Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 725688 times)

Bhishma Kukreti

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शुंग -कण्व काल में उत्तराखंड पर्यटन का पुनर्जीवित  व पुष्ट होना

(उत्तराखंडी इंटरनेट लेखकों व पत्रकारों का विशेष उत्तरदायित्व )


(  शुंग काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -24

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  24                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--129 )   
      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 129   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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                   सम्राट अशोक की मृत्यु पश्चात उसके उत्तराधिकारियों मध्य राष्ट्र शासन हेतु लड़ाई व बाद में यवन आक्रमण व उनके  शासन (232 -184 B. C . ) से समस्त भारत में मौर्यों के सामंतों या अन्यों ने क्षेत्रीय राज संभाल लिए व समस्त भारत में राजनैतिक अस्थिरता छा गयी  . अशोक के उत्तराधिकारी सेना को बलशाली होने के स्थान पर बौद्ध या जैन धर्मों के महत्व समझाते रहते थे (जैन , जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ 523 -24 ) .
  उत्तराखंड में भी राजनैतिक अस्थिरता रही और निर्माण -निर्यात -आयात पर आघात लगने से टूरिज्म पर बुरा प्रभाव पड़ा।  गिल्ड जैसे  संस्थानों के कमजोर होने से भी पश्चिम देशों  के साथ व्यापार निष्प्राण हो गया।  अस्थिरता से उत्तराखंड में शरणार्थी पर्यटन बढ़ गया।
            शुंग काल (185 -73 B . C. ) मौर्य आमात्य पुष्य मित्र  (185 -149 B C. ) द्वारा मौर्य राजा वृहद्रथ की हत्या के बाद शुरू हुआ। पुष्य मित्र ने उत्तर भारत पर विजय प्राप्त कर साम्राज्य वृद्धि की। शुंग शासन का अंतिम शासक देवभूति था व उसके पश्चात पाटलिपुत्र पर कण्वों का शासन चला (73 -28 B C )।
      शुंग शासन से यवन आक्रांताओं का आक्रमण रुका।
                उत्तराखंड पर शुंग शासन की पुष्टि देहरादून में पायी गयी मृणमुद्रा से होती है जिस पर 'भद्र मित्रस्य द्रोणी घाटे ' से होती है।  (जयचंद्र , प्राचीन पंजाब व उसका पास पड़ोस पृ 6 ) . 
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                सनातन वाद व संस्कृत का पुनर्रोथान

   अशोक के समय संस्कृत साहित्य व सनातन पंथ को जो नुक्सान हुआ था व् शुंग काल में पुनर्र्जीवित हुआ।  पतंजलि या पाणनि  जो पुष्यमित्र के आमात्य भी थे और श्रुघ्न नगर के प्रेमी थे।  पाणनि ने इस काल के बारे में महाभाष्य रचा। महाभाष्य में उस काल की कई दशाओं का सजीव चित्रण मिलता है। पाणनि साहित्य से उत्तराखंड विशेषकर भाभर क्षेत्र की जानकारी भी मिलती है।
          शंग शासन काल में महाभारत का संकलन व सम्पादन हुआ।  इसी काल -शुंग- कण्व काल में मनुस्मृति संकलन (200 B  स - 200 AD ) की शुरुवात हुयी।  कई पुराण इसी समय रचे व संपादित हुए।  शैव्य वैष्णव वाद की वास्तविक शुरुवात शुंग काल में हुयी व कई प्रतीक, जीव -जंतु व वृक्ष शैव्य -वैष्णव पंथ से जुड़े। कृष्ण का भगवान पद इसी काल की दें है और गीता का महाभारत व वैष्णवों के मध्य प्रवेश भी विकास इसी काल में हुआ।   (200 BC से शुरुवात ) .
      भाष का साहित्य भी कण्व काल में रचा गया , अश्वघोष ने  भी इसी समय साहित्य रचा।  नाट्यशास्त्र भी इसी समय रचा गया।
    शैव्य पंथ विकास , शैव्य पंथ पुराण , महाभारत के दक्षिण भाग व अन्य पुराणों के संकलन से उत्तराखंड एक महवत्वपूर्ण धार्मिक स्थल की धारणाओं को अत्यंत बल मिला और सारे जम्बूद्वीप में उत्तराखंड धार्मिक पर्यटन हेतु रास्तों को पुष्ट करने में शुंग -कण्व काल का उत्तराखंड के लिए महत्वपूर्ण युग माना जाता है।  महाभारत रचना काल (मन ही मन में ) ने उत्तराखंड धार्मिक पर्यटन की आधारशिला रखी तो शुंग काल ने उत्तराखंड धार्मिक स्थल को विस्तार व संबल दिया।
               बौद्ध साहित्य व जैन साहित्य को संस्कृत में लिखने की वास्तविक शुरुवात व विकास शुंग काल की देन  है और कई उत्कृष्ट साहित्य इस काल में रचे गए। ( उपरोक्त -वी डी  महाजन की पुस्तक ऐनसियंट इण्डिया , पृष्ठ -360 -372 आधारित ).     
                        व्यासाश्रम व उत्तराखंड की धार्मिक प्रतिष्ठा में वृद्धि

       महाभारत क दक्षिण भारतीय पाठ व कतिपय पुराणों का सम्पादन उत्तराखंड के व्यासाश्रमों में हुआ।  जो इस बात का द्योतक है कि ऋषि -मुनि शान्ति पूर्वक लिखने/रचने हेतु उत्तराखंड पसंद करने लगे थे।  भोजपत्र सरलता से मिलने के कारण भी मुनि /साहित्य रचयिता व उनके शिष्य यहां आये होंगे।  और इससे उत्तराखंड को नए प्रकार के पर्यटन तो मिले ही उत्तराखंड को धार्मिक क्षेत्र बनने की प्रक्रिया को अधिक बल मिला। शुंग व आगे के काल में मैदानों में लिखे गए साहित्य में उत्तराखंड के धार्मिक ओहदा व प्रतिष्ठा बढ़ी ही और एक उत्कृष्ट व प्रतिष्ठित धार्मिक स्थल के रूप में उत्तराखंड को और भी बल मिला।  इस समय के साहित्य से उत्तराखंड में पर्यटन बढ़ा ही।
      इसके अतिरिक्त ऋषि मुनियों व उनके शिष्यों के उत्तराखंड भ्रमण व अन्य धार्मिक पर्यटकों से  उत्तराखंड की सांस्कृतिक स्थिति में बदलाव भी आने शुरू हुए और बहुत से देवी देवता समाज में स्थान पाने लगे जिसने अलग से पर्यटन को प्रभावित भी किया ही होगा।
                 
