Author Topic: Articles By Shri Pooran Chandra Kandpal :श्री पूरन चन्द कांडपाल जी के लेख  (Read 269414 times)

Pooran Chandra Kandpal

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                                                 बिरखांत – २६ : सब कुछ बदलि गो, पर...

      मणि- मणि कै उत्तराखंड में ब्या-बरयातों में कुछ अटपट बदलाव देखण में औंरौ | आब मसचवई, सगुनठेकी, प्यौलपिटार और कयेस सब अदप हैगीं | पंजाबी ढोल में भंगड़ा कि धुन और बैंड में सनिमा क गीतों क कुकाट और शराबि बरेतियों कि धुरचेलि- भिड़च्याप में ब्यौल कि घोड़ि जसी-तसी धकै –धकै बेर ब्या क टैंट तक पुजीं | ब्यौल बिचार घोड़ि में बै उतरि बेर धक्क- मुक्क खाने पसिण में नै बेर बाड़ मुश्किल ल गेट पर पुजूं जां वीक बाट रोकी जांछ एक लाल रिबन क बैरियर ल | ब्यौल द्वारा रिबन काटण क क्ये मतलब छ? उ ब्योलि कैं ब्यवै लिजां हुणी ऐ रौछ या क्वे धरमसाव क उदघाटन करूं हूं ऐरौ ? ब्योलि क दगड़ियाँ द्वारा ब्यौल क स्वागत करण ठीक छ | सबूं है ज्यादै अनाड़िपन त य लागूं कि डबलों कि डिमांड करी जैंछ | यतुक हजार, उतुक हजार ? क्ये लिजी मांगण रया तुम डबल ? शराबि बरेतिय य मौक पर ज़रा ज्यादै ई अफरी जानी और खूब हू – हा क साथ कटाक्ष करनी | कयेक ता पिठ्या कि थाइ और ख्वार धरी गागर (कलश) टोटिल है जांछ और ब्यौल क बाब लै अमोरी जांछ | वीक मुखाड़ में गांठ पड़ि जानी | ह्मूल भाल रिवाज छोड़ि हालीं |  पैली बै ‘मैती’ रिवाज छी जमें ब्या कि याद में एक डाव –बोट रोपी जांछी और उ डाव कि परवरिश क लिजी ब्यौल ब्योलि क दगड़ियाँ कैं थ्वाड़ धन दिछी | आब ‘मैती’ हरैगे, बनड़े हरैगीं और पंजाबी पॉप चलि गो | परिवार में भलेही कै कैं अंग्रेजी झन ओ, पर ब्याक कार्ड अंग्रेजी में छपाई जां रईं | ब्योलि क बिदाई क टैम पर फ़िल्मी निसास (डाड़) लागणी धुन बजाई जां रै | जयमाला में ब्यौल कैं वीक शराबि दगड़ी उठै दिनी ताकि ब्योलि कैं परेशान करी जो | एक भल माहौल कैं पिड़पिडै खराब करी जांछ | कुल मि लै बेर ब्या क रिवाजों पर सनिमा क रंग चढ़िगो | पहाड़ कि भलि संस्कृति टिहरी शहर कि चार डुबिगे | कुमाउनी- गढ़वाली बलाण आब गंवारपन समझी जांछ | पहाड़ में सब रीत-रिवाज बदलि गईं पर बार दिन क क्वड़ नि  बदलें रय | क्वड़ लै बार दिन कि जाग कैं पांच या सात दिन क हुण चैंछ | बार दिन कि छूत (सूतक) पछां या सतां दिन में टड़ी जाण चैंछ | मोबाईल फौन और एस एम एस क दौर चलि रौछ, आब तार-पोस्टमैन क बखत वडैगो | अघिल बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
20.09.2015

Pooran Chandra Kandpal

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 संस्कारी बहू
                                                                           
 सबकी सेवा कर                                                   
 काम से मत डर                                                   
 सुबह जल्दी उठ                                                     
 रात देर से सो                                                       
 बोल मत                                                               
 मुंह खोल मत                                                       
 चुपचाप रो                                                             
 आंसू मत दिखा                                                     
 सिसकी मत सुना                                                 
 सहना सीख                                                           
 न निकले चीख                                                           
 जब सबका
 हुकम बजाएगी
 सेवा टहल लगाएगी
 घर आँगन सजाएगी
 तब संस्कारी बहू कहलाएगी |
        ***
पूरन चन्द्र काण्डपाल
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22.09.2015

Pooran Chandra Kandpal

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                                                          बिरखांत – २७ : ये क्या देख रहे हैं हमारे बच्चे ?

