क्या आपके बच्चे सुरक्षित हैं?
जाड़ों की सुबह जो आनन्द रजाई में पूरा अंदर घुसकर दर तक सोने में आता है वह सब काफूर हो जाता है, जब इजा कहती है जल्दी नहालो स्कूल को देरी हो रही है. ना चाहते हुए भी उठाना पड़ता है और नहाना भी पड़ता है. बस जैसे ही नाश्ता पूरा होने को होता है तो साथी लोग आ जाते हैं, 'चलो आज टेस्ट है, देरी मत करो यार'. बस घर से बच्चा गया नहीं कि इजा ने चैन की सांस ली. पर चैन कहाँ-उसे तो अभी सारा काम करना है, पति को उठाना है, चाय देनी है, वगैरह वगैरह.
बच्चा स्कूल तो चला गया, पर कभी आपने सोचा है कि वह कितना सुरक्षित है वहां? मैं भूकंप से सुरक्षा की बात कर रहा हूँ, न कि अन्य किसी चीज़ से. हम यह मान लेते हैं कि स्कूल तो सबसे सुरक्षित स्थान है.
ऐसा ही कुछ मान बैठे थे ९०० से भी अधिक बच्चों के माता-पिता चीन के सिचुआन प्रान्त के दुजिआन्ग्यान नगर में. १२ मई २००८ को. इन बेचारों को तो पता ही नहीं था कि ज्युआन मिडिल स्कूल की भव्य तीन मंजिली ईमारत भरी दोपहर में भूकंप की मार न बर्दाश्त कर सकेगी और भरभरा कर ताश के महल की भांति ढह जाएगी! ऐसा ही कुछ हुआ पाठकों-वो ही नही उसके अतिरिक ५ अन्य स्कूलों की इमारतें भी ध्वस्त हो गयी. सोचिये जरा उन ९०० होनहारों के माता-पिताओं की तो उस दुर्घटना के बाद से ज़िन्दगी ही बदल गयी.
हाल के कुछ वर्षों में तुर्किस्तान (१९९९), गुजरात (२००१), अल्जीरिया (२००३), मोरोक्को (२००४) एवं मुज्जफराबाद -पाकिस्तान (२००५) में आये भूकम्पों से हजारों बच्चे बेमौत मारे गये. उनकी बदकिस्मती थी कि वे स्कूल में थे और भूकंप दिन में आये. यह एक संयोग है कि अक्सर भूकंप रात में ही आते हैं, पर ऐसा कोई नियम नहीं है-भूकंप कभी भी किसी भी स्थान पर बिना किसी पूर्व संकेत के आ सकते हैं. पर एक बात अच्छी है कि भूकंप आपद क्षेत्र हमारे देश में पहचाने जा चुके हैं. भूकंप की दृष्टि से हमारे हिमालयी क्षेत्र सर्वाधिक आपद क्षेत्र में आते हैं.
आपने कभी कार की टक्कर देखी है? जब जोर की टक्कर होती है तब आगे की सीट वाला अक्सर मारा जाता है. उत्तराखंड के भी कुछ जनपद भूकंप की दृष्टि से कार के आगे की सीट के समान हैं. हों भी क्यों नहीं चलायमान भारतीय प्लेट आज भी स्थिरप्रग्य तिब्बती प्लेट के साथ आज भी टक्करें मार रही है. चूंकि उत्तराखंड उत्तर में है और तिब्बती प्लेट के एकदम करीब है-उस क्षेत्र का अधिक प्रभावित होना लाजिमी है.
यही वजह है कि पूर्व में आये भूकम्पों के विवरणों को आधार मान मानकर भूकंप सुभेद्यता (वल्नेरेबिलिटी) के मानचित्र बनाये जाते हैं. इनमे सर्वाधिक परिमाण के भूकंप को आशंकित क्षेत्र के ज़ोन ५ में रखा जात है. यदि उत्तराखंड पर एक नजर डालें तो बागेश्वर और चमोली जनपद शतप्रतिशत इसी ज़ोन में आते हैं. इनके अतिरिक्त रुद्रप्रयाग जनपद का १८.३%, अल्मोड़ा का १८ एवं उत्तरकाशी का १७% क्षेत्र भी इसी ज़ोन में आता है. चम्पावत, हरिद्वार, नैनीताल, उधमसिंहनगर एवं देहरादून जनपद ज़ोन ४ में आते हैं. इसके अतिरिक्त गढ़वाल का १७%, टिहरी गढ़वाल का १६%, अल्मोड़ा का ८२% एवं उत्तरकाशी का ८३% क्षेत्र ज़ोन ४ में आता है.
