समस्याएं पहाड़ की--हिमालय से भी बड़ी!
by Uday Tamta
[justify]मित्रो, आज जब वेबसाइट पर गए तो सर्वप्रथम एक सन्देश नज़र आया, जिसमें कहा गया है कि पहाड़ का विकास बिलकुल भी नहीं हुआ, जबकि हमने कई लोगों को राजनीति के इस महा खेल में अरब पति बना दिया, इस कथित विकास की दौड़ में केवल कुछ ही स्थानों को ध्यान में रखा गया, जो मुख्य शहरों के आसपास हैं और पहिले से सडको से जुड़े थे, और उन जगहों का सुधलेवा कोई नहीं है, जो बहुत अन्दरोनी इलाकों में हैं, सडको से जुड़े नहीं हैं, और जहाँ विकास की कोई किरण आज तक नहीं पहुँचीं. मित्रो, विषय तो वही है, जिस पर पर यह नोट है, पर इसमें उस बात का विवेचन नहीं होगा की विकास के नाम पर किसने माल कूटा है, और कौन कौन बहुत ही अल्प अवधि में ही, खगपति से लखपति, लखपति से करोड़पति और अब अरब पति होगये हैं. यह नाम बहुत ज्यादा नहीं हैं, होंगे कोई सौ सवा सौ और इनको सब लोग जानते ही हैं, उसका खुलासा यहाँ पर करने की आवश्यकता नहीं है. उसका इलाज आने वाले समय में जनता स्वयं ही करेगी, अभी नहीं तो, फिर कभी, पर ऐसी स्थिति जल्द ही आनेवाली है, क्योंकि जनता अब भीषण कष्टों के शिखर पर है, कहा नहीं जासकता कि इस पर्वतीय राज्य की 'जारशाही' के विरुद्ध यह 'बुर्जुआ आन्दोलन' कब शुरू हो जाय. इसका फ्लैश पॉइंट तैयार है, कब इसमें कोई चिंगारी देने वाला 'लेनिन' प्रकट हो जाय, कह नहीं सकते. यह इस लिए कि अब 'निगुराट' या बेशर्मी इतनी बढ़ गई है कि 'तलब न तनखा, धन सिंह हवालदार' वाली स्थिति विद्यमान हो गई है. जिनके पास २० साल पहिले तराई या भाबर में एक छोटा सा मकान, या सौ गज का एक जमीन का टुकड़ा भी नहीं था, आज उनके पास अरबों की संपत्ति है, जब कि जाहिरा तौर पर न तो उनके पास कोई उद्योग है, न व्यापार और न ही 'नैमिषी' के समतुल्य हमेशा दूध देनेवाली गाय की तरह का आमदनी का कोई बड़ा ज्ञात स्रोत ही ! यह स्थिति तो तब है जब अधिकांश जनता दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इस हालत में नहीं है कि अपने भूख से बिलखते बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी भी जुटा सके. इन महानुभावों के पास आज जो अरबों के 'नकद नारायन' का विशाल भंडार या 'कुचल' सम्पति (इसे अचल संपत्ति इस लिए नहीं कह सकते, क्योंकि इससे तात्पर्य या आशय ज्ञात श्रोतो से अर्जित संपत्ति से लगाया जाता है) है. वह यह 'कोढ़ी का सा धन' केवल अवैध व अनुत्पादक मदों में ही लगाता है, जैसे वोटरों के खरीदने में, लोगों को धमकाने में या लठैतों, दंडधरों अथवा असामाजिकों को प्रश्रय देने इत्यादि में. यह धन सम्पदा उक्त मदों के अलावा किसी अन्य मद में खर्च ही नहीं होती. मित्रो, रूस में १९१७ की जो महान क्रांति हुई, उसकी शुरुआत कोई एक दिन में ही नहीं होगई थी. जारशाही के ज़माने में रूस की जनता उतनी भी जागरूक नहीं थी, जितनी कि आज उत्तराखंड की जनता है. तब के रूस में जनता बर्फानी तूफानों में भी खेतों में काम करती थी और आलीशान फार्म हाउसों में बैठे धनाढ्य उस कमाई पर ऐश कर रहे थे, जबकि मेहनतकश जनता भूखों मर रही थी. धीरे धीरे जनता जागरूक हुई, और वह यादगार क्रांति हो ही गई. यह क्रांति भी प्रारंभ में स्वरुप से खूनी क्रांति कतई नहीं थी. क्रांतियाँ केवल हिंसा के बल पर ही नहीं होतीं. भारत की आजादी के लिए भी न्यूनाधिक क्रांति का स्वरुप अहिंसात्मक ही था. इसके लिए बस लेनिन व स्टालिन की तरह का उत्साह, उद्देश्य व भलमनसाहत चाहिए, बस. यदि ऐसी स्थिति खुदा-न-खास्ता यहाँ पर भी आती है, तो वह स्थिति कदापि नहीं रहेगी, जिसमें कहा गया था--''तूने जो की थी मेहनत, ठगुवा ठग ले जायो रे.'' यकीन रखिये, यदि इसी तरह का अहिंसक आन्दोलन कभी यहाँ पर भी हुआ तो जो अवैध धन-सम्पदा के जो बड़े जखीरे इस तरह से आपके आँखों के सामने ही इकठ्ठा होगये हैं, वह आम जनता के हाथों आ ही जाएगी. इसके लिए हिंसा की नहीं, थोड़ी सी जागरूकता की आवश्यकता है बस, आगे के सारे काम खुद-ब-खुद ही होते चले जायेंगे और मेहनत करने वाले अपने बच्चों को भरपेट भोजन कराने की हालत में जरुर आजाएंगे. बस, इसके लिए हिंसा का नहीं, शांति का ही मार्ग सर्वोत्तम है। हिंसा से तो बचके ही रहना है।