      आजकल हमारे इर्द-गिर्द एक अटपटा-अनसुना विदेशी भाषा का शब्द गूंज रहा है –‘पोर्न’ |  ये पोर्न क्या है ? वर्ष १९८५ में प्रशिक्षण के लिए एक संस्थान में बीकानेर गया था | वहां सहकर्मियों ने पूछा, “क्या तुमने ब्लू फिल्म देखी है ?” मैंने कहा “नहीं” | मैंने ब्लैक-ह्वाइट, ईस्टमैन, फ्यूजीयामा, गेवा कलर की फिल्में तो देखी थी पर ‘ब्लू फिल्म’ नहीं | मैं सोचता था यह कोई विशेष कलर होता होगा | बाद में उनके बताने पर पता चला कि मैं दुनिया से कितना पीछे हूं | दुनिया से पीछे तो मैं आज भी हूं | आज मोबाइल-इंटरनेट का दौर है | बच्चे भी इस भंवर में घुस चुके हैं और बिना घुसे वे दुनिया के साथ दौड़ भी नहीं सकते | एक दिन सायंकाल छै-सात परिचित लड़कों (१५-१६ वर्ष उम्र) का एक समूह एक खड़ी मोटरसाइकिल पर बड़ी तल्लीनता से एक बड़े मोबाइल पर कुछ दृश्य देख रहे थे | मेरे आते ही वे चल पड़े | एक छोटे बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बताया “अंकल ये पोर्न देख रहे थे” | मैंने पूछा, “ये पोर्न क्या होता है ?” कक्षा ७ के इस बच्चे ने मुझे वह सब कुछ बेझिझक बता दिया जिसे मैं यहां लिख नहीं सकता | एक राष्ट्रीय दैनिक में डा. कुमुदिनी पति के एक लेख के अनुसार, चार सौ लकड़ों में से ७०% ने बताया कि वे दस वर्ष की उम्र से ‘पोर्न’ देखने लगे थे और ९३% ने कहा कि पोर्न की लत नशीली दवाओं की तरह है |  हाल ही में एक जनहित याचिका में सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर चिंता जताई और सरकार ने ८५७ वेवसाईटो को बंद करने का निर्देश दिया | शीघ्र ही कुछ लोग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश बताने लगे |  आज हमारी मीडिया में ‘ऐड’ आता है ‘मसालेदार चटपटी बातें लड़की से करें’ | नेटवर्क वाले खूब कमाई कर रहे हैं परन्तु बच्चे और युवा बरबाद हो रहे हैं | हमने अपने बच्चों को नेट-मोबाइल-डोंगल सब कुछ दे दिया है | बच्चे अकेले में क्या देख रहे हैं ? क्या ‘सैंड’ कर रहे हैं ? कहां से ‘रिचार्ज’ का पैसा आ रहा है ? इन सवालों के जवाब अभिभावकों के पास नहीं है | बस सभी से इतनी सी अपील है कि बच्चों पर नजर रखें, अठारह वर्ष से छोटे बच्चों को मोबाइल (मजबूरी के सिवाय) नहीं दें, घर के कंप्यूटर पर बच्चों को अपने सामने बैठाएं, कम्प्यूटर कक्ष का दरवाजा खुला रखें | बच्चों के दोस्तों को भी पहचानें | उनकी बातचीत, हरकत, शिष्टाचार और पढाई के गिरते स्तर पर भी नजर रखें | खेलने के बहाने प्रतिदिन वह कितने घंटे घर से बाहर रहता है और रात को कितनी देर में घर आता है इस बात को जरूर नोट करें | समय रहते सजग रहें | हमारी सजगता अपनी अगली पीढ़ी को बरबादी से बचा सकती है | ‘का वर्षा जब कृषी सुखाने’ | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
23.09.2015

Pooran Chandra Kandpal

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                                                          दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै : अहा रे ! कुर्सी में बैठी बापसैपो !

