी थौ

ययाति : पुरुरवा को पड़नाती   बड़ो भड़ रज्जा थौ अर वैन अपण राज मध्य देस तक पसारी (फ़ैलाया ) थौ

अनु : अनु ययाति को पांच नौन्याळउं मदे एक छौ अर वै तैं भैबांटो   मा उत्तराखंड को राज मीली थौ.

अंगिरा ऋषि:  अंगिरा ऋषि न बद्रिकाश्रम मा तपस्या कॉरी छौ

मरीचि ऋषि : मरीचि  ऋषि न बद्रिकाश्रम मा तपस्या कॉरी छौ

पुलह ऋषि : पुलह ऋषि न बद्रिकाश्रम मा तपस्या कॉरी छौ

 

                                          मन्धाता जुग या कृत  जुग

 

मन्धाता रज्जा : मन्धाता की राजधानी अयोध्या छे अरउ भौत बड़ी अडगें (क्षेत्र ) कु रज्जा छौ (मध्य देश, पंजाब, मध्य भारत आदि . विक राज उत्तराखंड पर बि छौ

कुत्स : कुत्स मन्धाता कु नौनु छौ अर वैकु  बि उत्तराखंड पर   अधिकार अपण बुबा जं रये 

मुचकुंद : मुचकुंद कुत्स कु लौड़ छौ , अर मान्धाता कु नाती जैकू उत्तराखंड पर अधिकार रयो .

महान त्यागी उशीनगर नरेश : वैदिक साहित्य मा उत्तराखंड कु नाम उशीनगर थौ . ययाति बंशी अनु को झड़ -झड़ नाती उशिनारेश ण फिर से उत्तराखंड पर राज करी . उशिन्रेश बड़ो त्यागी छौ. एक दें

 इंद्र अर अग्नि न उशिनारेश क त्याग कि परीक्षा बान बाज अर कबूतर को रूप धारण करी . उशिनारेश या उत्तराखूंट   नरेश न कबूतर की जाण बचौणोऊ  खातिर अपण जंघड़उं , सरैल कु मांश तराजू मा छधी थौ

इथगा बड़ो त्यागी थौ उत्तराखूंट   को ऊ रज्जा .

मुनि बशिष्ठ : एक अन्य मुनि बशिष्ठ की  छ्वीं महाभारत आदि पर्व (९९/६-७ ) मा च जखमा मुनि बशिष्ठ की बात करे गे बल  सहस्त्रार्जुन का दौरान भृगुवंशी लोक मुनि बशिष्ठ को आश्रम, उत्तराखूंट   मा लुक्याँ रैन

कण्व ऋषि : कण्व ऋषि  गढवाली ऋषि थौ अर मालिनी नदीक  किनारों (कोटद्वार, भाभर ) पर वैकु आश्रम छौ . कण्व ऋषि  विश्व मित्र अर मेनका कि नौनी  शकुन्तला को धर्म बुबा को नाम से पछ्याणे जांद .

शकुन्तला : शकुन्तला को जन्म , परवरिश , भरण पोषण मालनी न्दी क किनारों पर ही ह्व़े . वा दुष्यंत रजा कि राणि बौण . शकुन्तला सही माने मा गढवाळी ही छे

भरत : भरत शकुन्तला अर दुष्यंत कु नौनु छौ अर गढवाली छौ जैक जनम , परवरिश मालनी नदी (कोटद्वार )  क किनारों पर ही ह्व़े . वो बड़ो भड़ छयो अर वैको नाम से ही आज जम्बुद्वीप को नाम भारत पोड़ी .

भृगु ऋषि : महाभारत का तीर्थ पर्व मा भृगु  संहिता कु लिख्वार भृगु मुनि की छ्वीं छन. ब्रिगु ऋषि क आश्रम हरिद्वार का न्याड़ बताये गे अर हरिद्वार कु पास ही आज भी उदयपुर पट्टी, यमकेश्वर क्षेत्र , पौड़ी गढवाल क भृगुखाळ जगा च .

अगने बाँचो --लन्गत्यार मा ..... फडकी द्वी (2)

क्रमश : ...भाग दो

Continued .... part 2

(This article is not history account  but is the description of Great Garhwalis based on the book Uttarakhand ka Itihas part-2 by Dr Shiva Nand Dabral , 1968 and other books as Mahabharat

Bhishma Kukreti

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                                      गढवाल का बड़ा आदिम : भाग - 2

                                     (गढवाल कि विभूतियाँ : मलारी युग से आज तक भाग-2 )
 
                                      ( Great Personalities of Garhwal from Malari Era to till Date part - 2 )

                                                                                                                                       
 
                                                                                  भीष्म कुकरेती



( ये लेख कु उद्देश्य नवाड़ी साख/छिंवाळी/न्यू जनरेशन तैं गढवाळी भाषा मां अपण ऊँ लोकुं तैं याद कराण जौंक कारण आज गढवाळ च , जौंक वजै से आज हम तैं घमंड च / गर्व च

                      कुलिंद जनपद जुग का गढवाळी बड़ा आदिम (विभूतियाँ )
 
                      Great garhwali Personalities of Kulind Era

 

कुलिंद जुग कु समौ 1400 B.C se 1000 B.C तलक माने जांद . महाभारत को हिसाब से कुलिंद रजवाड़ा हरिद्वार से महा हिमालय तलक थौ.
 
किरात राज सुबाहु: राजा सुबाहु पांडव सभा पर्व मा शामिल ह्व़े थौ.सुबाहु की सेना न कुरुक्षेत्र मा पांडवों दगड साथ दे छौ.

 

हरिद्वार (गंगाद्वार ) क नाग्कुमारी उलिपी : उलिपि हरद्वार कि नाग्कुमारी छे जेंक ब्यौ पांडव अर्जुन क दगड ह्व़े छौ.

 
 
इरवान : उलिपि-अर्जुन कु लौड़ कु नाम इरवान छौ जु बड़ो भड़ ह्व़े

हिडंब: हिडंब भीम (पांडव) की कज्याण हिडंबा क भै छौ अर बड़ो भड़ (बीर) थौ. वैक हौर भायुं नाम थौ- बक अर जटासुर अर सब्बी बड़ा बीर मनिख छ्या

हिडम्बा : हिदम्बा एक बिगरैली बांद छे जेंक दगड भीम न गन्धर्व ब्यौ करी छौ .

घटोत्कच्छ : घटोत्कच्छ हिडम्बा-भीम कु लौड़ छौ अर वैकु भरण -पोषण गढवाल मा ही ह्व़े छौ.
 
