भूकंप बनाम पृथ्वी का इलेक्ट्रो-कार्डियोग्राम
अचानक कोई प्रियजन अस्वस्थ हो जाता है और आप तुरंत उसे अस्पताल ले जाते हैं. वहाँ पर डॉ उसके जांच कर आवश्यकता समझने पर इलेक्ट्रो-कार्डियोग्राम (ई सी जी) करते हैं. चंद मिनिटों में डॉ आपको बताते हैं कि मरीज़ को दिल का दौरा पड़ा है, तथा उसे भरती कर उपचार चालू कर देते हैं. दरअसल दिल की बात तो दिल हे समझ सकता है, पर ई सी जी की मदद से डॉ भी अंदर की बात जान लेता है. जिस प्रकार दिल का दौरा पड़ने पर ई सी जी अंदर की बात डॉ के सामने रख देता है कुछ उसी प्रकार भूकंप आने पर प्रथ्वी के अंदर का हाल भूविज्ञानी जान लेते हैं.
जब कोई दिल का मरीज अस्पताल में भरती होता है तो डॉ उसका पूर्वातिहास पूछता है. उससे डॉ को अपने निष्कर्ष में पहुंचने में सहायता मिलती है. भूविज्ञानी भी इतिहास में आये भूकम्पों की जानकारी एकत्रित कर पृथ्वी का पूर्वातिहास जानने की कोशिश करते हैं. इस प्रकार प्राप्त सूचना को मानचित्र में रख कर यह जानने की कोशिश करते हैं कि अमुक क्षेत्र में पूर्व में कैसे भूकंप आ चुके तथा उनके भविष्य में आने कि सम्भावना कैसी है.
कब आयेगा अगला भूकंप यह तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन कौन सा क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अधिक असुरक्षित है यह अवश्य भूविज्ञानी बता सकते हैं. छोंकी उत्तराखंड में पूर्व में बड़े भूकंप आ चुके हैं, तथा वहां की भूवैज्ञानिक स्थिति भी कुछ ऐसी है कि वहां बड़े भूकंप आने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता.
आइये एक नजर डाले एशिया व देश के इतिहास में आ चुके कुछ भूकम्पों पर.
तीन हजार वर्ष पुराने चीनी आलेखों और लगभग उसी काल की ईरानी कविताओं और पद्यों में बड़े भूकंप का जिक्र है. यह शायद भूकंप के सबसे पुराने रिकार्ड हैं-बहुत वैज्ञानिक तो नहीं परन्तु इनसे यह तो अनुमान हे लग जाता है कि तब भी भूकंप से सभ्यता डरती थी. इसीप्रकार एतिहासिक काल में कहते हैं कि पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का ब्राह्मनाबाद एक भूकंप से पूरी तरह ध्वस्त हो गया था. पर इस प्रकार की घटनाओं का कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है.
भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ विध्वंसकारी भूकंप:
भारतीय उपमहाद्वीप से सबसे पुराने भूकंप का अर्ध-वैज्ञानिक वर्णन मिलता है १५ जुलाई १५०५ को दिल्ली-आगरा क्षेत्र में आये भूकंप का. इसके बाद १६६८ में पश्चिमी भारत के नगर सीमाजी में ३०,००० घरों के नष्ट हो जाने का रिकार्ड मिलता है.
मुग़ल काल के इतिहासकार कैफीखान ने अपने 'मुन्ताखाबुल उल लुलाब' में लिखा है कि १५ जुलाई १७२० को २२वी रमजान की नमाज़ आता करने जमात मस्जिद में एकत्रित थी कि अचानक जमीन के अंदर से दहाड़ने की सी आवाजें आने लगी. इतना तगड़ा जलजला (भूकंप) था कि लोग हक्के=बकी रह गए. चंद लम्हों में शाहजहानाबाद (आज की दिल्ली) में हजारों लोग मौत के आगोश में चले गये अनगिनत ईमारतें ज़मींदोज़ हो गयी. फतेहपुर के मस्जिद के मीनारे ढह गयी. इसके बाद ४० दिन तक भूकंप के झटके महसूस होते रहे-जैसे इन दिनों चिली में हो रहे हैं.
एक और अपने देखा कि जहाँ १५ जुलाई का दिन लोगों के लिए दुहस्वप्न के भाँती था उसी प्रकार ११ अक्टूबर १७३७ को कलकत्ता में इतना भयंकर भूकंप आया कि तीन लाख जाने चली गयी. गो कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बारे में इतिहास में और कोई जिक्र नहीं है कि इसके सम्पुष्टि के जा सके. यह भी हो सकता है कि भूकंप के बजाय इतनी जाने चक्रवात से चली गयी हों! उधर १७६२ में बंगलादेश में टकसाल के लिए प्रसिद्ध चटगाँव में ऐसा भूकंप आया कि अनेक छोटे द्वीप जो कि समुद्र में डूबे हुए थे उभर कर ऊपर आ गये.