       आज क युग में वैद करण में लोग देर नि लगून पर निभूण कि बात छोड़ो, वैद लै भुलि जानी | एक हजार है ज्यादै वर्ष पुराणी कुमाउनी-गढ़वाली भाषा जो कभैं कत्यूरी और चंद राजाओं की राजकाज कि  भाषा छी, गोरखा आक्रमण क दौर में ख़तम हैगे | रचनाकार अघिल आईं और भाषा कैं दुबार पनपा | द्वि दशक पैली कुछ मित्रों ल कौ, ‘आपूं हिन्दी में त लेखैं रौछा पर कुमाउनी मरैं रै, यकैं लै ज्यौन धरो |’ मी ल कोशिश करी और कुमाउनी कि  कुछ विधाओं में आठ किताब लेखीं | द्वि किताब  ‘उज्याव’ (उत्तराखंड सामान्य ज्ञान, कुमाउनी में ) और ‘मुक्स्यार’ ( कुमाउनी कविताएं ) निदेशक माध्यमिक शिक्षा उत्तराखंड सरकार द्वारा  कुमाऊं क पांच जिल्लों- अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, पिथौरागढ़ और चम्पावत क सबै  पुस्तकालयों लिजी खरीदण क बाबत यों सबै  जिल्लों क मुख्य शिक्षा अधिकारियों कैं पत्रांक २२४८१-८६/पुस्तकालय/२०१२-१३ दिनांक २३ जून २०१२ के माध्यम ल आदेश दे | तब बटि तीन वर्ष बिति गईं, कएक स्मरण पत्र दीण पर लै आज तक एक लै किताब नि खरीदी गेइ | मुणी बटि माथ तक कुर्सी में बैठी हुई जो लै बापसैब हुणी कौ उनूल वैद जरूर करौ पर परिणाम शून्य रौछ | य ई नै दिल्ली और उत्तराखंड कि कएक नामचीन संस्थाओं एवं कएक कद्दावर मैंसों ल लै म्यर अनुरोध पर इस्कूली नना क लिजी लेखी म्यार चार किताबों (उज्याव, बुनैद, इन्द्रैणी, लगुल –हरेक कि कीमत मात्र अस्सी रुपै ) कैं समाज में पुजूण क कएक ता बचन दे, वैद करौ पर इक्का-दुक्का लोगों लै वैद निभा | यूं किताबों में मी ल भौत कम शब्दों में गुमानी पंत, गिरदा, शेरदा, कन्हैयालाल डंड्रीयाल, पिताम्बरदत बड़थ्वाल, शैलेश मटियानी, सुमित्रानंदन पंत, वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली, ज्योतिराम काण्डपाल, बिशनी देवी शाह, टिंचरी माई, लवराज सिंह धर्मशक्तु, सुन्दरलाल बहुगुणा, बछेंद्री पाल, गौरा देवी, विद्यासागर नौटियाल, श्रीदेव सुमन, चंद्रकुंवर बर्त्वाल सहित गंगा, हिमालय, उत्तराखंड राज्य, पर्यटन, स्वतंत्रता सेनानी, किसान, सैनिक, विद्यार्थी, अध्यापक एवं राष्ट्र क कएक महापुरुषों, १३ राष्ट्रपतियों, १४ प्रधानमंत्रियों और कएक दुसार विषयों कैं छुगंण कि लै कोशिश करी | विचार गोष्ठियों और  सम्मेलनों में अक्सर य साहित्य कैं गौं-देहात तक पुजूण क खूब वैद सुणनू पर क्रियान्वयन शून्य | काश ! हम सब एक-एक किताब लै आपण घर /संस्था में धरना , आपण गौं क अध्यापक- सभापति-सरपंच तक पुजूना  तो नान जरूर जाणन कि य ‘गिरदा’- ‘गढ़वाली’ आदि मैंस को छीं और हमरि  लिखित भाषा लै उनु तक पुजनि   | हाम आयोजन में औनू , भाषण दिनू , भाषण सुणनू  और ढुंग पलटै बेर बाण बै झन ये चाण कै बेर न्हें जानू | बस |  मी निराश नि है रय | वसंत जरूर आल, प्यौरोड़ि जरूर फुललि | “आजि निराशा का घुप्प अन्यार लै नि है रय, उम्मीदा क मश्याव लै जगैं रईं / कभतै जब मरूं हुणी मन छटपटां, ज्यौन रण कि तम्मन्ना क पहौर  लै लागि जां रईं |”

पूरन चन्द्र काण्डपाल
23.09.2015

Pooran Chandra Kandpal

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                                                           दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै : भाग्य और भगवान ,०१.१०.२०१५
 