                                 आर्थिक स्थिति

   शुंग काल में पश्चिमी देशों से व्यापर भी खूब चला तो उत्तराखंड से भी निर्यात होता रहा होगा याने व्यापारिक पर्यटन भी इस काल में अपनी जगह दुबारा स्थापित हुआ।

           उत्तराखंड में कुणिंद नरेशों का शासन
  उत्तराखंड में श्रुघ्न पर 232 BC से 60 BC, व(इसके अतिरिक्त अल्मोड़ा में अलग कुणिंद शासन 60  BC से 20  AD  ) तक कुणिंद शासन रहा और इस शासन काल में उपरोक्त सभी गतिविधिया रहीं।

            शरणार्थी पर्यटन

     मैदानी भागों में उथल पुथल होने से बहुत से लोग पर्वतों की ओर पलायन भी करने लगे और शरणार्थी पर्यटन को संबल मिलने लगा। ये शरणार्थी भी समाज में बदलाव लाये ही होंगे। 
 
       निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि शुंग -कण्व  काल उत्तराखंड पर्यटन का एक महत्वपूर्ण काल है जिसमे शैव्य धर्म , धार्मिक साहित्य आदि  से  उत्तराखंड पर्यटन  को नई ऊंचाइयां मिलीं और  पर्यटन स्थल प्रसिद्धि से भविष्य पथ और भी साफ़ हुआ। 

         इंटरनेट लेखकों , साहित्यकारों व पत्रकारों की नई भूमिका

          उत्तराखंड राज्य बनने के पश्चात भी उत्तराखंड पर्यटन वः ऊंचाई नहीं पा सका जिसका उत्तराखंड हकदार है।  अशोक काल के बाद की स्थितियां व शुंग -कण्व काल धाद  देता है कि उत्तराखंडी पत्रकारों , लेखकों , साहित्यकारों का उत्तरदाईत्व बनता है कि इंटरनेट के जरिये नए पर्यटन प्रोडक्टों के बारे में इंटरनेट के जरिये साड़ी दुनिया को अवगत कराएं।  इंटरनेट पर पर्यटन वृद्धिकारक साहित्य पोस्टिकरण से यह सम्भव है।
    भारत में किसी भी स्थल प्रसिद्धि हेतु मुख्य चौषठ कलाओं को आधार माना गया है (शुक्रनीति, काम शास्त्र आदि )  . अतः लेखकों /पत्रकारों को उत्तराखंड की इन कलाओं को इंटरनेट माध्यम से प्रसिद्धि दिलाना आवश्यक है। 
         
               

Copyright @ Bhishma Kukreti  25 /2 //2018 



Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3, pages 136-150
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड  में   डम्फू , घुंगरी, रसभरी    मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of    as  Ground berries or Rasbhari   Spices ,  in Uttarakhand
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -    5                                           
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -  5                     
  उत्तराखंड में कृषि, मसाला ,  खान -पान -भोजन का इतिहास --  94
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -94

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Physalis divaricata
निकटस्त वनस्पति -Physalis indica , Physalis minima
सामन्य अंग्रेजी नाम - Ground Berries

उत्तराखंडी नाम -डम्फू , घुंगरी
  डम्फू एक बरसात में विकसित होने वाली 35 00 फ़ीट से अधिक  ऊंचाई वाली डेढ़ फुट ऊँची वनस्पति है जिसके फल नवंबर में आने शुरू हो जाते हैं   और फरवरी तक रहते हैं। घास के साथ धूप वाली साइड में होते हैं। रसभरी के फल सेपल्स के अंदर बंद रहते हैं और जब सेपल्स  कड़क पीला या भूरा हो जाता तो समझा जाता है कि डम्फू पक गया है।  पका फल लालिमा लिए पीला होता है।
     इस वनस्पति पर उत्तराखंड में कम ही वनस्पति वैज्ञानिकों का ध्यान गया है।
  औषधि उपयोग -
इस लेखक को डा आर डी  गौड़ , ज्योत्सना शर्मा व पैन्यूली के लेख मिले हैं जिसमें उन्होंने इस वनस्पति का स्थानीय लोगों द्वारा पीलिया , पेट दर्द में उपयोग की सूचना दी है।  रसभरी का पेशाब बीमारी व गुर्दा बीमारियों में भी उपयोग होता है।

    रसभरी /डम्फू का फल उपयोग

 डम्फू को जंगली फल के रूप में उपयोग होता है।   इस लेखक के क्षेत्र में मान्यता है कि हरे फल विषैले होते हैं।     पके फल का स्वाद कुछ विशेष खट्टा किन्तु मीठा होता है।   फल अधिक मात्रा में खाने से मनुष्य को नींद आने लगती है। इस लेखक को अपना व अन्य को देखकर अनुभव है कि अधिक खाने से नींद आने लगती है और इच्छा होती है जहां है वंही सो जाया जाय।
     इसी से मिलता जुलता एक अन्य वनस्पति है जो दो हजार फ़ीट से कम की ऊंचाई पर उगता है , फल छोटे होते हैं और उसे बिसैला माना जाता है।  बचपन से ही हमें ऐसा सिखाया जाता था  कि हम इस पौधे के फल  बिलकुल नहीं चखते हैं।

     डम्फू का चटनी उपयोग
  सन उन्नीस सौ साठ से पहले डम्फू का उपयोग चटनी बनाने में भी होता था।  पके डम्फू फल को मिर्च व नमक के साथ पीसा जाता था और रोटी के साथ डम्फू चटनी  खायी जाती थी ।



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Notes on History of Culinary, Gastronomy, Spices  in Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy , Spices in Pithoragarh Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy,  Spices in Doti Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Dwarhat, Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy,  Spices in Pithoragarh Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Champawat Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Nainital Uttarakhand;History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Almora, Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Bageshwar Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Udham Singh Nagar Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Chamoli Garhwal Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy, Spices  in Rudraprayag, Garhwal Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Pauri Garhwal, Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy in Dehradun Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices   in Tehri Garhwal  Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy,  Spices in Uttarakhand Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Haridwar Uttarakhand;

 ( उत्तराखंड में कृषि,  मसाला ,  व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )


Bhishma Kukreti

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इंटरनेट माध्यम के  उत्तराखंड पर्यटन वृधिकारक कुछ लेखक-पत्रकार 


(  शुंग कण्व काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -25

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 Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  25                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--130 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 130   

 

    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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इंटरनेट माध्यम के  उत्तराखंड पर्यटन वृधिकारक कुछ लेखक-पत्रकार 

 

    उत्तराखंड वास्तव में लेखकों व पत्रकारों की खान है . उत्तराखंड विशेष रूप से पहाड़ों में इतनी कम जनसंख्या के बाबजूद सानुपातिक हिसाब से पत्रकार व लेखक  अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक हैं .अधिक ल्र्ख्क –पत्रकार स्तिथि वास्तव में उत्तराखंड प्रयत्न हेतु सकारात्मक स्तिथि है .