एकचक्रा का ब्राह्मण : महाभारत मा आदि पर्व मा जब पांडव हिमालय अडगें( क्षेत्र )म अग्यात्वास मा ऐं त एकाचक्र्न्गरी क एक बामन का यख शरण ल़े छे . बामण बड़ो भलु मनिख थौ
 
बकासुर : बकासुर एकाचक्रीनगरी कु अधिपति थौ अर मैस्वाग थौ जय तैं भीम न मारी .

 

वेदव्यास : वेदव्यास की कर्मस्थली /वेदाश्रम गढवाल हिमालय ही छौ

वेदव्यास का पांच च्याला : महाभाग सुमन्तु , महाबुधिमान जैमुनी, तपसी पैल, वैश्याम्पन अर शुकदेव न गढवाल मा वेद आश्रम मा शिक्षा ल़े छे

 
 
भारद्वाज ऋषि : भारद्ववाज ऋषि गढवाळी माने जान्दन जौंक आश्रम गढवाळ मा छौ

 

( Based on Dr Dabral's Uttarakhand ka Itihas -2 and Mahabharata )

Bhishma Kukreti

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                                                           गढवाली भाषा में समालोचना /आलोचना/समीक्षा साहित्य
                                   
                                       (गढवाली अकथात्मक गद्य -३ )
                                                                 (Criticism in Garhwali Literature )
                   
                                                                              भीष्म कुकरेती
              यद्यपि आधिनिक गढवाली साहित्य उन्नीसवीं सदी के अंत व बीसवीं सदी के प्रथम वर्षों में प्रारम्भ हो चूका था और आलोचना भी शुरू हो गयी थी. किन्तु आलोचना का माध्यम कई दशाब्दी तक हिंदी ही रहा .
यही कारण है कि गढवाली कवितावली सरीखे कवी संग्रह (१९३२) में कविता पक्ष , कविओं की जीवनी व साहित्यकला पक्ष पर टिप्पणी हिंदी में ही थी.
गढवाली सम्बन्धित भाषा विज्ञानं व अन्य भाषाई अन्वेषणात्मक, गवेषणात्मक साहित्य भी हिंदी में ही लिखा गया . वास्तव में गढवाली भाषा में समालोचना साहित्य की शुरुवात ' गढवाली साहित्य की भूमिका (१९५४ ) पुस्तक से हुयी .
फिर बहुत अंतराल के पश्चात १९७५ से गाडम्यटेकि गंगा के प्रकाशन से ही गढवाली में गढवाली साहित्य हेतु लिखने का प्रचलन अधिक बढ़ा . यहाँ तक कि १९७५ से पहले प्रकाशित साहित्य पुस्तकों की भूमिका भी हिंदी में ही लिखीं गईं हैं.
देर से ही सही गढवाली आलोचना का प्रसार बढ़ा और यह कह सकते हैं कि १९७५ ई. से गढवाली साहित्य में आलोचना विधा का विकास मार्ग प्रशंशनीय है .
भीष्म कुकरेती के शैलवाणी वार्षिक ग्रन्थ ( २०११-२०१२) का आलेख ' गढवाली भाषा में आलोचना व भाषा के आलोचक' के अनुसार गढवाली आलोचना में आलोचना के पांच प्रकार पाए गए हैं
१- रचना संग्रहों में भूमिका लेखन
२- रचनाओं की पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा
३- निखालिस आलोचनात्मक लेख.निबंध
४- भाषा वैज्ञानिक लेख
५- अन्य प्रकार
                      रचना संग्रन्हों व अन्य माध्यमों में गढवाली साहित्य इतिहास व समालोचना /समीक्षा

                रचना संग्रहों में गढवाली साहित्य इतिहास मिलता है जिसका लेखा जोखा इस प्रकार है
गाडम्यटेकि गंगा (सम्पादक अबोध बंधु बहुगुणा , १९७५) : गाडम्यटेकि गंगा की भूमिका लेखक अबोध बंधु बहुगुणा व उप संपादक दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल हैं. भूमिका में गढवाली गद्य का आद्योपांत इतिहास
व गढवाली गद्य के सभी पक्षों व प्रकारों पर साहित्यिक ढंग से समालोचना हुयी है .गाडम्यटेकि गंगा गढवाली समालोचना साहित्य में ऐतिहासिक घटना है
शैलवाणी (सम्पादक अबोध बंधु बहुगुणा १९८१): 'शैलवाणी' विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और 'गाडम्यटेकि गंगा' की तरह अबोध अबन्धु बह्गुना णे गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की . शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है
गढवाली स्वांग को इतिहास (लेख ) : मूल रूप से डा सुधा रानी द्वारा लिखित 'गढवाली नाटक' (अधुनिक गढवाली नाटकों का इतिहास ) का अनुवाद भीष्म कुकरेती ने गढवाली में कर उसमे आज तक के नाटकों को जोडकर ' चिट्ठी पतरी ' के नाट्य विशेषांक व गढवाल सभा, देहरादून के लोक नाट्य सोविनेअर (२००६) में भी प्रकाशित करवाया
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आयने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय व उनके साहित्य के समीक्षा भी की गयी . यह पुस्तक एवम भीष्म कुकरेती की गढवाली कविता पुराण (इतिहास) इस सदी की गढवाली साहित्य की महान घटनाओं में एक घटना है . गढवाली कविता पुराण 'मेरापहाड़' (२०११) में भी छपा है.
आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास ) अर संसारौ हौरी भाषौं कथाकार : भीष्म कुकरेती द्वारा आधुनिक गढवाली कहानी का साहित्यिक इतिहास , आधुनिक गढवाली कथाओं की विशेषताओं व गुणों का विश्लेष्ण 'आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास ) अर हौरी भाषौं कथाकार' नाम से शैलवाणी साप्ताहिक में सितम्बर २०११ से क्रमिक रूप से प्रकाशित हो रहा है. इस लम्बे आलेख में भीष्म कुकरेती ने गढवाली कथाकारों द्वारा लिखित कहानियों के अतिरिक्त १९० देशों के २००० से अधिक कथाकारों की कथाओं पर भी प्रकाश डाला है.
                                                      रचना संग्रहों में भूमिका लेखन

              पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षा का जीवन काल बहुत कम रहता है और फिर पत्र पत्रिकाओं के वितरण समस्या व रख रखाव के समस्या के कारण पत्र पत्रिकाओं में छपी
समीक्षाएं साहित्य इतिहासकारों के पास उपलब्ध नही होती हैं अत: समीक्षा के इतिहास हेतु सात्यिक इतिहासकारों को रचनाओं की भूमिका पर अधिक निर्भर करना होता है.
नागराजा महाकाव्य (कन्हया लाल डंडरियाल , १९७७ व २००४ पाँच खंड ) की भूमिका १९७७ में डा गोविन्द चातक ने कवि के भाव पक्ष, विषय पक्ष व शैली पक्षों का विश्लेष्ण विद्वतापूर्ण किया तो २००४ में नाथिलाल सुयाल ने डंडरियाल के असलियतवादी पक्ष की जांच पड़ताल की
पार्वती उपन्यास (ल़े.डा महावीर प्रसाद गैरोला, १९८०) गढवाली के प्रथम उपन्यास की भूमिका कैप्टेन शूरवीर सिंह पंवर ने लिखी जिसमे पंवार ने गढवाली शब्द भण्डार व गढवाली साहित्य विकाश के कई पक्षों की विवेचना की है.
कपाळी की छ्मोट (कवि: महावीर गैरोला १९८०) कविता संग्रह की भूमिका में मनोहर लाल उनियाल ने गैरोला की दार्शनिकता, कवि के सकारात्मक पक्ष उदाहरणों सहित पाठकों के सामने रखा
शैलवाणी (सम्पादक अबोध बंधु बहुगुणा १९८१): 'शैलवाणी' विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और 'गाडम्यटेकि गंगा' की तरह अबोध अबन्धु बह्गुना णे गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की . शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है .
खिल्दा फूल हंसदा पात ( क. ललित केशवान , १९८२ ) प्रेम लाल भट्ट ने ललित केशवान के कविता संग्रह के विद्वतापूर्ण भूमिका लिखी जो गढवाली आलोचना को सम्बल देने में समर्थ है
गढवाली रामायण लीला (कवि :गुणा नन्द पथिक , १९८३ ) की भूमिका डा पुरुषोत्तम डोभाल ने लिखी जिसमे डोभाल ने मानो विज्ञान भाषा विकास, दर्शन, , वास्तविकता की महत्ता, रीति रिवाजों व कविता के अन्य पक्षों की विवेचना की.
इलमतु दादा (क. जयानंद खुगसाल बौळया,१९८८ ) की भूमिका कन्हयालाल डंडरियाल , सुदामा प्रसाद प्रेमी व भ.प्र. नौटियाल ने लिखीं व कवि की कविताओं के कई पक्षों पर अपने विचार दिए
ढागा से साक्षात्कार (क.नेत्र सिंह असवाल, १९८८) की भूमिका राजेन्द्र धष्माना ने लिखी और गढवाली आलोचना को ण्या रास्ता दिया. यह भूमिका गढवाली आलोचना के लिए एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है जिसमे धष्माना ने गज़ल का गढवाली नाम 'गंजेळी कविता' दिया.
चूंगटि (क.सुरेन्द्र पाल,२०००) की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने आलोचना के सभी पक्षों को ध्यान रखकर भूमिका लिखी और जता दिया के मधुसुदन थपलियाल गढवाली आलोचना का चमकता सितारा है
उकताट (क. हरीश जुयाळ, २००१) की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने आज के सन्दर्भ में साहित्य की भूमिका, अनुभवगत साहित्य की महत्ता, भविष्य की ओर झांकना , रचनाधर्मिता, सन्दर्भ अन्वेषण आदि विषय उठाकर प्रमाण दे दिया कि थपलियाल गढवाली समालोचना का एक स्मरणीय स्तम्भ है.
आस औलाद नाटक (कुलानंद घनसाला, २००१) की भूमिका में प्रसिद्ध रंग शिल्पी राजेन्द्र धष्माना ने रंगमंच , रंगकर्म, संचार विधा के गूढ़ तत्व , मंचन, कथासूत्र, सम्वाद, मंचन प्रबंधन, निर्देशक की भूमिका जैसे आदि ज्वलंत प्रश्नों पर कलम चलाई है.
आँदी साँस जांदी साँस (क. मदन डुकलाण २००१ ) की भूमिका अबोध बंधु बहुगुणा ने लिखी और कविता में कविता स्वर व गहराई, शब्द सामर्थ्य-अर्थ अन्वेषण . कविताओं में सन्दर्भों व प्रसंगों का औचित्य जैसे अहम् सवालों की जाँच पड़ताल की.
ग्वथनी गौं बटे (स. मदन डुकलाण 2002 ) विविध कवियों के काव्य संग्रह में सम्पादक मदन डुकलाण ने गढवाली कविता विकास के कुछ महत्वपूर्ण दिशाओं का बोध कराया व कवियों द्वारा कविताओं में समयगत परिवर्तन विषय को उठाया
ललित केशवान ने 'गंगा जी का जौ', 'गुठ्यार', 'गाजी डोट कौम ', काव्य संग्रहों की भूमिका लिखी
हर्वी-हर्वी (मधुसुदन थपलियाल (२००२) गढवाली भाषा का प्रथम गज़ल संग्रह है और इस ऐतिहासिक संग्रह की भूमिका लोकेश नवानी णे लिखी जिसमे भाषा में प्रयोगवाद की महत्ता, श्रृंगार रस में जिन्दगी के सभी क्षण, साहित्य में असलियत व रहस्यवाद का औचित्य जैसे विषयों का निरीक्षण किया है
डा आशाराम नाटक ( ल़े.नरेंद्र कठैत २००३) के भूमिका पौड़ी के सफल रंगकर्मी त्रिभुवन उनियाल, बृजेंद्र रावत व प्रदीप भट्ट लिखी जिसमे नाटक के सफल मंचन में आवश्यक तत्वों की विवेचना की गयी है
धीत (क.डा नरेंद्र गौनियाल २००३) की भूमिका में कवि व कवित्व की आवश्यकता आदि प्रश्नों की भूमिका
इनमा कनकैक आण वसंत (क.वीरेन्द्र पंवार , २००४ ) कविता संग्रह की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने कविता क्या है, कविता का औचित्य, किसके ल्ये कविता, कविता में कवि का पक्ष आदि विषयों की जाँच पड़ताल बड़े अच्छे ढंग से की है
अन्ज्वाळ (क.कन्हयालाल डंडरियाल, २००४) की भूमिका में गिविंद चातक ने कवि के कवित्व के सभी पक्षों को पाठकों के सामने रखा .
खिगताट (क. हरीश जुयाल, २००४) के भूमिका में भूमिकाकार गिरीश सुंदरियाल ने 'हास्य का हौन्सिया खुणे जुहारा :व्यंग्य का बादशाह खुणे सलाम' नाम से भिमिका लिखी व हरीश की कविताओं के आद्योपांत सार्थक विश्लेष्ण किया
बिज़ी ग्याई कविता (अट्ठारह कवियों का कविता संग्रह, सन. मधुसुदन थपलियाल,२००४) के सम्पादकीय में कविता विकास व सभी कवियों की अति संक्षिप्त जीवनी भी है.
उड़ घुघती उड़ (गढवाली कुमाउनी कवियों का कविता संग्रह , २००५) में गढवाली भाषा हेतु डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने भूमिका लिखी जिसमे ढौंडियाल ने कविता में कवि मस्तिस्क व ह्रदय की महत्ता का विवेचन सरलता से किया
टुप टप (क.नरेंद्र कठैत २००६) के भूमिका में वीरेन्द्र पंवार ने कवि के कविताओं की जांच पड़ताल की
अन्वार (गीतकार : गिरीश सुंदरियाल , २००६) के भूमिका में मदन डुकलाण ने कवि के भाव-विचार , अनुभूति-अभिव्यक्ति का पठनीयता व कविता के प्रभावशीलन पर प्रभाव की आवश्यकता, कवि का सामज व स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व, जैसे विषयों की छान बीन की ,
बसुमती कथा संग्रह (क.डा उमेश नैथाणी २००६) के भूमिका में डा वीरेन्द्र पंवार ने कथा साहित्य के मर्म का निरीक्ष्ण किया
ग्वे (स.तोताराम ढौंडियाल, २००७ ) स्युसी बैजरों के स्थानीय कवियों के काव्य संग्रह के भूमिका में तोताराम ढौंडियाल ने कविधर्म व कविताओं का वास्तविक उद्देस जैसे प्रश्नों पर अपनी दार्शनिक राय रखी.
मौळयार (क.गिरीश सुंदरियाल, २००८ ) के भूमिका में गणेष खुकसाल गणी ने कविता को दुःख मुक्ति का साधन बताया व कविता में आख्यान, भौगोलिक पहचान, बदलाव, व शैली की विवेचना की
कुल़ा पिचकारी (व्यंगकार : नरेंद्र कठैत ) व्यंग्य संग्रह के भूमिका में भीष्म कुकरेती ने कठैत के प्रत्येक व्यंग्य की जग प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के व्यंग्य संबंधी कथनों के सापेक्ष तौला व व्यंग्य विधा की परभाषा भी दी .
दीवा ह्व़े जा दैणी (क.ललित केशवान २००९) की भूमिका प्रेम लाल भट्ट ने लिखी
आस (क.शांति प्रकाश जिज्ञासु, २००९) की भूमिका में लोकेश नवानी ने गढवाली कविता विकास व गढवाली मानस में भौतिक-मानसिक परिवर्तन की बात उठाई
गीत गंगा (गी.चन्द्र सिंह राही , २०१०) की भूमिका में सुदामा प्रसाद प्रेमी ने राही के कुछ गीतों का विश्लेष्ण काव्य शाश्त्र के आधार पर किया
नरेंद्र कठैत के व्यंग्य संग्रह (२००९) के भूमिका शिव राज सिंह रावत 'निसंग ' ने लिखी
डा . नन्द किशोर ढौंडियाल ने आशा रावत के नाटक हाँ होसियारपुर(२००७) , राजेन्द्र बलोदी के कविता संग्रह 'टुळक ' की भूमिका लिखी
मनिख बाघ (नाटक , कुला नन्द घनसाला , २०१०) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने गढवाली नाटकों का ऐतिहासिक अध्ययन व संसार के अन्य प्रसिद्ध नाटकों के परिपेक्ष में मनिख बाघ की समीक्षा की.
कोठी देहरादून बणोला (कवि हेम भट्ट, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने सातवीं सदी से लेकर आज तक के कई भाषाओं के जग प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के साथ भट्ट की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया.
कबलाट (भीष्म कुकरेती का व्यंग्य संग्रह, २०११) के भूमिका पूरण पंत 'पथिक' ने लिखी व भीष्म कुकरेती के विविध साहित्यिक कार्यकलापों के बारे में पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आयने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय भी दिया.
                                                      गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षायें.
                   