     चनरदा ल बता  "म्यार कुछ मितुर  ‘भाग्य और भगवान्’ पर लै  गिच खोलण कि बात करैं रईं | हमूल हालों में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनै | भौत कम लोगों ल कृष्ण क उ अमर सन्देश “कर्म करते जौ और फल कि इच्छा नि करो" कि चर्चा करी जबकि चर्चा य त्यौहार पर कर्म कि हुण चैंछी | हाम जब  चारों तरफ देखनू तो सबूंक अलग- अलग भगवान देखण में औनी | ज्यादैतर आसपास कै भगवान् कि ऊँ पुज करनी, जबकि राम-कृष्ण पछिन रै जानी | हम नै राम -कृष्ण की मर्यादा पर चलें राय और नै उनरि शिक्षा पर | हम भाग्य और भगवान कैं दोष दीण में हमेशा अघिल रौनू | बात-बात में ‘अरे यार भगवान् ल यसै लेखि दे, भाग्य में यसै लेखी छी' कौण ठीक न्हैति |  सिर्फ द्वि  बातों क लिजी भगवान् क स्मरण ठीक छ | पैलि बात छ - हमुकें ज्ये कुछ लै मिलि रौछ या हमूल आपणी मेहनत ल ज्ये लै पा उ  सब ‘वील’ देछ, मानि बेर चलण चैंछ | यस मानि बेर हम खुद श्रेय नि ल्ही बेर अहंकार (ईगो) ल बचुल |  दुसरि बात छ - हमूल भगवान् हुणी दुःख, परेशानी और विवशता कैं सहन करण कि शक्ति (ताकत) मांगण चैंछ ताकि हाम उ दौर कैं झेलि बेर उबर सकूं | धन-दौलत, सुख-ऐश-आराम कि मांग करण, मन्नत मांगण , आपणी गलती क लिजी भाग्य -भगवान पर दोष लगूण, ‘उकें’ यई  मंजूर छी’ कूण, य सब अनुचित छ  | पाणी में डुबकि लगै बेर नै पुण्य मिलल और नै पाप कटल  | पुण्य त परोपकार और राष्ट्र प्रेम करि बेरै मिलल, काबा-कैलाश या तीरथ जै बेर नि मिला | स्वर्ग या तीन लोक क भैम लै छोड़ि दियो | अगर यूं हुना तो ‘अंकल शैम’ (अमरिका) वां कबै पुजि जान | पाप तबै कटल जब वीक सही प्रायश्चित ह्वल, दिल ल माफि मांगी जो और उकें दोहराई नि जो | बेकार क आडम्बर, दिखाव और अंधविश्वास क च्वव /लबादा ओड़ि बेर मन-वचन-कर्म ल प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा करनै अघिल बढ़ण लै भौत ठुल पाप छ | कुछ लोगों कैं य बात भलि नि लागा पर कौण पड़ल कि ‘भाग्य और भगवान्’ कैं दोष दी बेर हाम हमेशा आपण बचाव में छतरी खोलनू | भगवान एक अदृश्य शक्ति छ जैकैं नै कैल देख और नै कै दगै ‘उ’ मिल | टैम काटण या दुकान चलूंण क लिजी भलेही क्वे कतुक्वे मिठि बात करि ल्यो, दिल-बहलूण क लिजी कतुक्वे मनगणत कांथ- किस्स कैल्यो पर वास्तविकता य ई छ | श्रधा हो पर अन्धश्रधा नि हो | श्रधा क पिछाड़ि तर्क हो कुतर्क नि हो, विवेक –विज्ञान हो अज्ञान नि हो | यूं सब बात मी मात्र दोहरूं रयूं | विवेकशील-विद्वान् लोगों ल यूं सब बात पैलिकै कै रैईं |   
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
01.10.15

Pooran Chandra Kandpal

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                                                                                बिरखांत – ३० : गांधीगिरी में है दम |