                 उत्तराखंड पर्यटन हेतु सबसे अधिक कार्य प्रचार –प्रसार व जन सम्पर्क का होता है कि अन्य क्षेत्रों के पर्यटकों को उत्तराखंड के बारे में सूचना ही न मिले अपितु परोक्ष व अपरोक्ष रूप से पर्यटकों को प्रेरित भी किया जाय . फेसबुक में मेरे कुछ निम्न पत्रकार लेखक Friends उत्तराखंड पर्यटन को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से लाभ पंहुचा रहे हैं –

 श्री महिपाल मेहता उर्फ़ ‘माही मेहता ‘ – श्री माही मेहता वास्तव में उत्तराखंड के इनसाइक्लोपीडीया हैं . मेरापहाड़ .कॉम में उन्होंने उत्तराखंड संबंधी हर क्षेत्र की सूचना मुहय्या करवाई है और उत्तराखंड पर्यटन संबंधी साहित्य को नया आयाम दिया है . यदि कोई पर्यटक उत्तराखंड के बारे में जानना चाहता है तो उसे मेरा पहाड़ .कौम में बहुत कुछ वांछित सूचना मिल जाती है .

 श्री डी ऐन बडोला – कई सालों से  श्री डी ऐन बडोला  मेरापहाड़.कौम में लगातार रानीखेत के बारे में अंग्रेजी में लिखते थे . उनकी पाठक संख्या व नियमित पाठक संख्या भी काफी  अच्छी है . स्थान छवि करण का सराहनीय उदाहरण है श्री बडोला जी  . मेरी उनसे सदा प्रार्थना रहती है कि वे फेसबुक में भी रानीखेत साहित्य पोस्ट करें .

श्री विनोद गडरिया – श्री मेहता की भाँती श्री गडरिया ने भी उत्तराखंड विषयक सैकड़ों सूचनाएं मेरा पहाड़ .कौम में दीं हैं .

श्री हेम पन्त – हेम पन्त अधिकतर कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहरों की सूचना मेरा पहाड़ ,कौम में देते हैं और उत्तराखंड पर्यटन को उर्जावान बनाते  हैं .

श्रीमती हेमा उनियाल – श्रीमती हेमा उनियाल सोसल मीडिया छोड़कर इंटरनेट पर कम दिखतीं हैं किन्तु श्रीमती उनियाल की दो पुस्तकें ‘केदारखंड ‘ व ‘मानसखंड ‘ धार्मिक पर्यटन साहित्य में अद्वितीय साहित्य है . सोसल मीडिया में भी श्रीमती हेमा जहां जातीं हैं  वहां की सांस्कृतिक –ऐतिहासिक सूचना देकर पाठकों को पर्यटन हेतु प्रेरित करती हैं .

 

श्री मनोज इष्टवाल -  श्री मनोज इष्टवाल कई प्रकार के धार्मिक स्थलों , सांस्कृतिक व सामाजिक स्थलों की सूचना पारम्परिक व इंटरनेट माध्यम से देकर उत्तराखंड पर्यटन को लाभ पंहुचाने में सफल हैं . मनोज इष्टवाल की वेब साईट हिमालय डिस्कवर भी उत्तराखंड पर्यटन की सहभागी बनने में सकारात्मक भूमिका निभा रहा है . श्री मनोज की लेखमाला  श्रृंखला ‘विलोम पलायन ‘ आंतरिक पर्यटन वर्धक है .

श्री धर्मेन्द्र पन्त – श्री धर्मेन्द्र पन्त यद्यपि खेल पत्रकार हैं तथापि उनके कई लेख उत्तराखंड पर्यटन सहभागी हैं . उनकी वेब साईट भी पर्यटन वर्धक साईट है .

श्री दिनेश कंडवाल – उनकी पत्रिका देहरादून डिस्कवर तो पर्यटन वर्धक पत्रिका है ही . सोसल मीडिया में उनके पशु –पक्षी –वनस्पति –स्थान चित्र वास्तव में आंतरिक पर्यटन वर्धक सिद्ध होते हैं . श्री दिनेश कंडवाल यदि इन चित्रों को संगठित रूप से साथ में अंग्रेजी में टिप्पणी देकर इंटरनेट में प्रकाशित करेंगे तो उत्तराखंड को वाह्य प्रयत्न विकास में सहयोग मिलेगा .

श्री वेदउनियाल – श्री वेद उनियाल की ‘हिमालयी आपदा ‘ पुस्तक वास्तव में पर्यटन सहभागी पुस्तक है .

श्री सुनील नेगी – उनके अंग्रेजी लेख उत्तराखंड पर्यटन हेतु आवश्यक अवयव हैं . श्री सुनील नेगी द्वारा श्री वेद उनुयल की पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद एक मील का पत्थर है जो अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों प्रेरित करने हेतु कामयाब पुस्तक है .

रमाकांत बेंजवाल - रमाकांत बेंजवाल की पुस्तक 'गढ़वाल हिमालय ' उत्तराखंड पर्यटन हेतु एक सम्बल है।

श्री कमल जखमोला – यायावारी संस्मरण वास्तव में यात्रा विकास उद्यम की रीढ़ की हड्डी होती हैं . सोसल मीडिया में श्री कमल जखमोला का यात्रा वृत्तांत वास्तव में आंतरिक पर्यटन  वृद्धि कारक लेख हैं . श्री जखमोला को इन लेखों को संगठित रूप से चित्रों के साथ मेरा पहाड़ जैसी वेब साईट में प्रकाशित करवाना चाहिए .