              ऐसा लगता है कि गढवाली भाषा की पुस्तकों की समीक्षा/समालोचना सं १९८५ तक बिलकुल ही नही था, कारण गढवाली भाषा में पत्र पत्रिकाओं का ना होना . यही कारण है कि अबोध बंधु बहुगुणा ने 'गाड म्यटेकि गंगा (१९७५) व डा अनिल डबराल ने 'गढवाली गद्य की परम्परा : इतिहास से आज तक ' (२००७) में १९९० तक के गद्य इतिहास में दोनों विद्वानों ने समालोचना को कहीं भी स्थान नही दिया . इस लेख के लेखक ने धाद के सर्वेसर्वा लोकेश नवानी को भी सम्पर्क किया तो लोकेश ने कहा कि धाद प्रकाशन समय ( १९९० तक) में भी गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षा का जन्म नही हुआ था. (सम्पर्क ४ दिसम्बर २०११, साँय १८.४२ )
भीष्म कुकरेती की ' बाजूबंद काव्य (मालचंद रमोला ) पर समीक्षा गढ़ ऐना ( फरवरी १९९० ) में प्रकाशित हुयी तो भीष्म कुकरेती द्वारा पुस्तक में कीमत न होने पर समीक्षा में /व व्यंग्य चित्र में फोकटिया गढवाली पाठकों की मजाक उड़ाने पर अबोध बंधु बहुगुणा ने सख्त शब्दों में ऐतराज जताया (देखे गढ़ ऐना २७ अप्रि, १९९०, २२ मई १९९० अथवा एक कौंळी किरण, २००० ) .जब की माल चन्द्र रमोला ने लिखा की भीष्म की यह टिपणी सरासर सच्च है.
भीष्म कुकरेती ने गढ़ ऐना (१९९०) में ही जग्गू नौडीयाल की 'समळऔण' काव्य संग्रह व प्रताप शिखर के कथा संग्रह 'कुरेडी फटगे' की भी समीक्षा की गयी
भीष्म कुकरेती ने 'इनमा कनकैक आण वसंत ' की समीक्षा (खबर सार २००६) के जिसमे भीष्म ने डा. वीरेन्द्र पंवार के कविताओं को होते परिवर्तनों की दृष्टि से टटोला
भीष्म कुकरेती की ' पूरण पंत के काव्य संग्रह 'अपणयास का जलड' की समालोचना ; गढवाली धाई ( २००५ ) में प्रकाशित हुयी .
दस सालै खबर सार (२००९) की भीष्म कुकरेती द्वारा अंग्रेजी में समीक्षा का गढवाली अनुबाद खबर सार (२००९) में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ
गढवाली पत्रिका चिट्ठी पतरी में प्रकाशित समीक्षाएं
   