इसी प्रकार ४ जून १७६४ को गंगा के मैदानी क्षेत्र में जबरदस्त भूकंप आया-अनगिनत जाने चली गयी और न जाने कितने घर नेस्तनाबूद हो गये! यह पढ़ कर सिहरन सी होती है, क्योंकि आज इस क्षेत्र में ४० करोड़ से भी अधिक लोग बसते हैं. कहीं पुनरावृत्ति हो गयी तो!
सितम्बर १, १८०३ को सुबह ३ बजे अचानक मथुरा-दिल्ली क्षेत्र में जबर्दस्त भूकंप आया. मथुरा में जगह जगह धरती फट गयी और उन बड़ी बड़ी दरारों से तेज़ी से पानी आने लगा. हजारों भवन चंद मिनिटों में नष्ट हो गये. घज़ी खान की बनाई सारी म्स्ज्दों के गुम्बद लुडक कर नीचे आ गिरे. इनमें से एक लुडक कर धरती में पड़ी दरार में चला गया और गायब हो गया. दिल्ली में भी बहुत नुकसान हुआ, कुतुबमीनार का सबसे ऊपरी हिस्सा टूट कर नीचे आ गिरा. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (भा भू स) के टॉमस ओल्ढम के अनुसार यह भूकम रिक्टर स्केल पर ६.५ का रहा होगा!
कच्छ (भुज) का २६ जनवरी २००१ का भूकंप अभी भी बहुत से लोगों के मानसपटल में ताज़ा होगा! पर आपको यह पढ़ कर अचम्भा होगा कि १६ जून १८१९ को वहां आया भूकंप भी कोई कम,जोर न था. इतना जबर्दस्त था वह भूकंप कि कच्छ के रण में सिंध से आठ कि मी उत्तर में एक तीन मीटर ऊंची तथा ६५ कि मी लम्बी मृदा की दीवार बन गयी. स्थानीय लोगों ने इसे नाम दिया 'अल्लाह बंध' अर्थात अल्लह का बनाया बंध. उस समय का प्रमुख नगर भुज इस भूकंप में पूरी तरह नष्ट हो गया. ध्यान रहे कि २००१ के भूकंप में भी भुज लगभग नष्ट ही हो गया था, पर नमन है गुजरातवासियों को जिन्होंने जी तोड़ मेहनत कर अपने नगर को पुनः पूर्व से भी अच्छा बसा लिया. १८१९ में आबादी कम थी इसलिए मात्र २००० जाने ही गयी तबके गुजरात में. पर इसी भूकंप ने अहमदाबाद की एक मस्जिद में एकत्रित ५०० लोगों की जान ले ली थी.
यह भूकंप इतना तगड़ा था कि इसके झटके उत्तर में सुल्तानपुर, जौनपुर, मिर्ज़ापुर (उ प्र) में तथा कोलकाता में भी महसूस किये गये. भा भू स के टॉमस ओल्ढम ने इस भूकंप को रिक्टर स्केल पर८.३ तीव्रता का आँका था-ध्यान देने की बात यह है कि ८ तीव्रता के ऊपर के भूकंप का अर्थ होता है समूची तबाही.
इसके १४ वर्ष बाद ही २६ अगस्त १८३३ का दिन काठमांडू (नेपाल) निवासियों के लिए न भूला जा सकने वाला दिन बन गया. ऐसा भूकंप आया कि झीलों और तालाबों से पानी की लहरे सागर में आये ज्वार की भाँती उठने लगी, पक्षी अपने घोंसले छोड़ बेचैन उड़ने लगे. १०० से अधिक घर नष्ट हुए, जो लोग बच गए वह भय से जडवत से हो गए.
उस समय के भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र १९ फरवरी १८४२ को बुरी तरह थर्रा उठा. इस भूकंप का केंद्र जलालाबाद (पाकिस्तान) में था-जहाँ नगर का एक तिहाई भाग भूकंप से नष्ट हो गया था. काबुल, पेशावर, फिरोजपुर, लुधियाना तक इस भूकंप के तगड़े झटके महसूस हुए-अनेक लोग मारे गये. टॉमस ओल्ढम ने १८९३ में इस भूकंप का आंकलन कर पाया कि इससे २१६,००० वर्ग कि मी क्षेत्र प्रभावित हुआ था.
