Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 725313 times)

Bhishma Kukreti

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पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   , प्रथम खंड    भाग - 6

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ   
-
स एव - पूर्वेषामपि  गुरुः कालेनानवच्छेदात्        । 26  ।    .
वु  ईश्वर पुरखों का बि  गुरु च   अर  समय चक्र से नि बंधे सक्यांद
या काल /समय  से  अपरिवर्तित च।   ।  २६  । 
तस्य वाचक: प्रणव:      । 27  ।     
अर वु  ॐ  से प्रतिनिधित्व हूंद या  ॐ  वैको  प्रतिनिधि च ।   । २७  । 
तज्जपस्तदर्थभावनम्      । 28  ।       
ॐ मंत्र तैं  परमेश्वर की भावना मा  निरंतर अर बार बार दुराण  चयेंद।   । २८  । 
तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोsप्यन्तरायाभावश्च     ।  29 ।   
निरंतर ॐ जाप से   ध्यान  का विघ्न  दूर हून्दन अर  आत्म दर्शन  मा  विशेषता मिल्दी।   । २९  । 
व्याधिस्त्यानसं शयप्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्ध
भूमिकत्वानवस्थितत्वानि  चित्तविक्षेपास्तेsन्तरायाः    ।  30  । 
 यी विघ्न छन - व्याधि , आलस, संदेह , अनवधानता /असावधानी ,
बुद्धि म अनुशासनहीनता , अशुद्ध धारणायें , स्थिरता म घोर हीनता
अर  पुनः पुनः  ध्यान म उखी वापस  पैलाकि  स्थिति म  जाण।    ।  ३०  । 


     
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
योग सूत्र अनुवाद शेष अग्वाड़ी  खंडोंम 


Bhishma Kukreti

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पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   ,    प्रथम खंड    भाग - 7
अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
-
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा  विपेक्षसहभुव: ।31   । 
  दुःख , निराशा, शारीरिक अस्थिरता, अर श्वास -प्रतिश्वास म अनियमितता चित्त विचलित करदन या यूं  स्थिति म चित्त विचलित रौंद  ।  ३१  ।   
-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यास:   । 32  ।     
मथि बतायीं समस्याओं हल च एक ही एकमेव तत्व पर सघन ध्यान करण  । ३२  ।   
-
मैत्रिकरुणामुदितोपेक्षाणां  सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां
भवनाताश्चित्तप्रसादप्रसादनम्    ।33   ।   
सुखी जनों दगड़  दगुड़ , दुखियों पर  करुणा , पुण्यात्माओं से हर्ष, अर पापियों से उपेक्षा (निष्पक्ष भाव ) हूण  से चित्त स्वच्छ ह्वे जांद  । ३३  ।   
(दया अर करुणा मन भेद हूंद, करुणा  आत्म  जन्य च अर  दया अहम जन्य  )
-
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां  वा प्राणस्य   । 34  ।   
अथवा प्राणवायु  तैं  पुनः पुनः   भितर   लीण , भैर लाण अर रुकण से  चित्त स्वच्छ /स्थिर ह्वे  जांद  ।  ३४ ।   
-
विषयवती  वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना  मनसः  स्तिथिनिबन्धनी  । 35  ।   
अथवा विषय वाली (गंध, रूप , रस, शब्द , स्पर्श आदि ) प्रवृतियां चित्त को बांधनण  म  सक्षम ह्वे  जान्दन  ।  ३५ ।   
-
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
योग सूत्र अनुवाद शेष अग्वाड़ी  खंडोंम   


Bhishma Kukreti

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  पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   , प्रथम खंड    भाग - 8