         चिट्ठी पतरी के पुराने रूप 'चिट्ठी' (१९८९) में कन्हैयालाल ढौंडियाल के काव्य संग्रह 'कुएड़ी' की समीक्षा निरंजन सुयाल ने की
बेदी मा का बचन (क.सं. महेश तिवाड़ी) की समीक्षा देवेन्द्र जोशी ने कई कोणों से की (चिट्ठी पतरी १९९८) .
प्रीतम अपच्छ्याण की 'शैलोदय' की समीक्षा चिट्ठी पतरी (१९९९) में प्रकशित हुयी और समीक्षा साक्ष्य है कि प्रीतम में प्रभावी समीक्षक के सभी गुण है
देवेन्द्र जोशी की 'मेरी आज्ञाळ' कविता संग्रह (चट्ठी पतरी २००१ ) समालोचना एक प्रमाण है कि क्यों देवेन्द्र जोशी को गढवाली समालोचनाकारों की अग्रिम श्रेणी में रखा जाता है.
अरुण खुगसाल ने नाटक आस औलाद की समालोचना बड़े ही विवेक से चिट्ठी पतरी (२००१) में की व नाटक के कई पक्षों की पड़ताल की
आवाज (हिंदी-गढवाली कविताएँ स. धनेश कोठारी ) की समीक्षा संजय सुंदरियाल ने चिट्ठी पतरी ( २००२) में निष्पक्ष ढंग से की
हिंदी पुस्तक ' बीसवीं शती का रिखणीखाळ ' के समालोचना डा यशवंत कटोच ने बड़े मनोयोग से चिट्ठी पतरी (२००२) में की और पुस्तक की उपादेयता को सामने लाने में समालोचक कामयाब हुआ.
आँदी साँस जांदी साँस (क.स मदन डुकल़ाण ) की चिट्ठी पतरी (२००२ ) में समीक्षा भ.प्र. नौटियाल ने की
उकताट ( काव्य, हरेश जुयाल) की विचारोत्तेजक समीक्षा देवेन्द्र पसाद जोशी ने चिट्ठी पतरी ( २००३ ) में प्रकाशित की.
हर्बि हर्बि (काव्य स. मधुसुदन थपलियाल) की भ. प्र. नौटियाल द्वारा चिट्ठी पतरी (२००३) में प्रकाशित हुयी .
गैणि का नौ पर (उप. हर्ष पर्वतीय ) की समीक्षा चिठ्ठी पतरी (२००४ ) में छपी.समीक्षा में देवेन्द्र जोशी ने उपन्यास के लक्षणों के सिधान्तों के तहत समीक्षा के
अन्ज्वाळ ( कन्हैया लाल डंडरियाल ) की भ.प्र. नौटियाल ने द्वारा समीक्षा 'चिट्ठी पतरी (२००४ ) में प्रकाशित हई .
                                                  डा. नन्द किशोर ढौंडियाल द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षाएं

           डा नन्द किशोर का गढवाली, हिंदी पुस्तकों के समीक्षा में महान योगदान है. डा ढौंडियाल की परख शाश्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित , न्यायोचित व तर्क संगत होती है. डा ढौंडियाल की समीक्षाओं का ब्योरा इस प्रकार है
'कांति ' - खबर सार (२००१)
'समर्पित दुर्गा' - खबर सार (२००१ )
'कामनिधी' खबर सार (2001)
रंग दो - खबर सार (२००२ )
'उकताट'- खबर सार (२००२)
'हर्बि - हर्बि ' खबर सार (२००२)
'तर्पण ' खबर सार (२००३)
पहाड़ बदल रयो - खबर सार (२००३)
'धीत' - खबर सार (२००३)
'बिज़ी ग्याई कविता' - खबर सार (२००४)
गढवाली कविता' -खबर सार (२००५)
'शैल सागर' खबर सार (२००६)
'टळक मथि ढळक'- खबर सार (२००६)
'संकवाळ ' की समीक्षा खबर सार (२०१०)
'दीवा दैण ह्वेन '- खबर सार (२०१०)
'आस' -खबर सार (२०१०)
ग्वे -खबर सार (२०१०)
उमाळ - खबर सार (२०१०)
'प्रधान ज्योर '- खबर सार (२०१०)
पाणी - खबर सार (२०११)
                                               डा वीरेन्द्र पंवार की गढवाली भाषा में समीक्षाएं

              डा वीरेन्द्र पंवार गढवाली समालोचना का महान स्तम्भ है . डा पंवार के बिना गढवाली समालोचना के बारे में सोचा ही नही जा सकता है . डा पंवार ने अपनी एक शैली परिमार्जित की है जो गढवाली आलोचना को भाती भी है क्योंकि आम समालोचनात्मक मुहावरों के अतिरिक्त डा पंवार गढवाली मुहावरों को आलोचना में भी प्रयोग करने में दीक्षित है. डा वीरेंद्र पंवार की पुस्तक समीक्षा का संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है
आवाज- खबर सार (२००२)
लग्याँ छंवां - खबर सार (२००४)
दुनया तरफ पीठ' - खबर सार (२००५)
केर'- खबर सार (२००५)
घंगतोळ -खबर सार (२००८)
टुप टप -खबर सार (२००८)
कुल़ा पिचकारी -खबर सार (२००८)
कुल़ा पिचकारी -खबर सार (२००८)
डा. आशाराम ' -खबर सार (२००८)
अडोस पड़ोस - खबर सार (२००९)
मेरी पूफू - खबर सार (२००९)
दीवा दैणि ह्वेन -खबर सार (२०१०)
खबर सार दस साल की - खबर सार (२०१०)
ज्यूँदाळ - खबर सार (२०११)
पाणी' - खबर सार (२०११)
गढवाली भाषा के शब्द संपदा - खबर सार (२०११)
सब्बी मिलिक रौंला हम - खबर सार (२०११)
आस - रंत रैबार (२०११)
फूल संगरांद - खबर सार (२०११)
चिट्ठी पतरी विशेषांक - खबर सार (२०११)
द्वी आखर - खबर सार (२०११)
ललित मोहन कोठियाल की भी दो पुस्तकों की समीक्षा खबर सार में प्रकाशित हुईं हैं.
संदीप रावत द्वारा उमेश चमोला कि पुस्तक की समालोचना खबर सार (२०११) में प्रकाशित हुयी
.
                                                    मानकीकरण पर आलोचनात्मक लेख