श्री रतन सिंह असवाल – श्री रतन सिंह असवाल द्वारा कई यात्राओं की चित्रात्मक आलेख आंतरिक पर्यटन को ऊर्जा देते हैं . विलोम पलायन संबंधी कई सूचनाएं आंतरिक पर्यटन को बढ़ावा देते हैं . असवाल स्यूं के एक मिर्चोड़ा गाँव को उन्होंने प्रसिद्ध करवा दिया यह एक उदाहरण है कि किस तरह प्लेस ब्रैंडिंग की जाती है .

इस कोंसेप्ट को टूरिज्म ब्रैंडिंग  में फ़ोकस ऑन ए पार्टिकुलर प्लेस कहते हैं . याने यदि किसी स्थान को बार बार सूचना पटल पर लाया जाय तो वह  विशेस स्थान बन जाता है . श्री दिनेश कंडवाल द्वारा साइकल वाडी –किम्सार की सूचना देकर उदयपुर पट्टी को प्रसिद्धि दिला रहे हैं .

श्री सतेश्वर प्रसाद जोशी – श्री सतेश्वर प्रसाद जोशी द्वारा बार बार थल नदी क्षेत्र के गेंद मेले की सूचना देकर स्थान छविकरण का अच्छा उदाहरण दिया है .

  असंगठित रूप से सोसल मीडिया में श्री नरेंद्र गौनियाल द्वारा धूमाकोट की सूचनाएं देना, श्री रूप चंद जखमोला द्वारा ढांगू की सूचनाएं पोस्ट करना , श्री नवीन  कंडवाल द्वारा योग केंद्र , श्री नरेश उनियाल द्वारा राठ, देवेश आदमी की रीठाखाल की सूचनाएं वास्तव में प्लेस ब्रैंडिंग के उदाहरण हैं .  फेसबुक में श्री सतीस कुकरेती द्वारा द्वारीखाल ब्लौक के धार्मिक स्थान ग्रुप वास्तव में प्लेस ब्रैंडिंग का प्रशंसनीय प्रयास है .

 

 

उत्तराखंड में पर्यटन पत्रकारों –लेखकों की भूमिका जारी रहेगी   ....






Copyright @ Bhishma Kukreti  26 /2 //2018   




Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...


उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;     

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उत्तराखंड  में      बनफ्सा मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of  Banfsa , Himalayan  white violet   as   Spices ,  in Uttarakhand
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  6                                             
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand - 6                       
  उत्तराखंड में कृषि, मसाला ,  खान -पान -भोजन का इतिहास --  95
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -95

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Viola serpens, Viola canescens
सामन्य अंग्रेजी नाम - Banfsa , Himalayan  white violet
संस्कृत नाम -बनप्सा
हिंदी नाम - बनफ्सा
नेपाली नाम -घट्टेघांस
हिमाचल -गुगलु फूल , बनफ्सा , बनाक्षा
उत्तराखंडी नाम - बनफ्सा ,
बनफ्सा भूमि पर फैलने वाला बहुवर्षीय पौधा है जिसके बैंगनी , सफेद व नीले फूल होते है।  पाकिस्तान से उत्तर पूर्व के हिमालय में 1600 -2000 मीटर   ऊंचाई में पैदा होता है।
जन्मस्थल संबंधी सूचना - Viola की दो एक जातियों का जन्म हिमालय है
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन -   संहिताओं में बनफ्सा का नाम नहीं है किन्तु आदर्श निघण्टु व सिद्ध भेषज मणिमाला में बनफ्सा व इसके उपयोग का वर्णन मिलता है।  सिद्ध भेषज मणिमाला में तो कथा भी मिलती है। भावप्रकाश निघंटु  में बनफ्सा को परसिष्ट  भाग में जोड़ा गया है।

       औषधि उपयोग

इसे गरम तासीर का पौधा माना जाता है।  कफ , शर्दी , जुकाम , बुखार , मलेरिया बुखार , बदहजमी निर्मूल हेतु  काम आता है।

                चाय मसाला

   फूल के सुक्सा को गढ़वाल में जाड़ों के दिनों में कम मात्रा में चाय में डाला जाता था- विशेषकर जब तापमान गिर जाता था या बर्फ पड़ी हो। लोककथ्य   है कि बनफ्सा को चाय में पीने से बर्फ में भी पसीना आ जाता है। काफी ठंडियों के दिनों में कभी उड़द की दाल में भी बनफ्सा के बहुत कम मात्रा में सूखे फूल डाल दिए जाते थे।

  वैज्ञानिकों का मत है अति दोहन से कई प्रजातियां खतरे में पड़ गयी हैं। 
 



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Notes on History of Culinary, Gastronomy, Spices  in Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy , Spices in Pithoragarh Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy,  Spices in Doti Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Dwarhat, Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy,  Spices in Pithoragarh Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Champawat Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Nainital Uttarakhand;History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Almora, Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Bageshwar Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Udham Singh Nagar Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Chamoli Garhwal Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy, Spices  in Rudraprayag, Garhwal Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Pauri Garhwal, Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy in Dehradun Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices   in Tehri Garhwal  Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy,  Spices in Uttarakhand Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Haridwar Uttarakhand;

 ( उत्तराखंड में कृषि,  मसाला ,  व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )


Bhishma Kukreti

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सिक्कों के आगमन से पर्यटन में नई संस्कृति व देवप्रयाग के तीर्थ यात्री


(  यवन , कुणिंद , शक  व कुशाण  काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
 Uttarakhand Medical Tourism in Bactrian  Greece to Kushan Periods  -


उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -26-


   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  26                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--131 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 131   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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     शुंग काल से मुद्रा प्रचलन बढ़ गया था।  वास्तव में छोटे -बड़े शासक मुद्रा निर्माण अपनी सिक्की व दिखाने हेतु करते थे कि उनका नाम बढ़ता जाय व साथ में सिक्के विनियम के माध्यम भी थे।  उत्तराखंड के श्रुघ्न व अल्मोड़ा के कुणिंद राजाओं ( 232 BC -20 AD ) के सिक्के भाभरी  क्षेत्र व पहाड़ों में मिलने , शक -पहलवियों  (200 BCE -400 ADE ) के सिक्के व मैदानी उत्तराखंड पर अधिकार  , कुशाण राजा का अधिकार (घृषमैन, ईरान  ) सिद्ध करते हैं कि उत्तराखंड में सिक्कों का निर्यात -आयात व्यापार में प्रचलन शुरू हो गया था।  इस काल में पहाड़ी उत्तराखंड इतिहास पर सामग्री उपलब्ध नहीं है तो इतिहासकारों को  मैदानी भाग में उपलब्ध सामग्री से ही काम चलाना होता है।
      घृषमैन के अनुसार कुशाण वंशी विम ने दक्षिण उत्तराखंड पर अधिकार कर लिया था।  कनिंघम के अनुसार उसने हरिद्वार में एक सुदृढ़ किला बनाया था जिसके अवशेष 1867 तक शेष थे।  भाभर क्षेत्र में कुशाण कालीन सिक्के मिलने से भी सिद्ध होता है कि दक्षिण उत्तराखंड पर तो कुशाणों  का अधिकार था। (पुरी , इण्डिया अंडर कुशाणाज़ ).  कनिष्क सबसे अधिक प्रसिद्ध कुशाण शासक सिद्ध हुआ।   कुशाणों के शासन  (30 -375 AD ) से पता चलता है कि कुषाणों का उद्देश्य राज करने का रहा व लूट कर अपनी पैतृक मातृभूमि का भंडार भरना नहीं रहा था।  इसलिए निर्यात व आयात व्यापार में पूर्वकाल  से कमी नहीं आयी।
    कुछ भागों पर कुणिंद  अथवा सबंधियों का राज भी रहा।