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
-
विशोका वा ज्योतिष्मती  I  36  I 
अथवा शोकरहित प्रकाश वाली वृति उतपन्न ह्वे  जाव त या बि मन स्थिति बंधण  वळ हूंदी  I३६  I 
वीतरागविषयं  वा चित्तम्   I 37 I 
अथवा रागद्वेष रहित महात्माओं कु  शुभचरित्र कु ध्यान करण से बि मन स्थिर ह्वे  जांद  I ३७ I 
स्वप्ननिद्राज्ञानालंबनं  वा  I 38 I 
या स्वप्न सहित या स्वप्नहीनता चेतना की याद करण से बि मन स्थिर हूंद  I ३८  I 
यथाभिमतध्यानाद्वा   I 39 I 
अथवा क्वी इच्छित/अभीष्ट विषय/ वस्तु पर ध्यान लगाण  से बि मन स्थिर ह्वे  जांद  I ३९  I 
परमाणुपरममहत्त्वांतोsस्य   I 40 I     
ध्यान से  बाह्य संसार परमाणु संसार म परिवर्तित ह्वे  जांद अर  साधक तै  असीम शक्ति अनुभव हूंद। याने महाकार से  सूक्ष्मतर  की ओर ऐ जांद अर सूक्ष्मतम  सर्वाधिक शक्तिशाली हूंद  I४०  I
-
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
योग सूत्र अनुवाद शेष अग्वाड़ी  खंडोंम 

Bhishma Kukreti

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  पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   , प्रथम खंड    भाग - 9

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
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क्षीणवृतेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राहेषु तत्स्तदsञ्जना समापति I 41 I
जौंक सौब  भैराक वृति क्षीण ह्वे गे  ह्वावन ु वे साधक कुण - ज्ञात , ज्ञाता , गेय सब एक ह्वे जान्दन अर यु आत्मा च।  या  छाळी ज्योति/आत्मा  जब दिखेंदी/अनुभव हो  तब इ या स्थिति  'सम्प्रज्ञात' समाधी च। 41 ।
शब्दार्थज्ञानविकल्पै: संकीर्णा सवितर्का समापति: ।  42 । 
जख शब्द , अर्थ  अर ज्ञान  अभिन्न ज्ञात हो वो 'स्विर्तक समाधि ' च।   । 42   ।   
स्मृति परिशुद्धौ स्वरूपशून्येवाsर्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का    । 43   ।   
स्मृति क शुद्ध  हूण पर स्वरूप हीन अर्थ मात्र प्रकाश करण वळ चित्त स्थति  इ  निर्विर्तक समाधि  च।  43 ।   
(चित्त = मन, बुद्धि अर अहम )
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्म विषया व्याख्याता   ।44   ।   
याइ  साविर्तक निर्विर्तक समाधि द्वारा  सविचार व निर्विचार समाधि  हूंद  । 44  ।   
सूक्ष्म विषयत्वं चाsलिंगपर्य वसानम   ।  45 ।   
या सूक्ष्तम  विषयता , अलिंग प्रकृति इ चेतना च।  जब सब विषय / प्रतीक एक म  मिल /घुल जांदन तो सब निशानी /प्रतीक समाप्त ह्वे जांद  ार वो शुद्ध स्तिथि म हूंद  ।  ४५    ।   
-
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   यिन
 शेष योग सूत्र अनुवाद  अग्वाड़ी  खंडोंम 


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 पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   ,  भाग -  10 

प्रथम खंड    ४६-५१       

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
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ता तेव सबीज: समाधि: II 46 II
वू सब्या का सबी (मथ्याक ) 'सबीज समाधि ' च .
निर्विचारवैशारयेsध्यात्मप्रसाद: II 47  II
निर्विचार समाधी म उन्नति से शुद्धता आंद . सत्व  /उज्ज्वल उज्यळ निरंतर  बगद अर आत्मा का  आध्यात्म उद्दीपन पैदा हूंद।I ४७     II
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा  II 48II
बुद्धि तब ऋतम्भरा ज्योति  धारण करदी याने योगी बुद्धि ऋतम्भरा  ह्वे जांद  ज्वा वस्तु तै सत्य रूप म दिखदी . I  ४८ I 

श्रुतुनुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् II 49  II
श्रुतु अर अनुमान पर आधारित बुद्धि की अपेक्षा या बुद्धि बिगळीं  हूंद।  किलैकि या विशेष अर्थ वळि  हूंद। ४९  । 