              मानकीकरण गढवाली भाषा हेतु एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और मानकीकरण पर बहस होना लाजमी है. मानकीकरण के अतिरिक्त गढवाली में हिंदी का अन्वश्य्क प्रयोग भी अति चिंता का विषय रहा है जिस पर आज भी सार्थक बहस हो रहीं हैं.
रिकोर्ड या भीष्म कुकरेती की जानकारी अनुसार , गढवाली में मानकी करण पर लेख भीष्म कुकरेती ने ' बीं बरोबर गढवाली' धाद १९८८, अबोध बंधु बहुगुणा का लेख ' भाषा मानकीकरण 'कि भूमिका' (धाद, जनवरी , १९८९ ) में छापे थे. जहां भीष्म कुकरेती ने लेखकों का धयन इस ओर खींचा कि गढवाली साहित्य गद्य में लेखक अनावश्यक रूप से हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं वहीं अबोध बंधु बहुगुणा ने भाषा मानकीकरण के भूमिका (धाद, १९८९) गढवाली म लेस्ख्कों द्वारा स्वमेव मानकीकरण पर जोर देने सम्बन्धित लेख है. तभी भीष्म कुकरेती के सम्वाद शैली में प्रयोगात्त्म्क व्यंगात्मक लेख 'च छ थौ ' (धाद, जलाई, १९९९, जो मानकीकरण पर चोट करता है ) इस लेख के बारे में डा अनिल डबराल लिखता है ' सामयिक दृष्टि से इस लेख ने भाषा के सम्बन्ध में विवाद को तीब्र कर दिया था.". इसी तरह भीष्म कुकरेती का एक तीखा लेख 'असली नकली गढ़वाळी' (धाद जून १९९०) प्रकाशित हुआ जिसने गढवाली साहित्य में और भी हलचल मचा दी थी. मुख्य कारण था कि इस तरह की तीखी व आलोचनात्मक भाषा गढवाली साहित्य में अमान्य ही थी. 'असली नकली गढ़वाळी' के विरुद्ध में मोहन बाबुलकर व अबोध बंधु बहुगुणा भीष्म कुकरेती के सामने सीधे खड़े मिलते है . मोहन बौबुलकर ने धाद के सम्पादक को पत्र लिखा कि ऐसे लेख धाद में नही छपने चाहिए. वहीं अबोध बंधु बहुगुणा ने ' मानकीकरण पर हमला (सितम्बर १९९०) ' लेख में भीष्म कुकरेती की भर्त्सना की. बहुगुणा ने भी तीखे शब्दों का प्रयोग किया. अबोध बंधु के लेख पर भी प्रतिक्रया आई . देवेन्द्र जोशी ने धाद (दिसम्बर १९९०) में ' माणा पाथिकरण ' बखेड़ा पर बखेड़ा ' लेख/पत्र लिखा कि बहुगुणा को ऐसे तीखे शब्द इस्तेमाल नही करने चाहिए थे व इसी अंक में लोकेश नवानी ने मानकीकरण की बहस बंद करने की प्रार्थना की . रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' एक लम्बा पत्र भीष्म कुकरेती को भेजा , पत्र भीष्म कुकरेती के पक्ष में था.
इस ऐतिहासिक बहस ने गढवाली साहित्य में आलोचनात्मक साहित्य को साहित्यकारों के मध्य खुलेपन से विचार विमर्श का मार्ग प्रसस्त किया व आलोचनात्मक साहित्य को विकसित किया.
                                           भाषा संबंधी ऐतिहासिक वाद विवाद के सार्थक सम्वाद

             . गढवाली भाषा में भाषा सम्बन्धी वाद विवाद गढवाली भाषा हेतु विटामिन का काम करने वाले हैं.
जब भीष्म कुकरेती के ' गढ़ ऐना (मार्च १९९० ), में ' गढवाली साहित्यकारुं तैं फ्यूचरेस्टिक साहित्य' लिखण चएंद ' जैसे लेख प्रकाशित हुए तो अबोध बंधु बहुगुणा का प्रतिक्रियासहित ' मौलिक लिखाण सम्बन्धी कतोळ-पतोळ' लेख गद्ध ऐना (अप्रैल १९९० ) में प्रकाशित हुआ व यह शिलशिला लम्बा चला . भाषा सम्बन्धी कई सवाल भीष्म कुकरेती के लेख 'बौगुणा सवाल त उख्मी च ' ९ग्ध ऐना मई १९९०), बहुगुणा के लेख 'खुत अर खपत' (ग.ऐना, जूं १९९० ) , भीष्म कुकरेती का लेख ' बहुगुणा श्री ई त सियाँ छन ' (गढ़ ऐना, १९९० ) व 'बहुगुणा श्री बात या बि त च ' व बहुगुणा का लेख 'गाड का हाल' (सभी गढ़ ऐना १९९० ) गढवाली समालोचना इतिहास के मोती हैं . इस लेखों में गढवाली साहित्य के वर्तमान व भविष्य, गढवाली साहित्य में पाठकों के प्रति साहित्यकारों की जुमेवारियां, साहित्य में साहित्य वितरण की अहमियत , साहित्य कैसा हो जैसे ज्वलंत विषयों पर गहन विचार हुए.
कवि व समालोचक वीरेन्द्र पंवार के एक वाक्य ' गढवाली न मै क्या दे' पर सुदामा प्रसाद 'पेमी' जब आलोचना की तो खबर सार प्रतिक्रिय्स्वरूप में कई लेख प्रकाशित हुए
२००८ में जब भीष्म कुकरेती का लम्बा लेख (२२ अध्याय ) ' आवा गढ़वाळी तैं मोरण से बचावा' एवं ' हिंदी साहित्य का उपनिवेशवाद को वायसराय ' (जिसमे भाषा क्यों मरती है, भाषा को कैसे बचाया जा सकता है, व पलायन, पर्यटन का भाषा संस्कृति पर असर , प्रवास का भाषा साहित्य पर प्रभाव, जैसे विषय उठाये गये हैं ) खबर सार में प्रकाशित हुआ तो इस लेखमाला की प्रतिक्रियास्वरूप एक सार्थक बहस खबर सार में शुरू हुयी और इस बहस में डा नन्द किशोर नौटियाल , बालेन्दु बडोला, प्रीतम अपछ्याण, सुशिल पोखरियाल सरीखे साहित्यकारों ने भाग लिया . भीष्म कुकरेती का यह लंबा लेख रंत रैबार व शैलवाणी में भी प्रकाशित हुआ .
इसी तरह जब भीष्म कुकरेती ने व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत के एक वाक्य पर इन्टरनेट माध्यम में टिपण्णी के तो भीष्म कुकरेती की टिपणी विरुद्ध नरेंद्र कठैत व विमल नेगी की प्रतिक्रियां खबर सार में प्रकाशित हुईं (२००९) और भीष्म की टिप्पणी व प्रतिक्रियां आलोचनात्मक साहित्य की धरोहर बन गईं.
मोबाइल माध्यम में भी गढवाली भाषा साहित्य पर एक बाद अच्छी खासी बहस चली थी जिसका वर्णन वीरेन्द्र पंवार ने खबर सार में प्रकाशित की
पाणी के व्यंग्य लेखों को लेखक नरेंद्र कठैत व भूमिका लेखक 'निसंग' द्वारा निबंध साबित करने पर डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने खबर सार (२०११) में लिखा कि यह व्यंग्य संग्रह लेख संग्रह है ना कि निबंध संग्रह तो भ.प्र. नौटियाल ने प्रतिक्रिया दी (खबर सार , २०११).
सुदामा प्रसाद प्रेमी व डा महावीर प्रसाद गैरोला के मध्य भी साहित्यिक वाद हुआ जो खबर सार ( २००८ ) में चार अंकों छाया रहा
इसी तरह कवि जैपाल सिंह रावत 'छिपडू दादा ' के एक आलेख पर सुदामा प्रसाद प्रेमी ने खबर सार (२०११) में तर्कसंगत प्रतिक्रया दी
                              गढवाली में गढवाली भाषा सम्बन्धी साहित्य