पूर्वोत्तर भारत में १८६९ का कछार भूकंप उस समय तक का सबसे भयंकर भूकंप था. इसका केंद्र था असाम का उत्तरी कछार जिला. सिलचर नगर सबसे अधिक प्रभावित हुआ था इस भूकंप से. पर कोलकाता वासी भी इसके झटकों से बच न पाए थे. अनेक स्थानों पर नदियों, झील व तालाबों से पानी की लहरे ज्वार की भांति उठने लगी तथा अनेक झीलों में पानी झील से बाहर आने लगा. पोला, बराक एवं धुलेसर नदियों में घहरी दरारें पड़ गयी जिनसे पानी व रेट के फुहारे छूटने लगे. टॉमस ओल्डहम के सर्वेक्षण से पता चला कि इस भूकंप से हजारीबाग, पटना, दार्जीलिंग एवं उत्तरी लखीमपुर आदि कुल मिला कर ६,४७,५०० वर्ग कि मी क्षेत्र प्रभावित हुआ.
कछार भूकंप ने भारत में भूकम्पों के वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन की तकनीक को जन्म दिया. भारत में भा भू स स्थापित करने वाले टॉमस ओल्ढम की कछार भूकंप की सर्वेक्षण रिपोर्ट उनके बेटे आर डी ओल्ढम ने १८८२ में भा भू स के अभिलेखों में प्रकाशित किया.
अभी तीन वर्ष भी न बीते थे कि ३० मई १८८५ को एक तगड़े भूकंप से काँप उठी कश्मीर घाटी. भूकंप के बाद किये गये सर्वे से भा भू स के ई जे जोन्स ने पाया कि भूकंप का केंद्र कश्मीर में १२ कि मी की घहराई पर था.
उन दिनों लगता था कि प्रकृति मनो रुष्ट है! तभी तो १२ जून १८९७ को असम में भूकंप आया जिसे नाम दिया गया 'ग्रेट आसाम अर्थक्वेक'. इस भूकंप से पूर्वोत्तर राज्य एवं पश्चिमी बंगाल प्रभावित हुए थे. भूकंप ने १,२७५,००० वर्ग कि मी क्षेत्र को प्रभावित किया था. इसकी भूकंपीय सर्वे आर डी ओल्ढम ने भा भू स के 'मेमोयर' में प्रकाशित की.
असम के भूकंप के समय १९वी शताब्दी के अंत तक विश्व में कुछ स्थानों पर भूकंप मापी यंत्र (सायिस्मोग्रफ) का प्रयोग प्रारंभ हो चुका था. प्रथम भूकंप मापन स्टेशन तुर्की के इस्ताम्बुल में स्थापित होने के बाद से भूकम्पों का आंकलन उपकरणों द्वारा होने लगा. उसके पूर्व तो भूकंप आते हे भूवैग्यानियों को पूरे क्षेत्र का सर्वे करना पड़ता था. करना तो वह अब भी पड़ता है, पर तकनीकी के विकास के कारण यह कार्य काफी सुविधाजनक हो चुका है.
जब तक ई सी जी मशीन नहीं बनी थी डॉ मरीज की नब्ज़ एवं अपने आले से ही अनुमान लगाया करते थे-उसी प्रकार भूवैज्ञानिक भी पृथ्वी की नब्ज़ भूकंप के समय या उसके तुरंत बाद पकड़ा करते थे. डॉ की भाँती आज भी नब्ज़ तो पकडनी ही पडती है पर उपकरण कार्य को सुगम कर देते हैं.
भूकंप तो पृथ्वी कि धडकन हैं वो तो नहीं रुक सकती, पर हमको तो यह ध्यान रखना चाहिए कि भूकंप संभावित क्षेत्रों में जिनमे हमारा पहाड़ भी आता है बहुमंजिली इमारतें बनाते समय भूकंप विज्ञानियों से परामर्श तो कम से कम ले लें. जब तक दिल का दौरा नहीं पड़ता हम सब मस्त रहते हैं पर जब यकायक हार्ट अटेक हो जाता है तब मचती है भगदड़. ऐसा ही शांत दिखने वाले क्षेत्रों में भूकंप के बाद होता है. पहले से ही क्यों न तय्यारी रखें!
अगले लेख में आप पढ़ेंगे हमारे पूर्वज पहाड़ में कैसे स्थापत्य का प्रयोग करते थे कि बड़े बड़े भूकंप आये और चले गये, पर उन मकानों को क्षति नहीं पहुँची. प्रतीक्षा कीजिये.
जय हिंद.