     गांधी जी का जन्म २ अक्टूबर १८६९ को पोरबंदर गुजरात में, १३ वर्ष की उम्र में कस्तूरबा से विवाह, १८ वर्ष में वकालत पढ़ने इंग्लैंड गए, १८९३ में मुक़दमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए, वहां रंग -भेद का विरोध किया, ७ जून १८९३ को गोरों ने पीटरमैरिटजवर्ग रेलवे स्टेशन पर उन्हें धक्का देकर बाहर निकाला, १९१५ में भारत वापस आए, सत्य-अहिंसा-असहयोग के अमोघ हथियार से स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा, १५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हुआ और ३० जनवरी १९४८ को नाथूराम गौडसे ने उनकी ह्त्या कर दी परन्तु बापू मरे नहीं, राजघाट दिल्ली में आज भी वे  विराजमान हैं | दुनिया राजघाट आती है और ‘वैष्णव जन तो..’ भजन में बापू को महशूस करती है | गांधी ने जो कुछ कहा और जिस तरीके से उसका क्रियान्वयन किया उसे दुनिया ‘गांधीगिरी’ कहती है | गांधीगिरी आसान नहीं है और न यह सबके बस की है | जो लोग ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ कहते हैं यह उनकी कुत्सित सोच है | दुनिया जानती है कि गांधी ने फिरंगी को खदेड़ा और यूनियन जैक की जगह तिरंगा फहराया | जिन्होंने ने गांधी को ट्रेन से धक्का मारा, गांधी ने उन्हें अपने देश से धक्का मारा |  दुनिया के सभी विवादों का अंत बातचीत के गांधी दर्शन के अनुसार ही समझौतों तक पहुंचता है | गांधी जी की सीख जिसे अब ‘गांधीगिरी’ कहा जाता है वह है- ‘गाली देने वाले की तरफ मुस्करा कर देखो--वह देर-सबेर शर्मिंदा होगा; समस्या का समाधान झगड़े से नहीं प्यार से निकालो; गुस्सा और अहंकार से दूर रहो; हिंसा में विश्वास नहीं रखो; अभद्र से भद्रता से पेश आओ; क्षमा करना कमजोर इंसान के बूते की बात नहीं है; जिन्दगी ऐसे बिताओ मानो कल ही मौत की तारीख तय है; कथनी और करनी में अंतर मत करो; एक गलत कभी भी सच्चाई का स्थान नहीं ले सकता है भलेही उसका कितना ही प्रचार क्यों न किया गया हो | गांधी ने  यह भी कहा था, “ जब हिंसा और कायरता में से एक को चुनना होगा तो में हिंसा का चुनाव करूंगा |” गांधी के ‘दूसरी गाल में थप्पड़’ और ‘ तीन बन्दर’ वाली बात का जो लोग सही विश्लेषण नहीं करते उन्हें गांधी के दर्शन को समझना और उसका पुन: मंथन करना चाहिए | गांधी ने छुआछूत का किस तरह विरोध किया, एक प्रसंग – एक बार गांधी जी को एक सभा में बोलना था, उसमें सफाई कर्मियों को नहीं आने दिया गया | गांधी को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने सभा के आयोजकों से कहा, ‘आप लोग अपनी मालाएं और अभिनन्दन पत्र अपने पास रखिये | मैं उनके पास जाकर भाषण दूंगा | जिन्हें मेरी बात सुननी हो वहाँ आ जाए’ | गांधी जी उनके पास चले गए और आयोजकों को वहां जाना पड़ा | गांधीगिरी में बहुत दम है बस ज़रा विनम्रता से प्रयास करने की देर है | विज्ञान का युग आया, परिस्थितियां बदली परन्तु गांधीगिरी की आज अधिक जरूरत है | मेरा दावा है जो बच्चा ‘शाम-दाम-दंड-भेद’ से नहीं मानता वह गांधीगिरी से मान जाता है | किन्तु-परन्तु मत कहिये, करके देखिये | आज के इस पुनीत अवसर पर भारत रत्न शास्त्री जी एवं रामपुर तिराहे के शहीदों को नमन | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
02.10.2015

Pooran Chandra Kandpal

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                                                                     बिरखांत – ३१ : शराद- श्रद्धा- पितृपक्ष