                 कुशाण युग में पर्यटनोगामी व्यापारिक केंद्र

      श्रुघ्न , कालसी , बेहट , वीरभद्र , कनखल , ब्रह्मपुर व गोविषाण बड़ी मंडियां थीं व इन  मंडियोन का मथुरा व पाटलिपुत्र मार्ग से सुगमता से जुड़ने के कारण उत्तराखंड में निर्यात -आयात सुगम था। इसके अतिरिक्त  अन्य व्यापारिक केंद्र भी थे (डबराल (उखण्ड का इतिहास -3 , पृ 231 -234 व मुखर्जी , हिस्ट्री ऑफ इंडियन शिपिंग )


                  निर्यातित वस्तुएं
      तिब्बत व उत्तराखंड से शीतकाल में व्यापारी माल लेकर भाभर की उपरोक्त मंडियों में पंहुचते थे और निर्यात की वस्तुएं बेचते थे व उत्तराखंड व तिब्बत की आवश्यकताओं की वस्तुओं खरीदते थे।
    निम्न वस्तुओं का निर्यात होता था -
     तिब्बत का सुहागा , स्वर्णचूर्ण व विभिन्न रत्न व उप रत्न की सबसे अधिक मांग थी जो ब्रिटिश काल तक बनी रही।
     तिब्बत से आयातित लैपिसलजूली , मरगज , स्फटिक , अफीक , संग अजूबा , संगीशत्व , संगसुलैमानी व उत्तराखंड की जिप्सम , सेलखड़ी , अलावस्टर।  स्वर्णमक्षिका , अनेक प्रकार के रंगीन पत्थर।
              ऊनी व खाल वस्त्र निर्यात
 उत्तराखंड के व्यापारी तिब्बत व उत्तराखंड के बहुमूल्य समूर खाल , ऊनी वस्त्र , उन से बनी कई वस्तुएं भाभर प्रदेश ले जाते थे व बेचते थे।  रोम व यूनान में इन वस्तुओं को खरीदने हेतु धनिकों में होड़ लगी रहती थी व उत्तराखंड एक ब्रैंड था। भारत में भी इन वस्तुओं की भारी खपत थी (मोतीचंद्र , भारतीय वेशभूषा ) .
      साधुओं के आसन , तंत्र -मंत्र प्रयोजन , घर व रथ  भागों को ढकने हेतु बाघ , हिरण   की खालें निरीटात होतीं थीं (डबराल , उखण्ड के भोटान्तिक पृ 29   )

              बनैले पशु अंग व मेडिकल टूरिज्म
       सजावट ही नहीं अपितु रंग रोगन , औषधि हेतु कई उत्तराखंडी पशुओं के अंगों की मांग अन्यत्र व पश्चिम देशों में बराबर रही है।  तिब्बत व पहाड़ों से बनैले पशुओं की खाल , अंग भष्म , अंग सुक्सा जैसे हड्डियों का चूरा , सींग व सींग चूरा आदि का निर्यात भी खूब था

        भोटिया कुत्तों की मांग

  भोटिया कुत्तों की मांग बाह्य देशों के व भारत के धनिकों में खूब थी।  भोटिया कुत्तों का मालिक होना सम्मान सूचक माध्यम था।  उत्तराखंड से इन कुत्तों का भी निर्यात होता था।
                उपरोक्त निर्यात साफ़ बतलाता है कि उस समय उत्तराखंडियों को बनैले व घरेलू पशुओं के प्रजनन से लेकर उनके स्वास्थ्य व अंग प्रयोग का पूरा ज्ञान था और वे इस ज्ञान  को व्यापारियों द्वारा सदूर अन्य क्षेत्रों में पँहुचाते थे।  प्रोडक्ट नॉलेज , प्रोडक्ट निर्माण ज्ञान के बगैर निर्यात नहीं होता है।
   
          मौर्य काल के बाद    उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म के स्तम्भ
   हिमालयी जड़ी बूटियों के मांग भारत व अन्य देशों में काल से ही रही है।

     वैद्य व किरातों की भागीदारी

     अत्रिदेव ' आयुर्वेद के इतिहास' (पृ -79 ) में लिखते हैं कि चरक आदि वैद्य हिमालय निवासी किरातों की सहायता लेकर हिमालय की ऊँची श्रेणियों में उपलब्ध जड़ी बूटियों को पहचानते थे व उन्हें प्राप्त करते थे।  इसी तरह अन्य जड़ी भी स्थानीय लोग पहचनते थे व उन्हें उपयोग करने तक साधते भी थे।

              मौर्य काल से कुषाण काल तक जड़ी बुशन का व्यापार
   यूनान व रोम में जटामासी , कुषण बच , मोथा , गुग्गल , कस्तूरी आदि की भारी मांग थी जो उत्तराखंड से भी पूरी होती थी (मुखर्जी , हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृष्ठ 67 )
     अत्रिदेव  आयुर्वेद के इतिहास (133 )  में लिखते हैं कि गंधमादन के मीठाविष , कालकूट विष , हलाहाल , वत्सनाभ , मेष श्रृंगी , संख्या अदि विषों की भारी मांग थी और सोने से भी अधिक मंहगे थे।