               गढवाली में गढ़वाली भाषा , साहित्य सम्बन्धी लेख भी प्रचुर मात्र में मिलते हैं . इस विषय में कुछ मुख्य लेख इस प्रकार हैं.
गढवाली साहित्य की भूमिका पस्तक : आचार्य गोपेश्वर कोठियाल के सम्पादकत्व में गढवाली साहित्य की भूमिका पस्तक पुस्तक १९५४ में प्रकाशित हुयी जो गढवाली भाषा साहित्य की जाँच पड़ताल की प्रथम पुस्तक है. इस पुस्तक में भगवती प्रसाद पांथरी, भगवती प्रसाद चंदोला, हरि दत्त भट्ट शैलेश, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, राधा कृष्ण शाश्त्री, श्याम चंद लाल नेगी दामोदर थपलियाल के निबंध प्रकाशित हुए .
डा विनय डबराल के गढ़वाली साहित्यकार पुस्तक में रमा प्रसाद घिल्डियाल, श्याम चंद नेगी, चक्रधर बहुगुणा के भाषा सम्बन्धी लेखों का भी उल्लेख है
अबोध बंधु बहुगुणा, डा नन्द किशोर ढौंडियाल व भीष्म कुकरेती ने कई लेख भाषा साहित्य पर प्रकाशित किये हैं जो समालोचनात्मक लेख हैं ( देखें भीष्म कुकरेती व अबोध बन्धु बहुगुणा का साक्षात्कार , चिट्ठी पतरी २००५ , इसके अतिरिक्त भीष्म कुकरेती, नन्द किशोर ढौंडियाल व वीरेंद्र पंवार के रंत रैबार, खबर सार आदि में लेख )
दस सालै खबर सार (२००९) पुस्तक में भजन सिंह सिंह, शिव राज सिंह निसंग, सत्य प्रसाद रतूड़ी , भ.प्र.नौटियाल, वीरेंद्र पंवार, भीष्म कुकरेती, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, विमल नेगी के लेख गढवाली भाषा साहित्य विषयक हैं.
डा अचलानंद जखमोला के भी गढवाली भाषा वैज्ञानिक दृष्टि वाले कुछ लेख चिट्ठी पतरी मे प्रकाशित हुए हैं.
                          पत्र -पत्रिकाओं में स्तम्भ

 खबर सार में नरेंद्र सिंह नेगी के साहित्य व डा शिव प्रसाद द्वारा संकलित लोक गाथा ' सुर्जी नाग' पर लगातार स्तम्भ रूप में समीक्षा छपी हैं
रंत रैबार ( नवम्बर-दिस २०११) में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की क्रमिक समीक्षा इश्वरी प्रसाद उनियाल कर रहे हैं . यह क्रम अभी तक जारी है
                        चिट्ठी पतरी के विशेषांकों में समीक्षा

              गढवाली साहित्य विकास में चिट्ठी पतरी ' पत्रिका का अपना विशेष स्थान है. चिट्ठी पतरी के कई विशेषांकों में समालोचनात्मक/ समीक्षात्मक / भाषासाहित्य इतिहास/ संस्मरणात्मक लेख /आलेख प्रकाशित हुए हैं.
लोक गीत विशेषांक ( २००३) में डा गोविन्द चातक, डा हरि दत्त भट्ट, चन्द्र सिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, आशीष सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँण व सुरेन्द्र पुंडीर के लेख छपे .
कन्हैया लाल डंडरियाल स्मृति विशेषांक (२००४) में प्रेम लाल भट्ट, गोविन्द चातक, भ. नौटियाल, ज.प्र चतुर्वेदी, ललित केशवान, भीष्म कुकरेती, हिमांशु शर्मा, नथी प्रसाद सुयाल के लेख प्रकाशित हुए
लोक कथा विशेषांक ( २००७) में भ.प्र नौटियाल, डा नन्द किशोर ढौंडिया, ह्मंशु शर्मा, अबोध बंधु बहुगुणा, रोहित गंगा सलाणी , उमा शर्मा, भीष्म कुकरेती, डा राकेश गैरोला, सुरेन्द्र पुंडीर के सारगर्भित लेक छपे.
रंगमंच विशेषांक ( २००९) में भीष्म कुकरेती, उर्मिल कुमार थपलियाल, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, कुला नन्द घनसाला , डा राजेश्वर उनियाल के लेख प्रकाशित हुए
अबोध बंधु स्मृति विशेषांक ( २००५ ) में भीष्म कुकरेती, जैपाल सिंह रावत , वीणा पाणी जोशी, बुधि बल्लभ थपलियाल के लेख प्रकाशित हुए
भजन सिंह स्मृति अंक ( २००५) में डा गिरी बाला जुयाल, उमाशंकर थपलियाल, वीणापाणी जोशी, के लेख छपे.