   हम अक्सर सुनते हैं, “ अरे यार आजकल शराद लगे हैं, कामधंधा ठंडा चल रहा है | शरादों में लोग शुभ काम नहीं करते,” आदि-आदि | उधर एक वर्ग कहता है, “आजकल पितर स्वर्ग से जमीन पर आए हैं और सोलह दिन तक यहां विचरण करेंगे तथा खा-पीकर पितृ-विसर्जन के दिन वापस चले जायेंगे |” यह खाना-पीना शराद के माध्यम से होता है | शराद  में एक व्यक्ति विशेष के कथनानुसार सभी खाद्य-अखाद्य वस्तुएं रखी जाएंगी | पिंड भी रखे जायेंगे | शराद समाप्ति पर वहां रखी हुई सभी वस्तुएं, धन-द्रव्य आदि उस व्यक्ति की पोटली में चला जाएगा और पिंड-पत्तल वहीं पड़े रहेंगे | भोजन-दक्षिणा प्राप्त कर उस व्यक्ति का प्रस्थान यह कहते हुए होता है –“ये पिंड-पत्तल को किसी जल स्रोत में डाल देना |” ये पिंड वह व्यक्ति क्यों नहीं ले गया, यह आज तक किसी ने नहीं पूछा | वहां पर बैठे-बैठे यह मान लिया गया कि पिंड पितरों ने खा लिए हैं | एक बार काशी में कुछ पण्डे लोगों को तर्पण के नाम पर ठग रहे थे | गुरुनानक देव इस पाखण्ड को देख कर अपनी अंजुली से गंगा का पानी किनारे की तरफ उलीचने लगे | पण्डे के पूछने पर उन्होंने बताया “मैं पंजाब में अपने खेत की सिचाई कर रहा हूं |” जब पण्डे ने पूछा कि यह वहां इस तरह कैसे पहुंचेगा तो नानक जी ने उत्तर दिया, “जब तुम्हारे तर्पण कराने से यह आकाश में न जाने स्वर्ग कहां है वहां पहुँच जाता है तो मेरा खेत तो इस धरती पर ही है |” पण्डे का मुंह बंद हो गया | पितरों को हम भगवान मानते हैं | जब भगवान पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं तो पितृपक्ष अशुभ क्यों ? वैदिक काल से कर्मकांड की परम्परा चल रही है तब एक विशेष वर्ग के सिवाय किसी को मुंह खोलने अथवा शंका जताने की इजाजत ही नहीं थी | शराद या किसी भी कर्मकांड में उस व्यक्ति ने क्या कहा यह आजतक किसी के समझ में नहीं आया | शराद शब्द ‘श्रधा’ से उपजा है | पितरों को श्रधांजलि जरूर दें | उनकी स्मृति हमारे दिल में बसी है | उनका रक्त हमारे तन में संचार कर रहा है | उनकी जयन्ती मनाएं, पुण्य तिथि मनाएं तथा सामर्थानुसार दान भी दें | दान किसी सुपात्र को दें | जो भोजन से तृप्त है फिर उसे ही भोजन क्यों ? हम अपने पितरों की स्मृति में गरीब बच्चों को पठन सामग्री या वस्त्र दे सकते हैं, अपने गांव में स्कूल के बच्चों को पारितोषक दे सकते हैं, उनके स्कूल में इस अवसर पर एक पेयजल का ड्रम या अलमारी या चटाई दे सकते हैं, पुस्तकालय में पुस्तकें भेंट कर सकते हैं, पितरों के नाम पर स्कूल में एक छोटी सी पुरस्कार योजना चला सकते हैं, अनाथालय या किसी जनहित में काम करने वाली संस्था को भी हम दान कर सकते हैं | ऐसा करने से पितरों का स्मरण भी हो जाएगा और पिंड भी नहीं फैंकने पडेंगे | हमने अपने हिसाब से परम्पराएं बदली हैं | पूरी रात होने वाली शादी अब दिन में मात्र आधे घंटे में हो रही है | देवभूमि में शराब की परम्परा हमने ही बनाई है | शराब देकर ही वहां नल में पानी, तार में बिजली आती है और पंडित-पुजारी, अध्यापक, जगरिये, रस्यारों ने शराब को अपना हक़ बना लिया है | दिखावा-आडम्बर-अंधविश्वास ग्रसित परम्परों को एक न एक दिन हमें बदलना ही पडेगा | श्रधा और अंधविश्वास के बीच में एक पतली रेखा है | हमें देखना है कि हम कहां खड़े है ? यदि हम नहीं बदले तो फिर इक्कीसवीं सदी हमारी नहीं हो सकती भलेही हमारे शीर्ष नेता कितना ही कह लें | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल 
05.10.2015

Pooran Chandra Kandpal

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                                                                  भारतीय वायुसेना को शुभकामना

आज (८ अक्टूबर ) भारतीय वायुसेना दिवस के शुभ अवसर पर देश की वायुसेना को हार्दिक शुभकामनाएं | इस अवसर पर वायुसेना के एकमात्र परमवीर चक्र विजेता फ़्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखूं को शत शत नमन | सेखूं को युद्ध के समय वीरता का यह सर्वोच्च पुरस्कार १९७१ के भारत-पाक युद्ध में मरणोपरांत प्रदान किया गया  था | कारगिल युद्ध (१९९९) में  वायुसेना के आपरेशन 'सफ़ेद सागर' को भी देश कभी नहीं भूलेगा जब उसने टाइगर हिल, जुबेर और तोलोलिंग के शिखरों पर दुश्मन के परखचे उड़ाए थे | साथ ही केदारनाथ आपदा (२०१३) को हम कैसे भूल सकते हैं जब हमारी वायुसेना ने आपदा में घिरे  हजारों असहाय लोगों की जान बचाई थी | अपनी लाडली वायुसेना को 'ग्रेट रेड सलूट' |

०८.१०.२०१५

Pooran Chandra Kandpal

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                                                                  दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै
                                                                ( सब कुछ बदलि गो, पर...)