             मेडिकल टूरिज्म व औषधि निर्माण की प्रक्रिया

      उत्तराखंड से उपरोक्त औषधियां व जड़ी बूटियों के निर्यात साक्ष्य बताते हैं कि उत्तराखंड निवासियों के मध्य जड़ी बूटी पहचानने , उन पौधों का संरक्षण , उन्हें तरीके से उखाड़ने , आवश्यकता पड़ने पर उन जड़ी बूटियों  शोधन उनका  औषधि अवयव परिवर्तन विधि , सुक्सा बनाने की विधि , उनका ग्राहक तक सुरक्षित पंहुचाने का पूरा ज्ञान था।  मेडिकल टूरिज्म के हर अंग व भागिदार अपना कार्य बखूबी करता था।  जब व्यापार होता है तो निर्माता व ट्रेडर्स को वास्तु ज्ञान /प्रोडक्ट नॉलेज व वस्तु उपभोग सभी ज्ञान होने आवश्यक होते हैं।  उपरोक्त साहित्य सिद्ध करते हैं कि उत्तराखंड वासी मेडिकल टूरिज्म सिद्धांत को पूरा अनुसरण करते थे।
   चूँकि उत्तराखंड से औषधि निर्यात होता था तो अवश्य ही वैद्यों व ट्रेडर्सों का उत्तराखंड भ्रमण आवश्यक रहा ही होगा । 
         
        देवप्रयाग के तीर्थ यात्री
 
         देव प्रयाग में रघुनाथ मंदिर के सामने शिलालेख है जो डा छाबड़ा  (एपिग्राफिया इंडिका vol 33 पृ 133 व 135 )  के अनुसार ये शिलालेख 2 से 5 वीं सदी तक हैं व इनमे यात्रियों के नाम खुदे हैं व डा पार्थ सारथि  डबराल इन्हे यात्रियों के नाम नहीं अपितु वंशावली  (पल्ल्व वंश ) की मान्यता देते हैं  ( देव प्रयाग के ब्राह्मी नाम लेख , गढ़वाल की जीवित विभूतियाँ पृ 236  से 240 ) .
     शिलालेख व इन नामों की व्याख्या और  व अन्य विश्लेषणों से पता चलता है कि चंडीघाट से देव प्रयाग तक धार्मिक यात्रा बहुप्रचलित हो गयी थी तथापि  साहसी यात्री  माणा व मानसरोवर की यात्रा भी करते थे। 
              और जहां यात्रा वहां अपने आप यात्रा मार्ग पर चिकित्सा  सुविधाएं भी सुलभ होने  लगती हैं जो आंतरिक   मेडिकल  टूरिज्म को संवारने में उपयोगी सिद्ध होता है। 



Copyright @ Bhishma Kukreti   27/2 //2018 



Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3 कुणिंद , शक , कुशाण काल का इतिहास खंड
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;       



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उत्तराखंड  में   सेमल कलियों का  मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of Dried Kapok, Semal, Dried Red Silk Cotton   Buds   as   Spices ,  in Uttarakhand
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  7                                             
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -  7                     
  उत्तराखंड में कृषि, मसाला ,  खान -पान -भोजन का इतिहास --  96
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -96

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम -Bombax ceiba
सामन्य अंग्रेजी नाम - Red Silk Cotton, Kapok
संस्कृत नाम -शाल्मली
हिंदी नाम - सेमल
उत्तराखंडी नाम - सेमल , सिमुळ
(सब्जी खंड में सूचना दे दी गयीं हैं )

       उत्तराखंड का प्राचीन मसाला

  जब सेमल की सब्जी आम बात थी और मैदानों से सब्जी व मसाले मिलना सोने- गोल्ड खरीदना जैसा था तब सेमल की बंद कलियों को सुखाकर रख दिया जाता था।  फिर जब कभी दाल या फाणु  आदि  को विशेष स्वाद देना हो तो कलियों के सुक्सा को तेल में छौंककर स्वाद बढ़ाया जाता था  . 
   इस लेखक ने अपनी दादी  श्रीमती क्वाँरा देवी (पिता जी की ताई जी ) से सुना था जिन्होंने कभी अपनी सास द्वारा  सुखाया सेमल सुक्सा मसाला प्रयोग किया था। 



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 ( उत्तराखंड में कृषि,  मसाला ,  व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )
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कुणिंद  कालों में नई धार्मिक पर्यटन उपलब्धि


( कुणिंद   काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
 Kartikeya and  Tourism in Kunind Rules

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -27

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  27                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--132 )   


      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 132 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  कुणिंद  अवसान काल  350 ईश्वी माना जाता है  और कुशाण साम्रज्य के बाद फिर से 243 ईश्वी के बाद कुणिंदों  का राज रहा।  माना जाता कि 250 ईश्वी  निकट कुशाण राज समाप्त  गया।  इससे पहले ही 176  ईश्वी से कुणिंद  व अन्य क्षत्रप (वास्तव में राजा किन्तु कुशाण आधीन ) स्वतंत्र होते गए।
    डा डबराल लिखते हैं कि सतलज से पश्चिम के राजा यौधेयों व अन्य संघों से से समझौता हुआ।  दोनों गणों की मुद्राओं के विश्लेषण से भी लगता है कि कुणिंद - यौधेयों के मध्य सहयोग हुआ।

             धार्मिक पर्यटन में एक और उपलब्धि

  शैव्य पंथ विकास व शैव्य साहित्य वर्धन से दक्ष , शिव , उमा -हैमवती का संबंध उत्तराखंड के कनखल व गंधमादन पर्वत से जुड़ गया।  तो स्वयमेव उत्तराखंड  कार्तिकेय व गणेश की जन्मस्थली घोषित हो गयी। कार्तिकेय व परुशराम ने माणा पर्वत /क्रौंचरन्ध्र पार किया था।   यौधेयों  की  मुद्राओं में षडानन कार्तिकेय, कार्तिकेय , षष्ठी -कार्तिकेयानी , शूल , व शिव चित्रांकित हैं, जिनका बाद में कुणिंद  शाशकों ने अनुशरण किया और अपनी  मुद्राओं में कार्तिकेय व शिव को स्थान दिया।

             कौंचद्वार  (माणा ) के पदतल  में कार्तिकेय नगर बसा था अष्टाध्यायी आदि साहित्य में कत्रि , प्रयागप्रशस्ति लेख में कर्तृपुर , पूर्व व कत्यूरी नरेशों साहित्य में इसे कार्तिकेयपुर नाम दिया गया है।