                उपरोक्त आलोचनात्मक साहित्य के निरीक्षण से जाना जा सकता है कि 'गढवाली आलोचना के पुनरोथान युग की शुरुवात में अबोध बंधु बहुगुणा , भीष्म कुकरेती, निरंजन सुयाल ने जो बीज बोये थे उनको सही विकास मिला और आज कहा जा सकता है कि गढवाली आलोचना अन्य भाषाओँ की आलोचना साहित्य के साथ टक्कर ल़े सकने में समर्थ है.
पुस्तक भूमिका हो या पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा हो गढवाली भाषा के आलोचकों ने भरसक प्रयत्न किया कि समीक्षा को गम्भीर विधा माना जाय और केवल रचनाकार को प्रसन्न करने व पाठकों को पुस्तक खरीदने के लिए ही उत्साहित ना किया जाय अपितु गढवाली भाषा समालोचना को सजाया जाय व संवारा जाय.
गढवाली समालोचकों द्वारा काव्य समीक्षा में काव्य संरचना , व्याकरणीय सरंचना में वाक्य, संज्ञा , सर्वनाम, क्रिया, कारक, विश्शेष्ण , काल, समस आदि ; शैल्पिक संरचना में अलंकारों, प्रतीकों, बिम्बों, मिथ, फैन्तासी आदि ;व आतंरिक संरचना में लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना आदि सभी काव्यात्मक लक्षणों की जाँच पड़ताल की गयी है. जंहाँ जंहाँ आवश्यकत

Bhishma Kukreti

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गढवाली भाषा में समालोचना /आलोचना/समीक्षा साहित्य ....2 part


गढवाली समालोचकों द्वारा काव्य समीक्षा में काव्य संरचना , व्याकरणीय सरंचना में वाक्य, संज्ञा , सर्वनाम, क्रिया, कारक, विश्शेष्ण , काल, समस आदि ; शैल्पिक संरचना में अलंकारों, प्रतीकों, बिम्बों, मिथ, फैन्तासी आदि ;व आतंरिक संरचना में लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना आदि सभी काव्यात्मक लक्षणों की जाँच पड़ताल की गयी है. जंहाँ जंहाँ आवश्यकता हुयी वहां वहां समालोचकों ने अनुकरण सिद्धांत, काव्य सत्य, त्रासदी विवरण, उद्दात सिद्धांत, सत्कव्य, काव्य प्रयोजन, कल्पना की आवश्यकता, कला कला हेतु , छंद, काव्य प्रयोजन, समाज को पर्याप्त स्थान, क्लासिक्वाद, असलियत वाद, समाजवाद या साम्यवाद, काव्य में प्रेरणा स्रोत्र , अभिजात्यवाद, प्रकृति वाद, रूपक/अलंकार संयोजन , अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, काव्यानुभूति, कवि के वातावरण का कविताओं पर प्रभाव आदि गम्भीर विषयों पर भी बहस व निरीक्षण की प्रक्रिया भी निभाई . कई समालोचकों ने कविताओं की तुलना अन्य भाषाई कविताओं व कवियों से भी की जो दर्शाता है कि समालोचक अध्ययन को प्राथमिकता देते हैं . गद्य में कथानक, कथ्य, संवाद, रंगमंच प्र घं विचार समीक्षाओं में हुआ है. इसी तरह कथाओं, उपन्यासों व गद्य की अन्य विस्धों में विधान सम्मत समीक्षाए कीं गईं
       संख्या की दृष्टि से देखें या  गुणात्मक दृष्टि से देखें तो गढवाली समालोचना का भविष्य उज्जवल है.
Copyright Bhishm Kukreti

Bhishma Kukreti

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                                                गढवाळऐ बड़ा आदिम (मलारी काल से लेकी अब तलक: फडकी-३[/color[/size]]
 

                                     (गढवाल कि विभूतियाँ : मलारी युग से आज तक भाग-3 )

 

                                                   ( Great Personalities of Garhwal from Malari Era to till Date Part -3 )



                                                           भीष्म कुकरेती (Bhishm Kukreti )

 

उत्तराखंड मा बुद्ध जुग या बुद्ध मत वालूँ मा प्रसिद्ध मनिख

 

मयूरध्वज कु जैन रज्जा: महावर कु समौ उपरान्त (500 इशा पूरब न्याड़ ध्वार ) उत्तराखंड कु द्खिंनी अडगें (क्षेत्र), नजीबाबाद कु नजीक मा कबि जैन रज्जा कु राज छयो.

 

श्रुघन नगर कु बामण ५०० इशा पूर्ब) : उत्तराकह्दं की द्खिंनी अडगें (क्षेत्र) मा एक बामण रौंदू थौ जु बड़ो विद्वान थौ अर घमंडी बि थौ. महत्मा बुद्ध इख ऐ छ्या अर ऊन वै बामण कु घमंड ख़तम करी थौ (चीनी गौन्त्या (भ्रमणकारी) युवान चांग की गौन्त्या को बिरतांत/ डायरी )

 

गंगाद्वार (हरिद्वार ) अर मोरगिरी का वासिंदो को दान (५०० इशा पूर्ब) : यीं अडगें (क्षेत्र) वालुंन भारहुत बौध स्तूप तोरण का वास्ता दान दे थौ. यूँ दान्युं मादे चक्रमोचिका पुत्र नागरक्षित भूध भिक्षु बौंण अर गोतिपुत , वाछिपुत धनभुती, बाधपाल, भी बौध भिक्षु छया . नागार्क्षित (नागिल) की बैणी बि भूध भिक्षुणि छे ,

 

भौत बड़ो रज्जा अशोक : इन बुल्दन बल भौत बड़ो रज्जा अशोक न उत्तराखंड प्र राज करी थौ ( 258-257 B.C) अर वैका खैकर ( प्रतिनिधि ) उत्तराखंड का पुराणा रज्जा ही छया ( डा शिव प्रसाद, उत्तराखंड का इतिहास -३ )

 

मंझिम स्थविर : बौध मोग्ग्लिपुत स्थविर न उत्तराखंड मा बौध धर्म फुळणो/ फैल़ाणो काज मंझिम स्थविर तैं दे छौ जु उत्तराखंड ऐ छौ.[/size][/b]

 

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