तज्ज: संस्कारोंsब्यसंस्कारप्रतिबंधी II50 II
यीं ऋतम्भरा पज्ञा /ज्ञान  से उतपन्न संस्कार से   दुसर संस्कार  बाधक ह्वे  जान्दन।  ५०  I
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधात्रिर्बीज समाधि : II 51II
आत्मानंद संस्कारों समाप्त /निरोध हूण से ही 'निर्बीज समाधि ' पैदा हूंद (निर्बीज संस्कार ही अंतिम लक्ष्य हूंद ।५१ ।
अब समाधी खंड समाप्त।।     
-
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
 शेष योग सूत्र अनुवाद  अग्वाड़ी  खंडोंम 


Bhishma Kukreti

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  पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   ,  साधना  पाद:    

   भाग -  1 -5 
अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
-
तपः स्वाध्येश्वरप्राणिधानानि  क्रियायोगः  I  2 . 1 I
तप स्वाध्याय अर ईश्वरै शरणागति यि तिन्नी  'क्रियायोग ' च
 समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च  । 2. 2।
या क्रिया योग समाधि क सिद्धि करणवळ अर अविद्या  आदि क्लेशों तै क्षीण /कम करण वळ  हूंद। 
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः  ।2 .3। 
  अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष अर मृत्यु डौर  यी पांच क्लेशदुःख छन।   
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्   ।2 . 4 । 
प्रसुप्त (निष्क्रिय ) ,  शिथिल ,दब्यां अर कार्य प्रवृत  (कार्य म लग्यां ) , अस्मिता , राग , द्वेष , मृत्यु डौर   आदि सब्युं की  ब्वे (जननी ) अविद्या च।
अविद्या =  भौतिक , ज्ञान बस  । 
अनित्याशुचिदुः  खानात्मसु  नित्यशुचि सुखात्म्ख्यातिरविद्या   ।2 . 5 । -
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
 शेष योग सूत्र अनुवाद  अग्वाड़ी  खंडोंम 
पतंजली योग सूत्र गढवाली अनुवाद ; योग संहिता गढवाली  अनुवाद , योग सूत्र का गढवाली अनुवाद

Bhishma Kukreti

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रस व्यख्या  (रस क्या हूंद )

भरत नाट्य  शास्त्र  अध्याय - 6: रस व भाव समीक्षा –भाग 1
गढवाली अनुवाद – भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
-
 प्रणम शिरसा देवी पितामहम्हेश्वरौ।
 नाट्यशास्त्रं  प्रवक्ष्यामि  ब्रह्मणा यदुदा हृतम्।। 1।। 
मि ददा श्री ब्रह्मा अर महेश्वर तैं  सिवा लगैक नाट्य शास्त्र दृढ ब्यूंत से सब्युं समिण रखुल जु ब्रह्मा डरा वेदों से उतपन्न करे ग्ये।   ( भनाशा १ )
===================================
 श्रृंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानका : I
बीभत्साद्भुतसंज्ञौ  चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृता:  (भ . ण.श. अध्याय 6, 15)
स्वांग (नाटक ) मा श्रृंगार, हास्य , करुण, रौद्र , बीभत्स  अर अद्भुत आठ रस हूंदन।  (भ. ना . 6 , 15 )
न हि रसादृते  काश्चिदर्थ:प्रवर्तते। 
तत्रविभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति: । । ( 6 ,31 को पैथराक सूत्र ) 
रस का बिना  कै नाट्यंगका  अर्थ प्रतीति नि  होंदी।  प्रदर्शन  समौ पर  विभाव , अनुभाव अर व्यभिचारी  भावों क मिलण /संयोग से ही  रस जन्मद  (निष्पत्ति हूंद) ।  ( 6 ,31 को पैथराक सूत्र )
भावाभिनयसंबद्धान्स्थायिभावांस्त्था  बुधा:।
 आस्वादयन्ति मनसा  तस्मान्नाट्यरसा: स्मृता:। । ( 6. 33 ) 
 . ये कुण नाट्य रस इलै बुले जान्द किलैकि यु भौत सा प्रकारों भावों , अभिनय-भेदों अर स्थायी भावों से संयुक्त ह्वेका मानसिक आस्वादन दींदन।  ( भनाशा  6. 33 )   
न , भावाहीनोsति रसो न भावो रसवर्जितः  ।
परस्परकृता  सिद्धिस्तयोरभिनये भवेत्  । ।  .(6 , 36 )
बिना भाव का रस नि   हूंद  अर  रस का बिना भाव नि जन्मदन /हूंद। इलै , अभिनय  म यि  एक दुसराक पूरक बणि ही सिद्धि  प्राप्त करदन।  (6 , 36 ) 
तेषामुतपत्तिहेतवश्चत्वारो रसा:।   
त्तद्यथा - श्रृंगारो रौद्रो वीरो बीभत्स  इति।। .
श्रृंगाराद्धि भवेद्धास्यो रौद्राच्च करुणो  रस:।   
विराच्च ैवाद्भुतोत्पतिर्बीभत्साच्च  भयानक:।।  (6 , 39 )
श्रृंगारानुकृतिर्या  तु स हास्यस्तु  प्राक्रिर्तित। 
रौद्रस्यैव  च यत्कर्म  स ज्ञेय: करने रस:। ।  (6 , 40 )
वीरस्यापि  च यत्कर्म सोsद्भुत: परिकीर्तित:।   
बीभत्सदर्शनं  यच्च ज्ञेय: स तु  भयानक:। ।  (6 , 41 )
यूं मधे चार रस  उतपति का मूल बुले गेन।  यी इन छन - श्रृंगार , रौद्र , वीर तथा बीभत्स।  यूं मंगन श्रृंगार रस बबिटेन हास्य , रौद्र से करुण , वीर से अद्भुत अर बीभत्स ब्रिटेन भयानक रस को जन्म ह्वे।  श्रृंगार रस क अनुक्रमण से हास्य रसौ  जनम मने जांद।  जु कार्य  रौद्र युक्त छन ऊं बिटेन  करुण  रसौ  विकास स्वीकार करे ग्ये।  वीरता कारण अद्भुत रस जनम  ह्वे तो बीभत्स दिखण से भयानक रसौ उदय ह्वे। 
शेष  'रसुं  वर्ण' अर रस आदि विषय  अग्वाड़ी भागुं म  . 