       कुणिंदों के विभिन्न कालों  की यह धार्मिक उपलब्धि उत्तराखंड के लिए आज भी एक विशेष उपलब्धि मानी जाती है। भारत में  शैव्य पंथ (  शिव ,नंदी , उमा , गणेश , कार्तिकेय )फैलता गया और उत्तराखंड का नाम धार्मिक स्थलों में और भी प्रसिद्ध होता गया।  शिव की प्रसिद्धि याने उत्तराखंड की प्रसिद्धि।  कार्तिकेय दक्षिण में मुरुगन, सुब्रमणियम नाम से प्रसिद्ध हुए तो भी उत्तराखंड केंद्र में ही रहा।  महाराष्ट्र में गणेश गणपति नाम से प्रसिद्ध हुए तो भी उत्तराखंड केंद्र में रहा।

कुशाण राजा हुविष्का , कुणिंदों  व यौधेयों की मुद्राओं में कार्तिकेय -शिव चित्रांकन ने भी उत्तराखंड को और भी प्रसिद्ध किया।

  पांचवीं सदी के हरियाणा कार्तिकेय मंदिर ने भी उत्तराखंड प्रसिद्धि में योगदान दिया ही होगा।


        दक्षिण में कार्तिकेय या मुरुगन


       महाभारत व स्कन्द पुराण ने कार्तिकेय को दक्षिण में प्रसिद्ध किया।

      आंध्र के नागार्जुन घाटी में तीसरी चौथी सदी के प्राचीनतम चार कार्तिकेय मंदिर  (एक देवसेना ) भी द्योतक है कि कार्तिकेय देव स्थापना से उत्तराखंड को लाभ पंहुचा।

  चालुक्य राजाों  के आराध्य कार्तिकेय ही थे। 

       मध्ययुगीन तमिल  साहित्य के अंतर्गत नक्कीरार रचित 'तिरुमुरुगत्रपदार ' व अरुणागिरी नटार रचित 'तिरुप्पुगज:' जैसे साहित्य ने दक्षिण में उत्तराखंड  की धार्मिक स्थल प्रसिद्धि को और आगे बढ़ाया। 

 

 तमिल समाज में कार्तिकेय की प्रथम पत्नी देवसेना (तेवयानी ) व द्वितीय पत्नी 'वाली' देवी रूप में प्रसिद्ध होने से भी उत्तराखंड धार्मिक स्थल को बल मिला। 

           डा हरिप्रिया रंगराजन ने कार्तिकेय से मुरुगन बनने की प्रक्रिया पर गहन शोध किया है ( Images of Skanda-Kartikeya-Murugan : An Iconographic Study) । 


Copyright @ Bhishma Kukreti   28/2 //2018 



Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3 पृ 240  -265
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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उत्तराखंड  में  काला जीरा /शाही जीरा     मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of Caraway  /kala jira   as   Spices ,  in Uttarakhand
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -   8                                             
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand - 8                       
 उत्तराखंड में कृषि, मसाला ,  खान -पान -भोजन का इतिहास --   97
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -97

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Carum carvi
सामन्य अंग्रेजी नाम - Caraway
हिंदी नाम - शिया जीरा , काला जीरा
संस्कृत नाम -कृष्णजीरिका ,कारवी
उत्तराखंडी नाम - शिया जीरा , काल जीरा , शाही जीरा , शिंगु जीरा
जन्मस्थल संबंधी सूचना - पश्चिम एशिया , उत्तरी अफ्रीका व यूरोप कला जीरे के जन्मस्थल माना जाता है।  उत्तराखंड में ऊपरी पहाड़ियों में  2700 -3600 मीटर  की ऊंचाई वाले  जंगलों में पाया जाता है और अब इस पौधे की खेती भी होती है।
काला जीरे का पौधा गाजर के पौधे जैसा ही होता है।
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन -
 काला जीरा पाषाण युग से ही उपयोग में आता रहा है। दवाई के रूप में 5000  सालों से काला जीरा उपयोग में है।  दक्षिण यूरोप में फोजिल्स में काला जीरा मिला है। आयुर्वेद में कार्वी  प्राथमिक काल से उपयोग होता आ रहा है।  अरब में यह शताब्दियों से दवाई व मसाले के रूप में उपयोग होता रहा है।  लोककथाओं में कहा जाता है कि यूनानी डाक्टर ने नीरो को शाही  जीरा उपयोग की सलाह दी थी।
 
 जीरा व काला जीरे में अंतर

  कला जीरा आम जीरे से कुछ छोटा होता है और काला तो होता ही है स्वाद में भी अलग होता है। आम जीरे की सुगंध तीब्र -गरम होती है।
 
  औषधि उपयोग
कला जीरा या शाही जीरा के अंगों का कई बीमारियों  जैसे हुक्क्रम कृमि , गैस , कफ , कोलेस्ट्रॉल , , दस्त , त्वचा , सांस की दुर्गंध , माहवारी के उपचार हेतु दवाई में या सीधा उपयोग होता है
काला जीरा या शाही जीरे का निकला  जाता है जो कई उद्यम में काम आता है।

    काला जीरे या शाही जीरे का मसाले रूप में उपयोग
पत्तियां व जीरा बीज पीसकर मसाले के रूप में उपयोग होता है।  बीजों को छुनका लगाने का भी काम आता है।  चूँकि  काला जीरा सौंफ का भाई है तो स्वाद उतना तीखा या कडुआ नहीं मिलता जितना आम जीरे का।




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 ( उत्तराखंड में कृषि,  मसाला ,  व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )


Bhishma Kukreti

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दक्षिण के कार्तिकेय मदिर और प्रवासियों द्वारा स्थापित बद्रीनाथ मंदिरों का महत्व
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( कुणिंद काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
  (Medical Tourism in Kuninda /Kulinda Period)
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -28

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  ( Tourism History  )     -  28                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--133 )   
      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 133 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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    शैव्य पंथ आने से शिव , पार्वती , दक्ष , हिमालय , गणेश , कार्तिकेय , गण , नंदी आदि भारतीयों के आराध्य बने।  शिव उत्तराखंड हिमालय वासी  थे और  विभिन्न पुराणों व मान्यताओं अनुसार गणेश व कार्तिकेय का जन्म उत्तराखंड में हुआ। ज्यों ज्यों ये सभी मान्यताएं प्रसारित होती गयीं त्यों त्यों भारतीयों के मन में धार्मिक उत्ताराखंड हह्वी गहराती गयी ।  ज्यों ज्यों शिव संबंधी मंदिर बनते गए त्यों त्यों धार्मिक उत्तराखंड की छवि वर्धन होता गया।  शिव पूजा वास्तव में उत्तराखंड छविकरण का ब्रैंड अम्बैसेडर बनता गया।  आज भी शिव उत्तराखंड हिमालय निवासी ही माने जाते हैं।