भूकंप की स्थिति में पिछले ३०० वर्षों में देखा गया है कि जिन स्थानों पर लोग एकत्रित होते हैं जैसे स्कूल, मन्दिर, मस्जिद, अस्पताल आदि में ईमारत ढहने की स्थति में सर्वाधिक मौतें होती हैं. विश्व भर में प्रयास किया जा रहा है कि इसे स्थानों को निरापद बनाया जाये. क्या ऐसा उत्तराखंड में भी हो रहा है? शायद नहीं.
उत्तराखंड में सौभाग्यवश विद्यालयों की कमी नहीं है. एक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदेश के १३ जनपदों के मात्र ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित प्राईमरी, अपर प्राईमरी, सेकेंडरी एवं हायर सेकेंडरी स्तर के २०,००० से अधिक स्कूल हैं. यदि इन स्कूलों में शहरी क्षेत्र वाले स्कूल भी जोड़ दिए जाएँ तो यह संख्या २३, ००० के ऊपर चली जाती है. ज़ोन ५ के बागेश्वर एवं चमोली के ग्रामीण एवं श्श्री क्षेत्रों में ही २३५० स्कूल हैं.
इनके अतिरिक्त पोलीटेकनिक एवं अन्य वर्ग के कालेजों की संख्या भी कम नहीं है. दूसरे शब्दों में प्रतिदिन हजारों की संख्या में इन सभी शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राएं एकत्रित होते हैं.
इधर हाल के कुछ वर्षों में भूकंप विज्ञान में काफी उन्नति हुई है. हिमालयी भूकंप हिमालय के गर्भ में पनप रहे तनाव के कारण होते हैं. जब तनाव सीमा से बाहर हो जाता है तब अचानक हुए कंपन से भूकंप आते हैं. अमरीकी भूकंप विज्ञानी रोगर बिल्हम के अनुसार इस समय भारत का केन्द्रीय कुमाऊँ सर्वाधिक तनाव वाला क्षेत्र है, त्तथा वहाँ बड़े भूकंप के आने की आशंका है. दुर्भाग्यवश यह कुमाऊँ का सर्वाधिक आबादी वाला क्षेत्र है.
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (भा भू स) के भूकंप विज्ञानी समय-समय पर इन क्षेत्रों का सर्वेक्षण करते रहते हैं. राष्ट्रीय आपद प्रबन्धन कार्यक्रम के निर्देशों के बावजूद भूकंप के ज़ोन ५ में अभी भी या तो पुराने 'मड प्लास्टर' से बने स्कूल भवन हैं या घटिया दर्जे के कंक्रीट से बनाये गए भवन हैं. भा भू स के उपमहानिदेशक एवं प्रसिद्ध भूकम्पविग्यानी डा प्रभास पांडे के अनुसार यह जीर्णशीण भवन ९ या उससे अधिक तीव्रता के भूकंप के झटके नहीं झेल सकते. यही हाल सारे हिमालयी क्षेत्र का है. जरा सोचिये कितने लाखों बच्चों का जीवन हमने उनके भरोसे छोड़ दिया है.
फ़्रांस में स्थित ३० देशों के संघ ओ पी ई डी ने सदस्य देशों के स्कूल भवनों में कुचल कर मारे जाने से बचाने के लिए पुराने भवनों को मजबूत (रेट्रोफिटिंग) कर भूकंप रोधी बनाया तथा आवश्यकतानुसार नये भूकंप रोधी भवन निर्मित किये. जो पुराने भवन रेट्रोफिटिंग के हथौड़े नहीं बर्दाश्त कर सकते थे उनके स्थान पर लकड़ी या अन्य सामान का प्रयोग कर हल्के एवं सुरक्षित भवन बना लिए. अमरीकी पत्रकार एंड्रयू रेवकिन के अनुसार पुराने भवन की रेट्रोफिटिंग में ५% अतिरिक्त लागत आती है. इस मुहिम का नतीजा यह हुआ कि कैलिफोर्निया (अमेरिका) एवं जापान में बहुत अधिक भूकंप आने के बावजूद स्कूलों के ढहने का खतरा नहीं रहता-बच्चे सुरक्षित रहते हैं.
कब होंगे हमारे उत्तराखंड के बच्चे सुरक्षित?
जै हिंद.