      रीत-रिवाजों में अटपट बदलाव देखि चनर दा परेशान छीं | ऊँ बतूं रईं, “मणि- मणि कै हमार ब्या-बरयातों में कुछ अटपट बदलाव देखण में औंरौ | आब मसचवई, सगुनठेकी, प्यौलपिटार और कयेस सब अदप हैगीं | पंजाबी ढोल में भंगड़ा कि धुन और बैंड में सनिमा क गीतों क कुकाट और शराबि बरेतियों कि धुरचेलि- भिड़च्याप में ब्यौल कि घोड़ि या कार जसी-तसी धकै –धकै बेर ब्या क टैंट तक पुजीं | ब्यौल बिचार घोड़ि - कार में बै उतरि बेर धक्क- मुक्क खाने पसिण में नै बेर बाड़ मुश्किल ल गेट पर पुजूं जां वीक बाट रोकी जांछ एक लाल रिबन क बैरियर ल | ब्यौल द्वारा रिबन काटण क क्ये मतलब छ? उ ब्योलि कैं ब्यवै लिजां हुणी ऐ रौछ या क्वे धरमसाव क उदघाटन करूं हूं ऐरौ ? ब्योलि क दगड़ियाँ द्वारा ब्यौल क स्वागत- आरती करण ठीक छ | सबूं है ज्यादै अनाड़िपन त य लागूं कि डबलों कि डिमांड करी जैंछ | यतुक हजार, उतुक हजार ? क्ये लिजी मांगण रया तुम डबल ? शराबि बरेतिय य मौक पर ज़रा ज्यादै ई अफरी जानी और खूब हू – हा क साथ कटाक्ष करनी | कयेक ता पिठ्या कि थाइ और ख्वार धरी गागर (कलश) टोटिल है जांछ और ब्यौल क बाब लै अमोरी जांछ | वीक मुखाड़ में ऐठन ऐजीं या गांठ पड़ि जानी | ह्मूल भाल रिवाज छोड़ि हालीं |  पैली बै ‘मैती’ रिवाज छी जमें ब्या कि याद में एक डाव –बोट रोपी जांछी और उ डाव कि परवरिश क लिजी ब्यौल ब्योलि क दगड़ियाँ कैं थ्वाड़ धन दिछी | आब ‘मैती’ हरैगे, बनड़े हरैगीं, चक्कलस –हंसी-ठिठोइ हरैगे और पंजाबी पॉप चलि गो | द्वि मतलबी डाइलौग चलि गईं | परिवार में भलेही कै कैं अंग्रेजी झन ओ, पर ब्याक कार्ड अंग्रेजी में छपाई जां रईं | ब्योलि क बिदाई क टैम पर फ़िल्मी निसास (डाड़) लागणी धुन बजाई जां रै | जयमाला में ब्यौल कैं वीक शराबि दगड़ी उठै दिनी ताकि ब्योलि कैं परेशान करी जो | एक भल माहौल कैं पिड़पिडै खराब करी जांछ | कुल मिलै बेर ब्या क रिवाजों पर सनिमा क रंग चढ़िगो | पहाड़ कि भलि संस्कृति टिहरी शहर कि चार डुबिगे | कुमाउनी- गढ़वाली बलाण आब गंवारपन समझी जांछ | पहाड़ में सब रीत-रिवाज बदलि गईं पर बार दिन क क्वड़ नि बदलें रय | क्वड़ लै बार दिन कि जाग कैं पांच या सात दिन क हुण चैंछ | बार दिन कि छूत (सूतक) पछां या सतां दिन में टड़ी जाण चैंछ | मोबाईल फौन और एस एम एस क दौर चलि रौछ, आब तार-पोस्टमैन क बखत वडैगो | अघिल बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
08.10.2015

Pooran Chandra Kandpal

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                                                     बिरखांत – ३२ : ‘छुटिगो पहाड़’ का विलाप क्यों ?

