आस्था--किसकी बड़ी और किसकी छोटी ?
आलेख : श्री उदय टम्टा जी
[justify]मित्रो, मनुष्य में आस्था, चाहे यह प्राकृतिक शक्तियों में रही हो या दिव्य शक्तियों में, संभवतः उसके आखेट जीवन से भी पहिले से ही रही है, भले ही उसका आवास विश्व के किसी भी भाग में रहा हो। विश्व के तीन प्रमुख धर्मों--यहूदी, इस्लाम व ख्रिस्ती का उद्गम तो मूल यहूदी धर्म से ही हुआ। चौथा प्रमुख धर्म--बौद्ध धर्म का उद्गम स्थान तो भारत ही है। हिन्दू धर्म को कुछ लोग केवल एक पंथ (cult) या संस्कृति (culture) ही मानते थे, जो अन्ततः तर्कों की कसौटी में सही नहीं उतरा, जिस कारण इस तरह के विचार रखने वाले भी अब इसको एक पूर्ण प्राचीन धर्म के रूप में मानते हैं। इसे संसार का प्राचीनतम धर्म तो माना ही जाता है। पर इन पांचों प्रमुख धर्मों के अलावा भी संसार भर में अनगिनत छोटे छोटे अन्य धार्मिक या आध्यात्मिक विश्वास पर आधारित समूह हैं, जिहें आमतौर पर मान्यता नहीं मिल पाती. इनमें स्थानीय देवताओं या भूतों की उपासना भी सम्मिलित है। मेरा तो यहाँ तक विश्वास है कि शायद यह परम्पराओं पर आधारित विश्वास विश्व भर के विभिन्न शास्त्रीय धर्म ग्रंथों पर आधारित धर्मों से भी अधिक प्राचीन हैं, जिन्हें हम सामान्यतः एक 'अन्धविश्वास' मानकर उपेक्षित कर देते हैं। ठीक इसी प्रकार की आस्था उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में भी अज्ञात काल से ही चली आ रही है--शास्त्रीय देवी देवताओं से भिन्न स्थानीय देवताओं व भूतों की उपासना की । मित्रो, इस सन्दर्भ में मुझे 1956 की एक छोटी सी, पर बहुत ही महत्वपूर्ण घटना याद आती है, जिसमें यह मुद्दा अनायास ही बहस का विषय बन गया था कि क्या केवल शास्त्रीय धर्म के सिद्धांत ही आस्था के सच्चे मानक हैं और सामान्य जनविश्वासों का कोई महत्व नहीं है ? तब वर्तमान गंगोलीहाट तहसील के एक गाँव चहज में पांचवीं कक्षा के वार्षिक परीक्षा का सेंटर बनाया गया था। अल्मोड़ा से दो दिन की कठिन पैदल यात्रा करके एसडीआइ साहब, जिन्हें तब 'इस्कूली सैप' के नाम से ही अधिक जाना जाता था, एक दिन पूर्व ही वहां पहुँच गए थे। उनका रात का 'डेरा' चहज के प्राइमरी स्कूल में रखा गया था। आस पास के ग्रामीण भी अपने पाल्यों को लेकर परीक्षा की पूर्व संध्या में ही वहां पहुँच गए थे। रात को इस्कूली सैप के सम्मान में उन दिनो अंग्रेजों द्वारा पूर्व में चलाये गये कैम्प फायर का आयोजन किया गया था। इसमें परीक्षार्थी बच्चे स्थानीय देवताओं के रूप में देर रात तक खूब अतरे ! आयोजन के अंत में इस्कूली सैप ने एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा क़ि यह स्थानीय देवताओं की उपासना के क्रम में अतरना एक अन्धविश्वास है, इसे छोड़ देना चाहिए। सभी बच्चे दस से बारह साल की उम्र के थे और 'इतने बड़े सैप' के मुंह से निकले शब्दों को उनके बालमन ने ब्रह्म वाक्य के रूप में ही ले लिया। अगले दिन प्रातः 7 बजे से परीक्षा होनी थी। सभी बच्चों को क्रम से लाइनों में बिठाया गया था। प्रतीक्षा थी 'सैप' के