   Copyright@ Bhishma Kukreti for interpretation
Garhwali Translation of Bharat Natya Shastra will be continued

Bhishma Kukreti

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ओगळ (कुटु, Buckwheat  )  का लाभ

- प्रस्तुतिकरण - भीष्म कुकरेती
 
पुरण  युग म ओगळ  पहाड़ों क मुख्य खेती इ नि  छे अपितु निर्यात वळ अनाज बि छौ . ओगळ  की भुज्जी , ऑटो से रुट्टी मुख्य भोजन छौ .
अब पहाड़ों म ओगळै   नाम मात्र की खेती हूंद। 
ओगळ/कुटु   एक स्वास्थ्यवर्धक भोजन च।  ओगळ /कुटु  का लाभ इन छन -
कम  कैलोरी , वसामुक्त हूण  से  मधुमेह नियंत्रण  म लाभकारी च।
ओगळ /कुटू  रक्तचाप नियंत्रण म भी लाभकारी च।
ओगळ /कुटु रक्त वायुप्राणी करण / रक्त ऑक्सीकरण का बान लाभकारी।  तो जिकुड़ी कुण लाभकारी।
ओगळ /कुटु से कैंसर भीत/विपद कम अवसर हूंदन। 
ओगळ /कुटु   रक्त ऑक्सीकरण का गुणों  कारण श्वसन रोग /अस्थमा  रोग का अवसर  50 % कम ह्वे जांद।
ओगळ /कुटु पथरी रुकण म लाभकारी हूंद। 
ओगळ /कुटु हड्डियों कुण बि लाभकारी।
स्वस्थ व उज्ज्वल त्वचा कुण  बि लाभकारी। 
ओगळ  /कुटु  से सर्दी  रोग शीघ्र सुधार का वास्ता प्रयोग करे जांद।
  ओगळ  /कुटु   बाळुं कुण  लाभकारी हूंद . 
  ओगळ  /कुटु  मानसिक रोग दूर  करणम व  सहयक हूंद 
  . ओगळ  /कुटु  यकृत रोग  दूर करणम सहायक हूंद। 