     कुछ कुमाउनी-गढ़वाली गीत मुझे यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि इनमें ‘छुटिगो पहाड़’ (पहाड़ छूट गया), ‘बिछुडिगो पहाड़’ (पहाड़ बिछुड़ गया) जैसे विरह-विलाप के शब्द क्यों होते हैं | ऐसा सोचने या कहने की जरूरत क्या है ? हम जो भी पहाड़ (अपने क्षेत्र) से दूर हैं, अपनी मर्जी से हैं | हमने पहाड़ छोड़ा भी अपनी मर्जी से | हमें किसी ने भगाया नहीं, किसी ने निकाला नहीं, किसी ने हमें खदेड़ा भी नहीं, किसी ने ऐसी हरकत भी नहीं की जो हम पहाड़ छोड़ने पर मजबूर हो गए | हमें किसी ने विस्थापित भी नहीं किया, ( टिहरी को छोड़ कर ) | दिल्ली सहित देश के मैदानी भागों में उत्तराखंडियों की आवादी लाखों में है | हम प्रवासी भी नहीं हैं, अपने देश में कहीं पर भी रहने पर उसे प्रवासी नहीं कहते | प्रवासी तो वे होते हैं जो दूसरे देश से आते हैं जैसे साइबेरिया से प्रवासी पक्षी आते हैं | यह सत्य है यदि प्रत्येक उत्तराखंडी को राज्य में रोजी-रोटी-रोजगार मिलता या वर्षा आधारित कृषि नहीं होती तो वह मैदानी क्षेत्रों की तरफ खानाबदोष बन कर पलायन नहीं करता | वैसे बौद्धिक पलायन तो सभी को स्वीकार्य है | हम जो भी पहली बार अपने क्षेत्र से आए हमने अपने लिए रोजगार ढूंढा | कुछ वर्ष बीतने के बाद पत्नी संग आई | बच्चे हुए, उन्हें पढ़ाया और उनके लिए भी यहां रोजगार ढूंढा, दामाद या बान भी ढूंढी | वक्त बीतते गया और हम तीसरी-चौथी पीढ़ी में आ गए | न्योते-पट्टे, दुःख-सुख और भैम (भ्रम-अंधविश्वास) पूजने  हेतु पहाड़ आना-जाना लगा रहा | कुछ लोग कहते हैं कि सेवा-निवृति होने के बाद पहाड़ वापस जाना चाहिए | परिवार के दो फाड़ कौन चाहेगा ? पहाड़ में जीवन पहले ही जैसा है | बुनियादी सुविधायें भी नहीं हैं | ( बी पी एल कार्ड ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए | ) उम्र गुजरने के बाद क्या कोई पत्नी पुनः दातुली-कुटली चला सकती है ? वह ज़माना चला गया जब बाल-विवाह कर छोटी सी दुल्हन घर में मां-बाप की सेवा कि लिए छोड़ कर लड़का चला जाता था | आज पूर्ण यौवन में विवाह बंधन होता है | कुछ सासू जी जरूर कहेंगी कि बहू उनकी सेवा में गांव में रहे परन्तु बेटी दामाद के संग रहे | विवाह के बाद पत्नी को तो पति के साथ रहना ही चाहिए | मजबूरी कि सिवाय कौन पत्नी चाहेगी कि वह पति से दूर रहे और गोपाल बाबू गोस्वामी के विरही गीत (घुघूती न बासा..) गुनगुना कर आंसू टपकाए ? अत: जिसे पहाड़ जाना है जाए, उसे रोक कौन रहा है ? हम विदेश में नहीं हैं | भारत में हैं, भारत हमारी जन्मभूमि है, जी हां भारत माता | हम भारत में कहीं भी रहें उस थाती से प्यार करें परन्तु अपनी भाषा- इतिहास- सामाजिकता और सांस्कृतिक विरासत को न भूलें, आते- जाते रहें, जुड़ाव रखें क्योंकि यह उत्तराखंड की पहचान है अन्यथा हमें उत्तराखंडी कोई नहीं कहेगा | संकीर्णता छोडें, अपने को भारतवासी समझें और ‘छुटिगो पहाड़’ जैसे विरह-विलाप न करें | यदि इसके बाद भी विरह है तो फिर मसमसाएं नहीं, मणमणाट-गणगणाट न लगाएं, पहाड़ जाने की तैयारी करें | मेरे शब्दों का यह अर्थ न निकालें कि मैं किसी से पहाड़ जाने के लिए मना कर रहा हूं | जय भारत, जय उत्तराखंड | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
09.10.2015

 

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