बाहर निकलने की, क्योंकि 'सवाल' जिसे आजकल पेपर कहते हैं उन्ही के पास था। धीरे धीरे 8 भी बज गया ! सैप बहार नहीं निकले और सभी परीक्षार्थी भी प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। तभी एक मास्टर साहब, जिन्हें उन दिनों आम बोलचाल में ' पंडितज्यू' कहा जाता था, ने बड़ी मासूमियत से बच्चों को बताया--''सैप अभी पूजा कर रहे हैं। बस थोड़ी देर में बाहर निकने वाले ही हैं।'' इसके तुरंत बाद ही सैप बाहर निकल भी आये. उन दिनों 'इमला', सुलेख व गणित के ही सवाल होते थे। इमला में एक छोटा पैरा बोला जाता था, जिसे परीक्षार्थी लिखते थे। सुलेख के लिए दो लाइनें बोली जाती थी, उसे भी वह लिखते थे, और भागा तक के गणित के कुछ सवाल लिखाये जाते थे। एक घंटे में ही परीक्षा निपट गई। सभी अध्यापक कापियों को जांचने में लग गए। एसडीआइ साहब भी वहीँ पर कुर्सी डाल कर कुछ दूरी पर बैठ गए। इसी बीच एक फौजी, जो अपने पुत्र को परीक्षा दिलाने आया था, उनके पास आकार बड़ी ही विनम्रता से उनसे बोला--''सर, आपने रात को अपने भाषण में कहा था कि 'अतरना' एक अन्धविश्वास है, पर अभी आपने खुद एक घंटे बैठ कर पूजा की है, वह क्या है ? सैप ने उसे यह कहकर टरका दिया कि यह पूजा तो शास्त्रीय विधि विधान से मन्त्रों के आधार पर की जाती है। 'इसका' व 'उसका' क्या मुकाबला ? वह फौजी और तो कुछ् नहीं बोला, पर हल्की सी जबान में इतना भर कह गया--''यह मन्त्र किसने बनाये होंगे ?'' इतने वर्ष बीत गए, मेरे तुच्छ मन को आज भी इस छोटे से सवाल का कोई उत्तर नहीं मिल पाया है। इसका एक कारण तो यह है कि यह इतना अधिक गूढ़ विषय है जो केवल परम ज्ञानी ही समझ सकते हैं, जिन्हें अध्यात्म दर्शन, मीमांसा, कर्मयोग व बुधियोग का परम ज्ञान हो, महर्षि वेदव्यास की तरह, जिन्हें महाभारत सहित गीता का भी रचनाकार माना जाता है, या कम से कम कम अध्यात्मिक दर्शन शास्त्र का उतना ज्ञान तो अवश्य ही हो, जितना कि डा.राधाकृष्णन को था ! कुछ मामलों में तो गीता के सिद्धांत भी कई विंदुओ पर परस्पर विरोधी होने कहे जाते हैं। जैसे कि एक स्थान पर यह घोषित कर दिया गया--''कर्मन्येवधिकारस्तु, मा फलेषु कदाचन'', जिससे निष्काम कर्म के इतने भारी भरकम सिद्धांत का विकास हुआ, वहीँ इसी सांस में यह भी कह दिया गया -''हतो वा प्राप्श्यसि स्वर्गम, जित्वा तु भोग्ससे महीम।'' जहाँ तक ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न है, इसे संसार भर के अधिकांश लोग मानते ही हैं, हाँ, थोड़े से ऐसे भी लोग हैं, जो इसे विवादित मानते हैं। भले ही ईश्वर के अस्तित्व में कुछ विवाद हो, पर आम तौर पर 'आस्था' में तो सबका ही विश्वास है, चाहे यह 'विश्वास' के रूप में हो अथवा अतिविश्वास या अन्धविश्वास के रूप में हो ! मेरे पास तो न इसके अस्तित्व के समर्थन में और न ही इसके विरोध में कोई ठोस वैज्ञानिक तथ्य से समर्थित तर्कपूर्ण साक्ष्य उपलव्ध है। हाँ, जहाँ तक आस्था का प्रश्न है, यह किसी की न तो बड़ी होती है, न ही किसी की छोटी ! यह सिर्फ आस्था ही होती है।[/justify]