Bhishma Kukreti

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श्रृंगार रस व्याख्या
भरत नाट्य  शास्त्र  अध्याय - 6: रस व भाव गढ़वळिम व्याख्या -3

भरत नाट्य शास्त्र आंशिक गढवाली अनुवाद – भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
-
तत्र शृंगारोनाम  एवमेष आचारसिद्धोहृद्योज्ज्वल  वेषात्मकत्वाच्छृंगारो रसः I
स च  स्त्रीपुरुषहेतुक उत्तमयुवप्रकृति:।  शतस्य द्वे  अधिष्ठाने सम्भोगो विप्रलम्भ श्च। 
तत्र सम्भोगस्तावत् 
ऋतुमाल्यानुलेपनालङ्कारेष्टजनविषवरभवनोपभोगोपवनमनानुभवन श्रवणदर्शनक्रीड़ालीलादिभिर्विभावैरुत्पद्यते। ।  (6. 45 पैथरा गद्य ) .
विप्रलम्भकृत: श्रृंगार
वैशिकशास्त्रकारैश्च  दशावस्थोsभिहितः I  ताश्व सामन्यभिनये  वक्ष्याम :।
औत्सुक्यचिंतासमुथ: सापेक्षभावो विप्रलम्भकृत: ।। (6 ,45 पैथरा गद्य )
  श्रृंगार रस -
सिद्ध आचरणों युक्त , उज्ज्वल जिकुड़ेळी (हृदयात्मक ) , ललित वेषधारी   
अनुवाद , व्यख्या सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती मुम्बई हूणो कारण से ये तै श्रृंगार रस बुल्दन।  यु रस श्रेष्ठ (उदात्त ) प्रवृति अर स्वरूप का दगड़ , उत्तम वय (आयु ) का स्त्री -पुरुष मध्य अनुराग से प्रकशित हूंद।  ये म सम्भोग  अर  विपलंभ द्वी अधिष्ठान ( संस्थान , प्रतिष्ठापन ) माने गेन। 
सम्भोग ऋतुओं क मानसिक प्रभाव से , माळाऊं  क सुसेवन , अनुलेप , अलंकरुं प्रयोग अर अपण प्रिय जनुं क संबन्धुं म छ्वीं बत्थ , बिगरैल कूड़ुं उपयोग , सुखदायी पवनक स्पर्श करण, बग्वानुं म घुमण, भली -सुंदर बत्थ सुणण  अर  दिखण, खिलण -विनोद करण जन विभावों से सम्भोग श्रृंगार उतपन्न  हूंद। 
श्रृंगार रसक  एक प्रकार विप्रलम्भ बि हूंद। वैशिक  शास्त्र म यांक दस अवस्थाओं वृत्तांत दियुं च।  यांक विषय म मि  अग्वाड़ी चर्चा करलु। विप्रलम्भ संबंधी भाव उत्सुकता (क्या ह्वाल  क्या नि  ह्वाल मनोस्थिति ) अर चिंता से उतपन्न   हूंदन  बल। 

शेष भाग अग्वाड़ी  अध्यायों मा


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अथ हास्य रसो नाम /   अब हास्य रस

भरत नाट्य  शास्त्र  अध्याय - 6: रस व भाव समीक्षा - 4
गढवाली अनुवाद – भीष्म कुकरेती
-
विपरीतालङ्कारैर्विकृताचाराभिधानवेषैश्च I
विकृतैरर्थविशेषैर्हसतीति रसः स्मृतो हास्य:II   भा ना शा  6. 49 ) 
हास्य रस -
विपरीत वेश भूषा से अफु तैं सज्जित करण से, उल्ट -सीधा आचरण से , उल्टी -सीढ़ी भाषा बुलण से , अर अनर्गल /निरर्थक अर्थ वळ बोल बुलण से उत्पन्न हौंस क कारण ज्वा हौंस उत्पन्न हूंद ,वो हास्य रस हूंद।   
अनुवाद , व्याख्या सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती मुम्बई
भरत नाट्य  शास्त्रौ  शेष  भाग अग्वाड़ी  अध्यायों मा


 

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