             कार्तिकेय मंदिर

पिछले अध्याय में बताया गया कि किस तरह स्कन्द पुराण की शुरवाती विचार ने कार्तिकेय को आराध्य बनाया और राज  मुद्राओं में कार्तिकेय मुख्य देव बने व कार्तिकेय दक्षिण में आराध्य बन गए।  कार्तिकेय (मुरुगन , सुब्रमणियम ) के दक्षिण में आराध्य बनने से मंदिर बनने लगे और उत्तराखंड धार्मिक पर्यटन को एक नया ब्रैंड अम्बैसेडर मिल गया।

            आधुनिक काल में   प्रवासियों द्वारा बद्रीनाथ मंदिर निर्माण

  आधुनिक युग में भी यह रिलिजियस टूरिज्म ब्रैंडिंग कार्य हो ही रहा है।  उत्तराखंड प्रवासी अपनी मातृभूमि को भूल नहीं सकते और मातृभूमि ऋण चुकाने कई अभिनव कार्य करते जाते हैं।  प्रवासियों द्वारा बिभिन्न श्रोण में बद्रीनाथ मंदिर बनना भी एक अभिनव व प्रशंसनीय कार्य है।
    भारत राजधानी दिल्ली में बद्रीनाथ मंदिर है जो दिल्ली वासियों को उत्तराखंड की याद दिलाता रहता है और दिल्ली वासियों को उत्तराखंड पर्यटन हेतु प्रेरित करता रहता है।
     महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे /पूना में श्री जगदीश प्रसाद बहगुणा आदि प्रवासियों के अथक प्रयत्न से बद्रीनाथ मंदिर स्थापित किया गया है। पुणे का बदरनाथ मंदिर में महाराष्ट्र से यात्री दर्शन करने जाते हैं और पुणे का बद्रीनाथ मंदिर धार्मिक उत्तराखंड का ब्रैंड अम्बैसेडर कार्य बखूबी निभा रहा है।
    मुंबई के उपनगर वसई में बद्रीनाथ मंदिर निर्माण कार्य जोरों पर है।  उत्तराखंड वसई मित्र मंडल के सदस्यों की जितनी प्रशसा की जाय कम है।  निर्माण कार्य में ही कुछ सालों से मित्र मंडल प्रति वर्ष भागवत पूजा व भंडारा करते हैं और धार्मिक उत्तराखंड नाम को प्रसारित करते रहते हैं।  गैर उत्तराखंडी भी बद्रीनाथ मंदिर निर्माण में बड़े जोर शोर से भाग ले रहे हैं।  बद्रीनाथ मंदिर वसई बिभिन्न समुदायों को उत्तराखंड जाने के लिए प्रेरणा स्रोत्र बनता जा रहा है। लेखक के मित्र दसौनी जी , नैलवाल जी , नेगी जी , पांडे जी , जखवाल जी , बिष्ट जी , रावत जी आदि का कार्य प्रसंसनीय है।
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       उत्तराखंड से बाहर बद्रीनाथ मंदिरों  का महत्व

     उत्तराखंड से बाहर बद्रीनाथ मंदिरों के कई महत्व हैं।
   प्रवास में जन्मे पीला प्रवासी यवाओं को उत्तराखंड से जोड़े रखने का सबसे कठिन कार्य ये मंदिर करते हैं।
  बद्रीनाथ जैसे मंदिर उत्तराखंड के धार्मिक व सांस्कृतिक विरासत के जीते जागते उदाहरण रूप में गैर उत्तराखंडियों के मन में उत्तराखंड की छवि बरकरार रखते हैं।
   बद्रीनाथ मंदिर सभी को उत्तराखंड भ्रमण की प्रेरणा देते रहते हैं।

           हर मंदिर  में उत्तराखंड प्रदर्शनी केंद्र

  मेरी राय में प्रत्येक ऐसे मंदिर में उत्तराखंड साहित्य व् अन्य वस्तुओं का सग्रहालय समय की मांग है। 


Copyright @ Bhishma Kukreti   1/3 //2018 



Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3
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उत्तराखंड  में    भंगजीरा , भंगीरा   मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of Perilla    as   Spices ,  in Uttarakhand
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  9                                             
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -  9                       
 उत्तराखंड में कृषि, मसाला ,  खान -पान -भोजन का इतिहास --   98
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -98

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम -Perilla frutescens
सामन्य अंग्रेजी नाम -Perilla

उत्तराखंडी नाम -भंगजीरा , भंगीरा Bhangjira , Bhangira
नेपाली नाम - सिलाम
भंगजीरा /भंगीरा उत्तराखंड की पहाड़ियों में 500 -1800 मीटर की ऊंचाई वाले स्थानों पर खर पतवार के रूप में भी उगता  कृषि मसालों के रूप में भी उगाया जाता है।  60 -90 सेंटीमीटर ऊँचे पौधे का तना बालयुक्त वर्गाकार होता है और बहुत बार  इस पौधे को तिल  भी समझ बैठते हैं।
जन्मस्थल संबंधी सूचना -चीन या भारतीय हिमालय
   भंगीरा /भंगजीरा का मसाला उपयोग

 भंगजीरे / भंगीरे की पत्तियों को मसालों के साथ पीसकर भोजन को विशेष स्वाद दिया जाता है।
  भंगजीरे /भंगीरे की पत्तियों को नमक व मिर्च के साथ पीसकर चटनी बनाई जाती है।
   भंगीरे /भंगजीरे  के बीजों को मसाले के रूप में अन्य मसालों के साथ मिलाया जाता है।
भंगजीरे।/भंगीरे के बीजों को नमक के साथ पीसकर चटनी बनाई जाती है।
 भंगीरे /भंगजीरे के बीजों को पकोड़े बनाते समय पकोड़ों को स्वाद देने हेतु पकोड़े पीठ /पीठु  के ऊपर छिड़क देते हैं।
 भंगीरे / भंगजीरे बीजों को भूनकर चबाया भी जाता है जैसे भांग के बीज।
 भुने भंगजीरे / भंगीरे के बीजों को बुखण/चबेना  के साथ भी मिलाया जाता है।
 भंगीरे / भंगजीरे के बीजों से तेल निकाला जाता है और खली को मसाले रूप  में मवेशियों को दे दिया जाता है। 


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